रविवार, 1 जनवरी 2023

अयोध्या-दर्शन

 (1990 के दशक के मध्य में लिखी गयी मेरी इन कहानियों को अल्मोड़ा के आर्मी स्कूल में पढ़ रही मेरी 10-12 साल की बेटी गीतिका अपनी ज़ुबान में और अपने शरारत भरे अंदाज़ में सुनाती है.

अयोध्या-दर्शन -
बचपन में हमारी विन्टर वैकेशन्स अम्मा-बाबा के साथ लखनऊ में बीता करती थीं.
अल्मोड़ा के शान्त वातावरण के बाद वहां की चहल-पहल हम सबको कुछ ज़्यादा ही भाती थी.
हम दोनों बहनें लखनऊ का भूगोल जानने के लिए हाथी पार्क, बुद्धा पार्क, इमामबाड़ा, म्यूजि़यम, चिडि़याघर वगैरा की सैर करना ज़रूरी समझती थीं. गोमती में बोटिंग और मशहूर ठिकानों की चाट, आइसक्रीम का सफ़ाया करने के बाद रही-सही कसर मॉर्निंग शोज़ की चिल्ड्रेन्स फ़िल्म्ज़ की लम्बी लिस्ट पूरी कर दिया करती थी.
जब हम दोनों बहनें कुछ बड़ी हो गईं तो लखनऊ में रखे पापा के पुराने स्कूटर ने पूरे परिवार को एक साथ घुमाने से तौबा कर ली.
घर में कार न होने की वजह से पूरे परिवार के साथ सैर-सपाटे वाले कार्यक्रम टैम्पो या रिक्शे से करने में किसी को मज़ा नहीं आता था. बेचारे पापा को ऐसी यात्राओं के दौरान मम्मी की कोप दृष्टि या हमारी तनी हुई भ्रकुटियां लगातार झेलनी पड़ती थीं.
हम बहुत दिनों से पापा से फ़रमाइश कर रहे थे कि वो हम सबको दूर कहीं पिकनिक पर ले जाएं.
पापा को हमको घुमाने ले जाने में तो कोई ऐतराज़ नहीं था पर उनका कहना था कि ऐसे कार्यक्रम के लिए जितनी लक्ष्मीजी की दरकार थी वो मम्मी की शॉपिंग और हमारे लोकल सैर-सपाटों और चाट पार्टियों के बाद उनके पास नहीं बची थीं. अब तो कोई चमत्कार ही हम लोगों की मुराद पूरी कर सकता था.
पर भगवानजी से बड़ा चमत्कारी न कोई हुआ है और न होगा.
एक शाम हम लोग अनमने और उदास से अम्मा-बाबा के साथ टीवी देख रहे थे कि दरवाज़े पर कॉल बेल बजी. मैंने उठ कर दरवाज़ा खोला तो देखा कि बड़े ताऊजी के बेटे तनु भैया हैं. उनके पीछे बड़े ताऊजी, ताईजी और अनन्या दीदी भी थे.
फिर क्या था? पूरा घर शोर-शराबे और वानर सेना की धमाचौकड़ी से हिल गया. भैया के और दीदी के कैमरे, बाइनोक्युलर और स्टोरी बुक्स में हमारी परम श्रद्धा थी पर ताऊजी की सेवेन-सीटर कार को तो हम भगवान का भेजा वरदान ही समझती थीं.
पापा को यह डर था कि था कि हम ताऊजी से कोई बड़ी फ़रमाइश करने वाली हैं. वो हमको आँखों-आँखों में इशारा करके हमको ऐसा करने से मना करने ही वाले थे कि ताऊजी थे ने एक अनाउन्समेन्ट कर डाला. उन्होंने बताया कि वो अगले दिन की सुबह हमको अयोध्या की सैर कराने ले जा रहे हैं.
अम्मा-बाबा ने तो इस पिकनिक से अपने को दूर रखा पर बाकी सब के लिए यह सूचना सुपर एक्साइटिंग थी.
नारी समाज तुरन्त खाना बनाने की तैयारी में लग गया और हम बच्चे थे कि भावी कार्यक्रमों की योजना बनाने में तुरन्त बिज़ी हो गए. अयोध्याजी के दर्शन, सरयू में बोटिंग, डाकबंगले में आराम और ,खेल-कूद, नॉन-स्टॉप पकवान-पार्टी और बिना ब्रेक वाली अनलिमिटेड धमाचौकड़ी, यह सब हम लोगों के लिए कितना मज़ेदार होने वाला था ! लेकिन इस पिकनिक में खराबी यही थी कि उसी रात हमको लखनऊ लौटना था क्योंकि अगले ही दिन ताऊजी को दिल्ली में एक ज़रूरी मीटिंग के लिए निकलना था.
