शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2018

श्री कृष्ण के घर सुदामा


कल की कहानी -

द्वापर युग में, प्रीति-भोज हेतु, श्री कृष्ण का, सुदामा को निमंत्रण -

भेज रहा हूँ नेह-निमंत्रण,
प्रियवर, तुम्हें बुलाने को,
तुम मानस के राजहंस हो,
भूल न जाना, आने को.

कलयुग वाला निमंत्रण -

भेज रहा हूँ नेह-निमंत्रण,
प्रियवर, तुम्हें बुलाने को,
दो हज़ार, प्रति प्लेट रेट है,
भूल ही जाना, आने को.

आगे की कहानी –
कोई तुलसीदास थे जो कहते थे –
आवत ही हरसे नहीं, नैनन नहीं सनेह,
तुलसी वहां न जाइए, कंचन बरसे मेह.’
अब तुलसीदासजी ने हमको यह तो नहीं बताया कि हम उस स्थिति में क्या करें जब कंचन तो हमको बरसाना पड़े और मेज़बान द्वारा फिर भी हमारा सत्कार न हो.  
अल्मोड़ा में हमारे विश्वविद्यालय परिसर के एक निदेशक अपने आतिथ्य सत्कार के लिए बहुत प्रसिद्द थे. तीज-त्यौहार पर उनके दरबार में जो भी अक्लमंद जाता था, वो अपने साथ उपहार ज़रूर ले जाता था. उनका एक विश्वस्त भक्त आगंतुक के सामने ही उसके लाए उपहार का रैपर खोल-खाल कर वह उपहार उन्हें दिखाता था और उसी की गुणवत्ता पर यह निर्भर करता था कि आगंतुक को सिर्फ़ चाय मिलेगी या चाय के साथ एक पीस मिठाई भी परोसी जाएगी.
हम जैसे उपहार-विरोधी अव्वल तो उनके दरबार में जाते ही नहीं थे और अगर कभी जाते भी थे तो बिना कुर्सी पाए, खड़े-खड़े, पानी के एक गिलास को भी तरसते हुए लौट जाते थे.
परिसर-राजा के बेटे की शादी हुई, उसकी बारात में हमारे जैसे अभागों को बुलाए जाने का तो कोई चांस ही नहीं था पर शादी के रिसेप्शन में हम जैसों को भी बुलाया गया.
पुराने ज़माने की बात है. हम मित्रों ने आपस में मंत्रणा कर के यह तय किया कि मूंजी के बहू-बेटे को 101 रूपये का लिफ़ाफ़ा भेंट किया जाए और सपरिवार डिनर का आनंद लिया जाए (उस ज़माने में अच्छे भोजनालयों में भी 20 रूपये में डीलक्स थाली मिलती थी और छोटे बच्चे तो माँ-बाप की थाली में ही शामिल हो जाया करते थे).
हमारे लिफ़ाफ़ों का प्रवेश-द्वार पर ही पोस्ट-मार्टम कर दिया गया. उनके एक भक्त ने रजिस्टर में नोट करते हुए और कड़वा सा मुंह बनाते हुए घोषित किया – जैसवाल साहब 101 रूपये, अग्रवाल साहब 101 रूपये ---
हम 101 रूपये के लिफ़ाफ़ों वालों की तरफ़ तो डिनर से पहले न तो चाय-कॉफ़ी  आई और न ही स्टार्टर्स आए. हम सबके बच्चे तो भूख से कुनमुनाने लगे पर पहाड़ की ठण्ड में रात 9 बजे तक हम को किसी ने खाने के लिए कहा ही नहीं. परिसर-राजा को हम लोग मन ही मन कोस रहे थे पर इंतज़ार में शांत बैठे रहने के अलावा हम और कर ही क्या सकते थे?
मेरी छह साल की बेटी गीतिका ने मुझसे कहा –
पापा घर चलिए, बहुत भूख लग रही है.’
बेटी की पुकार पर बाप का सोया हुआ पौरुष जाग उठा. मैं एक दम से खड़ा हुआ और अपने भुक्कड़ साथियों को हुक्म देते हुए दहाड़ा –
चलो ! इस मूंजी के बिना कहे भी हम डिनर टेबल पर टूट पड़ते हैं.’
मुझसे अक्सर असहमत रहने वाले मेरे मित्र, दल-बल के साथ, मेरे एक आदेश पर डिनर टेबल की तरफ़ कूच कर गए. परिसर-राजा हमको आग्नेय नेत्रों से घूरते रहे लेकिन हम अपने लिफ़ाफ़ों की कीमतों को वसूलने में जुटे रहे.
सुश्री सुषमा सिंह ने मेरी कल की पोस्ट पर की गयी अपनी टिप्पणी में बताया है कि उन्हें एक शादी के रिसेप्शन में बुलाते समय मेज़बान ने प्रति प्लेट रेट बताते हुए उन से अपने आने या न आने की निश्चित सूचना देने का अनुरोध किया ताकि अप्रयुक्त प्लेटों का बेकार में ही पैसा देकर उन्हें नुक्सान न उठाना पड़े.
तुलसीदास के ही कोई दोस्त रहीम थे जिन्होंने कहा था –
रहिमन रहिला की भली, जो परसत चित लाय,
परसत मन मैला किए, सो मैदा जरि जाय.’
(रहिला अर्थात् चने की रोटी, पहले गरीब का भोजन होती थी. गेहूं के आटे की रोटी, और उस से भी अधिक मैदा की बनी नान, रईसों के हिस्से में आती थी.)

