बुधवार, 31 अक्तूबर 2018

श्रद्धांजलि देने का शाही तरीक़ा


प्राचीन मिस्र-सभ्यता में सैकड़ों साल तक देश की अधिकांश सम्पदा शासकों के शवों के ऊपर पिरामिड बनाने में बहा दी जाती थी.
मुस्लिम शासक भारत में मक़बरे बनाने की परम्परा लेकर आए. इनमें शाहजहाँ ने तो प्रजा पर नए-नए करों का बोझ लादकर अपने बेगम मुमताज़ महल की याद में ताजमहल बनवाया था.
कविवर सुमित्रानंदन पन्त की ताजमहल पर पंक्तियाँ हैं –
हाय मृत्यु का ऐसा अमर, अपार्थिव, पूजन,
जब विषण्ण, निर्जीव, पड़ा हो जग का जीवन,
---
शव को दें हम रूप, रंग, आदर मानव का,
मानव को हम कुत्सित रूप, बना दें, शव का.’
 
लार्ड कर्ज़न ने देश-व्यापी अकाल के समय भूख से बिलखते हुए और मरते हुए इंसानों की परवाह न करते हुए करोड़ों रूपये विक्टोरिया मेमोरियल के निर्माण में खर्च कर दिए थे.
बहन मायावती ने तो कमाल ही कर दिया था. उत्तर प्रदेश सरकार के अरबों रूपये उन्होंने प्रेरणा-स्थल के निर्माण में खर्च कर दिए और अपनी तथा अपने कुनबे के सदस्यों की भव्य मूर्तियाँ भी स्थापित करवा दीं.  
मेरी चार पंक्तियाँ हैं –
हर मुर्दे को कफ़न भले ही हो न मयस्सर,
पर हर शासक का स्मारक, बन जाता है.
उजडें बस्ती, गाँव, घरों में जले न चूल्हा,
मूर्ति खड़ी करने में, सारा धन जाता है.’
आज के ज़माने में मूर्ति-निर्माण के मामले में ऐतिहासिक पात्रों ने पौराणिक पात्रों को बहुत पीछे छोड़ दिया है. हर गली, हर मोहल्ले में, कोट पहने, भारतीय संविधान का वृहद् ग्रन्थ हाथ में उठाए, बाबा साहब भीम साहब अम्बेडकर की प्रतिमा आपका मार्ग-दर्शन करने के लिए खड़ी मिलेगी.
आज लौह पुरुष सरदार पटेल की जयंती पर लगभग 3000 करोड़ रुपयों में बनी  उनकी 182 मीटर ऊंची मूर्ति का प्रधानमंत्री द्वारा अनावरण होगा. विश्व की इस सबसे विशाल, सबसे ऊंची प्रतिमा – स्टैचू ऑफ़ यूनिटी की स्थापना से हमको क्या हासिल होगा, इसको समझना बहुत मुश्किल काम है. निर्विवाद रूप से सरदार पटेल ने भारत के एकीकरण में अभूतपूर्व योगदान दिया था किन्तु क्या इसी कारण से उनकी यह प्रतिमा स्थापित की जा रही है?
