मंगलवार, 29 सितंबर 2020

कुर्सी बिन सब सून

 वो जो दिन रात रहा करता था  गुलज़ार कभी


गुलो-बुलबुल का हसीं बाग  उजड़ता क्यूं है


जी-हुज़ूरों से जो यशगान सुना करता था


आज बीबी से फ़क़त ताने ही सुनता क्यूं है


किसी अखबार में फ़ोटो भी नहीं दिखती है


फिर भी मनहूस बिना नागा ये छपता क्यूं है  


अब न फ़ीता है न कैंची न कोई माइक है


तालियाँ सुनने को दिल हाय मचलता क्यूं है 


दोस्त तो दोस्त पड़ौसी भी फ़क़र करता था


आज हर कोई मेरे साए से भी बचता क्यूं है


जादू कुछ मुझ में नहीं था तो मिरी कुर्सी में


जान कर दिल ये मुआ फिर भी तड़पता क्यूं है   

शनिवार, 26 सितंबर 2020

धीरज की परीक्षा

 सेठ जी (अपनी धर्मपत्नी से) : प्रिये ! इस लॉकडाउन में मेरा धंधा बिलकुल चौपट हो गया है. मुझे अपने धंधे को फिर से पटरी पर लाने लिए पचास लाख रुपयों की सख्त ज़रुरत है.

तुम्हारे अकाउंट में तो दो करोड़ रूपये फ़ालतू पड़े हैं. तुम अगर पचास लाख रुपयों की मदद कर दो तो मैं बर्बाद होने से बच जाऊंगा.
गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है -
धीरज धर्म मित्र अरु नारी।
आपद काल परिखिअहिं चारी॥
तुम तो धार्मिक भी हो. मेरी मित्र भी हो और एक महान नारी तो हो ही.

मुझे विश्वास है कि तुम मेरे इस आपद काल में मेरी मदद कर के तुलसीदास जी की इस कसौटी पर खरी उतरोगी.

धर्मपत्नी : प्राणनाथ ! तुलसीदास जी ने धर्म, मित्र और नारी से पहले 'धीरज' का उल्लेख किया है.
आप आपदकाल के समय - धर्म, मित्र और नारी को परखना भूल जाइए और केवल अपने धीरज को परखिए.
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बुधवार, 23 सितंबर 2020

सुदामा चरित

कलयुगी सुदामा : मित्र ! मुझे दो लाख रूपये दे दो. अगर मुझे ये रकम नहीं मिली तो तुम समझ

लेना कि तुम्हारा दोस्त मर गया !

कलयुगी श्री कृष्ण : मित्र ! तुम किस से बात कर रहे हो? मैं तो तुमसे भी पहले मर चुका हूँ.

सन्दर्भ :

रहिमन वे नर मर चुके जो कहुं मांगन जाहिंं

उन ते पहले वे मुए जिन मुख निकसत नाहिं

शनिवार, 19 सितंबर 2020

आयातित आत्मनिर्भरता

 आयातित आत्मनिर्भरता -


अपनी तो बस, मूंछें ही मूंछें हैं' यह बात भारतेंदु हरिश्चंद्र ने आज से 136 साल पहले, बलिया में दिए गए अपने भाषण में

कही थी. और - 'फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी' वाली बात शैलेन्द्र ने 1954 में फ़िल्म - 'श्री 420' में कही थी.

