बुधवार, 28 अगस्त 2019

क़त्ल-ए-उर्दू


क़त्ल-ए-उर्दू
मुसाफ़िरों से खचाखच भरी ट्रेन, हिरनी की तरह कुलांचे मारते हुए लखनऊ की तरफ़ दौड़ी चली जा रही थी. एक बाबा जी नीचे की बर्थ पर आराम से पसरे हुए थे और उनके आस-पास दो दर्जन लोग एक-दूसरे से गुंथे हुए खड़े थे. किसी की हिम्मत नहीं थी कि वह बाबा जी से यह कह दे कि वो बैठ जाएं ताकि औरों के बैठने के लिए कुछ जगह खाली हो जाए.
शेरवानी और तुर्की टोपी में सजे एक बुज़ुर्ग मौलाना साहब ने हिम्मत बटोरते हुए उन से कहा
हुज़ूर थोड़ी ज़हमत करेंगे? आप बराय मेहरबानी बैठ जाएं तो हम भी अपनी पीठ टिका लें.
बाबाजी ने मौलाना साहब का अनुरोध अनसुना कर दिया.
मौलाना साहब ने फिर तकाज़ा किया
क़िबला, सुनते हैं? मैं आप से ही मुख़ातिब हूँ.
इस बार मौलाना साहब को आग्नेय दृष्टि से घूरते हुए बाबा जी ने कहा-
द्याखो मौलाना ! हम गोमुख से हरद्वार तक पैदल चल कर आय रहे हैं. हम तो अब लेटे-लेते ही जाब. तुम कोऊ और ठिकाना खोज लेओ. और तुम हम का किबलाकाहे कह्यो? जौन ई किबलाकौनो अच्छी बात है तो ठीक ! और जौन यू कौनो गाली है तो - तू किबला, तोहार बाप किबला और तोहार अम्मा किबलिया !
अल्मोड़ा के अपने 31 साल के प्रवास में अक्सर मेरा साबक़ा ऐसे बाबाजियों और ऐसी देवियों से पड़ता रहता था. मुझे शहद की मिठास वाली लखनवी ज़ुबान की बहुत याद आती थी. मेरे साथियों में बहुत कम लोग ऐसे थे जिनका कि उर्दू तलफ्फ़ुज़ दुरुस्त था. अपने साथियों के और अपने विद्यार्थियों के, क़ाफ़ और शीन के दुरुस्त होने की कल्पना करना भी मेरे लिए एक गुनाह-ए-अज़ीम था.
अल्मोड़ा के निवासियों की रगों में संगीत बहता है. आम तौर पर आपको दस-पन्द्रह लोगों के समूह गान में एक भी स्वर भटका हुआ नहीं दिखाई देगा. लेकिन अगर आप उनके गाए नग्मों और उनकी गाई गज़लों में उर्दू शब्दों के साथ उनके द्वारा की गयी ज्यादतियों का हिसाब करेंगे तो आपको बार-बार उन पर दफ़ा 307 ही क्या, दफ़ा 302 भी लगाने की ज़रुरत पड़ जाएगी.
अल्मोड़ा में लड़कियों-महिलाओं के बीच, फ़िल्म साहिब बीबी और गुलामका मुजरा
साक़िया, आज मुझे नींद नहीं आएगी,
सुना है तेरी महफ़िल में, रतजगा है.
गाने का बड़ा चलन था. लेकिन इसको अपने अनोखे उर्दू-ज्ञान की वजह से वो कुछ इस तरह गाती थीं
साथिया, आज मुझे नींद नहीं आएगी,
सुना है तेरी महफिल में, रतन जड़ा है.
अब साथिया की महफ़िल में रतन कैसे जड़ा जा सकता है, यह सोचने की बात है.
हमारे बहुत से पर्वतवासी मित्रों की और हमारे पुरबिया मित्रों की ज़ुबानों में, एक ऐसी मशीन फ़िट होती है जो को में और को में ऑटोमेटिकली बदल देती है. इस से – ‘क़िस्मत’, ‘किश्मतमें बदल जाती है और कोशिश’, ‘कोसिसमें तब्दील हो जाती है.
मेरे एक बिहारी मित्र का गला बहुत अच्छा था. मैथिली के और भोजपुरी के लोकगीतों को गाने में उनका कोई सानी नहीं था लेकिन उनको मुहम्मद रफ़ी की और जगजीत सिंह की ग़ज़लें गाने का बहुत शौक़ था-
तेरा हुश्न रहे, मेरा इस्क रहे तो, ये शुबहो या साम, रहे न रहे ---
और -
शरकती जाए है, रुख शे नकाब, आहिश्ता-आहिश्ता ---
मित्र की ऐसी ग़ज़लें सुनकर मैं या तो अपना सर धुनने लगता था या फिर उनका गला दबाने के लिए दौड़ पड़ता था.
एक बार इन्हीं दोस्त ने मुझे अपना उर्दू-उस्ताद नियुक्त कर दिया. मुझे ज़िम्मेदारी सौंपी गयी कि मैं उनका उर्दू तलफ्फ़ुज़ दुरुस्त करूं. इस काम के लिए मेरे टेप-रिकॉर्डर की सेवाएँ भी ली गईं. फ़िल्म काजलका एक ख़ूबसूरत नग्मा है
ये ज़ुल्फ़ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छा ---
इस नग्मे के पहले लब्ज़ के अलावा हमारे दोस्त को किसी और लफ़्ज़ में दिक्कत नहीं थी. मुझे सिर्फ़ उनके - जुल्फको - ज़ुल्फ़में बदलना था. लेकिन इसमें कभी वो - ज़ुल्फ़को -जुल्फकहते थे तो कभी - झुल्फ’, तो कभी - वुल्फ़से मिलती-जुलती आवाज़ निकालते थे. मैं बार-बार टेप-रिकॉर्डर पर उनके गाए हुए नग्मे और मुहम्मद रफ़ी के गाए हुए नग्मे का फ़र्क दिखाता था. मेरी दो दिन की मेहनत के बाद, मेरी डांट-फटकार से आज़िज़ आकर और अपनी गुरु-भक्ति भूलकर मेरे मित्र मुझ से बोले
हम तो जुल्फही कहूँगा. आप हमारा क्या उखाड़ लेंगे? ठहरिए, अभी आपका टेप-रिकॉर्डर तोड़ता हूँ.
