बुधवार, 29 जून 2022

ऐसी आस्था से तो हम नास्तिक भले और ऐसी अक़ीदत से तो हम मुल्हिद भले

 इन दिनों धर्म-मज़हब और आस्था-अक़ीदत के नाम पर जिस पागलपन का वातावरण बन रहा है और उसके कारण जैसी-जैसी जाहिलाना- वहशियाना वारदातें हो रही हैं, उस से बहुत से समझदार लोगों के मन में धर्म-मज़हब के प्रति वितृष्णा का भाव विकसित होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है.

कल उदयपुर में हुई एक जघन्य हत्या इस दुखद स्थिति का स्पष्ट संकेत है कि हम अपनी आस्था-अक़ीदत को ठेस पहुँचाने वाले को सबक़ सिखाने के लिए दरिन्दगी की कैसी-कैसी हदें पार कर सकते हैं.
आज धर्म-मज़हब के नाम पर ढोंग और पाखण्ड होता है, इसके नाम पर नफ़रत फैला कर वोट बटोरे जाते हैं और इसकी दुहाई दे कर सरकारें बनाई या फिर गिराई जाती हैं.
हनुमान चालीसा की रचना करते समय भक्ति-भाव में आकंठ निमग्न गोस्वामी तुलसीदास जी ने क्या कभी कल्पना की होगी कि इक्कीसवीं सदी में उनकी हनुमान-भक्ति परंपरा के प्रसार-प्रचार का दायित्व गिरगिटी प्रकृति की एक माननीया संभालेंगी?
क्या उदयपुर के ये भाड़े के क़ातिल सच्चे अर्थों में इस्लाम की ख़िदमत कर रहे हैं?
पांच सौ साल से भी ज़्यादा वक़्त हो गया है जब कि कबीर ने कहा था –
‘अरे इन दोउन राह न पाई’
आज सच्ची राह दिखाने वाले तो हमें कहीं दिखाई नहीं देते लेकिन हमको नेकी की और भाईचारे की राह से भटकाने वाले गली-कूचे में ही क्या, तमाम जनप्रतिनिधि सभाओं में भी बड़ी तादाद में मिल जाते हैं.
सांप्रदायिक सद्भाव को अपने जीवन का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य मानने वाले महात्मा गांधी ने देशवासियों को सच्ची राह दिखाने की पुरज़ोर कोशिश की थी लेकिन उस कोशिश का अंजाम क्या हुआ, यह हम सबको पता है.
आज भी कई भक्तगण गांधी जी अनुपस्थिति में उनकी फ़ोटो पर गोली चला कर धर्म की सेवा कर रहे हैं.
इस्लाम की ख़िदमत के नाम पर न जाने कितने दहशतगर्द मासूमों का खून बहा रहे हैं.
सबसे ज़्यादा दुःख की बात यह है कि हर तरह की धर्मान्धता को राजनीतिक संरक्षण मिलता है.
हेट स्पीचेज़ अब इतनी आम हो गईं हैं कि जिस दिन ऐसा कोई भी आग-लगावा वक्तव्य जारी न हो उस दिन को कैलेंडर से ही हटा दिए जाने की व्यवस्था की जा सकती है.
प्रतिशोध-बदले की आग, घृणा-नफ़रत का ज़हर और साम्प्रदायिकता-फ़िरक़ापरस्ती के पागलपन को बढ़ावा देने वाले धर्म-मज़हब को तो त्यागना ही बेहतर है.
सांप्रदायिक वैमनस्य के कारण हुए भारत-विभाजन की भारी कीमत चुका कर भी हमको समझ नहीं आई है.
आज कांकर-पाथर जोड़ के मन्दिर-मस्जिद तो हम बना लेंगे पर अगर हम उनमें बैठ कर लोगों के आपस में सर ही फुटवाते रहे तो क्या हम धर्म की सेवा करेंगे और क्या हम दीन की ख़िदमत करेंगे?
धर्म-मज़हब के इस विकृत रूप को अपनाने से तो बेहतर होगा कि हम नास्तिक हो जाएं.