सो मैदा जरि जाय का अनुभव हमको अब अक्सर ही होता है. मुझे याद नहीं पड़ता कि कितनी बार भव्य-आयोजनों के मेज़बानों ने आम अतिथितियों की तरफ़ आँख उठाकर देखा भी हो.
मुझे अपने दोस्त प्रकाश उपाध्याय की इजा बहुत याद आती हैं. पिथौरागढ़ के एक दूरस्थ गाँव की इजा को अच्छा शहरी खाना बनाना तो नहीं आता था पर वो हमारे लिए बिना लहसुन प्याज़ का विशेष खाना बनाने में अपनी जान लगा दिया करती थीं. हमको देखते ही उनका चेहरा सौ वाट के बल्ब जैसा दमकने लगता था और हमारी बेटी गीतिका को वो लपक कर गोदी में ले लेती थीं. गीतिका को गोदी में लिए-लिए ही वो हमको प्यार से खाना खिलाया करती थीं. इजा का आतिथ्य-सत्कार मुझे न जाने क्यूँ श्री राम को शबरी द्वारा झूठे बेर खिलाने की और विदुर-पत्नी द्वारा श्री कृष्ण को भोजन कराने की कहानियों की याद दिला देता है.
हमारे मित्र प्रोफ़ेसर फ़ोतेदार और श्रीमती फ़ोतेदार परम मांसाहारी थे पर श्रीमती फ़ोतेदार हमारी वजह से हमेशा बिना अंडे का केक बनाया करती थीं.
56 व्यंजनों वाली पार्टियाँ मुझे आकर्षित नहीं, बल्कि आतंकित करती हैं. क्या ऐसी किसी दावत में आपने ऐसे वाक्य सुने हैं –
अच्छा एक लड्डू मेरी तरफ़ से !
ये शुगर फ़्री बर्फ़ी तो खाइए, आपके लिए ही तो बनवाई है !’
एक बार फिर ‘सो मैदा जरि जाय’ की याद आ गयी. 
मुझे तो लगता है कि ख़ास आदमियों की दावतों में आम आदमी को जो मान-सम्मान मिलता है, उस से कहीं ज़्यादा इज्ज़त, लंगरों में मुफ़्तखोरों को दी जाती है.
शिराज़ के रहने वाले प्रसिद्द शायर और चिन्तक शेख़ सादी की एक कहानी याद आ गयी. एक बार किसी शहर में एक रईस ने उन्हें दावत दी. उसके खादिमों ने उन्हें एक से एक पकवान परोसे. दावत के बाद उस रईस ने शेख सादी से पूछा -
'
जनाब ! आपको हमारी दावत कैसे लगी?'
शेख सादी ने जवाब दिया -
'
दावत तो जनाब कमाल की थी पर 'दावते-शिराज़' वाली बात नहीं थी.'
अगले दिन उस रईस ने दावत में और भी अधिक व्यंजन पेश किये पर शेख सादी ने उसके सवाल के जवाब में फिर 'दावते-शिराज़' की तारीफ़ में क़सीदा पढ़ दिया.
एक बार वह रईस शिराज़ गया और शेख सादी का मेहमान बना. वह देखना चाहता था कि 'दावते-शिराज़' में क्या-क्या होता है.
शेख सादी की बेग़म ने अपने हाथों से रोटी और सालन पका कर उस रईस को पेश किया. शेख सादी का पूरा कुनबा हाथ बाँध कर मेहमान की खातिर करने के लिए खड़ा रहा.
उस रईस ने कई दिन तक शेख सादी की मेहमान-नवाज़ी कुबूल की पर खाने को मिला तो वही रोटी और सालन. आख़िरकार जब वो रईस अपने शहर वापस जाने लगा तो उसने शेख सादी से पूछा -
'
शेख साहब ! आपकी उस 'दावते-शिराज़' का क्या हुआ?'
शेख सादी हँसे और उन्होंने जवाब दिया -
'
हुज़ूर यही दावते-शिराज़' है. हमारे यहाँ जो भी खिलाया जाता है, दिल से, प्यार से, इसरार से और ख़ुलूस से खिलाया जाता है और इस मामले में हमारी 'दावते-शिराज़' से आपकी शाही दावत का कोई मुकाबला नहीं है.'
    