अपनी और अपने टेप-रिकॉर्डर की जान बचाने ले लिए मैंने उसी वक़्त से उर्दू-उस्ताद के सम्मानित पद का परित्याग कर दिया.
हमारे एक और दोस्त हैं जो कि इतिहास के विश्व-विख्यात विद्वान हैं. उनके उर्दू-ज्ञान का एक किस्सा बड़ा मशहूर है. मैं क्लास में कांग्रेस के नरमपंथी नेताओं की अंग्रेज़-सरकार के प्रति वफ़ादारी प्रदर्शित करने की नीति की आलोचना करते समय अकबर इलाहाबादी का यह शेर सुना रहा था
क़ौम के गम में डिनर खाते हैं, हुक्काम के साथ,
रंज लीडर को बहुत हैं, मगर आराम के साथ.
क्लास के बाहर मेरे विद्वान मित्र खड़े थे. यह शेर उन्होंने भी सुना फिर मुझे अकेले में ले जाकर मुझसे कहा -
जैसवाल साहब, आप स्टूडेंट्स को क्या बेसिर-पैर की गप्पें सुनते रहते हैं? ये बादशाह अकबर इलाहाबाद का कब से हो गया? और उसे अंग्रेज़ी कहाँ से आ गयी?’
मैंने उसी वक़्त अपनी गलती के लिए उनके चरण पकड़ लिए और फिर मौक़ा पाते ही मित्र-मंडली में पूरा किस्सा सुना दिया. मेरे विद्वान मित्र के समझ में यह समझ में आ ही नहीं रहा था कि लोगबाग जैसवाल साहब की गलती पर ठहाके क्यों लगा रहे हैं.
कुमाऊँ विश्वविद्यालय में पद-भार सम्हालने से पहले मैंने आठ महीने बागेश्वर के राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में पढ़ाया था. अपने विद्यार्थियों को राष्ट्रीय आन्दोलन पढ़ाते समय मैं मैथिलीशरण गुप्त, श्यामलाल पार्षद, माखनलाल चतुर्वेदी और सोहनलाल द्विवेदी की राष्ट्रवादी कविताओं के अलावा बहादुर शाह ज़फर, अकबर इलाहाबादी, अल्लामा इक़बाल, चकबस्त और रामप्रसाद बिस्मिल के वतनपरस्ती के जज़्बे वाले अशआर भी सुनाया करता था. मेरे विद्यार्थी कविताओं को सुनाने का तो नहीं, लेकिन अशआर सुनाने का क्रेडिट मुझे ऐसे देते थे जैसे कि वो सब अशआर मैंने ही कहे हों. अक्सर मेरे सुनने में आता था-
जैशवाल शर, सेर बहुत अच्छा मारते हैं.
ममता बनर्जी जब रेल-मंत्री थीं तो रेल बजट पेश करते हुए वो दो-चार सायरीज़रूर पेसकरती थीं. बजट पेश करने के दौरान उन्होंने जिस-जिस शायर के अशआर पेश किए होंगे उन्होंने जन्नत में या जहाँ भी कहीं वो होंगे, ख़ुदकुशी ज़रूर कर ली होगी. मुझे लगता है कि ममता दीदी ने अल्मोड़ा के या बागेश्वर के किसी उस्ताद से ही उर्दू का क़त्ल करना सीखा होगा.
फ़ेसबुक पर हमारे कई मित्र अपने अनूठे उर्दू-ज्ञान से हमारा मनोरंजन करते रहते हैं. कुछ मेहरबान दोस्त तो मिर्ज़ा ग़ालिब के या किसी और मकबूल शायर के अशआर इतना तोड़-मरोड़कर पेश करते हैं कि ख़ुद शायर भी उनको पढ़कर चकरा जाए.
भगवान महावीर, गौतम बुद्ध और महात्मा गांधी की धरती पर अहिंसा, करुणा, दया और प्रेम की सदैव महत्ता रही है लेकिन क़त्ल-ए-उर्दू देखकर किसी की आँखों से आंसू की नदियाँ नहीं बहतीं, कोई आहें नहीं भरता और तो और, कोई करुणानिधान भी उर्दू को बचाने के लिए नंगे पाँव दौड़ा नहीं आता.
बागेश्वर और अल्मोड़ा की ही तरह हमारे ग्रेटर नॉएडा में भी उर्दू के पैदल सैनिकों की भरमार है. साहित्य और अदब के दर्शन होना यहाँ ईद के चाँद के दिखने जैसी दुर्लभ बात है. लेकिन अब रोज़ाना क़त्ल-ए-उर्दू बर्दाश्त करना, क़त्ल-ए-अदब को अनदेखा करना, साहित्य की और सभ्यता की हत्या होते हुए देखना, मेरी आदत में और मेरी किस्मत में, शामिल हो गया है.

सोमवार, 26 अगस्त 2019

इन्तक़ाम

यह किस्सा आज से करीब सौ साल पुराना है. उन दिनों बड़े शहरों में तो कारों का चलन हो गया था लेकिन छोटे-शहरों में तो कार देखने के लिए भीड़ जुट जाती थी. एक छोटे शहर के धन्ना सेठ ने कार खरीदी. शोफ़र द्वारा चालित कार की बैक-सीट पर सेठ ऐसे निकलता था जैसे कोई बादशाह हाथी पर निकलता हो और गाड़ी में बैठकर सभी पैदल यात्रियों को, इक्के-तांगे पर या रिक्शे-साइकल पर आने-जाने वालों को बड़ी हिकारत भरी नज़रों से देखता था.