गुरुवार, 23 जून 2022

पुत्री के नाम पिता का पत्र

 एक पिता का पत्र अपनी दुबईवासिनी पुत्री के नाम –

(45 दिन पहले गीतांजली श्री का उपन्यास - ‘रेत समाधि’ भेंट करने वाली दुबईवासिनी सुश्री गीतिका जैसवाल को उनके पिता जनाब गोपेश मोहन जैसवाल का प्यार भरा पत्र)
गीतिका रानी,
अपने बूढ़े पिता की इतनी कठिन परीक्षा मत लिया कर.
अब 45 दिनों में जा कर उन्होंने 376 पृष्ठ का उपन्यास - ' रेत समाधि' पूरा पढ़ डाला है.
तेरे पिता श्री का ब्लड प्रेशर कभी बढ़ा, कभी कम हुआ, आँखों के सामने कभी अँधेरा छाया तो कभी चक्कर भी आए.
इस पुस्तक के कुछ अंश उनके पल्ले पड़े, ज़्यादातर पल्ले नहीं पड़े.
इस कहानी की नायिका अम्मा जी कन्फ्यूज़ियाई हुई हैं और यही हाल इस उपन्यास की लेखिका का भी है.
लेकिन इस उपन्यास को पढ़ कर सबसे बुरा हाल इसके पाठकगण का है जो कि यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि वो इसे पढ़ कर रोएँ या फिर हसें.
जिस पुस्तक ने पाठकों को इतना पकाया है उसकी रचयिता को लाखों लोगों को पकाने के लिए - 'कुकर प्राइज़' मिलना चाहिए था न कि - 'बुकर प्राइज़'.
लोगबाग बारातियों का स्वागत पान पराग से करते हैं लेकिन इस बार इस पुस्तक को अपने पिता श्री को भेंट करने के कारण तेरे भारत आगमन पर तेरा स्वागत नीम-करेले के जूस से और -'रेत समाधि' को वापस कर के किया जाएगा.

शनिवार, 18 जून 2022

पांच मेल की मिठाई

 1948 की, यानी कि मेरे जन्म से पहले की बात है.