सभी सुदामाओं को मेरा सुझाव है कि वो ऐसी दावतों और ऐसे निमंत्रण-पत्रों को कोई महत्त्व ही न दें जहाँ पलक-पांवड़े बिछाकर उनका स्वागत करने के लिए श्री कृष्ण तो क्या, उनके द्वारा नियुक्त कोई किराए का आदमी भी उपस्थित न हो.
जिस दावत में सुदामा की अनुपस्थित किसी श्री कृष्ण को खल ही न रही हो, उसमें उनकी उपस्थिति की ज़रुरत ही क्या है? सुदामा का प्रतिनिधित्व तो उनका लिफ़ाफ़ा (अब भेंट के रूप में तंदुल ले जाने की तो हिम्मत किसी की होगी नहीं ) भी तो कर सकता है. और यकीन मानिए ! सुदामा का लिफ़ाफ़ा भले ही हल्का हो, पर कोई भी धन्ना कृष्ण उसकी वैसी उपेक्षा नहीं करेगा जैसी कि वो दरिद्र सुदामा की करेगा.     

22 टिप्‍पणियां:

  1. ओहहोओ....कितना अपमानजनक है न..ऐसे तो आदमी बस उपस्थिति दर्ज कराने की औपचारिकता ही पूरी करे...जहाँ सम्मान न हो वहाँ पर कनक कटोरी में परोसे 101 प्रकार के व्यंजनों से अपने घर की दाल रोटी भली। तलब काफी सालों से धनाढ्य वर्ग के लोगों द्वारा ऐसे चोंचलें होते रहें हैं...।
    सर ,
    आपके संस्मरण जीवन के असीमित अनुभवों के बहुमूल्य दस्तावेज है जिससे बहुत कुछ सीखने को मिलता है।

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    1. धन्यवाद श्वेता जी. ऐसे समारोहों में मैं मन ही मन फ़िल्म 'नया ज़माना' के एक गीत की एक पंक्ति गुनगुनाने लगता हूँ - 'मेहरबानी, शुक्रिया, घर बुला के, बे-इज्ज़त किया !' रईसों की दावतों में आम आदमी को मिलने वाली इज्ज़त से ज़्यादा इज्ज़त तो लंगर में मुफ़्त में खाने वाले को मिल जाती है.

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  2. बहुत ही सार्थक और कटाक्ष करती रचना
    वर्तमान परिवेश को सटीक रूप से प्रत्यक्ष करती है
    ऐसे समारोहों में अपनापन कहीं दिखाई नहीं देता
    आभार आपका आदरणीय

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    1. धन्यवाद अभिलाषा जी. रईसी का प्रदर्शन करने वाली दावतों में वो अपनापन कहाँ जो पंखा झलती मैया यशोदा की परोसी, बासी माखन-रोटी में आता है?

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  3. वाह| निकालिये और भी बहुत कुछ है आपके पास अल्मोड़े का :)

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  4. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 05/10/2018 की बुलेटिन, 'स्टेंड बाई' मोड और रिश्ते - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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    1. धन्यवाद शिवम् मिश्रा जी. ब्लॉग बुलेटिन में मेरी रचना का सम्मिलित होना मेरे सदैव गर्व का विषय होता है.

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  5. अतिथि सत्कार तो जैसे सदियों पुराणी बात हो गयी.
    ब्याह शादी में पूछने की रिवाज ही गयी..कोई आया हो और वो भूखा जाये तो जाए भले.
    किसी को कुछ नही पड़ा.
    आपकी लिखने की कला बेहद शानदार है.
    लाजवाब.
    नाफ़ प्याला याद आता है क्यों? (गजल 5)

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    1. धन्यवाद रोहितास घोरेला जी. अब तो डिजिटल युग है तो फिर बेमुरव्वतों के समारोहों में स-शरीर जाने की ज़रुरत ही क्या है. ऑन लाइन पैसे भेजो, बधाई सन्देश भेजो. वो भी खुश और तुम भी खुश !

