शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2018

'मी टू'


हमारी पौराणिक गाथाओं में नारी-शोषण और नारी-दोहन के जितने मसालेदार किस्से हैं, उसकी तुलना में आज के ‘मी टू’ के किस्से बहुत फीके दिखाई पड़ते हैं. स्त्री को ‘वीर-भोग्या’ कहने वालों को हम ऋषि-मुनि का सम्मान देते हैं. हम उस देश के वासी हैं जहाँ मंदिरों में मासूम बालिकाओं को देवदासी बनाकर राजाओं तथा धर्म-पुरोहितों की काम-पिपासा को संतुष्ट करने के लिए विवश किया जाता था.


विश्व इतिहास के प्राचीनतम गणतंत्र, वैशाली में आम्रपाली को नगर-वधू बनने के लिए केवल इसलिए विवश किया गया था क्योंकि उसके अप्रतिम सौन्दर्य पर नगर के सैकड़ों गणमान्य नागरिकों की एक साथ कुदृष्टि थी. अगर विश्व के प्राचीनतम गणतंत्र में ऐसा हो सकता था तो आज विश्व के विशालतम गणतंत्र में ऐसा होने पर सवाल क्यों उठाए जा रहे हैं?


हम सब पुरुष अपने कलेजे पर हाथ रख कर बताएं कि हम फुर्सत के लम्हों में, आपस में बैठकर, कब रामचरितमानस में स्थापित आदर्शों पर विचार-विमर्श करते हैं या गीता के निष्काम कर्म पर चर्चा करते हैं?


क्या हमारी बातों में राजनीति, फ़िल्म, क्रिकेट और महंगाई की कुल चर्चा से कई गुनी बात, पराई नार पर नहीं होती है? और यह पराई नार उम्र में जितनी छोटी हो उतना ही उसके बारे में बातें करने में हमको मज़ा आता है.


अपनी ऐयाशी के लिए कुख्यात जनरल यहिया खान की कई अधेड़ प्रेमिकाएं थीं. एक पत्रकार ने उस से पूछा –


‘जनरल आपके हाथों में तो इतनी ताक़त है कि आप जिस लड़की को चाहें उसे अपना बना सकते हैं, फिर आपकी सब प्रेमिकाएँ इतनी उम्रदराज़ क्यों हैं?’


जनरल यहिया खान ने इस सवाल का जवाब देते हुए कहा –


‘मैं ऐयाश हूँ पर ऐसा बीमार नहीं हूँ जो कि अपनी पीढ़ी की खवातीनों को छोड़कर, मासूम कलियों पर नज़र रक्खूं.’


अब इस सवाल-जवाब की प्रामाणिकता पर सवाल मत उठाइएगा क्यों कि यह सिर्फ़ सुनी-सुनाई बात है.


इस सवाल-जवाब के दृष्टान्त के बाद हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि हम में से तमाम लोग यहिया खान जैसे ऐयाश के मापदंड से एक बीमार की सोच रखते हैं.


आपसी सहमति से स्त्री-पुरुष के अथवा सम-लैंगिक सम्बन्ध होते हैं तो उसे यौन शोषण और ‘मी टू’ के अंतर्गत नहीं लाया जा सकता पर दिक्कत यह है कि इस ‘मी टू’ प्रकरण में कई ऐसे भी प्रसंग शामिल होंगे जहाँ आपसी सहमति से बने संबंधों को बाद में छेड़छाड़ अथवा बलात्कार का नाम दे दिया गया हो. हम सब जानते हैं कि आज हर क्षेत्र में ऐसे सम्बन्ध स्थापित करना सफलता प्राप्त करने का सबसे आज़माया हुआ शोर्ट कट है.


