शनिवार, 30 जुलाई 2022

रजिस्ट्रार गुरु जी

 रजिस्ट्रार गुरु जी से मेरा आशय उन गुरुजन से नहीं है जो कि अध्यापक और रजिस्ट्रार का दायित्व एक साथ सम्हालते हैं बल्कि उन विभूतियों से है जो कि क्लास में छात्र-छात्राओं की उपस्थिति दर्ज करने के लिए या तो अपना अटेंडेंस रजिस्टर खोलते हैं या फिर पढ़ाते समय अपने नोट्स वाले रजिस्टर से उनको इमला लिखाते रहते हैं.

ऐसे सभी गुरुजन के लिए रजिस्टर, जीवन-दायिनी ऑक्सीजन के समान होता है.

अपनी ख़ुद की अक्ल को ताक पर रख कर, दूसरों की बुद्धि के सहारे, आजीवन ज्ञान-बांटने वाली ऐसी नमूना विभूतियों को मैं रजिस्ट्रार गुरु जी कहता हूँ.

जो विद्वान गुरुजन कक्षा में अपने रजिस्टर से अथवा अपनी फ़ाइलों से, नोट्स लिखाने के स्थान पर पॉइंट्स लिखी पुर्चियों पर चोरी-छुपे या खुलेआम निगाह डालते हुए, अटक-अटक कर, छोटे-मोटे लेक्चर देते हैं, उन्हें मैं आदरपूर्वक डिप्टी रजिस्ट्रार कहता हूँ.

 अपने छात्र जीवन में मुझे कई रजिस्ट्रार गुरुजन और कई डिप्टी रजिस्ट्रार गुरुजन से ज्ञान (?) प्राप्त हुआ है.

गवर्नमेंट इंटर कॉलेज, इटावा में मैं कक्षा 6 में पढ़ता था.

हमारे साइंस के मास्साब को ज़बर्दस्ती हमको संस्कृत पढ़ाने की ज़िम्मेदारी भी दे दी गयी.

हमारे इन मास्साब को संस्कृत का ’, ‘’, ‘भी नहीं आता था.

वो बेचारे संस्कृत गद्य का पाठ भी गा कर करते थे और उसका अर्थ बिना किसी झिझक के, एक रजिस्टर में कुंजी से उतारे हुए नोट्स देख कर हमको लिखवाते थे.

इस प्रकार बचपन में ही मुझे एक रजिस्ट्रार गुरु जी मिल गए थे.

अब मैं कक्षा छह से सीधे अपने बी० ए० के दिनों में आता हूँ.

झाँसी के बुंदेलखंड कॉलेज में इतिहास के हमारे विभागाध्यक्ष डॉक्टर बी० डी० गुप्ता प्रसिद्द विद्वान थे. उनके पढ़ाने के अंदाज़ का मैंने आजीवन अनुकरण किया है पर हमारी बदकिस्मती से बी० ए० फ़ाइनल में उनकी जगह कोई गोलमटोल काली माई नहीं, बल्कि ताड़का जैसी कोई महा-खूंखार मिस तिवारी हमको यूरोप का इतिहास पढ़ाने आ गईं.

मिस तिवारी बहन मायावती की तरह हमेशा बोलते समय रजिस्टर अपने सामने रखती थीं और हमको लेक्चर देने के बजाय सिर्फ़ नोट्स लिखाती रहती थीं.

सबसे दुखदायी बात यह थी कि उनके नोट्स '’राजहंस प्रकाशनकी एक मेड इज़ी की हूबहू कॉपी हुआ करते थे.

हम पीड़ित विद्यार्थी बड़ी हिम्मत कर के राजहंस प्रकाशन की यूरोपीय इतिहास विषयक मेड इज़ी और मैडम तिवारी के इमला कराए नोट्स ले कर डॉक्टर गुप्ता के पास उनकी शिकायत करने गए पर गुरु जी ने मेड इज़ी का और मैडम तिवारी के इमला कराए नोट्स का मिलान करने के स्थान पर हमको डांट कर भगा दिया और साथ में हमको ये चेतावनी भी दे डाली कि अगर हमने मैडम के क्लास में कोई भी और कैसा भी हंगामा किया तो वो हमारे खिलाफ़ एक्शन भी लेंगे.

हम बेचारे खून का घूँट पी कर मिस गोलमटोल तिवारी द्वारा बोली गयी इमला को लिखने को मजबूर हो गए.

कुछ समय पहले मैंने रीतिकालीन कवि आलम और उनकी रंगरेजन प्रेमिका द्वारा संयुक्त रूप से रचित प्रश्नोत्तरनुमा यह दोहा पढ़ा था

कनक छरी सी कामिनी, काहे को कटि छीन,

कटि को कंचन काटि के, कुचन मध्य, धर दीन.