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  6. आदरणीय गोपेश जी -- आप के इस रोचक व्यंग ने मुझे बहुत हंसाया और बाद में सोचने पर विवश भी कर दिया कि आखिर इस आतिथ्य सत्कार परम्परा में इस तरह के भयावह मोड़ क्यों आये ? हमने अपने बचपन में गाँव में देखा था कि आम लोग और कुछ सम्पन्न लोग भी प्राय शादी ब्याह में बहुत सादगी से प्रीति-भोज का आयोजन करते थे जिसमे पत्तल पर उड़द की दाल चावल और लड्डू जलेबी के साथ एक आध व्यंजन और होता होगा | उसे खाक तृप्त हो सराहने वाले लोगों की कमी नहीं होती थी | उसके बाद मेरे बड़े भाई बहनों की शादी में चमचमाती क्रॉकरी के साथ , पूरी , दो तीन सब्जी के साथ दो तीन मिठाइयों वाले विवाह को बहुत शानदार समझा जाता था | पर आज के छप्पन भोज वाली भयंकर शादियाँ एक सजी सजाई दुकान की तरह लगती हैं जिनमे खाया कम जाता है - भोजन बर्बाद ज्यादा किया जाता है | भले ही मेजबान की इज्जत उतर जाए या फिर शादी से लौटते समय ही डाक्टर की दूकान पर ठहरना पड़े ., पर लोग हर व्यंजन का स्वाद चखकर उसे डस्टबिन के हवाले करने में जरा भी नहीं हिचकते और शादी में बुलाकर बेइज्जत करने वाले लोगों से सौभाग्य से अभी तक पाला नहीं पड़ा है पर आसपास ऐसा कुछ सुना मैंने कि कुछ लोग इस तरह की परम्परा का आगाज कर रहे है कि आम लोगों के लिए एक सस्ता आम सा भोज तो खास अतिथियों के लिए बहु सितारा होटल में लंच या डिनर | बहुत निंदनीय है एक हांड़ी में दो पेट वाले इस चलन का | अपनी ख़ुशी में शरीक हर मेहमान खास हैकोई आम नहीं | आपके रोचक और शानदार व्यंग लेख पर लिखने में मैं सक्षम नहीं हाँ मैंने भी इसी बहाने कुछ विचार साँझा कर लिए | साधुवाद और शुभ कामनाएं |

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  7. बहुत सुंदर लिखा आपने आदरणीय सच आजकल यही हो रहा है कार्ड देते समय व्यक्ति होटल की शान और प्लेटों के
    दाम बातों बातों बता जाते हैं फिर तो खाने वाले की समझदारी है बहुत सही सच प्रदर्शित किया आपने 👌

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    1. धन्यवाद अनुराधा जी. इस दिखावे की दुनिया से दिल भर गया है. अब तो वन में कुटिया छानी होगी और पशु-पक्षियों को अपना दोस्त बनाना होगा. सुनते हैं कि उनको दिखावा और बनावट पसंद नहीं है.

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  8. धन्यवाद रेनू जी. समृद्धि का दिखावा करना और विपन्नता का उपहास उड़ाना अब हमारा राष्ट्रीय चरित्र बन गया है. एक करोड़पति अपने करोड़पति शत्रु के अधिक निकट और अपने गरीब भाई से बहुत दूर हो गया है. मैंने और मुझसे बहुत बाद में आपने जिन सादगी भरे विवाह-समारोहों में भाग लिया था, उनकी मधुर स्मृतियाँ आज भी आनंद प्रदान करती हैं और पांच सितारा होटलों में आयोजित भव्य किन्तु पराएपन से भरे समारोहों को तो हम अगले दिन ही भूल जाते हैं. शादी के घरों में बूंदी के लड्डू, बासी कचौड़ी और उसके साथ गरम कद्दू की सब्ज़ी की दावत आज भी मेरे सपनों में आती है. आप कलम की धनी हैं. आप भी अपनी स्मृतियाँ विस्तार के साथ हमारे साथ साझा कीजिए.