हमारी जैन-जैसवाल बिरादरी के लाला लक्ष्मी नारायण जैन, ताजगंज, आगरा के एक सफल सर्राफ़ थे.
धन-दौलत और मकानों की लाला जी के पास कोई कमी नहीं थी लेकिन लक्ष्मी मैया को अपने घर से जाने का वो तनिक भी मौक़ा नहीं देते थे.
लक्ष्मी मैया के प्रति उनकी इस अथाह भक्ति को निर्मोही समाज उनकी कंजूसी मानता था.
लाला जी समाज की इस बेरहम राय को अपने ठेंगे पर रखते थे लेकिन जब अस्सी साल की उनकी अपनी जिया यानी कि उनकी अपनी माँ भी उन्हें - 'कंजूसड़ा' कहती थीं तो उन्हें बहुत दुःख होता था.
लाला जी की धन-सम्पदा का महल उनकी अपनी जिया की तिजोरियों की बुनियाद पर ही खड़ा हुआ था और उन्हें भविष्य में भी उनसे एक बड़ा ख़ज़ाना मिलने की उम्मीद थी इसलिए उनके दिए हुए इस अपमानजनक ख़िताब को वो सहज ही स्वीकार कर लेते थे.
एक शाम माँ और बेटे साथ-साथ बैठे थे.
माँ ने अपने बेटे के सर पर हाथ फेरते हुए उन से पूछा –
'लछमा ! मैं जब मरूंगी तो तू मेरी तेरहवीं में बिरादरी को बुला कर क्या-क्या खिलाएगा?'
सपूत ने जवाब दिया –
तुम चिंता न करो जिया. तुम्हारी तेरहवीं में मैं पूरी बिरादरी को और जान-पहचान वालों को बुलाऊंगा और उनको भर-पेट देसी घी के लड्डू-कचौड़ी खिलाऊँगा?'
जिया ने चिंता करते हुए कहा –
'कंजूसड़े ! मेरी तेरहवीं में तुझे लोगों को सिर्फ़ लड्डू-कचौड़ी खिलाते हुए लाज नहीं आएगी?
मिठाई के नाम पर तू क्या उन्हें सिर्फ़ लड्डू खिलाएगा?'
सपूत ने अपनी जिया को आश्वस्त किया -
' तेरहवी के भोज में लड्डू के साथ-साथ बालूशाही भी रखवा दूंगा !'
सपूत की जिया ने दहाड़ कर कहा -
‘बेटा ! तू मेरी तेरहवीं में अगर पांच मेल की (पांच तरह की) मिठाई नहीं परोसेगा तो मैं कभी मरने का नाम ही नहीं लूंगी.
तू भगवान जी की कसम खा कि मेरी तेरहवीं में तू पांच मेल की मिठाई परोसवाएगा.'
लाला जी ने तुरंत ऐसा करने की कसम तो खा ली पर कसम खाते ही उनकी पेशानी पर पसीना झलकने लगा.
लाला जी की इस बात पर उनकी जिया को रत्ती भर भी भरोसा नहीं हुआ. उन्होंने उन्हें पुचकारते हुए कहा –
बेटा ! ‘तू चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए’ वाली बिरादरी का मुखिया है.
इस बुढ़िया के टें बोलते ही तू उसकी तेरहवीं में बिरादरी को पांच मेल की मिठाई खिलाने का अपना वादा भूल जाएगा.’
अब बेटे ने खीझ कर पूछा –
‘फिर जिया तुम ही बताओ कि मैं तुम्हें कैसे भरोसा दिलाऊँ?
क्या यमुना जी में खड़े हो कर कसम खाऊँ या फिर सोरों जा कर गंगा जी में डूब कर कसम खाऊँ?’
लाला जी की जिया के पास उनके हर सवाल का सोल्यूशन मौजूद था. उन्होंने बेटे से कहा –
‘तुझे क़सम खाने की कोई ज़रुरत नहीं है. तू मेरे जीते जी मेरी तेरहवीं कर दे और उसके भोज में तू सारी बिरादरी को बुला कर पांच मेल की मिठाई खिलवा दे.’
भरी तिजोरी की स्वामिनी अपनी जिया की यह फ़रमाइश कंजूसड़े लाला जी को पूरी करनी ही पड़ी और हमारी जैन-जैसवाल बिरादरी के इतिहास में पहली बार किसी बुजुर्गवार के जीते जी उनकी तेरहवीं हुई.
बिरादरी के सैकड़ों लोग इस अजीब सी अग्रिम तेरहवीं में शामिल हुए और एक ऊंची कुर्सी पर बैठ कर ख़ुद को पंखा झलती बूढ़ी अम्मा ने अपनी अग्रिम तेरहवीं के भोज का सुपरविज़न किया.
एडवांस तेरहवीं का भोज खा कर जो भी बूढ़ी अम्मा से विदा लेने जाता था उस से वो पूछती थीं –
‘भोज में मिठाई पांच मेल की तो थीं?
पूरी-कचौड़ी देसी घी की थीं या फिर घासलेट की थीं?
सब्जी-रायता सब चौकस थे या नहीं?’
जब हर आगंतुक इस अजीबोगरीब अग्रिम तेरहवीं में परोसे गए हर पकवान की तारीफों के पुल बाँध देता था तो बूढ़ी दादी प्रसन्न हो जाती थीं और फिर वो सच्चे दिल से अपने कंजूस बेटे को आशीर्वाद देती थीं.
आप पूछेंगे कि अपने जन्म से भी पहले की इस अनोखी एडवांस में की गयी तेरहवीं के भोज की इतनी प्रामाणिक जानकारी मुझे कैसे प्राप्त हुई तो इसका जवाब यह है कि लाला लक्ष्मी नारायण मेरी मझली चाची के पिता जी थे और इसी उत्सव के दौरान हमारे मझले चाचा जी का और चाची का रिश्ता पक्का हुआ था.
और हाँ, इस कहानी के संवाद मुझे इस ऐतिहासिक भोज में शामिल हुई अपनी किस्सागो माँ के सौजन्य से प्राप्त हुए थे.