कोई बच्चा भी यह समझता है कि इसके पीछे का मुख्य कारण है गुजरात तथा देश के अन्य भागों में बसे हुए महत्वपूर्ण पटेल वोट-बैंक को अपने पक्ष में करना तथा नेहरु-पटेल मतभेद और नेहरु-पटेल प्रतिस्पर्धा को अपने फ़ायदे के लिए भुनाना.
अभी मूर्ति-निर्माण की इस प्रक्रिया पर विराम नहीं लगा है. भविष्य में छत्रपति शिवाजी और बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर की भी गगनचुम्बी प्रतिमाएं नए कीर्तिमान स्थापित करने वाली हैं.
वैसे देखा जाए तो ऐतिहासिक पात्रों की तो क्या, देवी-देवताओं और भगवानों की मूर्तियाँ बनाने की भी कोई आवश्यकता नहीं है. हमको सौ-दो सौ फ़ुट ऊंचे भगवान रामचंद्र या उन से भी ऊंचे हनुमान जी क्यों चाहिए?
गोमटेश्वर में बाहुबली स्वामी की एक चट्टान से तराशी गयी 57 फ़ुट ऊंची प्रतिमा हमारी कला की अमूल्य धरोहर है किन्तु आज मांगीतुंगी में अपना सर्वस्व त्यागने वाले भगवान ऋषभदेव की 108 फ़ुट ऊंची प्रतिमा के निर्माण में करोड़ों रूपये खर्च कर हम क्या उनके उपदेशों पर अमल कर रहे हैं? (मैं ये बात जैन मतावलंबी होने के बावजूद कह रहा हूँ.)
हम कब तक स्थानों के नाम बदलते रहेंगे? हम कब तक नेताओं के स्मारक बनाते रहेंगे? कब तक उनकी भव्य मूर्तियाँ बनाते रहेंगे?
आज दिल्ली में आधा यमुना तट नेताओं की समाधियों ने घेर रक्खा है. चेन्नई में विश्व-प्रसिद्द मरीना बीच तमाम नेताओं की समाधियों से सुशोभित है.
इन स्मारकों के, इन समाधियों के, इन मूर्तियों के, रख-रखाव में या तो हमको रोज़ाना लाखों-करोड़ों रूपये खर्च करने होंगे या फिर इन्हें चील-कौओं के विश्राम-स्थल बनाकर राम-भरोसे छोड़ देना होगा. दोनों बातें ग़लत हैं लेकिन इन में से एक तो होकर ही रहेगी.
अपने शौक़ के लिए, अपनी ख्याति के लिए, या गिनीज़ बुक ऑफ़ रिकार्ड्स में अपना नाम दर्ज करवाने के लिए, देश के संसाधनों का ऐसा अपव्यय कहाँ तक जायज़ है?
इस बात में कोई संदेह नहीं कि आजीवन सादा जीवन व्यतीत करने वाले लौहपुरुष सरदार पटेल की आत्मा अपने सपूतों की इस भव्य श्रद्धांजलि को देखकर और इस पांच सितारा नौटंकी से व्यथित होकर आज खून के आंसू रो रही होगी.   