(स्वर्ण-दंड सी सुन्दरी हमारी नायिका की कटि अर्थात कमर इतनी पतली क्यों है?

विधाता ने हमारी नायिका की स्वर्ण-कटि का स्वर्ण निकाल कर उसके कुचों में अर्थात उसके स्तनों में, डाल कर उन्हें पुष्ट कर दिया है)

 ताड़का रूपी मिस तिवारी के ज़बर्दस्ती नोट्स लिखाने के अत्याचार के फलस्वरुप मेरे अन्दर का सोया हुआ कवि जाग उठा और मैंने आलम-रंगरेजन के दोहे की तर्ज़ पर एक दोहा लिख मारा

लौह-घटक सी बाम्हनी, काहे को मति हीन,

मेड इज़ी से नोट्स दे, सब फ़ाइल भर दीन.

मित्रों, मेरी इस धृष्टता को रंगभेदी, जातिवादी और ब्राह्मण-विरोधी मत समझिएगा. यह तो एक प्रसिद्द दोहे को एक अधकचरे कवि द्वारा नया मोड़ देने का निहायत बचकाना और शरारती प्रयास मात्र था.

मेरे इस शरारती दोहे की भनक पता नहीं कैसे हमारे डॉक्टर बी० डी० गुप्ता तक पहुँच गयी.

उन्होंने मिस तिवारी की उपस्थिति में अपने कक्ष में मुझे बुला कर मुझ से मेरा दोहा सुना, फिर मुझे कस कर डांटा पर पता नहीं क्यों मुझे डांटते हुए उनकी खुद की हंसी फूट पड़ी.

दुखी, नाराज़ और भौंचक्की खड़ी मैडम तिवारी के सामने - खी, खी, खीकरते हुए गुप्ता गुरुदेव ने मुझ से भाग जाने को कहा तो फिर मैं वहां से मिल्खा सिंह की स्पीड से अपनी जान बचा कर भाग आया.

लखनऊ विश्ववियालय में मध्यकालीन एवं भारतीय इतिहास में एम० ए० करते समय भी एक रजिस्ट्रार गुरु जी ने हमको बहुत दुखी किया था. हम लोगों ने आन्दोलन कर के उनके नोट्स लिखवाने की आदत पर अंकुश लगवा दिया था. यह बात दूसरी है कि हमारे ये गुरु जी बिना नोट्स देखे जब लेक्चर देते थे तो न तो वो बहादुर शाह प्रथम और बहादुर शाह द्वितीय में कोई फ़र्क करते थे, न बाजीराव प्रथम और  बाजीराव द्वितीय में. यहाँ तक कि वो कई बार असहयोग आन्दोलन और सविनय अवज्ञा आन्दोलन को भी आपस में गड्डम-गड्ड कर देते थे.  

कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर के इतिहास विभाग में जब मेरी नियुक्ति हुई तो मैंने पाया कि मेरे अधिकांश सहयोगी रजिस्ट्रार की भूमिका निभा रहे हैं. मैंने अपने साथियों से उनकी रजिस्ट्रार-प्रवृत्ति का पूर्णतया परित्याग करने का अनुरोध किया.

चंद सहकर्मियों ने तो मेरे प्रस्ताव का स्वागत करते हुए उस पर अमल करना भी शुरू कर दिया पर प्रतिष्ठित रजिस्ट्रार गुरुजन ने मेरे सुझाव को अपनी शान में गुस्ताख़ी समझ, मेरे ख़िलाफ़ जिहाद छेड़ दिया.

अल्मोड़ा में मेरे एक सहयोगी थे, अगर वो भूल से अपना पढ़ने वाला चश्मा घर पर ही छोड़ आते थे तो उनके अनुरोध पर या तो मुझे उनकी जगह उनका क्लास लेना पड़ता था या फिर वो विद्यार्थियों के बीच उस दिन फ़िल्मी अन्त्याक्षरी करवा देते थे.

उनके रजिस्टर प्रेम की एक कथा बड़ी प्रसिद्द है.

एक दिन हमारे विद्वान रजिस्ट्रार गुरु जी अपने मुगल इतिहास वाले रजिस्टर से बाबर और राणा सांगा के मध्य हुए खनवा के युद्ध के बारे में विद्यार्थियों को लिखवा रहे थे पर कथा उस दिन पूरी नहीं हो पाई थी. अगले दिन मान्यवर गलती से यूरोपियन हिस्ट्री वाला रजिस्टर ले आए और उन्होंने वॉटरलू के मैदान में राणा सांगा को ड्यूक ऑफ़ वेलिंगटन से हरवा दिया.