और अब हम कह रहे हैं -

टीवी चीनी या जापानी

भाषा ख़ालिस इंगलिश्तानी

मेरे अस्त्र-शस्त्र अमरीकी

फिर भी मूंछे हिन्दुस्तानी

गुरुवार, 17 सितंबर 2020

हिंदी पखवाड़ा

हिंदी दिवस का जश्न तो जैसे तैसे मना लिया जाता है लेकिन एक पखवाड़े तक हिंदी पखवाड़ा मनाना तो बहुत कष्टकारी है.
हिंदी-भक्त होने की नौटंकी महाभारत की अवधि से मात्र तीन दिन कम के लम्बे समय तक कैसे खेली जा सकती है?
हिंदी पखवाड़ा जिस ऐतिहासिक घटना की स्मृति में मनाया जाता है, उस घटना का मैं आज खुलासा कर रहा हूँ –
इसी पखवाड़े में कलयुगी राजा रामचंद्र ने माता कौशल्या रूपी हिंदी को निर्वासित कर, कैकयी रूपी अपनी सौतेली माता अंग्रेज़ी को राजभाषा रूपी राजमाता के पद पर प्रतिष्ठित किया था.
एक बार फिर से मेरी पुरानी कविता -
1.
कितनी नक़ल करेंगे, कितना उधार लेंगे,
सूरत बिगाड़ माँ की, जीवन सुधार लेंगे.
पश्चिम की बोलियों का, दामन वो थाम लेंगे,
हिंदी दिवस पे ही बस, हिंदी का नाम लेंगे.
2.
जिसे स्कूल, दफ्तर से, अदालत से, निकाला था,
उसी हिंदी को घर से और दिल से भी निकाला है.
तरक्क़ी की खुलें राहें, मिले फिर कामयाबी भी,
बड़ी मेहनत से खुद को, सांचा-ए-इंग्लिश में ढाला है.
3.
सूर की राधा दुखी, तुलसी की सीता रो रही है,
शोर डिस्को का मचा है, किन्तु मीरा सो रही है.
सभ्यता पश्चिम की, विष के बीज कैसे बो रही है,
आज अपने देश में, हिन्दी प्रतिष्ठा खो रही है.
4.
आज मां अपने ही बेटों में, अपरिचित हो रही है,
बोझ इस अपमान का, किस श्राप से वह ढो रही है.
सिर्फ़ इंग्लिश के सहारे, भाग्य बनता है यहां,
देश तो आज़ाद है, फिर क्यूं ग़ुलामी हो रही है.

एक नए छंद का जन्म -

सुश्री सुषमा सिंह ने अपनी टिप्पणी में यह सुन्दर कविता उद्धृत की -
‘कभी तुलसी, कभी मीरा, कभी रसखान है, हिन्दी
कभी दिनकर, कभी हरिऔध की, मुस्कान है हिन्दी.
निराला की कलम से जो, निकलकर विश्व में छाई,
हमारे देश हिन्दुस्तान की, पहचान है हिन्दी.’

मैंने इस पर अपनी आपत्ति जताते हुए कहा है -


निराला को कभी जो एक कुटिया तक न दे पाई,
वही बे-बेबस, भिखारन, बे-सहारा, है मेरी हिंदी !'
जिसे वृद्धाश्रम में, ख़ुद, समूचे दिन बिताने हैं,
किसी के भाग्य को अब क्या संवारेगी, मेरी हिंदी !

 

सोमवार, 14 सितंबर 2020

हिंदी दिवस

हिंदी दिवस, हिंदी पखवाड़ा आदि का नाटक हम 1960 के दशक से देखते और सहते आ रहे हैं. भारतेंदु हरिश्चंद्र की पंक्ति - 'निज भाषा उन्नति अहै , सब उन्नति को मूल' को सुन-सुन कर तो हमारे घरों के पालतू तोते भी उसे गुनगुनाने में निष्णात हो गए हैं. हिंदी को भारत के माथे की बिंदी बताने की रस्म आज हिंदी-भाषी क्षेत्र का बच्चा-बच्चा निभा रहा है. अल्लामा इक़बाल के क़ौमी तराने की पंक्ति- 'हिंदी हैं, हम वतन हैं, हिन्दोस्तां हमारा' का अर्थ समझे बिना आज के दिन हिंदी भक्त उसे दोहराते आए हैं. यहाँ यह बता दूं कि इस पंक्ति में 'हिंदी' का अर्थ है - हिंद का निवासी यानी कि हिन्दुस्तानी यहाँ हिंदी भाषा से इसका कोई लेना देना नहीं है. 