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2018

फ़िल्म - 'बधाई हो'


बधाई हो
प्राचीन काल में हर ऐरी-गैरी, नत्थू-खैरी फ़िल्म देखना मेरा फ़र्ज़ होता था. इसका प्रमाण यह है कि मैंने टीवी-विहीन युग में, सिनेमा हॉल्स में जाकर, अपने पैसे और अपना समय बर्बाद कर के, अभिनय सम्राट जीतेंद्र तक की क़रीब चार दर्जन फ़िल्में देख डाली थीं. और तो और, अपनी संवाद-अदायगी के लिए विख्यात – ‘मेरे करन-अर्जुन आएँगे’ उन दिनों मेरी पसंदीदा हीरोइन हुआ करती थीं.  
फिर युग बदले और सतयुग, त्रेता और द्वापर के बीतने के बाद इस कलयुग में फ़िल्मों में मेरी दिलचस्पी कम हो गयी. हमारी श्रीमती जी भी फ़िल्में देखने में बहुत ज़्यादा दिलचस्पी नहीं रखती हैं. अब तो हाल यह है कि हमारी बेटियां ही हमको निर्देश देती हैं कि हम लोग किस मल्टीप्लेक्स में जाकर कौन सी फ़िल्म देखें. कभी-कभी तो वो हमसे बिना पूछे ही हमारे लिए किसी फ़िल्म की ऑन-लाइन टिकट बुक कराकर उसकी सूचना-मात्र हमको दे देती हैं.
हमारी दोनों बेटियों ने फ़िल्म ‘बधाई हो’ को हमारे लिए बड़े ज़बर्दस्त तरीके से रिकमेंड किया. इसका नतीजा यह हुआ कि हम कल इस फ़िल्म को देख आए.
वाह ! क्या शानदार फ़िल्म है ! धन्यवाद बेटियों ! तुम्हारे मम्मी-पापा तुम्हारी पसंद की दाद देते हैं.
फ़िल्म ‘बधाई हो’ जैसी कहानियां हमने अपने जीवन में बहुत देखी हैं. आज से पचास-साठ साल पहले तक माँ-बेटी और सास-बहू, एक ही समय में घर में नया मेहमान आने की खुशियाँ सुनाया करती थीं. स्त्रियाँ 15 साल की उम्र से लेकर 45 साल की उम्र तक, कभी भी और कितनी बार भी, माँ बन सकती थीं. बच्चों को भी चांदी के तारों जैसे बालों वाली माँ और बेंत पकड़ कर झुकी पीठ चलने वाले पिताजी को देख कर कोई ताज्जुब नहीं होता था. लेकिन आज के ज़माने में रिटायरमेंट के क़रीब पहुंचे हुए एक बुज़ुर्गवार और पति-पत्नी के बीच शारीरिक संबंधों को एक गुनाह मानने वाली एक अधेड़ महिला के बीच रोमांस और फिर दो बड़े-बड़े लड़कों की उस माँ के प्रेग्नेंट हो जाने की कहानी बहुत अजीब और बहुत हास्यास्पद लगती है. लेकिन कभी-कभी, हमारे आसपास, आज भी ऐसा होता है.     
        