मुझे आजीवन अपने रजिस्ट्रार गुरुजन के कोप का भाजन होना पड़ा था, ख़ास कर कि तब, जब कि उनमें से कोई मेरा विभागाध्यक्ष बन कर, मेरी छाती पर मूंग दलने के लिए बैठ गया हो.

पर मैं अपनी आदत से मजबूर ख़ुद को कैसे सुधारता?

लाख प्रताड़ना के बाद भी रजिस्ट्रार गुरुजन को मैं काहिल, जाहिल और गुरु के नाम पर कलंक मान कर उनका पुरज़ोर विरोध करने से कभी बाज़ नहीं आया.

अवकाश-प्राप्ति के एक दशक से भी अधिक समय बीत जाने के बाद भी रजिस्ट्रार गुरुजन के खिलाफ़ मेरी यह मुहिम, मेरी यह जंग, आज भी जारी है.

यह बात और है कि अब यह जंग फ़ेसबुक तक या फिर मेरे ब्लॉग तक ही सीमित रह गयी है और अब इस से मेरी जान जाने का या मेरी पेंशन रोक दिए जाने का, कोई ख़तरा नहीं रह गया है.


 

शनिवार, 23 जुलाई 2022

दामाद की खातिर

 1947 में दो खुशख़बरियां एक साथ आई थीं. एक खुशख़बरी तो भारत के आज़ाद होने की थी और दूसरी खुशख़बरी थी – तीन बार गोते खाने के बाद शहरे-लखनऊ की शान, बाबू चुन्नीलाल के वक़ालत पास करने की.