भारतेन्दुकालीन हिंदी नवजागरण में हिंदी के सर्वतोमुखी विकास का सार्थक प्रयास प्रारंभ हुआ. हिंदी को स्थानीय बोलियों और साहित्य की भाषा से कहीं ऊपर शिक्षा, राजकाज, न्यायपालिका और व्यापार की भाषा के रूप में विकसित करने के प्रयास प्रारंभ हुए. फूट डाल कर शासन करने की नीति अपनाने वाले अंग्रेज़ शासकों ने इसे हिंदी-उर्दू तथा हिन्दू-मुसलमान का आपसी झगड़ा बना दिया. कबीर के शब्दों में कहें तो - 'अरे इन दोउन राह न पाई' हिंदी-उर्दू के झगड़े ने, देवनागरी लिपि और अरबी-फ़ारसी लिपि की आपसी टकराहट ने दोनों का नुकसान किया और अंग्रेज़ी भाषा का तथा रोमन लिपि का प्रभुत्व ज्यों का त्यों बना रहा. बहुत कम हिंदी समर्थक यह मानते हैं कि मानक हिंदी उर्दू की ऋणी है. भारतेंदु के युग में जिस खड़ी बोली का विकास किया गया, द्विवेदी युग में जिसका परिष्कार किया गया, उसका पहला पन्ना तो अमीर ख़ुसरो सात सौ साल पहले लिख चुके थे. उन्नीसवीं शताब्दी में उर्दू, हिंदी से बहुत आगे थी और हिंदी का हर प्रतिष्ठित विद्वान उन दिनों उर्दू भाषा तथा उर्दू अदब का जानकार हुआ करता था. स्वतंत्रता के बाद हिंदी का ही क्या, सभी भारतीय भाषाओँ का जिस तरह विकास होना चाहिए था, वह नहीं हुआ. हमारी कोई राष्ट्रभाषा नहीं बनी और व्यावहारिक दृष्टि से अंग्रेज़ी ही राजकाज, न्याय और उच्च शिक्षा की भाषा बनी रही. 1960 के दशक के हिंदी आन्दोलन को मुख्य रूप से संभाला अवसरवादी नेताओं ने, जिन्होंने कि अपने बच्चों को अंग्रेज़ी तालीम के लिए विलायत भेजने से कभी परहेज़ नहीं किया. हिंदी का विरोध करने वालों ने भी अपने-अपने क्षेत्र में अपनी-अपनी भाषाओँ का विकास करने के स्थान पर निजी स्वार्थ और सत्ताग्रहण को वरीयता दी. 

आज़ादी के 73 साल बाद भी हिंदी विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में प्रामाणिक मौलिक ग्रन्थ उपलब्ध कराने में अक्षम है. आज भी न्यायालयों की कार्रवाई आमतौर पर अंग्रेज़ी में ही होती है. हमारी जन-प्रतिनिधि सभाओं में भी अंग्रेज़ी बोलने वालों का दबदबा रहता है. आमतौर पर हम हिंदी भाषी केवल एक भाषा जानते हैं लेकिन अन्य भाषाभाषियों से यह अपेक्षा करते हैं कि वो हिंदी सीखें. मेरी दृष्टि में हिंदी का विकास करने के लिए हमको किसी भी भाषा से कुछ भी अच्छा लेने से परहेज़ नहीं करना चाहिए. सिर्फ़ हिंदी जानने वाले हिंदी का समुचित विकास नहीं कर सकते. भाषा को धर्म से जोड़ने की ग़लती भी हिंदी का नुक्सान कर रही है. हिंदी को सिर्फ़ हिन्दुओं की भाषा नहीं बनने देना चाहिए. उसमें शुद्ध, प्रांजल, संस्कृतनिष्ठ शब्दों का बाहुल्य नहीं होना चाहिए. अगर उसमें उर्दू, पंजाबी, तेलगु आदि भाषाओँ के ही नहीं बल्कि अंग्रेज़ी के शब्द भी आ जाएं तो कोई हर्ज़ नहीं है. ऑक्सीजन को ओशोजन और नाइट्रोजन को नत्रजन कह कर हम हिंदी की सेवा नहीं. बल्कि उसको हानि पहुंचा रहे हैं. आज हमने देवनागरी लिपि में नुक्ते का प्रयोग कम कर के उसे उर्दू से बहुत दूर कर दिया है. हम हिंदी भाषा को और देवनागरी लिपि को अधिक समर्थ बनाने का, उन्हें अधिक लचीली बनाने का प्रयास करें, न कि उन्हें एक सीमित दायरे में बाधें. हिंदी को गंगा की तरह होना चाहिए जो कि सभी नदियों का जल ख़ुद में मिलाने में कभी संकोच नहीं करती है. 