आयुष्मान खुराना की आजकल चांदी ही चांदी है. पट्ठा हिट पर हिट फ़िल्में दे रहा है. लेकिन इस फ़िल्म में असली हीरो है इसका निर्देशक अमित रवीन्द्रनाथ शर्मा !  कहानीकारों की जोड़ी शांतनु श्रीवास्तव और अक्षत घिल्डियाल ने भी कमाल कर दिया है.
इस फ़िल्म के कलाकारों में मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया है, मेरे लिए अब तक अनजान – गजराज राव ने. आँखें नीचे कर शरमाते हुए वो जैसे अपनी पत्नी प्रियंवदा कश्यप (नीना गुप्ता) से रोमांस करते हैं या बच्चों को उनकी मम्मी के और अपनी माँ को उनकी बहू के, प्रेग्नेंट होने की धमाकेदार ख़बर देते हैं, उसकी तारीफ़ शब्दों में की ही नहीं जा सकती उसे तो बस देख कर महसूस किया जा सकता है.
और प्रियंवदा कश्यप बनी नीना गुप्ता तो कमाल की अभिनेत्री हैं ही. मुझे लगता है कि आंसू बहाती और खम्बे से बंधी – बचाओ-बचाओ’, चिल्लाने वाली फ़िल्मी माओं के सामने, सहज रूप से अपने पति के साथ रोमांस करने वाली पत्नी, अपने बच्चों पर बिना भाषण दिए हुए ममता लुटाने वाली माँ, और अपनी सास की झिडकियां सहते हुए भी उसे अपनी माँ जैसा प्यार देने वाली बहू की भूमिका निभाकर नीना गुप्ता ने यह घोषणा कर दी है कि –
बनावटी फ़िल्मी माओं, संभल जाओ ! अब मैं आ गयी हूँ.’
खुर्रैट सास, ममतामयी माँ और मुहब्बती दादी की भूमिकाएं निभाने में सुरेखा सीकरी ने तो गज़ब ढा दिया है. मुझे तो लगता है कि सुरेखा सीकरी को कोई निर्देशक अभिनय के गुर सिखा ही नहीं सकता, उन्हें तो बस कहानी और दृश्य के बारे में बता दिया जाता होगा और बाक़ी वो ख़ुद सम्हाल लेती होंगी.
आयुष्मान खुराना और सान्या मल्होत्रा की जोड़ी बड़ी प्यारी और ताज़गी भरी लगी है. जो लोग ख़ूबसूरत वादियों में फ़िल्मी जोड़ों को एक दूसरे के पीछे भागते हुए और गाते हुए देख-देख कर पक चुके हैं, उनके लिए इस नई रोमंटिक जोड़ी को देखना बहुत अच्छा लगेगा.
यह फ़िल्म इंटरवल तक तो हंसाते-हंसाते हुए हमको पागल कर देती है. इंटरवल के बाद कहानी मोड़ लेती है, उसमें गंभीरता आ जाती है लेकिन फ़िल्म कहीं भी बिखरती नहीं है. माँ के प्रेग्नेंट हो जाने से बेहद शर्मिंदा और बहुत नाराज़ होने वाले बेटे नकुल की भूमिका निभाने में आयुष्मान खुराना ने बहुत प्रभावित किया है पर जिस दृश्य में नकुल अपनी स्वार्थपरता पर शर्मिंदा होकर अपनी माँ से गले लगता है उसे देखकर मैं तो अपने आंसू नहीं रोक पाया. मैंने कनखियों से अपने बगल की सीट पर विराजमान अपनी श्रीमती जी को देखा तो पता चला कि वो मेरी तरह से छुपकर नहीं, बल्कि खुलेआम रो रही हैं.
फ़िल्मी निर्माता-निर्देशकों को अब यह समझ जाना चाहिए कि किसी फ़िल्म को हिट करने के लिए स्विटज़रलैंड की हसीं वादियों के दृश्य दिखाना, भव्य से भव्य सेट लगाना, और बड़े से बड़े स्टार्स की भीड़ जुटाना ज़रूरी नहीं है. अब अच्छी कहानी, अच्छे कलाकार और अच्छे निर्देशकों के साथ गली-मोहल्ले के साधारण मकानों में शूटिंग करके, कम बजट में, अच्छी से अच्छी और हिट से हिट फ़िल्म बनाई जा सकती है.
अब मैं अपने सभी मित्रों को इस फ़िल्म को देखने की सलाह देता हूँ. आपके पैसे वसूल न हों और आपको ऐसा लगे कि फ़िल्म देखकर आपका वक़्त बर्बाद हुआ है तो आप मुझसे रिफंड की मांग कर सकते हैं.  