बाबू चुन्नीलाल के इस भागीरथ प्रयास की सफलता की खुशी में उनके पिताजी ने मोहल्ले भर में लड्डू बटवाए थे, उनके लिए एक बढ़िया सा काला कोट सिलवाया था, मक्खनजीन की दो झकाझक सफ़ेद पैंट और पॉपुलीन की दो सफ़ेद कमीज़ें बनवाई थीं. इन सब के अलावा उन्हें एक नई साइकिल भी दिलवाई गयी थी.
कहने को तो बाबू चुन्नी लाल वकील थे पर अदालतों में अपने मुवक्किलों का मुक़द्दमा लड़ते हुए उन्हें शायद ही किसी ने देखा हो. उनकी आमदनी
का असली ज़रिया मिडिलमैन यानी कि मध्यस्थ की भूमिका निभाने का था.
अगर किसी जेबकतरे को या किसी उठाईगीरे को, पुलिस वालों ने रंगे हाथ पकड़ लिया हो तो वो उन्हें कुछ दे-दिवा कर मामले के दर्ज होने से पहले ही उसे रफ़ा-दफ़ा करवा सकते थे. ऐसे पुण्य-कार्य से पुलिस वालों के साथ उनकी अपनी भी चांदी हो जाती थी और इसके साथ ही साथ कागजी तौर पर लखनऊ शहर अपराध-मुक्त भी रहता था.
बाबू चुन्नीलाल एक महा-रिश्वतखोर फ़ूड इंस्पेक्टर के बड़े खासुलखास थे. इंस्पेक्टर साहब जब भी किसी हलवाई की दुकान पर छापा मारने जाते थे तो बाबू चुन्नी लाल को उसकी अग्रिम सूचना दे देते थे.
नकली खोए की मिठाइयाँ पकड़े जाने पर अगर वो पांच सौ रूपये में अपराधी हलवाई को बेदाग छुड़वा देते थे तो उसका एक चौथाई हिस्सा इंस्पेक्टर इंस्पेक्टर साहब खुश हो कर उन्हें प्रदान कर दिया करते थे.
परचून की दुकान वाले लाला लोग तो बाबू चुन्नीलाल के सहारे धड़ल्ले से वनस्पति घी मिला देसी घी और रामरज मिली हुई हल्दी बेचा करते थे और इस चोरी की कमाई में हुए लाभ को लाला लोग, फ़ूड इंस्पेक्टर और बाबू चुन्नीलाल, आपस में क्रमशः – चार-दो-एक के अनुपात में बाँट लिया करते थे.
हमारे वक़ील बाबू की आमदनी कम थी पर उनका खर्चा उसका आधा भी नहीं था. पैसा आते हुए तो उनको अच्छा लगता था पर उसको जाते हुए देख पाना वो क़तई बर्दाश्त नहीं कर सकते थे.
अपने पुश्तैनी मकान में रहते हुए, अपने पिताजी के सच्चे सपूत ने उनकी भेंटों के सहारे अगले बाईस साल काट दिए थे लेकिन उनके पूर्णतया छिन्न-भिन्न और जीर्ण-क्षीण होने के बाद निक्सन मार्केट से कौड़ियों के दाम में दो सफ़ेद पैंटें, दो सफ़ेद कमीज़ें और एक काला कोट, खरीद कर उसने ख़ुद को फिर से राम जेठमलानी जैसा अपटूडेट कर लिया था.
अपने पिताजी की खटारा साइकिल को रिटायर करने का बाबू चुन्नीलाल का कोई इरादा नहीं था लेकिन उनके क्लाइंट अमजद उठाईगीरे ने उनके पुराने एहसान चुकाने की खातिर उन्हें कानपुर से उठाई हुई एक चमचमाती साइकिल प्रदान कर दी.
नत्थूलाल पंसारी वक़ील बाबू का रेगुलर क्लाइंट था. पता नहीं कितनी बार उन्होंने उसे जेल जाने से और मोटा जुर्माना भरने से बचाया था. लेकिन इस कमबख्त नत्थूलाल ने उन्हें कभी भी एक धेला मेहनताना या एक चवन्नी नज़राना नहीं दिया था.
हाँ, वह उन्हें चूहों के कुतरे हुए बिस्किट के, नमकीन के, पैकेट्स और सीले हुए पापड़, मसाले वगैरा मुफ़्त में दे दिया करता था.
घुन लगे आटा-दाल-चावल, चींटी पड़ी चीनी, खुली चाय के चूरे, साबुन के टुकड़े आदि के वह उन से बहुत कम पैसे लिया करता था.
लेकिन बाबू चुन्नीलाल के सभी क्लाइंट्स उनके लिए नत्थूलाल जितने उपयोगी नहीं थे.
गुप्ता बारात घर वाला गुप्ता तो एक नंबर का बेईमान निकला था. जिन दिनों शादी में सिर्फ़ पचास मेहमानों को बुलाने की इजाज़त थी, उन दिनों में वह धड़ल्ले से तीन सौ-चार सौ लोगों की दावत करा रहा था. जब वह ऐसा संगीन गुनाह करते हुए पकड़ा गया तो बाबू चुन्नीलाल ने ही उसे पुलिस के चंगुल से छुड़वाया था.
