यह किस्सा आज से करीब सौ साल पुराना है. उन दिनों बड़े शहरों में तो कारों का चलन हो गया था लेकिन छोटे-शहरों में तो कार देखने के लिए भीड़ जुट जाती थी. एक छोटे शहर के धन्ना सेठ ने कार खरीदी. शोफ़र द्वारा चालित कार की बैक-सीट पर सेठ ऐसे निकलता था जैसे कोई बादशाह हाथी पर निकलता हो और गाड़ी में बैठकर सभी पैदल यात्रियों को, इक्के-तांगे पर या रिक्शे-साइकल पर आने-जाने वालों को बड़ी हिकारत भरी नज़रों से देखता था.
सेठ के पड़ौस में कांजी हाउस (आवारा जानवरों को पकड़कर बंद करने का स्थान) में काम करने वाले एक मुंशी जी रहते थे. दस-पंद्रह रूपये महीने की तनख्वाह और चार-पांच रूपये महीने की ऊपरी आमदनी में अपने आधे दर्जन बच्चों वाले परिवार के साथ वो बड़ी मुश्किल से गुज़ारा करते थे. मुंशी जी जब हर सुबह अपनी टूटी-फूटी साइकिल पर घर से कांजी हाउस के लिए निकलते थे और शाम को कांजी हाउस से अपने घर लौटते थे तो उसी वक़्त उस सेठ की सवारी निकलती थी. जैसे ही सेठ और मुंशी जी की आँखें टकराती थीं तो सेठ उनको देख कर व्यंग्य भरी मुस्कान देकर अपनी 12 हॉर्स पॉवर की कार में बैठने का न्यौता ज़रूर देता था और जवाब में हमारे मुंशी जी सेठ को विनम्रता से मना करके, मन ही मन उसे कोसते ज़रूर थे.
सेठ की आदत थी कि वो शहर में कहीं भी अपनी कार पार्क करवा कर इधर-उधर चला जाता था. उसका अकड़ू ड्राइवर कार को हटाने की बात सुनकर फ़ौरन सेठ के पास जाकर चुगली करता था और फिर सेठ टोकने वाले के साथ महाभारत करता था. कांजी हाउस वाले मुंशी जी ने ऐसे नज़ारे कई बार देखे थे.
एक बार सेठ जी ने कांजी हाउस के सामने अपनी कार पार्क करवाई और फिर अपने ड्राइवर को उसकी निगरानी के लिए छोड़कर वो ख़ुद पास के दफ़्तर में चले गए. जहाँ कार पार्क की गयी थी, वहीं पास में एक बोर्ड लगा था –
‘यहाँ घोड़ा-गाड़ी खड़ा करना सख्त मना है.’
मुंशी जी ने निषिद्ध स्थान पर सेठ की कार खड़ी देखी तो उनकी बांछे खिल गईं. वो तुरंत अपने दल-बल के साथ पहुंचे और उन्होंने ड्राइवर को मजबूर कर दिया कि वो कार को कांजी हाउस के अन्दर खड़ी करे.
सेठ को पता चला तो तुरंत कांजी हाउस पहुंचा. कुर्सी पर बैठे क़ाज़ी की भूमिका निभाने वाले अपने पड़ौसी मुंशी जी के सख्त तेवर देख कर सेठ की सारी हेकड़ी निकल गयी. मुंशी जी ने सेठ के सलाम को अनदेखा करते हुए अपना फ़रमान सुनाया –
''सेठ जी, आपकी गाड़ी गलत जगह खड़ी की गयी थी. उसे आवारा जानवरों पर लागू कानून के तहत कांजी हाउस में बंद किया गया है.’
सेठ जी ने हैरानी से पूछा –
‘मेरी कार क्या कोई आवारा जानवर है?
मुंशी जी ने इस सवाल के जवाब में एक सवाल दाग दिया –
‘फिर आपकी गाड़ी आवारा जानवरों जैसे हरक़त क्यों करती है? जुरमाना भरिए और अपना जानवर ले जाइए.’
सेठ जी ने ताना मारते हुए पूछा –
‘आपके कांजी हाउस में आवारा कार को छोड़ने का क्या रेट है?’
मुंशी जी रजिस्टर में देखते हुए कहा –
‘एक आवारा घोड़े को 2 रूपये देकर छोड़ा जाता है. आप ख़ुद ही बताते हैं कि आपकी गाड़ी 12 हॉर्स-पॉवर की है. 2 रुपया प्रति घोड़े के हिसाब से 12 घोड़ों के चालान का हुआ कुल 24 रुपए. 24 रूपये देकर रसीद कटवाइए और अपनी गाड़ी ले जाइए.’
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (27-08-2019) को "मिशन मंगल" (चर्चा अंक- 3440) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
'चर्चा अंक - 3440' में मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूपचंद्र शास्त्री 'मयंक'.
जवाब देंहटाएंवाह अच्छा है मेरे पास गाड़ी नहीं है नहीं तो किसी दिन देने पड़ते 24 रुपिये।
जवाब देंहटाएंगाड़ी तो मेरे पास भी अवकाश-प्राप्ति के बाद आई लेकिन मुंशीजी वाली साइकिल तो इंटर में ही मिल गयी थी.
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