रविवार, 12 जून 2022

गली-मोहल्ले कॉलेज और कस्बा-कस्बा विश्वविद्यालय

मार्च, 1980 में राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय बागेश्वर में इतिहास विषय में प्रवक्ता के पद पर मेरी नियुक्ति हुई थी.

एक सड़े-गले और घुचकुल्ली से 7 कमरों के पुराने डाक बंगले में बने इस महाविद्यालय से बड़े तो मैंने सैकड़ों प्राइमरी स्कूल्स देखे थे.

मेरी निराशा की कोई सीमा नहीं थी लेकिन मेरे साथियों ने मुझे महाविद्यालय के लिए बनने वाली नई भव्य किन्तु अधूरी इमारत दिखाई जिसमें कि अच्छे क्लास-रूम्स, स्टाफ़-रूम्स, अच्छी लाइब्रेरी, विशाल कार्यालय, स्टेडियम, आदि सब कुछ बनने वाले थे.

इस अधूरी इमारत को देख कर मेरा अपने मित्रों से केवल एक सवाल था  

इस इमारत के बनने से पहले बागेश्वर में पुराने शांति-निकेतन की तर्ज़ पर कुटिया वाले महाविद्यालय को खोलने की ज़रुरत ही क्या थी?’

हमारे देश में आमतौर पर राजनीतिक दबाव के कारण बिना समुचित संसाधन जुटाए, नए-नए विद्यालय और नए-नए विश्वविद्यालय खोल दिए जाते हैं.

कुमाऊँ में स्थित स्याल्दे डिग्री कॉलेज का एक किस्सा है.

1970 के दशक में कुमाऊँ के एक दूरस्थ क्षेत्र स्याल्दे में एक डिग्री कॉलेज खोला गया. इस कॉलेज के प्रथम सत्र में कुल विद्यार्थी तीन-चार थे और अध्यापक भी उतने ही थे. प्रिंसिपल क्लर्क और चपरासी तो इनके अलावा थे ही.

स्याल्दे के कॉलेज को लेकर एक मज़ाक़ चलता था

अगर इस कॉलेज के सभी विद्यार्थियों को अमरीका में ही क्या, अगर चाँद पर भेज कर भी पढ़ाया जाता तो इस कॉलेज में प्रति विद्यार्थी पर होने वाला ख़र्चा अपेक्षाकृत कम पड़ता.

इस कॉलेज की स्थापना के लगभग दस-बारह साल बाद मेरे पास मूल्यांकन हेतु इस कॉलेज के बी० ए० प्रथम वर्ष के 9 विद्यार्थियों की उत्तर-पुस्तिकाएँ आई थीं.

मूल्यांकन में बहुत उदारता बरतने के बावजूद 50 अंकों के प्रश्न पत्र में अधिकतम अंक प्राप्त करने वाले परीक्षार्थी ने 9 ही अंक प्राप्त किए थे.

ऐसे अल्लम-गल्लम विद्यालयों में पढ़ाई पूरी तरह राम-भरोसे होती है.

जो स्थानीय नेता अपने क्षेत्र में अपने दम पर विद्यालय स्थापित करने के लिए अपनी मूछों पर ताव देते हैं, उन्हें इस बात की कोई चिंता नहीं होती कि उन विद्यालयों से निकले विद्यार्थियों की लियाक़त घास खोदने के या फिर गाय-भैंस चराने के लायक भी हुई या नहीं !

ऐसे विद्यालयों में नियुक्त अध्यापकों की स्थिति से बदतर हालत तो पुराने ज़माने के काला-पानी के कैदियों की भी नहीं होती होगी.

न ढंग के क्लास-रूम्स, न कोई अच्छी लाइब्रेरी, न अच्छे विद्यार्थी, सारे सहयोगी ऐसे जो कि उखड़े मन से सिर्फ़ वेतन लेने के लिए अपने फ़र्ज़ की अदायगी करते हों, न कोई आवासीय सुविधा, न अच्छा बाज़ार, न बच्चों के लिए अच्छा स्कूल, न कोई ढंग का सिनेमा, न कोई अस्पताल और यहाँ तक कि सभ्य समाज तक पहुँचने के लिए न कोई यातायात की समुचित व्यवस्था !