Gajraj Rao · 
गोपेश जी नमस्कार ... आपकी हौंसला अफ़्जाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया 🙏

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रविवार, 21 अक्तूबर 2018

शाश्वत गुनाहगार ‘कॉमन मैन’ और सदा-निष्पाप वी. आई. पी.


अकबर इलाहाबादी’, ओह माफ़ कीजिएगा ! अकबर प्रयागराजी ने आम आदमी की जीवन भर की उपलब्धियों पर क्या ख़ूब कहा है -
हम क्या कहें, अहबाब वो, कारे नुमाया, कर गए,
बी. ए. किया, नौकर हुए, पेंशन मिली, और मर गए.’
(हम क्या बताएं कि उन्होंने अपने जीवन में क्या-क्या उल्लेखनीय कार्य किए. उन्होंने बी. ए. किया, फिर नौकरी की, फिर उन्हें पेंशन मिली, और फिर वो मर गए.)

आर. के. लक्ष्मण के कार्टूनों के कॉमन मैन की की उड़ी-उड़ी ज़ुल्फ़ें, उसके चेहरे पर बदहवासी या हैरानी वाला भाव, और उसके सामने उसका खून पीने वाले की आत्म-विश्वास से भरी हेकड़ी वाली मुद्रा कौन भूल सकता है?
कॉमन मैन केंचुआ किस्म का वह प्राणी होता है जिसको अगर आप अपने पैरों से कुचलें तो वह आपके पैरों के नीचे दबे-दबे ही विनम्रता से पूछेगा –
हुज़ूर, मुझे कुचलने में आपको कोई तकलीफ़ तो नहीं हो रही है?’
ये भोला सा और निरीह सा दिखने वाला कॉमन मैन बड़े से बड़े गुनाह करता है. मसलन - कभी-कभार बिना हेल्मेट पहने हुए स्कूटर चलाता हुआ पकड़ा जाता है और वो भी तीन-तीन सवारियों के साथ. कभी ट्रेन में यह अपने छह-सात साल के बच्चे को पांच साल से कम का बताकर उसे बिना टिकट ले जाता हुआ टी. टी. ई द्वारा धर लिया जाता है तो कभी जीएसटी बचाने के लिए बिना रसीद के सामान खरीदता है और देशद्रोही तो इतना है कि दीपावली पर रौशनी करने के लिए अपने घर में चायनीज़ लड़ियाँ लगाता है. मंदिर-मस्जिद जाकर यह दान की पेटी में अक्सर कटे-फटे और तुड़े-मुड़े नोट डालता है. इसको अपना काम निकालने के लिए सुविधा शुल्क देने का गुनाह-ए-अज़ीम करने की तो ऐसी आदत पड़ गयी है कि अगर इसका कोई काम यूँ ही कर दे तो ये समझता है कि अगले ने उसे धोखा दिया है.
ऐसी पाप भरी ज़िन्दगी बिताने वाले से भला ऊपर वाला कैसे खुश रह सकता है? इसीलिए वह अगर डेली बेसिस पर नहीं तो कम से कम साप्ताहिक स्तर पर एक नई मुसीबत से उसे दो-चार कराता रहता है.
एक कॉमन मैन का, यानी कि ख़ुद अपना एक किस्सा याद आ रहा है.
2013 में हम पति-पत्नी को अपने पासपोर्ट्स बनवाने थे. उन दिनों इसके लिए मैरिज सर्टिफ़िकेट भी बनवाना पड़ता था. हम सम्बंधित अधिकारी के पास गए तो उसने पूछा –
'आप लोगों के पास क्या अपनी शादी का कार्ड है?’
मैंने दुखी होकर जवाब दिया –
हमारी शादी हुए एक अर्सा हो गया है. इस बीच दसियों बार हमने घर बदले हैं. अब हमारे पास अपनी शादी का कार्ड नहीं है पर हाँ,  हमारी बड़ी बेटी की शादी का कार्ड हमारे पास रक्खा है. हम उसे ज़रूर दिखा सकते हैं.
अधिकारी महोदय मेरी बात पर हँसे फिर सख्ती से बोले –
तो आपकी बिटिया का मैरिज सर्टिफ़िकेट बनवा देते हैं.’
मेरे हाय-हाय करने पर उन्होंने हमारे मैरिज सर्टिफ़िकेट के लिए ख़ुद पंडित की भूमिका निभाने के लिए एक हज़ार की दक्षिणा की मांग कर दी और साथ में एक राजपत्रित अधिकारी से हमारी शादी हो जाने का एक प्रमाण पत्र भी संलग्न करने के लिए कहा. यह बात और है कि जब एक हफ़्ते बाद हमने केंद्र सरकार के एक बहुत बड़े अधिकारी से अपनी शादी को प्रमाणित किए जाने का प्रमाणपत्र प्रस्तुत किया तो फिर उन्होंने पंडित के रूप में अपनी दक्षिणा की डिमांड को एक मज़ाक़ बता दिया.
नोटबंदी के वक़्त जब कॉमन मैन बैंकों के आगे क़तारों में घंटों खड़े रहकर अपनी टाँगे तोड़ते हुए धूप सेकने का आनंद ले रहा था तब वी. आई. पी. लोग एक फ़ोन पर, अरबों-करोड़ों के काले धन को, उज्जवल, निष्कलंक और सफ़ेद बनवा रहे थे.  
      