पिकनिक जैसी मज़ेदार चीज़ को भी मम्मी और ताईजी जैसे लोग हाय-तौबा वाले कामों में बदल देती हैं.
रास्ते में खाने-पीने का सब सामान गर्मागर्म और अच्छा-ख़ासा मिलता है पर उन्हें तो सबकी सेहत का ख़याल ध्यान में रखते हुए घर के बने आइटम्स ही पसंद होते हैं.
शाम सात बजे से रात बारह बजे तक पकवान बनाए जाते रहे.
पूरी-कचौड़ी, केक, हल्वा, मठरी, पिज़्ज़ा, सब्ज़ी, चटनी, और पता नहीं क्या-क्या बनाया जाता रहा.
पापा और हम बच्चे खाने के आइटम्स चख-चख कर अपनी राय देने के लिए बेसब्र थे पर ताईजी और मम्मी ने पिकनिक से पहले अपने जादू भरे पिटारे को खोलने की कोई ज़रूरत नहीं समझी.
सवेरे बड़ों को चाय पी कर और हमें दूध पी कर हमें अयोध्या जी के लिए रवाना होना था. कार की डिक्की में खाने-पीने का सामान भरा जा रहा था पर अनन्या दीदी को अपने जम्बो-साइज़ म्यूज़िक सिस्टम और तनु भैया को अपना क्रिकेट किट को ले जाने की ज़्यादा फ़िक्र थी, उन दोनों ने कार की डिकी के सामान को रि-एडजस्ट कर के अपना सारा सामान उसमें भर दिया.
हम लड़कियों को तो जाने की जल्दी में दूध पीना भी नसीब नहीं हुआ पर फि़क्र क्या थी, चलता-फिरता भोजनालय तो हमारे साथ ही था.
रास्ते में चिनहट पड़ा, वहां के अमरूद बड़े मशहूर हैं पर बड़े ताऊजी ने बताया कि बाराबंकी से बीस किलोमीटर आगे उनके एक दोस्त के अमरूद के बाग में ही हमारा ब्रेकफ़ास्ट होना तय हुआ है.
बेचारे हम लोग, अमरूद को भी तरस गए.
बाराबंकी गुज़रा, वहां के समौसे बड़े फ़ेमस हैं. पापा गाड़ी रुकवा कर गर्मागर्म समौसे लेना चाहते थे पर उन्हें भी रोक दिया गया.
वैसे भी अब ताऊजी के दोस्त के बाग तक पहुंचने में देर ही क्या थी? कार में हम बच्चों की फ़िल्मी अन्त्याक्षरी चल रही थी जिसमें पुराने गानों का योगदान बड़े लोग भी कर रहे थे.
ताऊजी ने अपने दोस्त के बाग को जाने के लिए अपनी कार लिंक रोड पर मोड़ दी.
यह नहर के किनारे वाली अधबनी ऊबड़-खाबड़ रोड थी पर इस पर हमको सिर्फ़ दस किलोमीटर का फ़ासला तय करना था.
यकायक कार हिचकोले खा कर और - ‘ फिस्स, सूं, फट्ट ’ की आवाज़ कर के रुक गई.
ताऊजी ने बड़ी मुश्किल से कार को सड़क के किनारे खड़ा किया.
कार के पिछले टायर में पंचर हो गया था.
हाय ! अब टायर बदलने में पन्द्रह-बीस मिनट और लगने वाले थे.
कार की डिक्की खोल कर ताऊजी एकदम से चिल्ला पड़े –
‘ स्टैपनी कहां है? ’
हम बाकी लोग तो इस हादसे से अनजान थे पर तनु भैया ने नज़रें चुराते हुए जवाब दिया –
‘ पापा ! क्रिकेट किट को डिक्की में एडजस्ट करने के लिए मैंने स्टैपनी बाहर निकाल दी थी.’
इस सुनसान सड़क पर पंचर ठीक किए जाने की कोई गुंजाइश नहीं थी. मेनरोड से और ताऊजी के दोस्त के बाग दोनों से ही हम करीब पाँच-पाँच किलोमीटर की दूरी पर थे. अब क्या होगा? इस जगह पर कहीं आस-पास फ़ोन भी नहीं था वरना ताऊजी के दोस्त को फ़ोन कर के उनसे मदद मंगाई जा सकती थी. एक घण्टे तक हम किसी से लिफ़्ट लेकर आगे जाने की कोशिश करते रहे पर उस दिन न जाने क्यों उस सड़क पर सवारियां ही इक्का-दुक्का निकल रही थीं और वो भी हम पर मेहरबान नहीं हो रही थीं.