पुलिस वाले तो पूरे एक हज़ार ले कर विदा हुए लेकिन संकटमोचक बने बाबू चुन्नीलाल को वादे के दो सौ की जगह फ़क़त मिठाई का एक डिब्बा पकड़ाया गया था.
बाबू चुन्नीलाल ने उस दुष्ट गुप्ता को उसके अगले अपराध में अगर फांसी की नहीं तो कम से कम काले पानी की सज़ा दिलवाने की तो ठान ही ली थी.
अपने बच्चों के विवाह के विषय में बाबू चुन्नीलाल के दोहरे मापदंड थे. उनकी बेटी चित्रा ने जब अपने ही गुरु जी, विजातीय प्रेम कुमार से प्रेम-विवाह करने की इच्छा जताई तो उन्होंने उसका पुरज़ोर समर्थन किया और उसकी माँ के विरोध के बावजूद आर्यसमाज मन्दिर में उसका आदर्श विवाह करा दिया.
बिना दान-दहेज़ की इस शादी में प्रगतिशील पिता ने कुल जमा साढ़े पंद्रह सौ रूपये खर्च किए थे लेकिन ओवरसियर का कोर्स कर रहे अपने होनहार बेटे कुलदीप की शादी में उनकी योजना कम से कम पचास हज़ार का दहेज़ लेने की थी.
चित्रा अब अपने पति के घर में सुखी थी और उसके पिता उससे भी ज़्यादा सुखी थे क्योंकि एक तरफ़ उनके सर से बेटी के लालन-पालन का बोझ पूरी तरह से उतर गया था और दूसरी तरफ़ उनका बेटा कुलदीप एक साल के अन्दर ही कमाऊ पूत होने वाला था.
बाबू चुन्नीलाल के दिन अच्छे बीत रहे थे.
एक शाम भरी जेब ले कर वो बड़े अच्छे मूड में अपने घर पहुंचे लेकिन उनकी धर्मपत्नी अंगूरी देवी के दो वाक्यों ने उनका मूड ख़राब कर दिया. अंगूरी देवी के ये दो खतरनाक वाक्य थे –
‘हमारे प्रेम कुमार जी एक सेमिनार में लखनऊ आए हुए हैं. मैंने उन्हें और उनके दोस्तों को आज रात खाने पर बुलाया है.’
अपने सीने पर पत्थर रखते हुए कराहती आवाज़ में बाबू चुन्नीलाल ने अंगूरी देवी से पूछा –
‘प्रेम कुमार कितने दोस्तों को ले कर आ रहे हैं?’
अंगूरी देवी ने जवाब दिया –
‘यूँ तो उनके साथ बारह लोग हैं पर प्रेम कुमार अपने सिर्फ़ छह दोस्त ले कर हमारे यहाँ आएँगे.
और सुनो ! नत्थूलाल पंसारी के खैराती और घटिया सामान से दामाद जी की खातिर नहीं होगी. तुम बत्रा स्टोर्स से बढ़िया वाले चावल, दाल, बेसन, मसाले और देसी घी ले आना.
राधे हलवाई के यहाँ से आधा किलो पनीर ले आना और दो तरह की आधा-आधा किलो मिठाई भी ! और हाँ, आधा किलो अच्छा वाला नमकीन भी लाना होगा.’
बाबू चुन्नीलाल ने बड़े धीमे स्वर में प्रतिवाद किया –
‘नमकीन का पैकेट तो अपने घर में ही है.’
अंगूरी देवी ने अपने पतिदेव को झिड़कते हुए उन से पूछा –
‘खैरात में मिले हुए चूहों के कुतरे, सीले नमकीन को क्या तुम दामाद जी को और उनके दोस्तों को खिलाओगे?'
अपने पति को एक और झटका देते हुए अंगूरी देवी बोलीं -
'दो-तीन बढ़िया वाली सब्ज़ियाँ और कुछ अच्छे फल भी लेते आना.’
दुखी मन से अपनी साइकिल चलाते हुए बाबू चुन्नीलाल मन ही मन हिसाब लगा रहे थे –
‘आधा किलो बासमती चावल तीन रूपये के, आधा किलो दाल दो रूपये की, आधा किलो बेसन दो रूपये का, ढाई सौ ग्राम देसी घी चार रूपये का, आधा किलो पनीर चार रूपये का, आधा-आधा किलो मिठाई आठ-आठ रूपये की और आधा किलो नमकीन चार रूपये का और सब्ज़ी-फल कम से कम दस रूपये के !
हे भगवान ! ये तो मुझे कुल पैंतालिस रूपये का चूना लगने वाला है.
इस अंगूरी की बच्ची को तो मैं कभी माफ़ नहीं करूंगा.