कितनी महिलाएं बड़े नेताओं की दूसरी औरत होकर राजनीति में शिखर तक पहुँची हैं? कितनी अभिनेत्रियाँ बिना किसी प्रतिभा के केवल इसलिए बड़ी-बड़ी फिल्मों की नायिकाएँ बनाई जाती रही हैं क्योंकि वह किसी बड़े अभिनेता, किसी बड़े निर्देशक, किसी बड़े निर्माता या किसी बड़े डॉन की चहेती हैं?


फ़िल्म और राजनीति के क्षेत्र में ही क्यों, ऐसी बातें हर क्षेत्र में होती हैं और होती रहेंगी.


ख़ुद यौन शोषण के कई मामलों के आरोपी और अपनी बेहूदा और स्त्री-विरोधी बातों के लिए बदनाम, पुराने ज़माने के मशहूर और आज के बेरोज़गार गायक, अभिजीत ने कहा है कि मोटी और बदसूरत हो चुकी औरतों ने फिर से सुर्ख़ियों में आने के लिए इस झूठ से भरे ‘मी टू’ का सहारा लिया है.


अभिजीत की यह बात उसकी और बातों की ही तरह उसके कुत्सित चरित्र की चुगली करती है. आमतौर पर देखा जाय तो ऐसे आरोपों में अक्सर सत्य होता है.


‘मी टू’ प्रकरणों से लाखों गुनी ऐसी घटनाएँ हैं जिन में यौन शोषण तो होता है पर उनको दबा दिया जाता है - कभी ख़ुद पीड़िता (अथवा पीड़ित) द्वारा, कभी उसके घर वालों के द्वारा तो कभी अत्याचारी के दबाव में आकर पुलिस द्वारा.


पीड़िता सोचती है -‘लोग क्या कहेंगे? फिर मेरी शादी कैसे होगी?‘


पीड़िता के घर वाले सोचते हैं – ‘यह बात खुल गयी तो हम ज़माने को क्या मुंह दिखाएंगे?’


और पुलिस वाले सोचते हैं – ‘इत्ती सी बात के लिए हम काहे को मगरमच्छ के मुंह में हाथ डालें? और वो भी तब जब कि हमारी जेब भी गरम हो रही हो?’


समाज में यौन-शोषण की पीड़ित महिला अथवा बालिका को बलात्कारी से भी अधिक हिकारत भरी नज़रों से देखा जाता है और कई बार तो बलात्कारी के अपराध सिद्ध हो जाने पर भी उसका समाज में रुतबा कायम रहता है. आज भी आसाराम बापू के कितने भक्त हैं? आज भी कितने बदनाम हो चुके बाबाओं, फ़कीरों, ग्रंथियों, मुनियों और पादरियों के दरबार में अंध-भक्त माता पिता, अपनी मासूम बेटियों को लेकर उपस्थित हो रहे हैं? उन दरिंदों के आश्रमों, गुरुकुलों, मदरसों आदि में अपनी-अपने बेटियों और बेटों को छोड़ कर जा रहे हैं?


‘मी टू’ प्रकरणों में मीडिया की भूमिका मुख्यतः सुर्खियाँ बटोरकर उन्हें भुनाने तक सीमित रहती है. क्या कभी किसी मीडिया वाले ने किसी असहाय और बुज़ुर्ग हो चुकी बलात्कार पीड़िता की मदद का बीड़ा उठाया है? क्या किसी आदिवासी अथवा किसी मज़दूर बेवा के यौन शोषण की व्यथा को अख़बार वालों ने छापा है? और अगर छापा भी है तो क्या बाद में उसको पुनर्स्थापित किए जाने के लिए कोई गुहार लगाई है या अपनी ओर से कोई प्रयास किया है?


मुझे तो लगता है कि आज ‘मी टू’ को जो महत्व दिया जा रहा है वह धीरे-धीरे कम होता जाएगा. ऐसे प्रकरणों को नारी-उत्थान से जोड़ कर देखना हमारी भूल होगी.


