रविवार, 10 जुलाई 2022

तुमको न भूल पाएंगे - दिलीप इफ़ेक्ट

प्रोफ़ेसर सी० वी० रमन ने द्रवों पर प्रकाश के प्रभाव का अध्ययन किया तो उनका बड़ा नाम हुआ. उन्हें ‘रमन इफ़ेक्ट’ के लिए भौतिक शास्त्र के क्षेत्र में नोबल प्राइज़ से सम्मानित किया गया.
इन दिनों आर० माधवन की फ़िल्म – ‘राकेट्री दि नाम्बी इफ़ेक्ट’ की बहुत चर्चा हो रही है. वाक़ई काबिले-तारीफ़ फ़िल्म है.
लेकिन इन इफ़ेक्ट्स के बीच कोई इस बात की चर्चा नहीं कर रहा कि हम जैसे फ़िल्म के दीवानों पर – ‘दिलीप इफ़ेक्ट’ ने क्या-क्या गुल खिलाए थे.
पांच साल की उम्र में हमने दिलीपकुमार की फ़िल्म – ‘अंदाज़’ देखी थी उस फ़िल्म का हमको सिर्फ़ वह सीन याद था जिसमें कि राजकपूर, दिलीपकुमार को टेनिस के रैकेट से मारते हैं.
इसी उम्र में हमने दिलीपकुमार की एक और फ़िल्म – ‘इंसानियत’ देखी थी. इस फ़िल्म में हमको दिलीपकुमार की और देवानंद की तो कुछ याद नहीं, अलबत्ता उस फ़िल्म में चिम्पांज़ी के करतब आज भी याद हैं.
1961 में हमने दिलीपकुमार की फ़िल्म – ‘कोहिनूर’ देखी थी और उस फ़िल्म को देख कर हम उनके दीवाने हो गए थे. उस फ़िल्म में हमारे जैसे दस साल के बच्चे के मनोरंजन के लिए भी बहुत कुछ था. दिलीपकुमार और जीवन का आइने वाला सीन तो लाजवाब था और हमारे हीरो का दाढ़ी लगा कर खलनायक जीवन को बेवकूफ़ बनाना भी काबिले-तारीफ़ था.
इस फ़िल्म में दिलीपकुमार का –
‘मधुबन में राधिका नाचे रे’
गीत में सितार बजाना तो बेमिसाल था.
हमने बहन जी के तानपूरे को सितार की तरह बजाने की जब भी कोशिश की तो हमको शाबाशी के तौर पर हर बार अपनी पीठ पर दो चार मुक्के ज़रूर मिले.
1961 में ही हमने फ़िल्म – ‘मुगले आज़म’ भी देखी थी. इस फ़िल्म की गाढ़ी उर्दू तो हमारे आज भी पूरी तरह समझ में नहीं आती, तब क्या खाक़ आती? लेकिन बागी शहज़ादे सलीम के तेवर हमको बहुत पसंद आए थे.
खैर, ‘हरि अनन्त, हरि कथा अनंता’ जैसी इस कालजयी फ़िल्म का दुबारा ज़िक्र किया जाएगा क्योंकि इसी फ़िल्म की वजह से हम पर सबसे ज़्यादा दिलीप इफ़ेक्ट हुआ था.
क्लास सेवेंथ में देखी फ़िल्म – ‘गंगा जमुना’ का दिलीप इफ़ेक्ट भी हम पर बहुत दिनों तक हावी रहा था.
बंद कमरे में ड्रेसिंग टेबल के सामने हम –
‘नैन लड़ जैहैं तो मनवा मा कसक हुइबे करी’
पर बड़ा बढ़िया धोबी डांस किया करते थे और स्कूल में अपने दोस्तों से गंगा स्टाइल में पुरबिया बोली में बातें भी किया करते थे.
यह बात और थी कि न तो हमारे स्कूल में और न ही हमारे अड़ौस-पड़ौस में, किसी धन्नो का वुजूद था.
सोलह-सत्रह साल की उम्र में हमने मुगले आज़म दुबारा देखी और फिर हम बिना किसी अनारकली के बागी शहज़ादा सलीम हो गए.
शहज़ादे के बागी तेवर देख कर उन्हें किसी ने दाद नहीं दी बल्कि घर के ज़िल्ले सुभानी के हाथ का एक ज़ोरदार झापड़ उनके गाल पर ज़रूर पड़ गया.
फ़िल्म – ‘संघर्ष’ में जिस तरह अपने जिस्म पर अपने बाप के खून से सनी चादर लपेट कर दिलीपकुमार डायलॉग मारते हैं, वैसे ही अपने जिस्म पर शाल ओढ़ कर तमाम डायलॉग हमने भी मारे थे लेकिन सिर्फ़ आदमक़द आइने के सामने.
पूरी तरह से जवान होने पर जब हमने ‘मुगले आज़म’ तीसरी बार देखी तो यह तय किया गया कि ज़िंदगी में कभी अगर रोमांस करना है तो सलीम-अनारकली स्टाइल में ही करना है.
हमने तो बड़े जतन से एक सफ़ेद मोरपंख का भी इंतज़ाम कर लिया था लेकिन उसको किसी अनारकली के ख़ूबसूरत गालों पर फेरने की सिचुएशन कभी पैदा ही नहीं हुई.
फ़िल्म 'नया दौर' में -
'उड़ें जब-जब ज़ुल्फें तेरी, कवांरियों का दिल मचले'
गीत देखने सुनने के बाद दिलीपकुमार की ज़ुल्फों के हम दीवाने हो गए थे.
अपने अच्छे-खासे घुंघराले बालों को दिलीपकुमार के बालों की तरह सीधा करने की हमने कई बार कोशिश की थी पर इस मामले में हम हर बार नाकाम ही हुए.
