मंगलवार, 29 जनवरी 2019

‘मणिकर्णिका -दि क्वीन ऑफ़ झाँसी’


आज फ़िल्म – ‘मणिकर्णिका दि क्वीन ऑफ़ झाँसी देखी. बहुत दिनों बाद फ़िल्म देखते हुए जोश भी आया, गला भी रुंधा और आँखों में आंसू भी आए.
कंगना रानाउत ने जिस तरह रानी लक्ष्मी बाई के चरित्र को जीवंत किया है वैसा करने की कोई और अभिनेत्री सोच भी नहीं सकती है. इस फ़िल्म के बाद निश्चित रूप से कंगना एक बेमिसाल अभिनेत्री के रूप में प्रतिष्ठित होगी. एक योद्धा रानी के रूप में कंगना ने कमाल किया है. वह सुन्दर भी बहुत लगी है और जुझारू योद्धा के रूप में भी छा गयी है.
रानी लक्ष्मी बाई को जिस प्रकार वीरगति प्राप्त करते हुए दिखाया गया है वह फ़िल्म का सबसे ख़ूबसूरत हिस्सा है. इस दृश्य को देखते समय मेरे तो लगातार आंसू बह रहे थे और मुझे यह बताने में किसी तरह की कोई शर्म भी नहीं आ रही है.    
इस फ़िल्म में काफ़ी कमियां हैं. अगर फ़िल्म के निर्देशकों ने वृन्दावन लाल वर्मा का उपन्यास – ‘झाँसी की रानी पढ़ा होता और उसी के अनुरूप इस फ़िल्म की कहानी को ढालने का प्रयास किया होता तो यह फ़िल्म लाजवाब हो सकती थी. रानी लक्ष्मी बाई का नाम आते ही सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता – ‘झाँसी की रानी की याद आ जाती है. फ़िल्म के प्रारंभ में सूत्रधार के रूप में कोई बुंदेला हरबोला इस ओजस्वी कविता को आल्हा की शैली में गा सकता था.
कंगना के संवाद अच्छे हैं किन्तु उनको और अधिक ओजस्वी बनाया जा सकता था.
कई फ़िल्म आलोचकों ने इस बात को उठाया है कि इस फ़िल्म में लक्ष्मी बाई के अतिरिक्त सभी पात्रों को बहुत ही कम महत्व दिया गया है. बालिका मनु के बचपन के साथी और बाद के नाना साहब पेशवा का तो कहानी में सिर्फ़ ज़िक्र होता है. तांतिया टोपे की भूमिका में सुनील कुलकर्णी, गुलाम गौस की भूमिका में डैनी और झलकारी बाई की भूमिका में अंकिता लोखंडे ने अपनी प्रतिभा का परिचय तो दिया लेकिन उनकी भूमिकाएं अनावश्यक रूप से छोटी कर दी गईं हैं. खल-पात्र सदाशिव राव की भूमिका में ज़ीशान अयूब ने प्रभावित किया है.
इस फ़िल्म के अंग्रेज़ पात्रों को अंग्रेज़ी में ही बोलते हुए और पृष्ठभूमि में उनके संवादों को हिंदी में प्रस्तुत किया जाता तो बेहतर होता.
इस फ़िल्म में ग्वालियर के सिंधिया का रानी लक्ष्मी बाई द्वारा अपमानित किया जाना बहुत रोचक है. लेकिन रानी लक्ष्मी बाई का एक प्रकार से 1857 के बाकी सभी स्वतंत्रता सेनानियों से अलग-थलग दिखाया जाना, कहानी के प्रभाव को कम करता है.      
इस फ़िल्म में देशभक्तिपूर्ण गीत – हम रहें या ना रहें, भारत को रहना चाहिए बहुत ही ख़ूबसूरत है.
फ़िल्म - मणिकर्णिका -दि क्वीन ऑफ़ झाँसी शायद सुपर हिट फ़िल्म साबित न हो लेकिन इस में कोई शक नहीं कि अपनी कमियों के बावजूद यह एक यादगार फ़िल्म है. कंगन रानाउत के अभिनय के लिए तो इस फ़िल्म को एक बार तो ज़रूर देखा जा सकता है.