अध्यापन में सारी उम्र बिताने के बाद मैं तो इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि फ़िलहाल भारत में तरक्की करने के लिए नई पीढ़ी को अंग्रेज़ी तो सीखनी ही पड़ेगी और अगर हो सके तो कोई अन्य भाषा जैसे चीनी या जापानी भी कोई सीख ले तो उसे आगे बढ़ने से फिर कोई नहीं रोक सकता. हिंदी की विशेषता गिनाते समय हमको यह नहीं भूलना चाहिए कि सिर्फ़ हिंदी का ज्ञान हमको सफल नेता तो बना सकता है लेकिन अन्य क्षेत्रों में हमारा पिछड़ना तय है. हमारे जैसे पढ़े-लिखे हिंदी भाषी शायद ही कोई अन्य भारतीय भाषाएँ जानते हैं. क्या यह हमारे लिए शर्म की बात नहीं है? तमिल और बांगला जैसी महान भाषाओँ के ग्रंथों को मूल रूप में हम हिंदी भाषी पढ़ ही नहीं सकते. हिंदी का विकास हो रहा है पर वह बाज़ार की आवश्यकता है. हिंदी का प्रचार मुम्बैया सिनेमा की बदौलत हो रहा है तो इस पर भी हमको गर्व करने का अधिकार नहीं है. हमने हिंदी को सक्षम बनाने के लिए कुछ नहीं किया है. मुझे हिंदी बोलने में शर्म नहीं आती लेकिन मुझे हम हिंदी भाषियों की काहिली पर, हमारी हठवादिता पर बहुत शर्म आती है. हिंदी दिवस को, हिंदी पखवाड़े को, हम हिंदी युग तो तभी बना पाएंगे जब हम इमानदारी से उसके विकास के लिए प्रयास करेंगे. और जब तक हम ऐसा नहीं करेंगे तब तक एक दूसरे को हिंदी दिवस की, हिंदी पखवाड़े की, बधाई देकर अपना मन बहला लेंगे और हिंदी की सेवा करने का ख़ुद को श्रेय देकर अपनी पीठ थपथपा लेंगे.

शनिवार, 12 सितंबर 2020

काशी क्यों तन तजे कबीरा

जो काशी तन तजे कबीरा, कैसे शोक मनाएंगे? 

 महामहिम भी क्या अर्थी को, कान्धा देने आएँगे? 

 याद में उसके सभी तिरंगे, कुछ दिन क्या झुक जाएंगे? 

 स्वर्ग-गमन के बाद उसे क्या, भारत-रत्न दिलाएंगे? 

 माला फेरन के नाटक का, क्या हम अंत कराएंगे? 
 
कांकर-पाथर से गरीब का, घर क्या कभी बनाएंगे? 

 आपस में जो लड़ते मूए, मर्म समझ क्या पाएंगे? 