लखनऊ यूनिवर्सिटी में एम० ए० फ़ाइनल करने के दौरान पीएसी-छात्र विद्रोह के बाद हमारा विश्वविद्यालय एक सैनिक छावनी में तब्दील हो गया था.
रात नौ बजे से सुबह पांच बजे तक कर्फ्यू लग जाता था. वैसे आम विद्यार्थियों को इस टाइम जाना ही कहाँ होता था?
दो दिन बाद हमारा पेपर था. शाम का खाना खाते वक़्त हमको पता चला कि कैपिटल सिनेमा में ‘गंगा जमुना’ लगी हुई है और उसका आज आख़िरी दिन है. यूँ तो हम फ़िल्म 'गंगा जमुना' पहले ही तीन बार देख चुके थे लेकिन दिलीपकुमार की फ़िल्म तो दस बार देखने पर भी किसी नई फ़िल्म से हमको ज़्यादा मज़ा देती थी. हम और हमारे दोस्त अविनाश माथुर ने यह तय किया कि हम इस फ़िल्म का आख़िरी शो ज़रूर देखेंगे.
हमारे हॉस्टल के मित्रों ने हमको बहुत समझाया पर जिस पर दिलीप इफ़ेक्ट हो वह भला सुनता किसकी है, और मानता किसकी है?
हम दोनों दोस्तों ने ठाठ से कैपिटल सिनेमा में फ़िल्म - ‘गंगा जमुना’ देखी और फिर अपनी रात हमने उसके सामने स्थित जीपीओ पार्क की बेचों पर गुज़ारी.
दिलीपकुमार की फ़िल्म – ‘देवदास’ को हम उनके बेमिसाल अभिनय के लिए याद करते हैं लेकिन इस फ़िल्म की वजह से दिलीप इफ़ेक्ट हम
पर नाम को भी नहीं हुआ क्योंकि अव्वल तो हम शराबनोशी के सख्त खिलाफ़ थे (और आज भी हैं) और दूसरी बात यह है कि हमारी ज़िंदगी में कोई पारो थी ही नहीं इसलिए उस से बिछड़ कर हमारे बेवड़ा होने का कोई चांस भी नहीं था. लेकिन –
‘कौन कमबख्त बर्दाश्त करने के लिए पीता है’
कह कर हमने कई बार कोकाकोला ज़रूर पिया था.
हम मोतीलाल, बलराज साहनी, संजीव कुमार, नसीरुद्दीन शाह और ओमपुरी के अभिनय के भी कायल हैं लेकिन उनके हम दीवाने नहीं हैं.
इन कलाकारों में से किसका रोमांस किसके साथ चला और इन्होने किस से शादी की या फिर किस से शादी नहीं की, इसका हम पर रत्ती भर भी असर नहीं पड़ा लेकिन जब दिलीपकुमार-मधुबाला की जोड़ी टूटी तो हमारा दिल टूट गया.
इनमें से एक ने एक सरफिरे जोकर से शादी कर तो दूसरे ने अपने से ठीक आधी उमर की एक मोम की बेजान गुड़िया से निकाह कर लिया.
हम तो दिलीपकुमार को सलाह देने वाले थे कि अगर वो मधुबाला से शादी नहीं कर रहे हैं तो फिर वो वैजयंतीमाला से या फिर वहीदा रहमान से शादी कर लें लेकिन उन तक हमारी बात पहुँचाने वाला कोई संदेशवाहक हमको मिला ही नहीं.
दिलीप इफ़ेक्ट ने हमारी पढ़ाई का तो बहुत नुक्सान किया था. पता नहीं कितनी बार क्लास कट करके हमने दिलीपकुमार की कोई क्लासिक फ़िल्म देखी होगी.
मुगल हिस्ट्री पढ़ते वक़्त बागी सलीम हमारे ज़हन में आ-आ कर हमको बहुत परेशान किया करता था.
हाँ, दिलीप इफ़ेक्ट की वजह से हमारी उर्दू अच्छी-ख़ासी हो गयी है.
दिलीप इफ़ेक्ट की वजह से हम फ़िल्मों में ही क्या, असल ज़िंदगी में भी, शम्मी कपूर टाइप या जीतेंद्र टाइप बंदर-छाप रोमांस हज़म नहीं कर पाते.
आज दिलीपकुमार हमारे बीच नहीं हैं और हम भी अपनी उम्र के आख़िरी पड़ाव पर पहुँच गए हैं.
आज हम बच्चों को फ़िल्मी प्रकोप से, स्वप्न-लोक की रूमानी दुनिया से, दूर रहने के लिए बड़ा ओजस्वी भाषण देते हैं लेकिन सच कहें तो दिलीपकुमार के फ़िल्मी पर्दे पर आते ही (अब फ़िल्मी परदे की जगह टीवी स्क्रीन ने ले ली है) हम पर न चाहते हुए भी दिलीप इफ़ेक्ट होने लगता है.

 

4 टिप्‍पणियां:

  1. आप भी कौन सा दिलीप कुमार से कम हैं हजूर

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  2. उस ज़माने के ऐक्टर होते ही ऐसे थे कि आज तक उनका इन्फ़ेक्ट हो जाता है, इतना सुंदर हक़ीक़त जैसा लिखा आपने !
    और ये गाने की क्लिप भी आनंद दे गई ।
    सुंदर यादों को साझा करने के लिए आपका आभार !

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    1. आलेख की प्रशंसा के लिए धन्यवाद जिज्ञासा.
      दिलीपकुमार आज भी मेरे दिल पर राज करते हैं.

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