कॉमन मैन की व्यथा के बाद अब इस कथा के दूसरे भाग पर आते हैं अर्थात् ईश्वर के प्रिय - वी. आई. पी. समुदाय की सदा-निष्पाप, सदा-निष्कलंक स्थिति पर.
कल नेटफ्लिक्स पर इस साल की सुपर हिट फ़िल्म संजू देखी. इस फ़िल्म को देखने के बाद हमको यह ज्ञान मिला कि किसी वी. आई. पी. का बच्चा कभी ख़ुद गलतियाँ नहीं करता, बल्कि कोई खलनायक ही उसके द्वारा की गयी ग़लतियों के लिए ज़िम्मेदार होता है. अगर वो ड्रग्स लेता है तो यह किसी गॉडकी साज़िश होती है, अगर वो अपने सबसे वफ़ादार दोस्त की गर्ल फ्रेंड चुराता है तो इसका दोष उस दोस्त की निष्क्रियता और उसकी गर्ल फ्रेंड की नापाक हरक़तों का होता है, उसके द्वारा अपने घर में आतंकवादियों के असले छुपाने के पीछे भी अपने पप्पा की और अपनी बहनों की जान बचाने का पवित्र कर्तव्य होता है.
ज़ालिम बिश्नोई समुदाय अपनी खुंदक निकालने के लिए एक मासूम सुपर स्टार पर हिरन मारने का झूठा इल्ज़ाम लगा देता है जब कि सच्चाई यह है कि कि मक़तूल हिरन ने ख़ुदकुशी की थी. मुझे ताज्जुब होता है कि हमारे सुपर स्टार के किसी  काबिल वक़ील ने, इस संदर्भ में, कोर्ट में, उस हिरन का डाइंग डिक्लेरेशन अभी तक क्यों नहीं जमा किया है.  
आप लाख जॉली एलएल. बी. बना लीजिए लेकिन अदालतों में यह बार-बार साबित कर दिया जाएगा कि तेज़ रफ़्तार से फ़ुटपाथ पर सोने वालों को कुचलने वाली गाड़ी को कोई रईसज़ादा नहीं, बल्कि उसका अभागा ड्राईवर चला रहा था या फिर - फ़ुटपाथ पर पहले से ही कुचले हुए लोग सो रहे थे.   
तुलसीदास जी कहते हैं –
समरथ को नहिं, दोस गुसाईं !
आज इस पंक्ति में सुधार किए जाने की आवश्यकता है. इसके चार सुधरे रूप प्रस्तुत हैं -  
1.   समरथ जेब, क़ानून गुसाईं !
2.   समरथ जेब, दरोगा साईं !
3.   समरथ जेब, मीडिया साईं !
4.   समरथ जेब, मिनिस्टर साईं !
रावण-दहन के वक़्त अमृतसर में ट्रेन हादसा होता है जिसमें तक़रीबन 60 लोग मारे जाते हैं लेकिन इसके लिए दोषी किसी को नहीं माना जाता है. एफ़. आई. आर. लिखाई जाती है तो किसी बेनाम के खिलाफ़. इस विषय में बड़ा बवाल हो रहा है. इस हादसे को लेकर सिद्धू दंपत्ति और पंजाब की सरकार की बड़ी किरकिरी हो रही है. इन वी. आई. पी. लोगों को ऐसे लांछनों से बचने के लिए मेरा सुझाव है कि वो एफ़. आई. आर. पाकिस्तान के खिलाफ़ लिखवा दें. आख़िर अमृतसर पाकिस्तान से लगा हुआ ही तो है.

आज मैंने ऊपर वाले के पास इस आशय की अपनी एक हजारवीं अर्ज़ी भेज दी है कि वो अगले जनम में मुझे वी. आई. पी. या किसी वी. आई. पी. का बेटा बना दे.
एक बार अगर ऐसा हो गया तो फिर तो मेरे सात खून माफ़ हो जाएंगे पर मैं इस बात को सोच-सोच कर परेशान हुआ जा रहा हूँ कि अगर मैंने आठवाँ खून भी कर दिया तो मेरे साफ़ बच निकलने का क्या रास्ता होगा !