1948 की, यानी कि मेरे जन्म से पहले की बात है.
हमारी जैन-जैसवाल बिरादरी के लाला लक्ष्मी नारायण जैन, ताजगंज, आगरा के एक सफल सर्राफ़ थे.
धन-दौलत और मकानों की लाला जी के पास कोई कमी नहीं थी लेकिन लक्ष्मी मैया को अपने घर से जाने का वो तनिक भी मौक़ा नहीं देते थे.
लक्ष्मी मैया के प्रति उनकी इस अथाह भक्ति को निर्मोही समाज उनकी कंजूसी मानता था.
लाला जी समाज की इस बेरहम राय को अपने ठेंगे पर रखते थे लेकिन जब अस्सी साल की उनकी अपनी जिया यानी कि उनकी अपनी माँ भी उन्हें - 'कंजूसड़ा' कहती थीं तो उन्हें बहुत दुःख होता था.
लाला जी की धन-सम्पदा का महल उनकी अपनी जिया की तिजोरियों की बुनियाद पर ही खड़ा हुआ था और उन्हें भविष्य में भी उनसे एक बड़ा ख़ज़ाना मिलने की उम्मीद थी इसलिए उनके दिए हुए इस अपमानजनक ख़िताब को वो सहज ही स्वीकार कर लेते थे.
एक शाम माँ और बेटे साथ-साथ बैठे थे.
माँ ने अपने बेटे के सर पर हाथ फेरते हुए उन से पूछा –
'लछमा ! मैं जब मरूंगी तो तू मेरी तेरहवीं में बिरादरी को बुला कर क्या-क्या खिलाएगा?'
सपूत ने जवाब दिया –
तुम चिंता न करो जिया. तुम्हारी तेरहवीं में मैं पूरी बिरादरी को और जान-पहचान वालों को बुलाऊंगा और उनको भर-पेट देसी घी के लड्डू-कचौड़ी खिलाऊँगा?'
जिया ने चिंता करते हुए कहा –
'कंजूसड़े ! मेरी तेरहवीं में तुझे लोगों को सिर्फ़ लड्डू-कचौड़ी खिलाते हुए लाज नहीं आएगी?
मिठाई के नाम पर तू क्या उन्हें सिर्फ़ लड्डू खिलाएगा?'
सपूत ने अपनी जिया को आश्वस्त किया -
' तेरहवी के भोज में लड्डू के साथ-साथ बालूशाही भी रखवा दूंगा !'
सपूत की जिया ने दहाड़ कर कहा -
‘बेटा ! तू मेरी तेरहवीं में अगर पांच मेल की (पांच तरह की) मिठाई नहीं परोसेगा तो मैं कभी मरने का नाम ही नहीं लूंगी.
तू भगवान जी की कसम खा कि मेरी तेरहवीं में तू पांच मेल की मिठाई परोसवाएगा.'
लाला जी ने तुरंत ऐसा करने की कसम तो खा ली पर कसम खाते ही उनकी पेशानी पर पसीना झलकने लगा.
लाला जी की इस बात पर उनकी जिया को रत्ती भर भी भरोसा नहीं हुआ. उन्होंने उन्हें पुचकारते हुए कहा –
बेटा ! ‘तू चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए’ वाली बिरादरी का मुखिया है.
इस बुढ़िया के टें बोलते ही तू उसकी तेरहवीं में बिरादरी को पांच मेल की मिठाई खिलाने का अपना वादा भूल जाएगा.’
अब बेटे ने खीझ कर पूछा –
‘फिर जिया तुम ही बताओ कि मैं तुम्हें कैसे भरोसा दिलाऊँ?
क्या यमुना जी में खड़े हो कर कसम खाऊँ या फिर सोरों जा कर गंगा जी में डूब कर कसम खाऊँ?’
लाला जी की जिया के पास उनके हर सवाल का सोल्यूशन मौजूद था. उन्होंने बेटे से कहा –
‘तुझे क़सम खाने की कोई ज़रुरत नहीं है. तू मेरे जीते जी मेरी तेरहवीं कर दे और उसके भोज में तू सारी बिरादरी को बुला कर पांच मेल की मिठाई खिलवा दे.’