 ढाई आखर प्रेम का पंडित, भला कभी पढ़ पाएंगे? 

 माया ठगिनी सत्यानासी, जान कभी क्या पाएंगे? 

 मन्दिर-मस्जिद छोड़ आप क्या, सांचे हिरदे आएँगे? 

 राम-रहीमा साथ बैठ कर, सब में मेल कराएंगे? 

 धरम-दीन के नाम खून का, दरिया नहीं बहाएंगे? 

 अगर नहीं कुछ ऐसा हो तो, मगहर में मरना बेहतर.

 बहुत सादगी पुर-सुकून से, माटी में मिलना बेहतर. 

नहीं जलाओ दफ़न करो मत, उसे भुला दो तो बेहतर, 

 भारत के इतिहास से उसका, नाम मिटा दो तो बेहतर.

बुधवार, 9 सितंबर 2020

भारत-पर्व

दंगाई का भी तो हक़ है, जो जी चाहे करने दो. 

 उसके काम न आड़े आओ, कफ़न सभी का सीने दो. 

 सदियों से उसके पुरखों ने, मुल्क को अपनी ख़िदमत दीं. 

 भेद-भाव के बिना सभी को, लूटा और फ़क़ीरी दीं. 

 उसे देश का दुश्मन कह के, मत उसका अपमान करो. 

 उसके दम पर चले हुकूमत, इस पर थोड़ा ध्यान धरो. 

 कितने मासूमों को उसने, दुनिया से आज़ाद किया. 

 लूटी अस्मत जिनकी उनको, रहने को बाज़ार दिया. 

 धर्म और मज़हब को उसने, लड़ कर जीना सिखलाया. 

 क्या गौतम का क्या गांधी का, प्रवचन काम नहीं आया. 

 कोरोना ने लीले कितने, ये बेकार फ़साना है. 

 सीमा पर दुश्मन मंडराए , मसला बहुत पुराना है. 

 अर्थ-व्यवस्था जीर्ण-शीर्ण पर, भारत स्वर्ग दिखाना है. 

 आज रिया है या सुशांत है, फिर चुनाव भी आना है. 

 कितने घर के दीप बुझ गए, मन्दिर दीप जलाना है. 

 वसुधा को कुटुंब क्यूं मानें, घर-घर सर फुटवाना है. 

 शहर-गाँव श्मशान बनें पर, आगे बढ़ते जाना है. 

 घर-घर क़ब्रिस्तान बनें पर, भारत पर्व मनाना है.

सोमवार, 7 सितंबर 2020

गुरु बिन मिले न ज्ञान

हम अपने बचपन से ही गुरु-वंदना सम्बंधित श्लोक, दोहे और कविताएं सुनते आए हैं. आज की भागदौड़ वाली और गला-काट प्रतियोगिता वाली ज़िंदगी में हमको सुकरात और चाणक्य सदृश गुरुजन तो मिलने से रहे लेकिन आज भी अपने काम के प्रति समर्पित और निष्ठा के साथ ज्ञान की ज्योति का चहुँ-ओर प्रसार करने वाले गुरुजन के दर्शन होना दुर्लभ नहीं हैं. इस संस्मरण में मैं ऐसे गुरुजन का उल्लेख करना चाहता हूँ जिन्होंने हमारे परिवार के सदस्यों के दिलों में एक ख़ास और कभी न मिटने वाली जगह बनाई है. 

सबसे पहले मैं अपने बड़े भाई साहब और हमारी पीढ़ी के गुरु श्री कमल कांत का ज़िक्र करूंगा. 
हमारे कमल भाई साहब की ज्ञान-पिपासा असीमित है. आज भी वो अपने ज्ञान-कोष को अधिक से अधिक समृद्ध बनाने में संलग्न रहते हैं और फिर इस संचित ज्ञान को - दोऊ हाथ उलीचने का आनंद लेते हैं. 
भाई साहब भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित होने से पहले भूगर्भ शास्त्र के प्रवक्ता रहे हैं और अवकाश-प्राप्ति के बाद वो 'कॉमन कॉज़' जैसी समाज-सेवी संस्था से सम्बद्ध हैं लेकिन वो एक अध्यापक के रूप में ही मेरे लिए सबसे आदरणीय हैं.