ऐसे दूरस्थ और एकाकी विद्यालयों में कब विद्यार्थी गायब हैं और कब गुरु जी नदारद हैं, इसका कोई पता ही नहीं लगा सकता.

नक़ल की खुली छूट दिए जाने बावजूद ऐसे विद्यालयों के अधिकांश विद्यार्थी परीक्षा में गोताखोरी के नए कीर्तिमान स्थापित करते रहते हैं. इन विद्यालयों में व्याप्त अराजकता और भ्रष्टाचार देख कर -

अंधेर नगरी चौपट्ट राजा

की उक्ति के हम साक्षात् दर्शन कर सकते हैं.

मुझे बाक़ी अधकचरे विश्वविद्यालयों की जानकारी तो नहीं है लेकिन 31 साल मैंने कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर में पढ़ाया है.

संसाधनों से हीन, निम्न स्तरीय शैक्षिक वातावरण वाले और लाल-फ़ीताशाही से ग्रस्त इस विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को और अध्यापकों को, आगे बढ़ने के कितने अवसर मिल सकते थे, इसका आकलन कर पाना मेरे जैसे व्यक्ति के लिए असंभव था.

इस परिसर में बरसों तक अध्यापकों के लिए टॉयलेट्स भी नहीं थे.

मैं आठ साल तक अल्मोड़ा परिसर के ठीक नीचे, खत्यारी में, एक दरबेनुमा मकान में रहा था.

मेरे अनेक सहयोगियों द्वारा, ख़ास कर मेरी महिला-सहकर्मियों द्वारा, इमरजेंसी में मेरे घर का टॉयलेट ही इस्तेमाल किया जाता था.

एक बार अपने एक कुलपति महोदय से मैंने इस समस्या का उल्लेख किया तो कुलपति महोदय के सामने ही उनके एक चमचा-ए-ख़ास ने मेरी हंसी उड़ाते हुए मुझ से पूछा

जैसवाल साहब, आप और आपके दोस्त परिसर में पढ़ाने आते हैं या फिर टॉयलेट जाने के लिए?’

हैरत की बात यह थी कि कुलपति महोदय ने अपने चमचा-ए-ख़ास के इस बेहूदे सवाल पर बेशर्माई से एक ज़ोरदार ठहाका लगाया था.

26 साल तक मुझे विश्वविद्यालय की ओर से आवासीय सुविधा नहीं मिली थी. किराए के मकानों में 26 साल बिताने के बाद मेरे रिटायरमेंट से पांच साल पहले मुझे विश्वविद्यालय की ओर से जब पाताल लोक जैसे लोअर मॉल के भी नीचे मकान आवंटित हुआ तब मैंने ख़ुद उसे लेने से इंकार कर दिया.

अपने इतिहास विभाग में हम अध्यापक बरसों तक एक ही स्टाफ़ रूम से काम चलाते रहे. इस स्टाफ़ रूम में क्लास भी होते थे और यही विभागीय अध्यक्ष का कमरा था और इसी में विभागीय संग्रहालय भी था.

बाद में हम सब के दिन फिरे. प्रोफ़ेसर बनने पर मुझे अलग से एक कमरा मिला. एक मेज़, छह कुसियों और एक अलमारी से सजे, इस टेढ़े-मेढ़े कमरे का कुल क्षेत्र-फल 50 वर्ग फ़ीट था जिसकी कि लकड़ी-टीन की जर्जर छत तेज़ बरसात में रबीन्द्रनाथ टैगोर के

वृष्टि करे टापुर-टापुर

गीत का दिलकश नज़ारा पेश करती थी.

तीन विभागों के बीच हमको एक चपरासी दिया गया था जो कि गाहे-बगाहे हमारे लिए कैंटीन से चाय ला दिया करता था और हम तक विभागीय डाक पहुंचा दिया करता था.

विभागीय पुस्तकालय के नाम पर हमारे यहाँ तीन सौचार सौ किताबें थीं जिनमें आधे से ज़्यादा आउट ऑफ़ डेट हो चुकी थीं,

बरसों तक हमारे विभाग में कोई सेमिनार या कांफ्रेंस नहीं हुई और फिर एकाद हुईं भी तो उनमें छोले-भठूरे के साथ बासी, सतही और सड़ी-गली शोध-सामग्री ही परोसी गयी थीं.