दामाद को तो बुलाना ठीक था पर उसके साथ इन छह मुस्टंडों को बुलाने की क्या ज़रुरत थी?’
ऐसा ही हिसाब लगाते हुए अपनी साइकिल पर बाबू चुन्नीलाल गुप्ता बारात घर को क्रॉस कर के चले जा रहे थे कि उन्हें उनके पीछे से किसी ने – ‘वक़ील साहब’ कह कर पुकारा.
चुन्नीलाल जी ने पलट कर देखा तो गुप्ता बारात घर वाला गुप्ता उन्हें बुला रहा है. उनका मन तो किया कि दुष्ट गुप्ता की पुकार को अनदेखा-अनसुना कर के वो आगे बढ़ जाएं पर न जाने क्या सोच कर वो रुक गए.
गुप्ता बाबू चुन्नीलाल के पास आया और उनका हाथ पकड़ कर कहने लगा –
‘वकील साहब, मुझे पता है कि आप मुझ से बहुत नाराज़ हैं पर आज मैं आपकी सारी नाराज़गी मिटा दूंगा. आप मेरे साथ बारात घर चलिए.’
गुप्ता बारात घर में घुसते ही बाबू चुन्नीलाल की नाक में सुगन्धित पकवानों की ख़ुशबू समा गयी.
वाह ! क्या-क्या मिठाइयाँ थीं, क्या पूड़ियाँ थीं, क्या कचौड़ियाँ थीं, क्या नान थीं, क्या दही बड़े थे, क्या शाही पनीर था, क्या दाल मखानी थी, क्या दम आलू थे, क्या पुलाव था, और क्या मटका कुल्फी थी !
बाबू चुन्नीलाल के दिल में आशा का संचार होने लगा था फिर भी बनावटी रुखाई से उन्होंने गुप्ता से पूछा –
‘तुम ये सब पकवान मुझे क्यों दिखा रहे हो?
इन्हें ख़रीदने के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं.’
गुप्ता ने हाथ जोड़ते हुए कहा –
‘क्यों मुझे नरक में डालने की बात कर रहे हैं वकील साहब?
आज हमारे यहाँ दो सौ लोगों की दावत थी पर मेहमान सिर्फ़ सौ ही आए थे. तमाम सामान बचा है. गर्मियों के दिन हैं, कल तक तो सब पकवान खराब हो जाएंगे. अगर इन में से कुछ आपके काम आ जाए तो मुझे खुशी होगी.’
बाबू चुन्नीलाल ने बीस आदमियों का खाना पैक करवा लिया और कुल्फी के मटके के साथ मिठाइयों के कई डिब्बे भी.
सोने पर सुहागा वाली बात यह हुई कि गुप्ता ने अपने ठेले से सारा सामान उनके घर तक पहुंचवा भी दिया.
अंगूरी देवी और कुलदीप फटी-फटी आँखों से ठेले से उतारे जाते आइटम्स को देख रहे थे.
अंगूरी देवी ने प्यार से अपने पति से कहा –
‘दामाद की और उनके दोस्तों की खातिर करने के लिए तुम तो पूरा बाज़ार उठा लाए हो जी ! अब मुझे तो कुछ बनाना ही नहीं पड़ेगा.’
बाबू चुन्नीलाल ने हातिमताई का किरदार निभाते हुए कहा –
‘भागवान ! शादी के बाद पहली बार दामाद हमारे घर आ रहे हैं. उनकी खातिर तो शानदार होनी ही चाहिए.
आज तुम्हारा काम तो सिर्फ़ यह देखना है कि दामाद जी की और उनके दोस्तों की खातिर में कोई कमी न रह जाए.
ऐसा करो, तुम दामाद जी के छह दोस्तों को ही नहीं, बल्कि उनके सभी दोस्तों को दावत पर बुला लो.
और हाँ, हमको कंजूस कहने वाले हमारे पड़ौसी शर्मा परिवार को भी तुम इस दावत में बुलाना मत भूलना.'
हैरान-परेशान कुलदीप ने बाबू चुन्नीलाल से पूछा –
‘बाबू जी, मिठाई के इतने डिब्बों का हम क्या करेंगे?'
बाबू चुन्नीलाल ने दरियादिली से कहा –
‘काजू की कतली वाला डिब्बा तेरी दीदी के लिए है, कलाकंद वाला डिब्बा उसके सास-ससुर के लिए है और लड्डू के चार डिब्बे अड़ौस-पड़ौस में बांटने के लिए हैं.
समधियाने वाले भी क्या याद करेंगे कि किस रईस समधी से उनका पाला पड़ा है.’
इस सुखांत कथा में बस एक नया पेच जुड़ गया था -
अंगूरी देवी को और कुलदीप को लग रहा था कि बाबू चुन्नीलाल का रास्ते में अपहरण हो गया है और उनकी शक्ल का कोई दरियादिल शख्स ये सारा माल-असबाब ले कर उनके घर आ गया है.