सेठ के पड़ौस में कांजी हाउस (आवारा जानवरों को पकड़कर बंद करने का स्थान) में काम करने वाले एक मुंशी जी रहते थे. दस-पंद्रह रूपये महीने की तनख्वाह और चार-पांच रूपये महीने की ऊपरी आमदनी में अपने आधे दर्जन बच्चों वाले परिवार के साथ वो बड़ी मुश्किल से गुज़ारा करते थे. मुंशी जी जब हर सुबह अपनी टूटी-फूटी साइकिल पर घर से कांजी हाउस के लिए निकलते थे और शाम को कांजी हाउस से अपने घर लौटते थे तो उसी वक़्त उस सेठ की सवारी निकलती थी. जैसे ही सेठ और मुंशी जी की आँखें टकराती थीं तो सेठ उनको देख कर व्यंग्य भरी मुस्कान देकर अपनी 12 हॉर्स पॉवर की कार में बैठने का न्यौता ज़रूर देता था और जवाब में हमारे मुंशी जी सेठ को विनम्रता से मना करके, मन ही मन उसे कोसते ज़रूर थे.
सेठ की आदत थी कि वो शहर में कहीं भी अपनी कार पार्क करवा कर इधर-उधर चला जाता था. उसका अकड़ू ड्राइवर कार को हटाने की बात सुनकर फ़ौरन सेठ के पास जाकर चुगली करता था और फिर सेठ टोकने वाले के साथ महाभारत करता था. कांजी हाउस वाले मुंशी जी ने ऐसे नज़ारे कई बार देखे थे.
एक बार सेठ जी ने कांजी हाउस के सामने अपनी कार पार्क करवाई और फिर अपने ड्राइवर को उसकी निगरानी के लिए छोड़कर वो ख़ुद पास के दफ़्तर में चले गए. जहाँ कार पार्क की गयी थी, वहीं पास में एक बोर्ड लगा था –
‘यहाँ घोड़ा-गाड़ी खड़ा करना सख्त मना है.’
मुंशी जी ने निषिद्ध स्थान पर सेठ की कार खड़ी देखी तो उनकी बांछे खिल गईं. वो तुरंत अपने दल-बल के साथ पहुंचे और उन्होंने ड्राइवर को मजबूर कर दिया कि वो कार को कांजी हाउस के अन्दर खड़ी करे.
सेठ को पता चला तो तुरंत कांजी हाउस पहुंचा. कुर्सी पर बैठे क़ाज़ी की भूमिका निभाने वाले अपने पड़ौसी मुंशी जी के सख्त तेवर देख कर सेठ की सारी हेकड़ी निकल गयी. मुंशी जी ने सेठ के सलाम को अनदेखा करते हुए अपना फ़रमान सुनाया –
''सेठ जी, आपकी गाड़ी गलत जगह खड़ी की गयी थी. उसे आवारा जानवरों पर लागू कानून के तहत कांजी हाउस में बंद किया गया है.’
सेठ जी ने हैरानी से पूछा –
‘मेरी कार क्या कोई आवारा जानवर है?
मुंशी जी ने इस सवाल के जवाब में एक सवाल दाग दिया –
‘फिर आपकी गाड़ी आवारा जानवरों जैसे हरक़त क्यों करती है? जुरमाना भरिए और अपना जानवर ले जाइए.’
सेठ जी ने ताना मारते हुए पूछा –
‘आपके कांजी हाउस में आवारा कार को छोड़ने का क्या रेट है?’
मुंशी जी रजिस्टर में देखते हुए कहा –
‘एक आवारा घोड़े को 2 रूपये देकर छोड़ा जाता है. आप ख़ुद ही बताते हैं कि आपकी गाड़ी 12 हॉर्स-पॉवर की है. 2 रुपया प्रति घोड़े के हिसाब से 12 घोड़ों के चालान का हुआ कुल 24 रुपए. 24 रूपये देकर रसीद कटवाइए और अपनी गाड़ी ले जाइए.’

शुक्रवार, 16 अगस्त 2019

अभिनय सम्राट

हमारे भारत में ‘अभिनय सम्राट’ कहते ही लाखों-करोड़ों के दिलो-दिमाग में एक ही नाम कौंध जाता है, और वो है दिलीप कुमार का. दिलीप कुमार ने फ़िल्म ‘देवदास’ में पारो से बिछड़ने के गम में शराब क्या पी ली, लोगबाग जानबूझ कर अपनी-अपनी प्रेमिकाओं से बिछड़कर उनके गम में शराब पीने लगे. तमाम टैक्सी ड्राइवर्स ने फ़िल्म ‘नया दौर’ देख कर टैक्सी चलाने का धंधा छोड़ कर तांगा चलाना शुरू कर दिया. लेकिन सबसे ज़्यादा नुक्सान तो फ़िल्म ‘गंगा-जमुना’ के उन प्रशंसकों का हुआ जो कि अपना अच्छा-ख़ासा, लगा-लगाया, काम-धंधा छोड़ कर डाकू हो गए.
हमारे बुजुर्गों में कई लोग मोतीलाल के अभिनय के दीवाने हुआ करते थे तो कई लोग बलराज साहनी को नेचुरल एक्टिंग का बादशाह मानते थे. हमारी पीढ़ी के लोग संजीव कुमार के फैन हुआ करते थे. कुछ लोग तो ऐसा मानते हैं कि समानांतर सिनेमा के प्रारंभ होने के बाद नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी और अमोल पालेकर जैसे अभिनेताओं ने ही स्वाभाविक अभिनय के क्षेत्र में नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं.
अपने छात्र-जीवन में हम भी एक फ़िल्मी-कीड़ा हुआ करते थे. उस टीवी विहीन दौर में सप्ताह में दो फ़िल्में देखने का तो हमारा औसत हुआ ही करता था. हाईस्कूल-इंटर तक हम भी दिलीप कुमार के दीवाने हुआ करते थे और उनकी जैसी एक्टिंग करने की और उनके जैसे डायलौग बोलने की कोशिश भी किया करते थे लेकिन उनका जैसा अभिनय कर पाना कभी हमारे बस में नहीं हो पाया और संवाद के मामले में फ़िल्म ‘मुगले आज़म’ में उनकी जैसी न तो हमारी उर्दू गाढ़ी हो पाई और न ही फ़िल्म ‘गंगा-जमुना’ में उनकी जैसी फ़र्राटेदार पुरबिया बोली हम बोल पाए.