मैं बिना पर्याप्त संसाधन के नए कॉलेज और नए विश्वविद्यालय स्थापित करने के सख्त ख़िलाफ़ हूँ.

मेरे मित्र प्रोफ़ेसर अनिल जोशी ने आज ही फ़ेसबुक पर अपनी वाल पर अपने सोलह साल पुराने एक साहसिक अभियान का कुछ यूँ ज़िक्र किया है-

'लगभग सोलह वर्ष पूर्व अकेले दम पर गरुड़ (जिला बागेश्वर) में गोशाला समान दो कक्षों के भवन में एक राजकीय महाविद्यालय की स्थापना की थी.'

अब आप सोचिए कि किराए के दो कमरे वाले इस गरुड़ महाविद्यालय में शैक्षिक विकास के लिए कितना दिव्य और कितना अनुकूल वातावरण रहता होगा.

हमारा अल्मोड़ा परिसर अब शोभन सिंह जीना विश्वविद्यालय बना दिया गया है.

विश्विद्यालय परिसर से विश्वविद्यालय का दर्जा दिए जाते समय इसके संसाधनों में कोई इजाफ़ा नहीं हुआ है.

इस विश्वविद्यालय का न तो अपना रजिस्ट्रार ऑफ़िस है और न ही अपना कुलपति-निवास है.

परिसर के गेस्ट हाउस को अब कुलपति का निवास बना दिया गया है. अब विश्वविद्यालय का अपना कोई गेस्ट हाउस भी नहीं है.

इतिहास विभाग की नई इमारत को भी किसी कार्यालय में बदल दिया गया है. विश्वविद्यालय के विभिन्न कार्यालयों के नाम पर कई अन्य विभागों पर भी ऐसी ही गाज़ गिरी है.

इस नए विश्वविद्यालय का अपना कोई स्टेडियम भी नहीं है.

नए विश्वविद्यालय में कामचलाऊ रजिस्ट्रार है, कामचलाऊ फाइनेंस ऑफ़िसर है और इसके अलावा भी इसका न जाने क्या,क्या कामचलाऊ है.

हमारे मित्र जो कि इन दिनों अवकाश प्राप्त करने वाले हैं, उनकी तो इस नए विश्वविद्यालय बनने से दुर्दशा ही हो गयी है.

उन बेचारों को नो-ड्यूज सर्टिफिकेट्स के लिए कुमाऊँ विश्वविद्यालय और अल्मोड़ा विश्वविद्यालय, दोनों के ही कई-कई विभागों के कई-कई चक्कर लगाने पड़ रहे हैं.

आज बिना पर्याप्त संसाधन के, बिना आवश्यक सुविधाओं के, बिना शैक्षिक स्तर की चिंता किए हुए, नए-नए कॉलेज, नए-नए विश्वविद्यालय, देश के

कोने-कोने में खोले जा रहे हैं. उनके उद्घाटन में लाखों-करोड़ों रूपये भी बहाए जा रहे हैं.

आकाओं द्वारा शेखी बघारी जाती है कि उनके सुशासन में कितने नए कॉलेज और कितने नए विश्वविद्यालय वजूद में आए.

संसाधनहीन ये विश्वविद्यालय मुझे उत्तर मुगल काल के उन पांच हज़ारी, सात हजारी मनसबदारों की याद दिलाते हैं जिनके पास क्रमशः पांच और सात घोड़े भी नहीं हुआ करते थे.

मेरी दृष्टि में कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की कुकुरमुत्ता-बाढ़, माँ सरस्वती का अपमान करना है और पढ़े-लिखे बेरोजगारों के कुंठित समुदाय में और भी अधिक वृद्धि करना है.

हम को शीघ्रातिशीघ्र इस आत्मघाती प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना होगा. 