पाश्चात्य जगत की देखा-देखी हमारे यहाँ भी यौन-शोषण की बात को खुले तौर पर किया जा रहा है पर हमारी मानसिकता आज भी स्त्री को ‘वीर्य भोग्या’ समझने की है. इस पुरुष-प्रधान समाज में स्त्री पर बंधन पहले से कम ज़रूर हुए हैं पर वो ज़्यादातर इसलिए कि वो घर की जिम्मेदारियां सम्हालने के अलावा भी बाहर जाकर कुछ कमाकर, घर की समृद्धि बढ़ाने में अपना योगदान दे.


व्यावहारिक दृष्टि से स्त्री और पुरुष की समानता की बात तो आज भी वाद-विवाद प्रतियोगिताओं और नेताओं-समाज सुधारकों के भाषणों-लेखों तक सीमित है.


इस ‘मी टू’ के अंतर्गत बालकों के यौन-शोषण की एक भी बात सामने नहीं आई है. हम सब जानते हैं कि हज़ारों-लाखों लड़के भी यौन-शोषण का शिकार होते हैं. हमारे सुधारकों को, हमारे मीडिया कर्मियों को, हमारे बुद्धि जीवियों को, ऐसे मामलों को भी उठाना चाहिए. या ये मामले सिर्फ़ इसलिए नहीं उठाए जाएंगे कि इनसे इतनी चटपटी ख़बर नहीं बन पाएगी?


हमारी लड़कियों को, हमारे लड़कों को, यौन-शोषण का शिकार होने से बचने के लिए ख़ुद दुर्गा का अथवा शंकर का रूप धारण करना होगा. साहस और आत्म-शक्ति से ऐसी अधिकांश घटनाओं को रोका जा सकता है.


समाज का दायित्व है कि वह यौन-शोषण की पीड़िता को (अथवा पीड़ित को) हिकारत की नज़र से अथवा उपहास की दृष्टि से न देखे.


मीडिया को यौन-शोषण की घटनाओं को अपने फ़ायदे के लिए प्रकाश में लाने के लालच से बचना चाहिए.


और सबसे बड़ी बात यह कि यौन-शोषण करने वालों को यह सोचना चाहिए कि इस ‘मी टू’ के दायरे में कभी उनकी अपनी बहन, अपनी बेटी और अपना बेटा भी आ सकता है.

16 टिप्‍पणियां:

  1. रामायण,महाभारत काल से लेकर आज के "मी टू" तक स्त्री यौन शोषण या स्त्री के साथ भेदभाव की कहानियाँ भरी पड़ी हैं..जिन्हें हम आज भगवान मानते वो भी भेदभाव करने में बाज नहीं आये थे.
    यहिया खान की एक मामले में सोच सही है. मिडिया तो चटपटी ही खबर दिखाएगा..फिर चाहे वो खबर ब्लर करके ही क्यों न दिखानी पड़े.
    खुद शक्ति बनकर सामने आना ही एक मात्र उपाय है.
    गहरा चिन्त मिलता है आपके इस लेख में.

    पधारियेगा हद पार इश्क 

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    1. धन्यवाद रोहतास घोरेला जी. हमको पुरुष-प्रधान समाज की विकृत सोच के विरुद्ध एकजुट होने की आवश्यकता है. हज़ार-दो हज़ार ज़बर्दस्ती के मजनूँ जब चौराहों पर पिटेंगे तब 'मी टू' की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी. 'हद पार इश्क़' का मैं अवलोकन करता हूँ, फिर उस पर अपनी राय भी दूंगा.

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  2. आपकी लिखी रचना "साप्ताहिक मुखरित मौन में" शनिवार 13 अक्टूबर 2018 को साझा की गई है......... https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. धन्यवाद यशोदा जी. कल मैं 'साप्ताहिक मुखरित मौन' का आनंद अवश्य उठाऊँगा.

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    1. धन्यवाद सुशील बाबू. ये दुष्ट जन, ये चरित्रहीन लोग, अपनी हरक़तों से, हमारी-तुम्हारी कलम को चलने के लिए इतना मजबूर क्यों कर देते हैं?