फ़िल्म ‘मुगले आज़म’ का शहज़ादा सलीम तो हमारे दिलो-दिमाग में इस क़दर छा गया था कि हम पिताजी को मुगले आज़म समझ कर और ख़ुद को शहज़ादा सलीम समझ कर उन्हें बदतमीज़ी से जवाब भी देने लगे थे. एक बार उन्होंने हमको पढ़ाई के वक़्त आवारागर्दी करने पर टोका तो हमने सलीम की हेकड़ी वाले अंदाज़ में जवाब दिया –
‘ये हमारा ज़ाती मामला है.’
लेकिन पिताजी के एक करारे झापड़ ने हमको अर्श से फर्श पर ला दिया. फिर न तो हम शहज़ादे सलीम के नक्शे-क़दम पर चले और न ही फिर हमने दिलीप कुमार को अभिनय सम्राट माना.
दिलीप कुमार हमारे बस में नहीं आए तो हमने अपना अभिनय सम्राट किसी और को बना लिया. दिलीप कुमार से भी कहीं ज़्यादा ख़ूबसूरत, उनसे कहीं अधिक जवान और उन से दस गुनी फ़िल्में करने वाले, हमारे अभिनय सम्राट का अगर आप नाम सुनेंगे तो चौंक जाएंगे और हो सकता है कि आप अपना सर भी पीटने लगें. हमारे अभिनय सम्राट थे – लाखों-करोड़ों के चहेते, अपने जम्पिंग जैक, जीतू भाई, यानी कि जीतेंद्र !
हीरो के रूप में जीतेंद्र की पहली फ़िल्म थी – ‘गीत गाया पत्थरों ने’. व्ही शांताराम की फ़िल्मों के पात्र मराठी के अंदाज़ में हिंदी के संवाद बोला करते थे. उस फ़िल्म का सुन्दर और कमसिन हीरो हमको बहुत ख़ूबसूरत लगा. उसकी तोतली बोली पर तो हम फ़िदा हो गए. इस फ़िल्म का नायक संगतराश था और उसके चेहरे के भाव तो पत्थर की मूरत से भी अधिक भाव-हीन थे.
हमारे नायक की पहली फ़िल्म हिट रही लेकिन स्टार बनने के लिए उसे अभी बहुत इंतज़ार करना था. जेम्स बांड की तर्ज़ पर बनी फ़िल्म ‘फ़र्ज़’ से वह स्टार बन गया. माना कि हमारे नायक में शेओन कॉनरी जैसी चुस्ती-फ़ुर्ती नहीं थी लेकिन ‘मस्त बहारों का मैं आशिक़’ गीत में उसने जो उछल-कूद की थी और ‘कुक्कू ---’ की जो पुरज़ोर चीख निकाली थी, वैसी उछल-कूद करना और वैसी चीख निकालना, उस असली जेम्स बांड के बस में हो ही नहीं सकता था.
फ़िल्म ‘फ़र्ज़’ के सुपर हिट होने के बाद हमारे अभिनय सम्राट ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. एक से एक हिट फ़िल्में उसके खाते में आती रहीं. फ़िल्म ‘जिगरी दोस्त’ में हमारे अभिनय सम्राट का डबल रोल था. किसान की भूमिका में तो उसने फ़िल्म ‘दो बीघा ज़मीन’ के बलराज साहनी को भी मात कर दिया था. हमारा किसान नायक जब –
‘मेरे देस में पवन चले पुरवाई-----’
गीत गाता हुआ एक टीले पर से अपने हाथ ऊपर किए फ़ौजी मुद्रा में नीचे दौड़ता है तो हमारा दिल भी बाग़-बाग़ होकर उसके साथ दौड़ने लगता है.
फ़िल्म निर्माताओं-निर्देशकों ने हमारे अभिनय सम्राट के साथ एक से एक अनोखी सिचुएशंस पर गाने फ़िल्माए थे. इस मामले में फ़िल्म ‘हमजोली’ को कोई भी भूल नहीं सकता. इस फ़िल्म का खेल-प्रेमी नायक एक गाना कबड्डी खेलते हुए गाता है, एक गाना नायिका के साथ बैडमिंटन खेलते हुए गाता है, एक गाना गुंडों से बॉक्सिंग करते हुए गाता है और फिर खेलों से उकताकर एक गाना नायिका के साथ बैलगाड़ी के नीचे बैठकर गाता है. क्या कोई दिलीप कुमार, कोई राज कपूर या कोई देवानंद, ऐसी अनूठी सिचुएशंस में गाना गाने की सोच भी सकता था?
मुझे फ़िल्म ‘जैसे को तैसा’ में अपने अभिनय सम्राट पर फिल्माया गया एक गाना और उसकी सिचुएशन भुलाए नहीं भूलती. फ़िल्म ‘राम और श्याम’ के तर्ज़ पर बनी इस फ़िल्म में सीधे-सादे नायक को खलनायक रोज़ाना कोड़ों से मारता है. कहानी मोड़ लेती है और हमारे भौंदू किस्म के नायक की जगह, उसका हमशक्ल हमारा स्मार्ट नायक ले लेता है. अब स्मार्ट नायक खलनायक के ज़ुल्मों का जवाब देते हुए उसे कोड़े लगाते हुए गाता है –
‘जैसे को तैसा मिला,
कैसा मज़ा आया.
मारूं कि छोडूं, तेरी टांग तोडूँ,
बता तेरी मर्जी है क्या !’
कितना दयालु है हमारा नायक ! खलनायक को कोड़े मारते हुए भी वह उसे छोड़ने के विषय में सोचता है.
एक फ़िल्म आई थी - ‘मेरे हुज़ूर’ जिसमें कि दो नायक थे – बिगड़े हुए नवाब बने थे राजकुमार और शायर बने थे हमारे अभिनय सम्राट. हिंदी फ़िल्म के इतिहास में पहली बार एक ऐसा तोतला शायर रुपहले परदे पर आया था जिसके मुंह से उर्दू अल्फ़ाज़ ऐसे निकलते थे जैसे कोई कुँए में गिरने के बाद कराह-कराह कर और अटक-अटक कर बोलता है.