रविवार, 27 जनवरी 2019

सवेरा तो होकर ही रहेगा

आदरणीय राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी जी द्वारा उद्धृत एक प्राचीन कथा -
सबेरा कैसे होगा ?
किसी गांव में एक डोकरी रहती थी , उसके पास एक मुर्गा था.
जब मुर्गा बांग देता तो सभी लोग समझ लेते कि सबेरा हो गया और जग कर अपने काम में लग जाते.
एक बार डोकरी गाँव वालों से नाराज़ हो गयी और गांव के लोगों से बोली- 'तुम लोग मुझे नाराज करते हो तो मैं अपना मुर्गा लेकर दूसरे गांव में
चली जाऊंगी. मुर्गा न होगा तो बांग कौन देगा? मुर्गा बांग न देगा तो सूरज नहीं उगेगा और सूरज न उगेगा तो सबेरा भी कैसे होगा?'
मेरे द्वारा रचित एक नवीन कथा
सवेरा तो होकर ही रहेगा -
किसी गांव में एक डोकरी रहती थी, उसके पास दर्जनों मुर्गे थे और उन मुर्गों में बड़ा भाई-चारा था.
ये सभी मुर्गे जब एक साथ बांग देते थे तो सभी लोग समझ लेते कि सबेरा हो गया और जग कर अपने काम में लग जाते.
एक बार डोकरी गाँव वालों से नाराज़ हो गयी और गांव के लोगों से बोली –
'तुम लोग मुझे नाराज करोगे तो मैं अपने सारे मुर्गे लेकर दूसरे गांव में
चली जाऊंगी. मुर्गे नहीं होंगे तो बांग कौन देगा? मुर्गे बांग न देंगे तो सूरज नहीं उगेगा और सूरज न उगेगा तो सबेरा भी कैसे होगा?'
दूसरे गाँव में जाते ही बुढ़िया के सारे के सारे मुर्गे, अपनी खातिरदारी देखकर फूल कर कुप्पा हो गए, उनमें घमंड आ गया और घमंड के मारे वो एक दूसरे के प्रतिद्वंदी बनकर राजनीति में प्रविष्ट हो गए.
अब हर-एक मुर्गा अलग-अलग समय पर बांग देने लगा.
गाँव वाले परेशान ! किस मुर्गे की बांग सुनकर वो यह मानें कि सूरज उग आया है और किस की बांग सुनकर वो यह समझें कि अभी सूरज नहीं उगा है.
आखिरकार गाँव वालों ने आपस में चोंच लड़ाने वाले उन मुर्गों को अपने गाँव से बाहर निकाल दिया.
और आश्चर्य कि अब सूरज उगने पर किसी तरह का कोई कनफ्यूज़न नहीं रहा.
अब सवाल उठता है कि हम इस दूसरे गाँव के निवासियों जैसा क़दम क्यों नहीं उठाते और अलग-अलग वक़्त पर बाग़ देने वाले सियासती मुर्गों को अपनी ज़िन्दगी से निकाल क्यों नहीं फेंकते?
यकीन कीजिए, एक बार अलग-अलग वक़्त पर बांग देने वाले इन सियासती मुर्गों को हमने अगर अपनी ज़िन्दगी से निकाल फेंका तो फिर हमारे भाग्य का सूरज अपने समय पर ज़रूर-ज़रूर उगता रहेगा.

मंगलवार, 22 जनवरी 2019

गीत नया मत लिखना तब तक


सुश्री कुसुम कोठारी की मधुर कविता -

आज नया एक गीत ही लिख दूं।
वीणा का गर
तार न झनके
मन का कोई
साज ही लिख दूं।
आज नया एक गीत ही लिख दूं
मीहिका से
निकला है मन तो
सूरज की कुछ
किरणें लिख दूं।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
धूप सुहानी
निकल गयी तो
मेहनत का
संगीत ही लिख दूं।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
कुछ खग के
कलरव लिख दूं
कुछ कलियों की
चटकन लिख दूं
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
क्षितिज मिलन की
मृगतृष्णा है
धरा मिलन का
राग ही लिख दूं।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
चंद्रिका ने
ढका विश्व को
शशि प्रभा की
प्रीत ही लिख दूं ।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।

इस मधुर कविता पर मेरी कटु प्रतिक्रिया -

तब तक नया गीत मत लिखना -

गलियों में आवारा भटका,

बचपन फिर, गुमराह न निकले,

बेबस, औ निरीह अबला की,

दुःख से भरी कराह न निकले.

खग-कलरव या मधुर चांदनी

पर तो गीत, बहुत लिख डाले,

गीत नया लिखना तब ही जब,

मज़लूमों की आह न निकले.