मंगलवार, 19 जुलाई 2022

जीएसटी गाथा

 किलकारी मारते हुए बच्चों को देख कर वित्तमंत्री जी का अपने सचिव से सवाल -

'मैं जहाँ भी जाती हूँ, बच्चे मुझे देख कर किलकारी क्यों मारते हैं?'
सचिव का जवाब -
'मैम ! ये बच्चे आपको देख कर अपनी खुशी का इज़हार करते हैं क्यों कि आपने
बॉडी-पैक्ड माँ के दूध को जीएसटी के दायरे में शामिल नहीं किया है.'
और माननीया वित्तमंत्री जी को हमारा एक सुझाव -
महोदया !
आप सुविधा-शुल्क, तबादला-शुल्क, नियुक्ति-शुल्क, बयान बदल-शुल्क
तथा दल-बदल शुल्क को भी जीएसटी के दायरे में ला कर अपने ख़ज़ाने में
बे-हिसाब इजाफ़ा कर सकती हैं.
एक अरदास -
मैं मरूंगा तो मुझे टैक्स भी, भरना होगा,
जेब ख़ाली है, मेरी मौत को टलना होगा !

रविवार, 10 जुलाई 2022

तुमको न भूल पाएंगे - दिलीप इफ़ेक्ट

प्रोफ़ेसर सी० वी० रमन ने द्रवों पर प्रकाश के प्रभाव का अध्ययन किया तो उनका बड़ा नाम हुआ. उन्हें ‘रमन इफ़ेक्ट’ के लिए भौतिक शास्त्र के क्षेत्र में नोबल प्राइज़ से सम्मानित किया गया.
इन दिनों आर० माधवन की फ़िल्म – ‘राकेट्री दि नाम्बी इफ़ेक्ट’ की बहुत चर्चा हो रही है. वाक़ई काबिले-तारीफ़ फ़िल्म है.
लेकिन इन इफ़ेक्ट्स के बीच कोई इस बात की चर्चा नहीं कर रहा कि हम जैसे फ़िल्म के दीवानों पर – ‘दिलीप इफ़ेक्ट’ ने क्या-क्या गुल खिलाए थे.
पांच साल की उम्र में हमने दिलीपकुमार की फ़िल्म – ‘अंदाज़’ देखी थी उस फ़िल्म का हमको सिर्फ़ वह सीन याद था जिसमें कि राजकपूर, दिलीपकुमार को टेनिस के रैकेट से मारते हैं.
इसी उम्र में हमने दिलीपकुमार की एक और फ़िल्म – ‘इंसानियत’ देखी थी. इस फ़िल्म में हमको दिलीपकुमार की और देवानंद की तो कुछ याद नहीं, अलबत्ता उस फ़िल्म में चिम्पांज़ी के करतब आज भी याद हैं.
1961 में हमने दिलीपकुमार की फ़िल्म – ‘कोहिनूर’ देखी थी और उस फ़िल्म को देख कर हम उनके दीवाने हो गए थे. उस फ़िल्म में हमारे जैसे दस साल के बच्चे के मनोरंजन के लिए भी बहुत कुछ था. दिलीपकुमार और जीवन का आइने वाला सीन तो लाजवाब था और हमारे हीरो का दाढ़ी लगा कर खलनायक जीवन को बेवकूफ़ बनाना भी काबिले-तारीफ़ था.
इस फ़िल्म में दिलीपकुमार का –
‘मधुबन में राधिका नाचे रे’
गीत में सितार बजाना तो बेमिसाल था.
हमने बहन जी के तानपूरे को सितार की तरह बजाने की जब भी कोशिश की तो हमको शाबाशी के तौर पर हर बार अपनी पीठ पर दो चार मुक्के ज़रूर मिले.
1961 में ही हमने फ़िल्म – ‘मुगले आज़म’ भी देखी थी. इस फ़िल्म की गाढ़ी उर्दू तो हमारे आज भी पूरी तरह समझ में नहीं आती, तब क्या खाक़ आती? लेकिन बागी शहज़ादे सलीम के तेवर हमको बहुत पसंद आए थे.
खैर, ‘हरि अनन्त, हरि कथा अनंता’ जैसी इस कालजयी फ़िल्म का दुबारा ज़िक्र किया जाएगा क्योंकि इसी फ़िल्म की वजह से हम पर सबसे ज़्यादा दिलीप इफ़ेक्ट हुआ था.
क्लास सेवेंथ में देखी फ़िल्म – ‘गंगा जमुना’ का दिलीप इफ़ेक्ट भी हम पर बहुत दिनों तक हावी रहा था.
बंद कमरे में ड्रेसिंग टेबल के सामने हम –
‘नैन लड़ जैहैं तो मनवा मा कसक हुइबे करी’
पर बड़ा बढ़िया धोबी डांस किया करते थे और स्कूल में अपने दोस्तों से गंगा स्टाइल में पुरबिया बोली में बातें भी किया करते थे.
यह बात और थी कि न तो हमारे स्कूल में और न ही हमारे अड़ौस-पड़ौस में, किसी धन्नो का वुजूद था.
सोलह-सत्रह साल की उम्र में हमने मुगले आज़म दुबारा देखी और फिर हम बिना किसी अनारकली के बागी शहज़ादा सलीम हो गए.
शहज़ादे के बागी तेवर देख कर उन्हें किसी ने दाद नहीं दी बल्कि घर के ज़िल्ले सुभानी के हाथ का एक ज़ोरदार झापड़ उनके गाल पर ज़रूर पड़ गया.
फ़िल्म – ‘संघर्ष’ में जिस तरह अपने जिस्म पर अपने बाप के खून से सनी चादर लपेट कर दिलीपकुमार डायलॉग मारते हैं, वैसे ही अपने जिस्म पर शाल ओढ़ कर तमाम डायलॉग हमने भी मारे थे लेकिन सिर्फ़ आदमक़द आइने के सामने.