ताईजी ने सड़क किनारे बैठ कर पहले नाश्ता करने का प्रस्ताव रखा तो सबका मूड कुछ ठीक हुआ.
दरी बिछा कर सब के बैठने का इन्तजाम किया गया. पर हमारी दुर्दशा का वक्त अभी टला नहीं था.
अपने म्यूजि़क सिस्टम को डिक्की में एडजस्ट करने के लिए अनन्या दीदी ने खाने के सामान को डिकी से बाहर निकाल दिया था.
पापा किसी कवि की कविता की एक लाइन हमको सुनाते थे –
‘ मेरे सपने टूट गए, जैसे भुना हुआ पापड़ !’
हमारी पिकनिक के सपने भी ऐसे ही चूर-चूर हो गए थे. लगता था कि भगवान श्री राम हमसे रूठ गए थे वरना उनके दर्शन करने में इतनी बड़ी रुकावट क्यों आती?
हमने आसपास के दृश्यों का नज़ारा लिया.
हमारे बगल में एक तरफ़ नहर थी और दूर-दूर तक खेत ही खेत थे, जिनमें दो-चार झोपडि़यां हमारा मुहं चिढ़ा रही थीं. हमारे पास तो पीने का पानी भी नहीं था. सबको अब ज़ोरों की भूख लग रही थी.
अनन्या दीदी ने दुखी होकर अपने म्यूजि़क सिस्टम पर एक दर्द भरा गीत बजाना शुरू किया तो ताऊजी ने दाँत पीस कर उसे ऑफ़ कर दिया.
हम दुखियारों को सबसे पहले अपना सूखा गला तर करने के लिए पानी की दरकार थी.
हम खेतों को फांदते हुए दूर दिखाई देने वाली झोपडि़यों की तरफ़ चल पड़े.
झोपडि़यों के पास पहुंच कर हमने आवाज़ लगाई तो एक देहाती आदमी हमारे सामने आ कर खड़ा हो गया. उसके पास उसकी नौ-दस साल की एक लड़की भी आकर खड़ी हो गई. हमारी तब हँसी छूट गई जब अपनी दीदी की ही कोई पुरानी फ्रॉक पहने और अपनी आँखों पर लाल पन्नी वाला धूप का चश्मा लगाए हुए उनके पाँच-छह साल के एक भैया भी दर्शकों की जमात में शामिल हो गए.
उस आदमी से हमने मालूम किया तो पता चला कि वहां आसपास पंचर जोड़े जाने की कोई व्यवस्था नहीं थी.
हां, उस आदमी का छोटा भाई बैलगाड़ी ले कर बाराबंकी जा रहा था, वह हमारा पहिया ले जा कर उसका पंचर ठीक करा कर वापस ला सकता था. ताउजी ने पूछा –
‘ इसमें कुल कितना समय लग जाएगा?’
उस आदमी ने बड़े इत्मीनान से जवाब दिया –
‘ यही कोई चार-पाँच घण्टे ! ’
अब भूख से कुलबुलाते हुए पापा ने उससे पूछा –
‘ यहां आसपास कोई खाने-पीने की दुकान है? ’
उस आदमी ने जवाब दिया –
‘ खाने-पीने की दुकान के लिए तो आपको बाराबंकी रोड पर जाना होगा. ’
हाय ! अब पाँच-छह किलोमीटर पैदल चलकर नाश्ते की व्यवस्था हो पाएगी.
हे प्रभू ! कोई न कोई जुगाड़ कर दो. वरना भूखे-प्यासे बच्चे और उनके मम्मी-पापा कैसे जीवित रह पाएंगे? ’
प्रभू हम पर प्रसन्न हुए. उस देहाती आदमी के वचन हमको ऐसे लगे जैसे साक्षात भगवानजी ही बोल रहे हों –
‘ साहब, बुरा न मानें तो एक बात कहें ! कुछ नास्ता-पानी हमरी कुटिया पर चल कर कर लिया जाय. बच्चा लोग बहुत थका हुआ जान पड़ता है. ’