सोमवार, 6 जून 2022

एक पुराना किस्सा

 घूंघट के पट खोल –

पुराने ज़माने की बात है, वैशाख की दोपहरी में ब्रज क्षेत्र के एक गाँव के ज़मींदार की हवेली से एक मोहतरमा की विदाई हो रही थी. बड़ा मार्मिक दृश्य था. मोहतरमा छोटे-बड़े सभी से गले मिल-मिल कर रो रही थीं.
रोने और गले लगने का यह सिलसिला यूँ ही अनंत काल तक चलता रहता पर सावन में भैया को भेज कर उनको फिर से बुलाने के वादे पर इस ड्रामे का सुखद अंत हुआ.
पीली गोटेदार साड़ी और गहनों से सजी, लम्बा घूंघट काढ़े हुए वो मोहतरमा, गाडीवान के साथ बैलगाड़ी में सवार हुईं.
वाह ! क्या शानदार बैलगाड़ी थी और कितने सजीले बैल थे.
एक बांका घुड़सवार थोड़ी दूर से यह दृश्य देख रहा था. वो उस पीली गोटेदार साड़ी में लिपटी, घूंघट वाली मोहतरमा की बस एक झलक पाना चाहता था पर मोहतरमा ने बैलगाड़ी में सवार होने तक अपना घूंघट खोला ही नहीं.
खैर कोई बात नहीं, ‘रास्ते में हवा खाने के लिए कभी न कभी तो वो अपना घूंघट खोलेंगी ही’ यह सोचकर उस बांके नौजवान ने अपनी मंज़िल भूल कर अपना घोड़ा उस बैलगाड़ी के पीछे लगा दिया.
बैलगाड़ी में उन मोहतरमा के अलावा कोई था तो बस एक बूढ़ा सा गाड़ीवान. बांका घुड़सवार अपनी क़िस्मत पर खुद ही रश्क कर रहा था.
ज़मींदार का इलाका पार हो चुका था अब चाहे मोहतरमा का पीछा करो, चाहे उन्हें छेड़ो, पिटाई का या पकड़े जाने का कोई ख़तरा नहीं था.
अकेला बूढ़ा गाड़ीवान ऐसे बांके नौजवान के खिलाफ़ कर भी क्या सकता था?
ऐसे में कान्हाजी बनकर किसी गोपिका को छेड़ना तो बनता ही था.
बांके नौजवान का सजीला घोड़ा काफ़ी बदतमीज़ था. उस कमबख्त को बैलों के स्लो मोशन में चलने की अदा पसंद ही नहीं आ रही थी.
बांका नौजवान उसे लाख थामने की कोशिश करता पर वो एंड़ लगा कर बैलगाड़ी से आगे निकल जाता था.
बेचारे नौजवान को घोड़े को मोड़ कर फिर से उसे बैलगाड़ी के पीछे लगाना पड़ता था.
अपना पीछा करने की ऐसी धृष्ट चेष्टा देख कर कोई और होती तो आग बबूला हो जाती पर हमारी यह मोहतरमा तो लगता था कि बड़ी रोमांटिक थीं. वो अपने एक हाथ की दो उँगलियों से अपना घूंघट उठाकर उस बांके नौजवान की हर हरक़त देख रही थीं पर उस बेचारे को उस घूंघट वाली की छवि के दर्शन हो ही नहीं पा रहे थे.