भरी तिजोरी की स्वामिनी अपनी जिया की यह फ़रमाइश कंजूसड़े लाला जी को पूरी करनी ही पड़ी और हमारी जैन-जैसवाल बिरादरी के इतिहास में पहली बार किसी बुजुर्गवार के जीते जी उनकी तेरहवीं हुई.
बिरादरी के सैकड़ों लोग इस अजीब सी अग्रिम तेरहवीं में शामिल हुए और एक ऊंची कुर्सी पर बैठ कर ख़ुद को पंखा झलती बूढ़ी अम्मा ने अपनी अग्रिम तेरहवीं के भोज का सुपरविज़न किया.
एडवांस तेरहवीं का भोज खा कर जो भी बूढ़ी अम्मा से विदा लेने जाता था उस से वो पूछती थीं –
‘भोज में मिठाई पांच मेल की तो थीं?
पूरी-कचौड़ी देसी घी की थीं या फिर घासलेट की थीं?
सब्जी-रायता सब चौकस थे या नहीं?’
जब हर आगंतुक इस अजीबोगरीब अग्रिम तेरहवीं में परोसे गए हर पकवान की तारीफों के पुल बाँध देता था तो बूढ़ी दादी प्रसन्न हो जाती थीं और फिर वो सच्चे दिल से अपने कंजूस बेटे को आशीर्वाद देती थीं.
आप पूछेंगे कि अपने जन्म से भी पहले की इस अनोखी एडवांस में की गयी तेरहवीं के भोज की इतनी प्रामाणिक जानकारी मुझे कैसे प्राप्त हुई तो इसका जवाब यह है कि लाला लक्ष्मी नारायण मेरी मझली चाची के पिता जी थे और इसी उत्सव के दौरान हमारे मझले चाचा जी का और चाची का रिश्ता पक्का हुआ था.
और हाँ, इस कहानी के संवाद मुझे इस ऐतिहासिक भोज में शामिल हुई अपनी किस्सागो माँ के सौजन्य से प्राप्त हुए थे.
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (19-6-22) को "घर फूँक तमाशा"(चर्चा अंक 4465) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
'घर फूँक तमाशा' (चर्चा अंक - 4465) में मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद कामिनी जी.
जवाब देंहटाएंवाह!! रोचक संस्मरण रहे। जिया की यह मांग भी खूब रही।
जवाब देंहटाएंकिस्से की तारीफ़ के लिए शुक्रिया विकास नैनवाल 'अंजान' जी. जिया जानती थीं कि उंगली सीधी कर के घी नहीं निकलेगा इसलिए उन्होंने उसे टेढ़ा कर लिया था.
हटाएंबहुत मजेदार और सरस संस्मरण । आपके ये किस्से दादी,नानी की सच्ची कहानियों को याद दिला जाते हैं ।
जवाब देंहटाएंमैंने इसी से मिलते जुलते संदर्भ पर काफी पहले एक कविता लिखी थी। "सुहागिन" वह मेरी दादी की चाची से प्रेरित है जो उन्होंने अपने पति की तेरहीं जीते जी कर दी थी क्योंकि उनके संतान नहीं थी ।
मेरे संस्मरण की तारीफ़ के लिए शुक्रिया जिज्ञासा. तुम्हारी दादी की चाची तो महान थीं. अपनी अग्रिम तेरहवीं की बात तो फिर भी समझ में आ सकती है लेकिन अपने पति की अग्रिम तेरहवीं करने वाली तो वो इतिहास की पहली महिला रही होंगी.
हटाएंमैं तुम्हारी दादी की चाची का नाम मरणोपरांत अजूबा पुरस्कार के लिए संस्तुत करना चाहता हूँ.
ये तो बहुत मस्त संस्मरण है ..... यानि माँ आखिर माँ ही होती है ..... अजब गज़ब तरीका निकाला ........ पहले तो शादी ब्याह में पाँच मेल या सात मेल की मिठाई का बहुत महत्त्व था ......
जवाब देंहटाएंसंगीता जी, इमानदारी से कहूं तो यह संस्मरण मेरी स्वर्गीया माँ का है, बस मैंने उसे अपनी भाषा दी है.
हटाएंपुराने ज़माने के ऐसे मज़ेदार प्रसंगों की आज की पीढ़ी तो कल्पना भी नहीं कर सकती. उसे तो पांच मेल की पिज़्ज़ा वाली बात ही समझ में आएगी.