हमारी हां या ना सुने बिना ही उसने अपनी घरवाली को आवाज़ दी. दो मिनट में लम्बा घूंघट काढ़े, हाथ में एक बड़ा सा लोटा लेकर एक महिला आकर खड़ी हो गई. उसकी बिटिया भाग कर दो पीतल के गिलास ले आई. हमने पानी समझ कर घूंट भरा पर यह तो गन्ने का ताज़ा-ताज़ा रस था. वाह ! तबियत प्रसन्न और दिल बाग-बाग हो गया.
हमारे होस्ट का नाम रामखिलावन था और उनके बच्चों के नाम गोमती और पप्पू थे.
गोमती और पप्पू दौड़-दौड़ कर हमको गन्ने का रस पिलाते रहे और हम बेतल्लुफ़ होकर गिलास पर गिलास पीते रहे. उनके अपने घर में कोल्हू पर गन्ना पेरा जा रहा था और उसका भोग सबसे पहले हमको लगाने में उन्हें बड़ा आनन्द आ रहा था.
हमने तो पहली बार कोल्हू पर गन्ने से रस बनते हुए देखा था. गोल-गोल चक्कर लगाते बैल रस की धार बहाने का जादू कर रहे थे.
आधे घण्टे में हमारा नाश्ता भी आ गया. घर की भुनी मूंगफली, बड़ों के लिए गुड़-चने के साथ अदरक वाली चाय और हम बच्चों के लिए रामदाने के लड्डुओं के साथ मिट्टी की हांडी में पका मोटी मलाई वाला दूध. हम शहरी बच्चे देहाती नाश्ते के नाम से भी दूर भागते हैं पर उस दिन बच्चों और बड़ों, सभी ने जम कर उसका मज़ा लिया. पेट तो पेट, हमारी तो आत्मा तक पूरी तरह छक गई.
रामखिलावन जी ख़ास पढ़े-लिखे नहीं थे पर उनके पास कहानियों और कहावतों का भण्डार था.
पापा और ताऊजी तो उनके मुहं से रामचरित मानस की चौपाइयां सुन-सुन कर उन पर फ़िदा हो गए थे.
रामखिलावनजी अब तक ताऊजी और पापा के दोस्त बन चुके थे और हम बच्चों के चाचा.
उनके बच्चे शहरी जिज्जियां और भैया पाकर मगन थे.
रामखिलावन चाचा की घरवाली यानी हमारी नई बनी चाची ने ताईजी और मम्मी से बहनापा जोड़ लिया था.
रामखिलावन चाचा के छोटे भाई कार का टायर लेकर बाराबंकी के लिए रवाना हो चुके थे.
हम आसपास घूमने के लिए निकल पड़े.
खेतों में सरसों और मटर की बहार थी. पेड़ से तोड़ कर अमरूद खाने और खेत से खुद तोड़ कर हरी मटर का स्वाद किसी भी फ़ाइव-स्टार रैस्त्रां में नहीं मिल सकता.
हम बच्चों के लिए पर्शियन व्हील यानी रहट से खेत सींचने का अनुभव अपूर्व था. हमने बैलों की जगह खुद को जोत कर रामखिलावन चाचा के खेत का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा सींच डाला.
इस श्रमदान के बाद हमने एक खाली खेत को क्रिकेट ग्राउण्ड बना कर अपना टूर्नामेन्ट भी शुरू कर दिया.
गोमती और पप्पू बैटिंग और बालिंग में तो पीछे थे पर ऊबड़-खाबड़ खेत में फ़ील्डिंग करने में हमसे कहीं आगे थे.
वक़्त जैसे उड़ा जा रहा था. हमको बस सरयू नदी में बोटिंग न कर पाने का मलाल था पर हमारे रामखिलावन चाचा के पास इसका भी इलाज था. वो हमको अपने खेत से करीब एक किलोमीटर दूर पर एक छोटे से मगर सुन्दर से तालाब पर ले गए. इस तालाब में नावें नहीं थीं पर इसमें बड़ी-बड़ी टोकरियों को नाव के रूप में इस्तेमाल किया जाता था. छोटे-छोटे चप्पुओं का इस्तेमाल कर रामखिलावन चाचा के निर्देशन में खुद हमने तालाब के कई राउण्ड लगा डाले.
इस तालाब के किनारे पर भगवान राम का एक मन्दिर भी था.
हमने उसको ही अयोध्याजी मान कर राम-सीता और हनुमानजी के दर्शन कर लिए.
हम दोनों बहनों ने अब तक ऐसी शानदार पिकनिक का लुत्फ़ नहीं उठाया था.