सन सत्तर के दशक में हमारा अभिनय सम्राट गुल्ज़ारिश हो गया. उसने गुल्ज़ार के साथ तीन फ़िल्में कीं – ‘परिचय’, ‘ख़ुशबू’ और ‘किनारा’. इन फ़िल्मों में हमारे नायक के गुल्ज़ार का चश्मा लग गया और उनकी जैसी मूंछें भी आ गईं. हर संवाद को संभाल-संभाल कर बोलने वाला यह शख्स हमको कभी अपना वाला अभिनय सम्राट लगा ही नहीं. लड़की देखो और उसे छेड़ो नहीं, बिना बात उछलो-कूदो नहीं, बेसिर-पैर की कहानी में ऊट-पटांग हरक़तें न करो, गानों के बोल उल्टे-सीधे न हों तो फिर हमारे अभिनय सम्राट का दम घुटेगा और उसके साथ हम जैसे उसके चाहने वालों का भी. भला हुआ कि तीन फ़िल्मों के बाद ही अभिनय सम्राट ने फ़िल्म ‘किनारा’ के बाद गुल्ज़ार से किनारा कर लिया.
सन अस्सी और सन नव्वे के दशक में हमारे अभिनय सम्राट के चेहरे पर बुज़िर्गियत आने लगी. नुकीली विग और मूंछों वाले गेट-अप से उसे छुपाने की कोशिश की गयी. लेकिन हमारे नायक की उछल-कूद भरे नृत्य में कभी कोई बदलाव नहीं आया. दक्षिण में बनी और दक्षिण मूल की नायिकाओं के साथ बनी फ़िल्मों में हमारे नायक का शामिल होना ज़रूरी समझा गया. हमारे नायक की वजह से घड़े और मटके बनाने वालों की किस्मत खुल गयी. उन्हें हज़ारों घड़े-मटके बनाने के आर्डर मिलने लगे क्यों कि घड़े-मटके के पहाड़ों के बिना हमारे नायक के पाँव थिरकते ही नहीं थे.
हमारे अभिनय सम्राट ने दिलीप कुमार के साथ एक फ़िल्म की थी – ‘धर्माधिकारी’. इस बेकार और बोझिल फ़िल्म में दिलीप कुमार ने भी बहुत बोर किया था. हमने निष्कर्ष निकाला –
‘हमारे अभिनय सम्राट के अभिनय में ट्रेजेडी किंग के अभिनय से ज़्यादा दम है क्यों कि ट्रेजेडी किंग के अभिनय का हमारे अभिनय सम्राट के अभिनय पर तो कोई असर नहीं हुआ लेकिन ट्रेजेडी किंग के अभिनय पर अभिनय सम्राट के महा-बोर अभिनय का असर ज़रूर पड़ गया.’
आजकल हमारे अभिनय सम्राट की नई फ़िल्में नहीं आ रही हैं लेकिन उनके परिवार ने उनकी अभिनय परंपरा को और उन्हीं के अनुकूल कहानी-परंपरा को जीवित रक्खा है.
सदियाँ गुज़र जाएंगी पर रुपहले परदे पर ऐसा अभिनय सम्राट फिर कोई और नहीं दिखाई देगा. हम कितने खुशनसीब थे कि हमने तीन-चार दशक तक इस नायक के दिव्य-अभिनय को देखा है. हमको मालूम है कि हमारी इस ख़ुशकिस्मती पर आने वाली पीढ़ियाँ हम पर रश्क़ करेंगी.

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सोमवार, 12 अगस्त 2019

बैलेंस्ड-डाइट

मेरे बाल-कथा संग्रह ‘कलियों की मुस्कान’ की एक कहानी. इस कहानी को मेरी बारह साल की बेटी गीतिका सुनाती है और इसका काल है – 1990 का दशक ! पाठकों से मेरा अनुरोध है कि वो गीतिका के इन गुप्ता अंकल में मेरा अक्स देखने की कोशिश न करें.
बैलेन्स्ड डाइट
भगवान ने कुछ लोगों को कवि बनाया है, उन्हें भावुकता अच्छी लगती है. सुन्दर दृष्य देखकर या किसी ट्रैजेडी के बारे में सुनकर उनके मन में कविता के भाव उमड़ने लगते हैं. कुछ को नेता का जिगर दिया गया है, इन्हें तिकड़म और जुगाड़ लगाना पसन्द होता है. जिनको अपराधी का दिमाग मिला है, उनको ठाँय-ठूँ और ढिशुम-ढिशुम का कान-फोड़ संगीत पसंद आता है. मीरा के नयनों में नन्दलाल बसते हैं, एम. एफ़ हुसेन के दिल में माधुरी दीक्षित रहती हैं पर हमारे गुप्ता अंकिल के प्राण पकवानों में बसते हैं. गुप्ता अंकिल कहते हैं –
‘अब आप ही बताइए इसमें हमारा क्या कुसूर है? भगवान ने हमको ऐसा ही बनाया है. उन्होंने हमको सूंघने की ऐसी शक्ति दी है जो दो मील से पकवानों की खुशबू पकड़ लेती है, आँखें ऐसी दी हैं जिन्हें सिर्फ़ पकवानों की ही फ़िगर और उनका गैटअप लुभाता है और जीभ ऐसी दी है जिसे मीठा, नमकीन, खट्टा, तीख़ा, चरपरा, उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय, पश्चिम भारतीय, इटालियन, कान्टिनेन्टल, थाई, मैक्सिकन, मंचूरियन, चायनीज़ सब पसन्द है. दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं. एक तो वो जो जीने के लिए खाते हैं और दूसरे वो जो खाने के लिए जीते हैं. हम तो दूसरी कैटेगरी में आते हैं.’