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  5. जी सर,अध्यात्म से जुड़े विशेषकर राम और कृष्ण पर आपके वक्तव्य से हम सहमत नहीं हैं यह आपका चिंतन हो सकता है पर मेरा दृष्टिकोण दूसरा है उस तर्क में नहीं पड़ते हम।
    हाँ...बाकी प्रत्येक विषय पर आपका आकलन आपके प्रभावशाली तर्क और विचार से हम सहमत हैं।
    स्त्री पुरुष के लिए एक वस्तु से ज्यादा सम्मान न पा सकी है। कितना भी आधुनिक सोच का ढोल पीट ले, एक स्त्री के लिए ज़माना कभी नहीं बदलता। हाँ ऊपर से कुछ रंग रोगन करके टूटे-फूटे विचारों को नया रुप देने की कोशिश की जा रही है।
    जी सर एक पहलू यह भी यह कि बदलते समय का भोंपू थामे कुछ औरतें भी हैंं जो बहती गंगा में हाथ धोती दिखाई पड़ती है....उनके लिए भी कुछ प्रावधान होने चाहिए।
    और सर आपको सादर प्रणाम....स्त्रियों के मान के लिए आपके विचार के लिए हम हृदय से आभारी है आपके।
    आपकी कोई भी रचना स्पष्ट और बेबाक होती है यही आपकी खासियत है जो आपको भीड़ से अलग बनाती है।
    बहुत ही प्रभावशाली अभिव्यक्ति है। बधाई स्वीकार करें।
    सादर।

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  6. श्वेता जी, गीतिका जैसवाल हमारी बड़ी बेटी हैं. उन्होंने दुबई में बैठे-बैठे ही फ़ेसबुक पर डाली गयी मेरी इस पोस्ट से श्री राम और श्री कृष्ण पर मेरी बात हटा दी पर न जाने क्यों उनका ध्यान मेरे ब्लॉग पर नहीं गया वरना आपको असहमत होने का मौक़ा नहीं मिलता. श्री राम ने सीता जी के साथ जैसा व्यव्हार किया उसे बहुतों ने, खासकर अनेक कवियों ने अनुचित माना है और श्री कृष्ण की हर रासलीला को, हर प्रेमलीला को, आध्यात्मिकता का पुट दे पाना उनके समर्थकों के लिए सदैव संभव नहीं हो पाया है. फिर भी आपकी असहमति का स्वागत है. मैंने भारत में आज के खोखले नारी-उत्थान का कारण मुख्यतः उपयोगितावादी दृष्टिकोण को और पश्चिम की नक़ल को माना है. स्त्रियों की प्रबल शत्रुओं में प्रायः स्त्रियाँ बहुत आगे रही हैं. हमको स्त्रियों को कुल्हाड़ी का वह लकड़ी का बेंट नहीं बनने देना है जो कि अपनी ही बिरादरी वालों को, यानी पेड़ों को काटने में मदद करता है. आपकी प्रशंसा के लिए धन्यवाद और बेबाक़ आलोचना के लिए बहुत-बहुत आभार.