आपकी लिखी रचना सोमवार 20 जून 2022 को
जवाब देंहटाएंपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
'पांच लिंकों का आनंद' में मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के किए बहुत-बहुत धन्यवाद संगीता जी.
हटाएंहा हा हा...गज़ब।
जवाब देंहटाएंवैसे सर आइडिया अच्छा है सोच रहे हम भी अपनी तेरहवीं कर ही लेंगे।
प्रणाम सर
सादर।
श्वेता, ऐसा करने की जल्दी क्या है? पहले 80 की तो हो जाओ.
हटाएंरोचक रहा यह तो संस्मरण 😊
जवाब देंहटाएंमेरे संस्मरण की प्रशंसा के लिए धन्यवाद रंजू भाटिया जी.
हटाएं😃😃😃😃😃👌👌👌👌
जवाब देंहटाएंआदरनीय गोपेश जी,बेटा डाल-डाल तो माँ पात-पात ।अपने कंजूस बेटे की कंजूसी से वाकिफ़ माँ ने बहुत ही बुद्धिमत्तापूर्ण काम करके और बेटे की गाँठ ढीली करवा कर ही दम लिया। बहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति जिसमें कंजूस बेटे की मातृ भक्ति मन को छू गई।वैसे मैने कई लोगों के बारे में सुना है जिन्होने अपनी तेहरवीं जीते जी ही कर डाली।सच में बहुत आनन्द आता होगा इस तरह के लोगों को।हँसते -हँसते खाते लोगों की दुआएं अपनी आँखों से देखने सुनने से बेहतर सुकून और क्या हो सकता है।सादर 🙏🙏
रेणुबाला, मालदार माँ के प्रति कंजूस बेटे की भक्ति को नितांत निश्छल नहीं माना जा सकता,
हटाएंमेरी जानकारी में हमारी बिरादरी में अग्रिम तेरहवीं की यह पहली घटना थी और चूंकि इस समारोह में मेरी माँ भी शामिल हुई थीं और उन्होंने इसका सरस वृतांत हम बच्चों को सुनाया था, इसलिए इस अनदेखी घटना की पूरी तस्वीर आज भी मेरे सामने है. .
बहुत ही मजेदार रोचक एवं लाजवाब संस्मरण।
जवाब देंहटाएंमेरी माँ के सामने घटित लेकिन मेरे अनदेखे संस्मरण की प्रशंसा के लिए धन्यवाद सुधा जी.
हटाएंमनोरंजक
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद मीना जी.
हटाएंवाह ! अति रोचक प्रसंग और कितना अच्छा हो कि सभी अपने सामने ही अपना मृत्युभोज देख लें, बहुत ही सन्तुष्टि से मर सकेंगे। कुछ वर्ष पूर्व एक कोर्स के दौरान अख़बार में छपवाने के लिए अपना मृत्युलेख लिखा था , कई लोग अपनी कब्र पर लिखने वाले शब्द पहले से ही तय कर देते हैं. जीवन और मृत्यु यदि साथ-साथ चलें तो जीवन हल्का फुल्का हो जायेगा।
जवाब देंहटाएंतारीफ़ के लिए शुक्रिया अनिता जी.
जवाब देंहटाएंसुल्तान, बादशाह वगैरा अपने जीते जी अपना मक़बरा बनवा लेते थे क्योंकि उन्हें अपने सपूतों से ऐसा करने की उम्मीद कम ही होती थी.
आगरा के सिकंदरा में अकबर ने अपना भव्य मक़बरा बनवाना शुरू किया था पर उसके बनने से पहले ही उसकी मौत हो गयी. बाद में जहाँगीर के शासनकाल में उसे पूरा किया गया. आप उस मकबरे को देखेंगी तो जहाँगीर वाले काम पर आपको ज़बर्दस्त गुस्सा आएगा.
शायद अकबर के मक़बरे वाली कहानी से सीख ले कर बूढ़ी दादी ने अपने सपूत पर रत्ती भर भरोसा नहीं किया था और इसलिए उन्होंने अपनी अग्रिम तेरहवीं का भव्य प्रबंध अपने जीवन में ही करा लिया था.