गुप्ता अंकिल के हिसाब से खाने-पीने का शौक़ रखने वाले शख़्स का होशियार होना लाज़मी है. पकवानों की किस्मों की जानकारी हासिल करने के लिए पता नहीं उसे क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं. अब पापड़ की ही बात लीजिए तो क्या आप अमृतसरी, राजस्थानी, सिन्धी और गुजराती पापड़ में फ़र्क कर सकते हैं? नहीं न! पर गुप्ता अंकिल पापड़ों में आँखमूंद कर सिर्फ़ जीभ का इस्तेमाल कर फ़र्क कर सकते हैं. खाने के मामले में उनका भौगोलिक और ऐतिहासिक ज्ञान बहुत व्यापक है. कुछ साल पहले पापा हमारे लिए जनरल नौलिज वाला एक इलैक्ट्रो गेम लाए थे, उसमें ख़ास-ख़ास स्थानों से जुड़ी हुई प्रसिद्ध चीज़ें खोजनी होती थीं. अगर आप किसी ख़ास स्थान और उससे जुड़ी चीज़ का सही मैच कर पॉइंट्स तार लगाते थे तो लाइट जल जाती थी. गुप्ता अंकिल भी हमारे इस खिलौने पर अपनी जनरल नौलिज का टैस्ट देने को बेताब रहते थे. गेम में तो अंकिल कई मामलों में पीछे रह जाते थे. उन्हें यह नहीं मालूम होता था कि ताजमहल कहाँ है या विक्टोरिया मेमोरियल कहां है. पापा ने उसी इलैक्ट्रोगेम के पैटर्न पर गुप्ता अंकिल के लिए एक विशेष पकवान गेम तैयार कर दिया. इसमें आगरा के साथ ताजमहल का मैच मिलाने के बजाय पेठे-दालमोठ का मैच किया गया था. इसी तरह कलकत्ते को विक्टारिया मेमोरियल की जगह रशोगुल्ला से जोड़ा गया था, लखनऊ को इमामबाड़े की जगह रेवड़ी के साथ और जयपुर को हवामहल की जगह घेवर के साथ मिलाया गया था. गुप्ता अंकिल इस पकवान गेम में कभी गलत नहीं होते थे और अपने हर अटेम्प्ट में लाइट ज़रूर जलवा लेते थे.
हमारी ही तरह विशुद्ध शाकाहारी होने की वजह से गुप्ता अंकिल को बिरयानी, तन्दूरी मुर्ग या कबाब की पर्याप्त जानकारी नहीं है पर दुनिया भर के तमाम शाकाहारी व्यन्जनों के विषय में उन्हें चलता-फिरता एनसाइक्लोपीडिया ज़रूर कहा जा सकता है. लोगबाग मथुरा-वृन्दावन भगवान श्रीकृष्ण की लीलास्थली देखने जाते हैं पर हमारे गुप्ता अंकिल वहाँ पेड़े खरीदने जाते हैं. दिल्ली में उनके लिए सारे रास्ते चाँदनी चौक की पराठेवाली गली से होकर गुज़रते हैं. लखनऊ में वो आँखें बन्द कर अमीनाबाद की प्रसिद्ध चाट की दुकानों पर और चौक की ठन्डाई की दुकान पर पहुँच सकते हैं. कितने लोग जानते होंगे कि कलकत्ते में खजूर के गुड़ से बना सबसे बढि़या सन्देश कहाँ मिलता है, बीकानेर में भुजिया की सबसे प्रामाणिक दुकान कौन सी है, जयपुर में घेवर की बैस्ट दुकान तक कैसे पहुँचा जा सकता है, मैसूरी दोसे और मद्रासी दोसे में क्या फ़र्क होता है, मुम्बई में पाव-भाजी कहाँ जाकर खाई जाए, आपको ऐसी तमाम जानकारियाँ गुप्ता अंकिल को दो-चार पकवान खिलाकर तुरन्त मिल सकती हैं. चाय के बागानों में ऊँची-ऊँची तनख्वाहों पर प्रोफ़ेशनल टी-टेस्टर्स रक्खे जाते हैं लेकिन पता नहीं क्यों मिठाई बनाने वाले और नमकीन या चाट बनाने वालों को ऐसे एक्सपर्ट्स की ज़रूरत नहीं होती. अगर उन्हें ऐसे एक्सपर्ट् की ज़रूरत होती तो क्या गुप्ता अंकिल कुमाऊँ यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसरी कर अपनी जि़न्दगी किताबों में माथापच्ची करने और स्टूडेन्ट्स को इंग्लिश लिटरेचर पढ़ाने में बरबाद करते? वो तो ऊँची तनख्वाह लेकर दिन में चौबीसों घन्टे और साल में तीन सौ पैसठों दिन अपने दोनों हाथों की दसो उंगलियाँ घी में और अपना इकलौता सर कढ़ाई में रख लेते.
पकवानों में डूबते-उतराते गुप्ता अंकिल बच्चे से कब बड़े हो गये यह किसी को पता ही नहीं चला. अब वो बड़े हुए तो उनकी शादी का मौसम भी आ गया. होने वाली दुल्हन के रूप-रंग, शिक्षा-दीक्षा, घर-परिवार के बारे में मालुमात करना तो औरों की जि़म्मेदारी थी पर शादी से पहले उन्होंने लड़की की अर्थात हमारी होने वाली आंटी की सिर्फ़ पाक विद्या में परीक्षा ली थी. उनकी बनाई फूली-फूली गोल पूडि़यों, सुडौल स्वादिष्ट समौसों और मूँग की दाल के बने सुनहरे हल्वे ने गुप्ता अंकिल का दिल जीत लिया था. गुप्ता आंटी के पाक-विद्या ज्ञान में जो थोड़ी बहुत कमी थी उसे गुप्ता अंकिल ने दूर कर दिया. गुप्ता अंकिल का घर प्रामाणिक कलकतिया सन्देश, मद्रासी दोसा, गुजराती ढोकला, देहलवी चाट, पंजाबी छोलों और बनारसी कलाकन्द का निर्माण केन्द्र बन गया. गुप्ता आंटी पाक विद्या की हर प्रतियोगिता में कोई न कोई पुरस्कार जीत ही लातीं थीं. इन प्रतियोगिताओं से पहले आंटी की तैयारियों में पकवान चखने का जि़म्मा गुप्ता अंकिल का ही होता था. अगर वो आंटी के बनाए पकवान को अप्रूव कर देते थे तो उनका प्रतियोगिता में पुरस्कार पाना निश्चित हो जाता था.