शनिवार, 19 जनवरी 2019

बीते हुए दिन

हमारे दोस्त गिरीश पांडे अमेरिका में बैठे-बैठे पता नहीं कहाँ से हम बुजुर्गों के पुराने दिन, पुरानी यादें खोज-खोज कर ले आते हैं.
उनकी इस कविता ने मेरी मीठी यादों को फिर से ताज़ा कर दिया है -
ठण्डी की धूप से
अटे सने से दिन,
ठिठुरते परिंदों से दिन,
कनटोपे और
मफलर से दिन,
अम्माँ की गोद में शॉल में
घुसड़े पुसड़े से दिन,
तिल अलसी के लड्डू से दिन,
गाजर के हलुए वाले
बादामी से दिन,
अँगीठी के इर्द गिर्द,
गिलासों में चाय सुड़कते से दिन,
नुक्कड़ पे सुलगते
कूड़े के ढेर से दिन...
दूर कहीं रँभाती गैय्या से दिन.

इस कविता ने मुझे आज से 55-56 साल पीछे ढकेल दिया है. मुझे भी गिरीश जी जैसे ही कुछ दिन याद आ रहे हैं -

भुनी मूंगफली छील-छील कर, खाने के दिन
पेड़ से पत्थर मारकर, हरी इमली लूट लाने के दिन
बाजरे की मीठी टिक्की के हिस्से को लेकर, भाइयों से लड़ जाने के दिन
ऊनी कपड़ों के नीचे, पुरानी शर्ट और फटी बनियान, चलाने के दिन
सुलगते कोयले और उपले की आंच से, जिस्म गर्माने के दिन
बिना बीड़ी-सिगरेट पिए, मुंह से धुआं उड़ाने के दिन
लिहाफ़ के अन्दर कोई ख़तरनाक तस्वीरों वाली मैगज़ीन, छुपाने के दिन
सिर्फ़ इतवार को मंदिर जाने से पहले, नहाने के दिन !
कोई लौटा दे मेरे, बीते हुए दिन, कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन !

बुधवार, 16 जनवरी 2019

एबीपी न्यूज़ पर शत्रुघ्न सिन्हा का धमाका

एबीपी न्यूज़ पर रूबिया लियाक़त को दिए गए साक्षात्कार में शत्रुघ्न सिन्हा ने जिस बेबाकी से अपनी बात रखी, जिस तरह की हाज़िर-जवाबी दिखाई, जिस तरह की विनोदप्रियता और वैचारिक परिपक्वता दिखाई, भाषा पर जैसी अपनी पकड़ दिखाई, वैसा कर पाने की, वैसा दिखा पाने की क्षमता, वैसी प्रतिभा, शायद ही किसी राजनेता में हो सकती है.
शत्रुघ्न सिन्हा ने स्पष्ट कर दिया कि वो पटना साहब से ही लोकसभा का चुनाव लड़ेंगे और उनकी बातों से यह भी स्पष्ट हो गया कि बीजेपी इस बार पटना साहब से या कहीं और से भी उनको अपना प्रत्याशी बनाने वाली नहीं है.
सम्भावना इस बात की अधिक है कि शत्रुघ्न सिन्हा निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ेंगे और इसमें कांग्रेस, आर. जे. डी.का उनको समर्थन मिलेगा.
शत्रुघ्न सिन्हा ने मोदी सरकार की नोटबंदी की खुलकर आलोचना की. विपक्षियों के साथ बदले की भावना से कार्रवाही किये जाने की भर्त्सना की, शासकवर्ग और आम आदमी के बीच संवाद-हीनता पर टिप्पणी की, स्मृति ईरानी जैसी कम शिक्षित और राजनीति में अनुभवहीन टीवी एक्ट्रेस को मानव-संसाधन मंत्री बनाए जाने की हंसी उड़ाई, लेकिन सबसे ज़्यादा छींटाकशी की तो - 'वन-मैन रूल' और 'टू-मैन आर्मी' पर.
ख़ुद को मंत्री न बनाए जाने के दर्द को उन्होंने चतुराई के साथ अडवाणी और यशवंत सिन्हा की उपेक्षा से और अटल जी की नीतियों को सर्वथा त्याग दिए जाने से जोड़ दिया.
ऊंचे-ऊंचे सिद्धांतों की बात करने वाले शत्रुघ्न सिन्हा एक बात में बहुत कमज़ोर दिखाई दिए. जिस से उनके मधुर सम्बन्ध हों, उसकी बुराइयाँ उन्हें दिखाई नहीं देतीं. इमरजेंसी लगाने वाली इंदिरा गाँधी और राबड़ी जैसी अनपढ़ को मुख्यमंत्री बनाने वाले लालू उन्हें बेदाग दिखाई देते हैं क्यों कि उन से उनके व्यक्तिगत सम्बन्ध बहुत अच्छे हैं या बहुत अच्छे थे. अपने पैर छूने वाले हाईस्कूल फ़ेल तेजस्वी का भविष्य उन्हें बड़ा उज्जवल दिखाई देता है और मायावती जी उन्हें इसलिए अच्छी लगती हैं क्योंकि उनकी किसी बड़ी मुसीबत में उन्होंने उनकी बड़ी मदद की थी. यही वह सज्जन हैं जो पाकिस्तान के ज़ालिम तानाशाह जियाउल-हक़ के खासुल-ख़ास थे.
मुझे शत्रुघ्न सिन्हा के शानदार साक्षात्कार का यह 'पर्सनल-इक्वेशन' वाला अध्याय, सबसे कमज़ोर लगा.
लेकिन अपनी इस कमी के बावजूद कुल मिलाकर शत्रुघ्न सिन्हा का यह साक्षात्कार हवा के ताज़े झोंके जैसा लगा. उन से कई बातों से असहमत होते हुए भी मैं उनके इस साक्षात्कार को बहुत-बहुत रोचक, सफल और धमाकेदार मानता हूँ.
आगामी लोकसभा चुनाव में पटना साहब से शत्रुघ्न सिन्हा की जीत मेरी दृष्टि में सुनिश्चित है.
मुझे लगता है कि शत्रुघ्न सिन्हा का यह साक्षात्कार बीजेपी के लिए खतरे की घंटी का सूचक है. और अगर गठबंधन सरकार केंद्र में आती है तो यह तय है कि उसमें शत्रुघ्न सिन्हा को कोई बहुत महत्वपूर्ण पद प्राप्त होगा.
मैं सलाह दूंगा महा-उबाऊ और सरदर्द बढ़ाने वाले साक्षात्कार देने वाले देश के शीर्षस्थ नेताओं को (ख़ासकर रविशंकर प्रसाद, निर्मला सीतारमण और अरुण जेटली को), कि वो इस साक्षात्कार को देखें और कोशिश करें कि उनके साक्षात्कार, उनकी प्रेस-कांफ्रेंस कुछ ऐसा ही रंग जमाएं.

शुक्रवार, 11 जनवरी 2019

शिकायत और हिदायत


सुश्री कुसुम कोठारी की एक सुन्दर कविता है जिसमें एक ग़रीब मेहनतकश बिटिया कुछ सपने देखती है. इस सुंदर कविता ने मुझे भी चंद पंक्तियाँ लिखने के लिए प्रेरित किया है लेकिन मेरी इस कविता में आशा बहुत कम है और व्यावहारिकता ज़रुरत से कुछ ज़्यादा है.    
बेटी की शिकायत -
छोटे मालिक से न मिलूंगी, और न उनके घर जाऊंगी,
ना नाचूं उनके कहने पर, नहीं कभी गाना गाऊंगी,
जब तब देखो मुझे छेड़ते, कैसी-कैसी हरकत करते,
कभी कमर या हाथ पकड़ते, कभी नोट हाथों में धरते.

कभी अजब तस्वीर दिखाते, कभी मुझे बांहों में भरते,
दम घुटता है, पैर कांपते, जीना क्या ये, डरते डरते.
अम्मा मैं स्कूल जाऊंगी, पढ़-लिख कर फिर मेम बनूंगी,
झाडू बर्तन नहीं करूंगी, तिल-तिल कर, अब नहीं मरूंगी.

माँ की हिदायत -
बेटी, सपने देख, मगर, गर रहें अधूरे, तो मत रोना,
 बर्तन-झाड़ू करती रहना, पढ़ने में तू वक़्त न खोना.
छोटे मालिक की नज़रों से, बचने की कोशिश मत करना,
कुछ उल्टा-सीधा हो जाए, तो अपना धीरज मत खोना.

बड़के मालिक का भी मुझ पर, जाने कैसे दिल था आया,   
बरसों तक दरियादिल होकर, फिर मेरा हर खर्च उठाया.
लेकिन जब ढल गयी जवानी, फिर झाडू, फिर बर्तन-पानी,
जाने कितने घर में ख़ुद को, दोहराती है यही कहानी. 