हमारे घर के सदस्यों की भाषा को सुधारने में कमल भाई साहब की प्रमुख भूमिका रही है. हम सब में साहित्य-प्रेम भी उन्होंने ही जागृत किया है. मुझे कक्षा दो तक संयुक्ताक्षर पढ़ना नहीं आता था जिसके कारण मेरी क्लास में खूब कान-खिंचाई होती थी. कमल भाई साहब ने मुझे कक्षा तीन से पहले इतना आलिम फ़ाज़िल बना दिया कि मैं अपनी पाठ्य-पुस्तकें ही नहीं, बल्कि साहित्यिक रचनाएं भी पढ़ने लगा. 

हमारे बचपन में हमारे दो रूपये महीने के जेब खर्च में से भाई साहब हम से महीने में एक रुपया होम-लाइब्रेरी के लिए झटक लेते थे. उन दिनों मैं इसे अपना शोषण समझता था लेकिन छोटी उम्र में ही होम-लाइब्रेरी की बदौलत प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, हरिवंश राय बच्चन, डेनियल डिफ़ो, चार्ल्स डिकेंस, लुइस कैरोल और न जाने किन-किन के ग्रंथों से उन्होंने मेरा परिचय करा दिया था. 
आज मैं सत्तरवें साल में चल रहा हूँ लेकिन कमल भाई साहब आज भी मेरे विश्वकोश हैं, मेरे गूगल-गुरु हैं. आज भी मेरी तथ्यात्मक और भाषागत कमियों को वो खुलकर बताते हैं ,उनको दूर करते हैं. मुझे कमल भाई साहब से सिर्फ़ दो शिकायतें हैं - 

पहली शिकायत यह है कि वो हमारे सवाल का जवाब कभी सीधा नहीं देते और सवाल के जवाब में सुकरात की तरह हमसे सवालों की झड़ी लगा कर हमारे सवाल का जवाब हम से ही उगलवाना चाहते हैं. बाद में जब हम थक कर चूर हो जाते हैं और अपने ही सवाल का खुद जवाब नहीं दे पाते तो फिर विस्तार से वो उसका जवाब देते हैं. 

भाई साहब से मुझे दूसरी शिकायत यह है कि उनका इतिहास विषयक ज्ञान मुझ से अधिक है जिसके कारण मुझ जैसे भोले किन्तु आराम-तलब इंसान को कई बार मुश्किलों का सामना करना पड़ जाता है. 

अब एक क़िस्सा कमल भाई साहब के जोशी सर का - 

1956 में पिताजी का तबादला बिजनौर से लखनऊ हो गया. कमल भाई साहब ने बिजनौर से 9 वीं कक्षा उत्तीर्ण की थी और अब 10 वीं कक्षा के लिए उन्हें लखनऊ के 'बॉयज़ एंग्लो-बंगाली इन्टर कॉलेज में प्रवेश दिला दिया गया था. 
उन दिनों उत्तर प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में हाईस्कूल स्तर पर अलग-अलग पाठ्य-पुस्तकें प्रचलित थीं जिन में कक्षा 9 और कक्षा 10 में पाठ्यक्रम के अध्यायों में भी अंतर हुआ करता था. कमल भाई साहब को अब लखनऊ में बहुत से अध्याय ऐसे पढ़ने थे जिनको उन्हें बिजनौर में ही पढ़ा दिया गया था और बहुत से ऐसे थे जिन को उन्हें अपने स्तर पर ही पढ़ना था. 
हिंदी और अंग्रेज़ी, इन दोनों विषयों में तो भाई साहब अपने स्तर पर कुछ भी तैयार कर सकते थे लेकिन बायोलॉजी में उन्हें ऐसी कठिन परिस्थिति का अपने स्तर पर समाधान करने में बहुत कठिनाई हो रही थी. भाई साहब के बायोलॉजी के गुरु जी, जोशी सर ने उनकी इस कठिनाई का अनुभव किया. 
यह नया विद्यार्थी उन्हें बहुत मेधावी तो लगा लेकिन विषय के कई अध्याय समझने में उसे बहुत कठिनाई हो रही थी. जोशी सर ने अपने इस नए विद्यार्थी की समस्या को विस्तार से जाना और फिर उन्होंने उसका निदान भी खोज लिया. 