अपनी शादी के सात साल गुप्ता अंकिल ने किचिन के इर्द-गिर्द घूमते हुए और पकवानों को चखते हुए गुज़ार दिए पर कुदरत को उनका ऐसा सुख मन्ज़ूर नहीं था. पकवान बनवाने और उन्हें अकेले ही कम से कम आधा हज़म कर जाने के शौक ने कब उनका वज़न सौ किलो तक पहुँचाया, कब उनकी कमर का नाप फ़ोर्टी फ़ोर इंचेज़ तक पहुँचा, कब उनको बिठाने के लिए रिक्शे वाले डबल किराए की माँग करने लगे और कब उनके नाप के इनर वियर्स ख़ास-ख़ास दुकानों के अलावा छोटी-मोटी दुकानों पर मिलना बन्द हो गए, किसी को पता ही नहीं चला. एक बार वो कुछ गम्भीर रूप से बीमार पड़े तो उन्हें तमाम टैस्ट्स कराने पड़े. पता चला कि उनको डायबटीज़ हो गयी है. डॉक्टर्स ने उनकी मिठाइयों पर रोक लगवा दी, चाट-पकौडों जैसी भोली-भाली मासूम चीज़ों के घर आने या उन्हें घर पर ही बनाने पर पाबन्दी लगा दी गयी.
डॉक्टर मेहता, गुप्ता अंकिल के बचपन के दोस्त थे पर इस समय उन्होंने गुप्ता अंकिल के सबसे बड़े दुश्मन का रोल निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. उन्होंने गुप्ता अंकिल के घर के सभी सदस्यों को और हम दोनों बहनों को भी उनके ऊपर जासूस बनाकर छोड़ दिया था. गुप्ता अंकिल के सभी हितैषियों को उनके हाथ से कोई भी पकवान कहीं भी छीनने का अधिकार डॉक्टर मेहता ने दे दिया था. गुप्ता अंकिल की मुसीबत यह थी कि उनके सभी करीबी बड़े उत्साह से इस नई जि़म्मेदारी को निभाने के लिए बेताब रहते थे. ख़ासकर उनका नन्हा बेटा बंटी और उनके परम मित्र की बेटियाँ यानी कि हम दोनों बहनें आज भी अपने इस अधिकार का धड़ल्ले से उपयोग कर रही हैं.
गुप्ता अंकिल कभी आंटी की खुशामद कर डायटिंग में थोड़ी ढील दिए जाने की नाकाम कोशिश करते हैं तो कभी अपने ऊपर छोड़े गए जासूस, हम बच्चों को चाकलेट-टॉफ़ी की रिश्वत देकर खाने-पीने का प्रोहिबिटेड माल गड़पने का असफल प्रयास करते हैं. लेकिन हम बड़े प्रिंसिपल्स वाले बच्चे हैं, हमको गुप्ता अंकिल से चाकलेट-टॉफ़ी लेने में कोई ऐतराज़ नहीं है पर अपने फ़र्ज़ से बँधे रहने की वजह से वक़्त रहते ही हम उनकी शिकायत गुप्ता आंटी से कर देते हैं. आमतौर पर होता यह है कि उनके मुँह में पहुँचने से पहले ही लड्डू उनसे छीन लिया जाता है.
शादी-ब्याह, तीज-त्यौहार, बर्थ-डे पार्टी, मैरिज-एनीवर्सरी, प्रमोशन या गृह-प्रवेश किसी की भी पार्टी हो पर गुप्ता अंकिल की किस्मत में भुना हुआ पापड़, सलाद, सूखी रोटी, सब्ज़ी और दाल ही आते हैं. सबसे ज़्यादा दुख की बात यह है कि चैम्पियन कुक हमारी गुप्ता आंटी अब अपने पतिदेव के खाने में ड्रापर से घी डालने लगी हैं. गाजर के हल्वे के साथ गर्मा-गर्म मौइन की कचौडि़यां खिलाने वाली उनकी चैंपियन कुक श्रीमती जी पता नहीं कब किसी फैमिली सीरियल की खूसट और अत्याचारी सास में तब्दील हो गईं. गुप्ता अंकिल तो आज भी पकवान चुराने तक को तैयार रहते हैं पर आजकल उनके घर में हर तर माल पर ताला लगा रहता है और हर जगह – ‘चाबी खो जाए’ वाला किस्सा सुनाई देता है.
कैलोरी-चार्ट, वेट-चार्ट, कार्बोहाइड्रेट की मात्रा, लो कैलोस्ट्रोल-डाइट जैसी नितान्त टैक्निकल बातों से गुप्ता अंकिल जैसे लिटरेचर के प्रोफ़ेसर का क्या लेना देना? वो कैसे मान लें कि एक छोटा सा रसगुल्ला उनके ब्लड शुगर लेवेल पर कहर ढा सकता है. मूँगफली जैसी मासूम और फ्रेंडली चीज़ को कैलोरीज़ और कार्बोहाइड्रेट का भण्डार कैसे माना जा सकता है? आलू और अरबी जैसी शानदार सब्जियों के बदले में कोई करेले या तोरई की बोरिंग सब्जियाँ क्यों खाए? फलों में अंगूर, आम, केले और चीकू जैसे शाही फलों से नाता तोड़कर वो खीरे, ककड़ी और मूली-गाजर जैसी घटिया चीज़ों को क्यों अपनाएँ? पुरानी कहावत है - ‘ पतली ने खाया, मोटी के सर आया. ’ अब उनका वज़न नहीं घटता तो क्या इसके लिए उन्हें दोषी ठहराना चाहिए? पर कौन समझाए दोस्त से दुश्मन बने डॉक्टर मेहता को और पुराने ज़माने में तर माल खिलाने वाली पर अब सिर्फ़ सलाद खिलाने वाली उनकी अपनी ही श्रीमतीजी को? सचिन या नवजोत सिंह सिद्धू किसी वन-डे मैच में धड़ाधड़ सिक्सर्स लगायें तो जश्न तो बनता है पर ऐसा कोई भी जश्न हमारे बेचारे गुप्ता अंकल एक-दो लड्डू खाकर भी नहीं मना सकते,
गुप्ता अंकिल की साहित्य सेवा तो इस संतुलित-आहार ने चौपट ही कर दी है. तीस ग्राम अंकुरित मूँग और दो सूखे ब्रेड स्लाइसेज़ के साथ फीकी चाय लेकर तो सिर्फ़ घाटे का बजट पेश किया जा सकता है, कहानी या कविता नहीं लिखी जा सकती. गुप्ता अंकिल की काव्य प्रतिभा चाय के साथ पोटैटो-चिप्स और गर्मा-गर्म पकौड़े खाकर ही निखर पाती है. डॉक्टर मेहता के इस डायटिंग के कानून से साहित्य-सृजन के क्षेत्र में कितनी हानि हो रही है, इसे कौन समझ पाएगा?