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    1. आदरणीय गोपेश जी -- आपके प्रतिउत्तर का उत्तर बहुत देर बाद दे पा रही हूँ अतः क्षमा चाहती हूँ | मुझे बहुत सी बातें याद आती है पर समयाभाव के कारण लिख नहीं पाती | इस दिखावे के युग में भी कई लोग बहुत ही अनुकरणीय पहल कर रहे हैं |उसी सन्दर्भ में एक चीज याद आ रही है | प्रायः क्षत्रिय समाज अपने दिखावे के लिए विख्यात है और साथ ही चादर से बाहर पैर पसारने के लिए भी - पर मेरी चचेरी बहन के परिवार में पहले घर की दुल्हन के लिए सामन खरीदते हैं तब दुल्हन घर लाते हैं | मेरी बहन को भी उन्होंने बिना दहेज के अपनी बहु बनाया था | गाडी - और सामान के साथ लाखों रूपये नकद जो उन्हें दहेज़ के नाम पर दिए गये उन्होंने तीन पीढ़ियों से बिलकुल स्वीकार नहीं किये |और बारात के नाम पर वे कभी भी बीस लोगों से ज्यादा लेकर नहीं जाते साथ में इस बरात के नाम पर भी वे बहुत बड़े टेंट , मैरिज हाल की बजाय घर के चूल्हे के सादे दाल - चावल वाले खाने की डिमांड करते हैं | इसके बाद वे अपने घर आकर अपने मेहमानों के लिए खुद ही प्रीतिभोज आयोजित करते हैं | पर दुखद है कि उन्हें अपनी घर की बेटियों के लिए कोई इतना दिलदार रिश्तेदार नहीं मिला - उन्हें अपनी बेटियों के लिए सभी सामान के साथ बरात का स्वागत भव्यता से करना पड़ता है | आपने सच कहा - पुराने दिनों की सादगी सपनों में अक्सर दिखाई पडती है | कितना अच्छा हो वो पुरानी सादगी फिर से समाज का एक अहम हिस्सा बनकर लौट आये | आपसे वार्तालाप सदैव सार्थक और रोचक रहता है | और कलम के धनी लोगों में रह कर मुझे भी थोड़ा बहुत अपनी बात कहने का ढंग आ गया है अन्यथा आप जैसे सुदक्ष रचनाकारों के बीच में मेरा लेखन नजर कहाँ आता है ? हार्दिक आभारी हूँ आपके उत्साहित करते शब्दों के लिए | सादर प्रणाम |

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    2. दिखावा-पसंद समाज से लड़कर ही हम समारोहों में सादगी फिर से ला सकते हैं. आज से तीन-चार दशक पहले अल्मोड़ा के गाँवों में गाँव के लड़के लड़की की शादी में छोले, पूड़ी, आलू, बूंदी का रायता और सूजी का हलवा ख़ुद बनाकर घरातियों-बारातियों का स्वागत करते थे. ऐसे समारोहों में सम्मिलित होकर मुझे तो बहुत आनंद आता था. पर अब वहां भी दिखावा और अपव्यय शुरू हो गया है.

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  9. अत्यंत सुंदर व्यंग रचना ,आदरणीय सुदामा कृष्ण आज दोनों बदल गए है। कभी वक्त मिले तो हमारे ब्लॉग shayarikhanidilse.blogspot.com को भी पावन करे ...

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  10. धन्यवाद अंकित. आपका ब्लॉग देखा. आप में प्रतिभा है. मेरे विचार अपने ब्लॉग पर देख लीजिएगा.

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  11. बहुत खूब ... ये संस्मरण नहीं व्यंग का ऐसा दस्तावेज़ है जो बहुत कुछ कहता भी है और करता भी है ...
    आज सब बदल गए हैं ... अपना अपना रूप आचार व्यवहार नया कर चुके हैं ... और इसी अनुसार आचरण भी करेंगे ...

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    1. धन्यवाद दिगंबर नसवा जी. सब नहीं बदले हैं. आप जैसे लोग जिन्होंने कि मेरी बात को समझा है, उनके लिए प्यार, जज़्बात, रिश्ते और दोस्ती की अहमियत अभी भी दौलत से ज़्यादा है.

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  12. आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' ०८ अक्टूबर २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/



    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।



    आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'

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  13. धन्यवाद ध्रुव सिंह जी. 'लोकतंत्र' संवाद मंच पढ़ने का हमको पूरे सप्ताह इंतज़ार रहता है और अगर उसमें अपनी रचना भी शामिल हो तो उस से जो आनंद मिलता है, उसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता.

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