जोशी सर अपनी साइकिल से हमारे घर पहुंचे और फिर उन्होंने पिताजी के साथ इस समस्या के समाधान के विषय में चर्चा की. उन्होंने भाई साहब को बायोलॉजी में ट्यूशन देने का सुझाव दिया जिसको पिताजी ने तुरंत स्वीकार कर लिया. पिताजी ट्यूशन के लिए भाई साहब को बाहर नहीं भेजना चाहते थे इसलिए जोशी सर ने सप्ताह में तीन दिन हमारे घर आकर उन्हें पढ़ाने का ज़िम्मा ले लिया. 

एक अध्यापक का किसी विद्यार्थी के घर आकर उसे ट्यूशन देना कोई अचरज की बात नहीं थी लेकिन जो बात जोशी सर की महानता की द्योतक थी , वह यह थी कि उन्होंने इस सेवा के लिए किसी भी प्रकार का पारश्रमिक लेने से इंकार कर दिया. एक प्राइवेट इन्टर कॉलेज के अध्यापक को तब क्या वेतन मिलता होगा? अपनी सीमित आय को अतिरिक्त श्रम कर के कौन नहीं बढ़ाना चाहता है? लेकिन जोशी सर दूसरी मिट्टी के ही बने थे. उन्होंने भाई साहब को नियमित रूप से घर आ कर पढ़ाया और गुरु-शिष्य की मेहनत रंग लाई. भाई साहब ने प्रथम श्रेणी में हाईस्कूल उत्तीर्ण किया. 

एक ऐसा ही क़िस्सा मेरे छोटे भाई साहब कानन विहारी का है. 
कानन भाई साहब ने कक्षा 9 इटावा से उत्तीर्ण की और कक्षा 10 में उनका प्रवेश रायबरेली में हुआ. उनकी समस्याएं भी बड़े भाई साहब की सी ही थीं लेकिन गणित विषय में तो यह समस्या भयावह थी क्योंकि काफ़ी दिनों तक उनके कॉलेज में गणित का कोई अध्यापक ही नहीं था. 

सत्र प्रारम्भ होने के लगभग तीन महीने बाद नक़वी साहब गणित के अध्यापक नियुक्त होकर वहां आए. नक़वी साहब को आदि से अंत तक गणित का पाठ्यक्रम पढ़ाना था. नक़वी साहब ने पहले दिन से ही दो-दो घंटे के एक्स्ट्रा क्लासेज़ लेकर विद्यार्थियों के जीवन को गणितमय बना दिया. छह महीनों में ही नक़वी साहब ने गणित में हाईस्कूल का पूरा कोर्स विद्यार्थियों को पढ़ा दिया. 

लहीम-शहीम व्यक्तित्व वाले नक़वी साहब का डंडा उन से से भी ज़्यादा मोटा-तगड़ा हुआ करता था और उसका इस्तेमाल हर असावधान-लापरवाह विद्यार्थी पर करना वो अपना अधिकार समझते थे. ऐसे कर्तव्य-निष्ठ और प्रतिबद्ध किन्तु सख्त अध्यापक को आम विद्यार्थी एक जल्लाद के रूप में ही याद करता था. 