मेरी गलती मत दोहराना, जज़्बातों में कभी न आना,    
धन-कुबेर की धन-वर्षा का, तू जी भर आनंद उठाना.
गर्दिश की काली रातों को, दौलत से तू दूर भगाना,
सुख के दिन में, दुखिया माँ को, लेकिन बिटिया, नहीं भुलाना.

सोमवार, 7 जनवरी 2019

आरक्षण



मैं किसी भी प्रकार के आरक्षण के सख्त खिलाफ़ हूँ. दलितों को आरक्षण दिए जाने का लाभ प्रायः उस समाज के 1% शीर्षस्थ वर्ग तक ही सीमित रह गया है. तथाकथित पिछड़ी जातियों में भी आरक्षण का लाभ एक बहुत छोटे समुदाय तक सिमट कर रह गया है. अब सवर्णों के आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था नए गुल खिलाएगी और नौकरियों के लिए भटकते प्रतिभाशाली युवाओं के लिए कुंठा-निराशा के नए कीर्तिमान स्थापित होंगे. मंडल कमीशन लागू होने पर क्षुब्ध होकर, आहत होकर, खून के घूँट पीकर, मैंने चंद पंक्तियाँ लिखी थीं आज उनमें किंचित परिवर्तन कर  मैं इन पंक्तियों को आप सबके बुद्धि-विवेक और ज़मीर को अर्पित कर रहा हूँ.   
आरक्षण -
आरक्षण का चलता आरा,  मचा हुआ है हाहाकारा,
तर्क बुद्धि से किया किनारा,  मूल मन्त्र, केवल बटवारा.
स्वार्थ सिद्धि का नाटक सारा,  वोट बैंक का यह ब्यौपारा,
देस हाय चौपट कर डारा,  कैसे हो इस से निस्तारा..
हे विप्लव के रास-रचैया,  प्रतिभा-भन्जक, शान्ति-मिटैया,
जाति-भेद के भाव-बढ़ैया,  रोज़ी-रोटी के छिनवैया.
प्रगति-मार्ग अवरुद्ध करैया, नीरो सम बंसी के बजैया,
ताण्डव-नर्तक,  आग लगैया,  नव-पीढ़ी के चैन लुटैया.
मानवता के खून पिवैया, आत्म-दाह के पुनर्चलैया,
नैतिकता के ताक धरैया,  न्याय-धर्म के हजम करैया.
युवा मध्य हिंसा भड़कैया,  शिक्षा-तरु, जड़ से उखड़ैया,
भंवर ग्रस्त हो तुम्हरी नैया, जल-समाधि लो देश डुबैया.


शुक्रवार, 4 जनवरी 2019

चंद सवालात और एक मशवरा

नव-वर्ष की पहली संध्या पर, 'वो, वो-मैं, मैं'' वाला इतना लम्बा साक्षात्कार देखकर मन में एक प्रश्न उठा –
'इसमें तमाम व्यूज़ तो हाईस्कूल स्तर के भी नहीं थे फिर इसे 'इंटरव्यू' क्यों कहा गया?’
एक और प्रश्न -
'शेखचिल्ली, तू कभी हिन्दोस्तां आया नहीं,
फिर यहाँ शागिर्द तेरे, तख़्त कैसे पा गए?'
और आखिर में मेरी बात से नाराज़ हुए आक़ा के एक अंध-भक्त को एक दोस्ताना सलाह -
' उनके जुमलों पर भरोसा, अब तो करना छोड़ दे,.
जग-हंसाई लाज़मी, तू तिलमिलाना छोड़ दे.'

बुधवार, 2 जनवरी 2019

नीड़ का निर्माण फिर


नीड़ का निर्माण फिर

श्री हरिवंश राय बच्चन की आत्म-कथा के एक खंड – नीड़ का निर्माण फिर में दिए गए सन्देश से प्रेरित होकर  पूरी तरह से टूटने के बाद ख़ुद को फिर से सँवारने की 38 साल पुरानी एक कोशिश –

इक नयी उम्मीद का, सपना संजोए आ रहा हूँ,

दर्द का एहसास है, फिर भी तराने गा रहा हूँ.

ज़िन्दगी में खो दिया जो, क्यूँ करूं उसका हिसाब,

आज अपने हाथ से, तकदीर लिखने जा रहा हूँ.