पूरी तरह से जवान होने पर जब हमने ‘मुगले आज़म’ तीसरी बार देखी तो यह तय किया गया कि ज़िंदगी में कभी अगर रोमांस करना है तो सलीम-अनारकली स्टाइल में ही करना है.
हमने तो बड़े जतन से एक सफ़ेद मोरपंख का भी इंतज़ाम कर लिया था लेकिन उसको किसी अनारकली के ख़ूबसूरत गालों पर फेरने की सिचुएशन कभी पैदा ही नहीं हुई.
फ़िल्म 'नया दौर' में -
'उड़ें जब-जब ज़ुल्फें तेरी, कवांरियों का दिल मचले'
गीत देखने सुनने के बाद दिलीपकुमार की ज़ुल्फों के हम दीवाने हो गए थे.
अपने अच्छे-खासे घुंघराले बालों को दिलीपकुमार के बालों की तरह सीधा करने की हमने कई बार कोशिश की थी पर इस मामले में हम हर बार नाकाम ही हुए.
लखनऊ यूनिवर्सिटी में एम० ए० फ़ाइनल करने के दौरान पीएसी-छात्र विद्रोह के बाद हमारा विश्वविद्यालय एक सैनिक छावनी में तब्दील हो गया था.
रात नौ बजे से सुबह पांच बजे तक कर्फ्यू लग जाता था. वैसे आम विद्यार्थियों को इस टाइम जाना ही कहाँ होता था?
दो दिन बाद हमारा पेपर था. शाम का खाना खाते वक़्त हमको पता चला कि कैपिटल सिनेमा में ‘गंगा जमुना’ लगी हुई है और उसका आज आख़िरी दिन है. यूँ तो हम फ़िल्म 'गंगा जमुना' पहले ही तीन बार देख चुके थे लेकिन दिलीपकुमार की फ़िल्म तो दस बार देखने पर भी किसी नई फ़िल्म से हमको ज़्यादा मज़ा देती थी. हम और हमारे दोस्त अविनाश माथुर ने यह तय किया कि हम इस फ़िल्म का आख़िरी शो ज़रूर देखेंगे.
हमारे हॉस्टल के मित्रों ने हमको बहुत समझाया पर जिस पर दिलीप इफ़ेक्ट हो वह भला सुनता किसकी है, और मानता किसकी है?
हम दोनों दोस्तों ने ठाठ से कैपिटल सिनेमा में फ़िल्म - ‘गंगा जमुना’ देखी और फिर अपनी रात हमने उसके सामने स्थित जीपीओ पार्क की बेचों पर गुज़ारी.
दिलीपकुमार की फ़िल्म – ‘देवदास’ को हम उनके बेमिसाल अभिनय के लिए याद करते हैं लेकिन इस फ़िल्म की वजह से दिलीप इफ़ेक्ट हम
पर नाम को भी नहीं हुआ क्योंकि अव्वल तो हम शराबनोशी के सख्त खिलाफ़ थे (और आज भी हैं) और दूसरी बात यह है कि हमारी ज़िंदगी में कोई पारो थी ही नहीं इसलिए उस से बिछड़ कर हमारे बेवड़ा होने का कोई चांस भी नहीं था. लेकिन –
‘कौन कमबख्त बर्दाश्त करने के लिए पीता है’
कह कर हमने कई बार कोकाकोला ज़रूर पिया था.
हम मोतीलाल, बलराज साहनी, संजीव कुमार, नसीरुद्दीन शाह और ओमपुरी के अभिनय के भी कायल हैं लेकिन उनके हम दीवाने नहीं हैं.
इन कलाकारों में से किसका रोमांस किसके साथ चला और इन्होने किस से शादी की या फिर किस से शादी नहीं की, इसका हम पर रत्ती भर भी असर नहीं पड़ा लेकिन जब दिलीपकुमार-मधुबाला की जोड़ी टूटी तो हमारा दिल टूट गया.
इनमें से एक ने एक सरफिरे जोकर से शादी कर तो दूसरे ने अपने से ठीक आधी उमर की एक मोम की बेजान गुड़िया से निकाह कर लिया.
हम तो दिलीपकुमार को सलाह देने वाले थे कि अगर वो मधुबाला से शादी नहीं कर रहे हैं तो फिर वो वैजयंतीमाला से या फिर वहीदा रहमान से शादी कर लें लेकिन उन तक हमारी बात पहुँचाने वाला कोई संदेशवाहक हमको मिला ही नहीं.
दिलीप इफ़ेक्ट ने हमारी पढ़ाई का तो बहुत नुक्सान किया था. पता नहीं कितनी बार क्लास कट करके हमने दिलीपकुमार की कोई क्लासिक फ़िल्म देखी होगी.
मुगल हिस्ट्री पढ़ते वक़्त बागी सलीम हमारे ज़हन में आ-आ कर हमको बहुत परेशान किया करता था.
हाँ, दिलीप इफ़ेक्ट की वजह से हमारी उर्दू अच्छी-ख़ासी हो गयी है.
दिलीप इफ़ेक्ट की वजह से हम फ़िल्मों में ही क्या, असल ज़िंदगी में भी, शम्मी कपूर टाइप या जीतेंद्र टाइप बंदर-छाप रोमांस हज़म नहीं कर पाते.
आज दिलीपकुमार हमारे बीच नहीं हैं और हम भी अपनी उम्र के आख़िरी पड़ाव पर पहुँच गए हैं.
आज हम बच्चों को फ़िल्मी प्रकोप से, स्वप्न-लोक की रूमानी दुनिया से, दूर रहने के लिए बड़ा ओजस्वी भाषण देते हैं लेकिन सच कहें तो दिलीपकुमार के फ़िल्मी पर्दे पर आते ही (अब फ़िल्मी परदे की जगह टीवी स्क्रीन ने ले ली है) हम पर न चाहते हुए भी दिलीप इफ़ेक्ट होने लगता है.