हमारे कानन भाई साहब की बुद्धिमत्ता देख कर नक़वी साहब ने उनके सामने यह लक्ष्य रख दिया कि उन्हें ज़िला रायबरेली में हाईस्कूल में टॉप करना है. भाई साहब ने अपने गुरु की अपेक्षाओं पर खरा उतरते हुए हाईस्कूल में रायबरेली में टॉप किया और उत्तर प्रदेश में मेरिट में 20 वां स्थान प्राप्त किया. 

अंत में मैं अपने पूज्य गुरु जी डॉक्टर भगवानदास माहौर का उल्लेख करूंगा. 

बुंदेलखंड कॉलेज झांसी में बी. ए. में मुझे हिंदी-काव्य पढ़ाने वाले डॉक्टर भगवान दास माहौर एक आदर्श अध्यापक थे. 

चंद्रशेखर आज़ाद , भगत सिंह के इस क्रांतिकारी साथी ने सोलह साल की उम्र में एक सरकारी मुखबिर पर अदालत के प्रांगण में गोली चलाई थी. बरसों जेल की सज़ा काटने के बाद जेल से निकल कर इस किशोर ने अपनी छूटी हुई पढ़ाई पूरी की और फिर बुंदेलखंड कॉलेज के हिंदी विभाग को एक अध्यापक के रूप में सुशोभित किया. 

माहौर गुरु जी का पढ़ाने का तरीक़ा ऐसा था कि वो खुद कविता में डूब जाते थे और जागरूक विद्यार्थियों को भी उसमें डुबा-डुबा देते थे. 
गुरु जी कविता की व्याख्या और उसके सन्दर्भ को रटने-रटाने के सख्त ख़िलाफ़ थे इसलिए रट्टू तोते उनकी कक्षा में ऊँघते रहते थे लेकिन मेरे जैसे साहित्य-प्रेमी विद्यार्थी मन्त्र-मुग्ध होकर उनके व्याख्यान सुनते थे. 

मेरे लिए तो कॉलेज में गुरुजी के व्याख्यान बहुत कम पड़ते थे. मैं फिर स्टाफ़ रूम में जाकर उनका सर खाता था. स्टाफ़ रूम में मेरे घुसते ही अन्य अध्यापक मुझे वहां से भगाने की कोशिश में लग जाते थे. माहौर गुरु जी ने स्टाफ़ रूम में मेरा ऐसा विरोध देख कर मुझे अपने घर आने की इजाज़त दे दी. 

छुट्टियों के दिनों में मैं गुरु जी के घर जाकर घंटों हिंदी-साहित्य की बारीकियां समझता था और इसके बदले में मुझे उनकी श्रीमती जी की यानी कि हमारी ताईजी के हाथों की बनी मठरियां और लड्डू खाने को मिलते थे. 

हिंदी साहित्य में मेरी अभिरुचि जागृत करने में कमल भाई साहब के बाद अगर किसी का हाथ है तो माहौर गुरु जी का है. 

माहौर गुरु जी का समस्त जीवन अनुकरणीय है. वो एक महान देशभक्त थे किन्तु मेरे लिए वो सबसे पहले एक आदर्श अध्यापक थे. 

मैंने अपने जीवन में बहुत से पैसे कमाने वाले गुरुजन देखे हैं और आज के ज़माने में उन जैसों को ही अपने पेशे में सफल माना जाता है लेकिन ऐसे गुरुजन हमारे दिलों में कभी जगह नहीं बना पाते. 

हमारे दिल में अपना स्थायी निवास बनाने वाले गुरुजन तो वही होते हैं जो कि सादा-जीवन, उच्च विचार में विश्वास करते हुए निरंतर निस्वार्थ भाव से ज्ञान का प्रसार करते हैं. हमको ज्ञान का दीपक दिखाकर सन्मार्ग की ओर ले जाने वाले ऐसे महानुभावों को हम अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए कहते हैं - 

अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । 

चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