हमारी इस पिकनिक में न तो बनावट थी, न कोई तकल्लुफ़, थी तो बस मौज ही मौज और मस्ती ही मस्ती.
अब हमारे लिए भोजन तैयार था. कांसे की थालियों में चूल्हे की धीमी आँच पर सिकी गेहूं-चने के मिले-जुले आटे की मोटी रोटियां, बथुए का रायता, भुने आलू, हरी मटर की सब्ज़ी और हरे धनिए, हरी मिर्च, हरी इमली की चटनी का स्वाद लाजवाब था पर उससे भी कहीं ज़्यादा मधुर था हमारे मेज़बानों का व्यवहार.
हम लोगों के यहां मेहमान के घुसते ही लोग-बाग अपनी नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं पर यहां ये आलम था कि कोल्हू और घर के सारे काम की चिन्ता भूल कर रामखिलावन चाचा का पूरा परिवार हमारी आवभगत में लगा हुआ था.
गोमती और पप्पू के लिए तनु भैया का कैमरा, बाइनोक्युलर और म्यूजि़क सिस्टम किसी अजूबे से कम नहीं थे.
पप्पू मास्टर को तो मेरी छोटी बहन रागिनी के गॉगल्स इतने भा गए थे कि उन्होंने अपना लाल पन्नी वाला चश्मा उतार कर दूर फेंक दिया था.
अब तक रामखिलावन चाचा के भाई पंचर बनवा कर टायर ला चुके थे.
हमारी कार अब आगे की यात्रा के लिए तैयार थी.
पप्पू और गोमती के आँखों में बाकायदा आँसू थे. बड़े और हम बच्चे अपने नए दोस्तों से बिछुड़ते हुए बहुत उदास थे. पर मजबूरी थी. हमको अयोध्या के लिए रवाना जो होना था.
हम बेमन से कार की तरफ़ जा रहे थे कि ताऊजी ने पप्पू के कान में कुछ कह दिया. पप्पू ताली बजाकर उछल-उछल कर कहने लगा-
‘ ताऊजी अब अजुध्या नहीं जाएंगे, संझा तक यहीं रहेंगे. ’
हम सबकी जैसे मुराद पूरी हो गई. रामखिलावन चाचा के परिवार के साथ हम ज़्यादा से ज़्यादा समय बिताना चाहते थे. दो घण्टे और धमा चौकड़ी हुई.
तुलसी, अदरक वाली चाय के साथ घर की भुनी मूंगफलियों का फिर एक दौर चला. बच्चों को लड्डू-पेड़े का प्रसाद मिला.
बडे़ लोगों के बीच रामचरित मानस की चौपाइयों वाली अन्त्याक्षरी हुई जिसमें रामखिलावन चाचा का पलड़ा भारी रहा.
नई चाची ने और गोमती ने हमको अवधी के कई लोकगीत भी सुनाए.
आखि़र विदाई की वेला आ ही गई. नई चाची ताईजी और मम्मी के गले लग कर रो रही थीं.
गोमती और पप्पू अपने भैया-जिज्जियों का दामन छोड़ने को तैयार ही नहीं थे.
हमारी कार की डिक्की में घर की भुनी हुई मूंगफली, उपलों पर भुने आलू, घर का बना गुड़, हरी मटर और अमरूदों का अम्बार लगा दिया गया.
हमने रामखिलावन चाचा को लखनऊ आने की दावत दी.
ताईजी ने अपना शाल हमारी नई चाची को ज़बर्दस्ती उढ़ा दिया और
मम्मी से उन्हें लिप्सटिक, मिरर, बिन्दी,और फ़ेस पाउडर का नज़राना मिला.
पप्पू भाई के हिस्से में रागिनी के गॉगल्स आए और तनु भैया का हैट आया.
बेचारी गोमती के हिस्से में सिर्फ़ हम जिज्जियों की हेयर क्लिप्स और बैंगल्स आए.
हम सब कार में बैठ चुके थे. राम-राम भी हो चुकी थी.
कार स्टार्ट हुई तो हैट और गॉगल्सधारी पप्पू भाई ने इशारा कर उसे रुकवा दिया. कार रोक कर ताउजी उसकी तरफ़ देखने लगे तो उन्होंने फ़रमाया –
‘ ताऊजी अगली बार अजुध्या जी जाएं तो पंचर फिर यहीं कराइएगा और भैया, जिज्जी को जरूर संगे लाइएगा. ’