सूखी, उबाऊ और उबली जि़न्दगी जीते-जीते गुप्ता अंकिल तंग आ चुके हैं. टीवी पर बहुत से योगिराज भी उन्हें सताने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं. पूरी-पराठों की जगह सूखी रोटी, दम आलू की सब्ज़ी की जगह कच्ची लौकी खाने और करेले का जूस पीने का नुस्खा बता-बता कर उन्होंने गुप्ता आंटी को पहले से भी ज़्यादा सतर्क और स्ट्रिक्ट बना दिया है. पेटुओं के प्रति बाबाजी लोगों द्वारा कहे गए अपशब्दों के खि़लाफ़ तो गुप्ता अंकिल कोर्ट में मानहानि का मुकदमा करने की भी सोच रहे हैं पर क्या करें, कोई वकील उनकी तरफ़ से ऐसा मुकदमा लड़ने को भी तैयार नहीं है.
पिछली दो-तीन ब्लड-रिपोर्ट्स संतोषजनक आ जाने के बाद डॉक्टर मेहता ने तरस खाकर गुप्ता अंकिल को डायटिंग में कुछ छूट दे दी हैं. अब वो महीने में एकाद बार कुछ मीठा, कुछ नमकीन खा सकते हैं पर फिर सुबह-शाम उन्हें एक्सट्रा कैलोरीज़ जलाने के लिए पाँच-पाँच किलोमीटर ब्रिस्क वाक करना पड़ता है. इसके बाद योगिराजों के सुझाए आसन उनको अलग से करने पड़ते हैं. पापा के सजेशन पर अब उन्हें हर बार बदपरहेज़ी करने पर नीम की तीस पत्तियों खानी पड़ती हैं और करेले का एक गिलास जूस भी पीना पड़ता है. पर इस छूट मिलने के बाद से गुप्ता अंकिल बड़े रिलैक्स्ड रहने लगे हैं. अब उनका थोड़ा वक्त तर माल खाने में और बहुत सारा वक्त एक्सट्रा कैलोरीज़ जलाने के लिए ब्रिस्क-वाक करने में खर्च होता है. पापा सहित तमाम दोस्तों को मालूम है कि गुप्ता अंकिल अब घर पर कम और सड़क पर कैलोरीज़ जलाने के चक्कर में ज़्यादा मिलते हैं. गुप्ता अंकिल के संतुलित जीवन से डॉक्टर मेहता भी खुश है और हमारी गुप्ता आंटी भी.
गुप्ता अंकिल आजकल सबको अपनी बैलंस्ड डायट और एक्सरसाइज़ के बारे में बताते रहते हैं पर हम जासूसों ने उनकी चालाकी की पोल खोल दी है. हमने पता कर लिया है कि मोर्निंग-वाक के बहाने वो घर से दो चार किलोमीटर दूर जाकर किसी छोटी-मोटी दुकान पर चोरी से समौसे और जलेबी पर हाथ साफ़ कर लेते हैं. गुप्ता आंटी ने पापा से रिक्वेस्ट की है कि मोर्निंग वाक में वो अपने मित्र का साथ दें और उनके पेटूपने पर पूरा कन्ट्रोल रखें. पापा मुस्तैदी से अपने दोस्त के प्रति अपना फ़र्ज़ निभा रहे हैं और उनके नियम तोड़ने पर तुरंत उन्हें एक-दो डन्डे भी रसीद कर देते हैं. गुप्ता आंटी मोर्निंग-वाक पर जाने से पहले ही अपने पतिदेव की सभी जेबें खाली कर देती हैं.
गुप्ता अंकिल की एक्सरसाइज़ जारी है. भुने-चने के गिने-चुने दाने चबाते या बेमन से खीरा-ककड़ी, गाजर-मूली का आहार लेते हुए गुप्ता अंकिल अपने हितैषियों को अक्सर कोसते हुए सुने जा सकते हैं पर क्या करें सन्तुलित आहार लेने के सिवा उनके पास कोई और चारा भी तो नहीं है. हमारे गोल-मटोल गुप्ता अंकिल अब काफ़ी दुबले हो गए हैं. रिक्शे वालों ने उनसे डबल किराया माँगना भी बन्द कर दिया है. अब एक्स्ट्रा लार्ज साइज़ के कपड़ों की खोज में उन्हें खून-पसीना भी एक नहीं करना पड़ता पर हमारे गुप्ता अंकिल फिर भी खुश नहीं हैं. उनके हिसाब से जीवन में बैलंस्ड-डायट लेने से बड़ी कोई सज़ा नहीं है. उनका मन करता है कि वो बगावत कर दें, पेटूपने के खुले आकाश में फिर से उड़ान भरें पर फिर डॉक्टर मेहता के उपदेश, पापा के डन्डे की मार या गुप्ता आंटी की फटकार के डर से वो डिसिप्लिन्ड सोल्जर की तरह सारे निर्देशों को रिलीजसली फ़ालो करते हुए पाए जाते हैं.