अपनी तरफ़ उन मोहतरमा का ध्यान देखकर बांके घुड़सवार की हिम्मत और बढ़ गयी. अब वो बड़े रोमांटिक अंदाज़ में कबीरदास का एक गीत गा रहा था –
‘घूंघट के पट खोल री,
तोहे पिया मिलेंगे.’
घूंघट के पट तो नहीं खुले पर ‘ही, ही, खी, खी’ की दबी हुई हंसी उस घूंघट के अन्दर से ज़रूर आने लगी.
गाड़ीवान इस लीला से बिलकुल ही बेख़बर होकर अपनी गाड़ी चलाए चला जा रहा था. इस तरह से लाइन क्लियर देखकर अब तो बांका नौजवान और भी बोल्ड हो गया. उस के गाने का स्वर और तेज़ हो गया और अब वो बैलगाड़ी के बहुत करीब तक जाने लगा. बस अब देर नहीं थी कि वो खुद ही उन मोहतरमा के घूंघट का पट खोल देता. पर उस से पहले ही रास्ते में एक कुआँ आ गया.
गाड़ीवान ने बैलगाड़ी रोक दी और वह खुद कुएं से पानी निकालने चला गया. अपना घोड़ा रोक कर बांका घुड़सवार अपनी नयी स्ट्रेटजी के बारे में सोच ही रहा था कि गाड़ीवान एक हाथ में शरबत का गिलास और दूसरे हाथ में पेड़ों का दौना लेकर उसके सामने आकर कहने लगा –
‘ठाकुर साहब, बिटिया ने जे पेड़े और जे सरबत तुम्हाई खातिर भिजबाए एं. इनकूं खाय-पी कै नैक सुस्ताय लेओ, फिर हम सब आगे कूँ चलैं.'
(ठाकुर साहब, ये शरबत और ये पेड़े बिटिया ने आपके लिए भिजवाए हैं. इन्हें खा-पी कर थोड़ा सुस्ता लीजिए तो फिर हम आगे को चलते हैं.)
बांके नौजवान ने मन ही मन सोचा –
‘ठाकुर साहब ! वाह, इस नाज़नीन को और इस गाड़ीवान को कैसे पता चला कि मैं ठाकुर साहब हूँ?’
बांके नौजवान ने बड़े अदब से घूंघट वाली की ओर एक शुक्रिया वाला सलाम फेंका और उसकी भेजी हुई भेंट को क़ुबूल कर लिया. इतना ही नहीं उसने अपने घोड़े पर बंधे हुए एक थैले में से चांदी की एक डिबिया में से दो बीड़ा पान निकाल कर गाड़ीवान को दे कर उस से कहा –
‘शरबत और पेड़ों के लिए शुक्रिया कहना. ये पान हमारी तरफ़ से राजकुमारी जी को पेश करना.’
पर यह क्या?
बैलगाड़ी में अब तक घूंघट में छिपी बैठी गोटेदार पीली साड़ी वाली ने एक दम से अपना घूंघट खोल कर कहा –
‘पूत मोए दांत नायं एं. मैं पान नायं चबाय सकत ऊँ.’
(बेटा, मेरे दांत नहीं हैं. मैं पान चबा नहीं सकती.)
अपनी फटी आँखों से उस बांके नौजवान ने देखा कि एक दंत-हीन उम्र-दराज़ महिला बड़े प्यार से उसे संबोधित कर रही है.
बांका नौजवान तो सदमे की हालत में पहुँच गया था पर उस महिला का भाषण अब भी जारी था –
‘तू गाय रओ थो – घूंघट के पट खोल री, तोहे पिया मिलेंगे. मोये बापे हंसी आय रई थी. घर जाय के घूंघट खोल कै मोये पिया, मल्लब तेरे ताउजी तो मिलेंगे ई पर हमाई किस्मत देख ! घूंघट खोलो तो रत्ते में मोये पूत मिल गओ.’
(तू गा रहा था – घूंघट के पट खोल री तोहे पिया मिलेंगे. मुझे उसी पर हंसी आ रही थी. घर जा कर घूंघट खोलने पर तो मुझे पिया, मतलब कि तेरे ताउजी मिलेंगे ही पर मेरी किस्मत तो देख ! रस्ते में घूंघट उठाया तो मुझे बेटा मिल गया.)
बांके नौजवान के एक हाथ से शरबत का गिलास छूटा तो उसके दूसरे हाथ से पेड़ों वाला दौना. उसने चुपचाप अपना घोड़ा मोड़ा और बैलगाड़ी जाने की विपरीत दिशा में उसे सरपट दौड़ा दिया.
(ये हादसा आज से करीब 75 साल पहले मेरी बड़ी नानी अर्थात मेरी माँ की बड़ी मौसी के साथ हुआ था. माँ के नाना एटा जिले के बरमाना गाँव के ज़मींदार थे .अपने मायके से अपनी ससुराल जाते समय बड़ी नानी अपने बुढ़ापे में भी घूंघट काढ़ के जाती थीं इसकी वजह से उपजी ग़लतफ़हमी की कीमत उस बेचारे बांके नौजवान को चुकानी पड़ी थी.)