8 टिप्‍पणियां:

  1. वाह बहुत सुंदर | शुभकामनाएँ नववर्ष की |

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    1. कहानी की तारीफ़ के लिए शुक्रिया दोस्त. नव-वर्ष तुम्हारे लिए नई-नई खुशियाँ ले कर आए, यही दुआ है.

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  2. रोचक संस्मरण । नव वर्ष की शुभकामनाएँ ।

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    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद संगीता जी.
      यह कहानी है, जो कि संस्मरण के स्टाइल में मैंने अपनी बेटी गीतिका की ज़ुबानी सुनवाई है.
      आपको सपरिवार नव-वर्ष की मंगलमय कामनाएं और बधाइयां !

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  3. वाह! कितनी सुंदर कहानी

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    1. मेरी बाल-कथा की प्रशंसा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद अनिता जी.

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  4. सच कहा था आपने ! कि मुझे कहानी पसंद आएगी !
    कहानी पढ़कर मन बाग-बाग हो गया, हर प्रसंग ऐसा लगा जैसे अपनी आँखों से देख रही हूँ,
    जब कभी गाँव जाना होता है, तो मैं ऐसे घरों में ज़रूर जाती हूँ, इनके विनम्र और आत्मीय व्यवहार से इतनी ऊर्जा मिलती है, जो मुझे कहीं और नहीं मिलती !
    पिता जी एक कहावत कहते हैं कि सबसे भले वो मूढ़ जिन्हें न आवे जगत गति ! ये लोग पढ़े तो नहीं होते पर गढ़े और कढ़े हुए होते हैं, चलते वक्त नज़राने में चाहे साग, लौकी ही क्यों न दें देते ज़रूर हैं ।
    आपने अवध क्षेत्र के परिदृश्य और सामाजिक जीवन का सुंदर खाका खींचा है, साझा करने के लिए आभार !
    सादर अभिवादन👏🏻
    आपको सपरिवार नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई 💐💐

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    1. मेरी कहानी की ऐसी तारीफ़ के लिए शुक्रिया जिज्ञासा. किसी का दिल बड़ा होने के लिए उसके पर्स का भारी होना या फिर उसकी डिग्री का बड़ा होना ज़रूरी नहीं है. एक बार हम कुमाऊँ में सोमेश्वर के पास के एक गाँव में गए थे. वहां हमको प्लम के पेड़ में लगे प्लम बहुत अच्छे लगे. उस पेड़ के मालिक ने अपने पेड़ के सारे प्लम तोड़ कर हमको मुफ़्त में दे दिए. वह व्यक्ति काफ़ी गरीब था लेकिन उसका दिल मेरी कहानी के रामखिलावन के दिल के जैसा ही बड़ा था. तुम सबको नव-वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ !

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