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  7. आदरणीय गोपेश जी -- -- सबसे पहले पौराणिक सदर्भ में मुझे याद आया | मेरी सासूमाँ अत्यंत धार्मिक विचारों की हैं | उन्हें अध्यात्मिक विषयों में गहरी रूचि है पर उन्हें पढना नहीं आता अतः मैं अक्सर उन्हें जो भी उनकी इच्छा होती है पढ़कर सुना देती हूँ | इसी बहाने हम दोनों इन विषयों पर विमर्श भी कर लेते हैं | पिछले सावन से पहले उन्हें ' शिवपुराण ' सुनने इच्छा हुई, पर पूरा शिवपुराण सुनने के बाद उन्होंने मुझे कहा कि इस पुस्तक को दुबारा मत पढना | कारण था देवताओं की स्त्रीलोलुपता से भरी कथाएं | खासकर चन्द्रमा और इंद्र का चरित्र उन्हें जरा भी पसंद नहीं आया , जो इन विषयों में खासा विवादस्पद है | इसके विपरीत उन्हें रामचरितमानस और भगवद्गीता बहुत पसंद आई |क्योकि श्री - राम -कृष्ण दोनों ही भारतीय संस्कृति के सबसे बड़े प्रेरणा स्त्रोत हैं | श्री राम मर्यादा पुरुषोत्तम कहे जाते हैं - और सीता के प्रति उनका व्यवहार भले ही प्रकट में बहुत न्याय संगत नहीं था पर उसके पीछे एक सामाजिक कर्तव्य निहित था | श्री कृष्ण जी के प्रेम को सदैव उनके अनुरागियों ने बड़े अध्यात्मिक भाव से देखा है अतः आज के देहलोलुप और दुराचारी व्यक्ति उनके आगे कहीं भी नही ठहरते और न ही दोनों की तुलना करना उचित है | पर ये बात सच है कि देवता तक नारी शोषण में पीछे नहीं रहे | नारी को अनेक पौराणिक पात्रों ने मात्र '' भोग्या ' समझ उसका शोषण किया | 'मी टू 'के माध्यम से आपने वो कह दिया जो प्राय सच है | आपके लेख से पहले कल ही गूगल प्लस पर आदरणीया वन्दना वाजपेयी जी का '' मी टू'' विषयात्मक आलेख पढ़ा था पर तब तक मैं इस ज्वलंत विषय से नावाकिफ थी | पर कल से धीरे धीरे एक टीवी डिबेट के माध्यम से मैं ये अंदाजा लगाने में सफल हुई कि ये किस तरह का अभिव्यक्ति मंच है [ हालाँकि ढेढ़ साल से ज्यादा से ब्लॉगिंग से जुड़ने के साथ ही मेरा टीवी दर्शन ना के बराबर हो गया है -- डराती -- थकाती सनसनी भरी खबरों से मुझे अब भयंकर डर लगने लगा है - पर घर में खबरों के दीवाने अन्य लोग भी हैं जिनके माध्यम से आते जाते कानों में खबरे पडती रहती हैं | गूगल पर खोजा तो जान पायी ये क्या है | आपने लेख के माध्यम से भी कई नई बातें जानी | याहिया खान के भी कुछ नैतिक मापदंड थे अनगिन लोगों के वे भी नहीं | और आपने सच कहा इस तरह के रिश्तों , जो इच्छा और अनिच्छा से दोनों ही हो सकते हैं , को और काम निकलने पर दुराचार कह दिया जाना एक फैशन बन गया है | पुरुष जाति तो इस विषय में सिरे से बदनाम है पर अवसरवादी नारियों के किस्से भी सुनने में आते रहते हैं| '' बदनाम होगें तो क्या नाम ना होगा ?'' का सिरा पकड़ सब लोग बदनामी लेकिन प्रसिद्धि की सरल , सुगम राह पर अग्रसर है | शोषण करने वालो की कमी नहीं दिखती | ज्यादा लिख पाने में सक्षम नहीं पर बहुत साल पहले दूरदर्शन के एक कवि - दरबार में सुनी गई एक अनाम कवि की दो पंक्तियाँ मुझे कभी नहीं भूलती -जिन्हें आज प्रसंगवश साभार लिखना चाहूंगी --

    सुन !सरपंच - पराई नार पे बुरी नजर मत डाल-

    सुना है , तेरी चम्पा सयानी हो गई !!!!!!!

    काश !! ये वो भी सुन लेते जो इस तरह के कृत्य कर शर्मिंदा भी नहीं होते !!

    एक विचारोत्तेजक लेख के लिए सादर आभार |











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    1. रेनू जी आपके विचारों में बहुत गहराई होती है और आप लिखती भी बहुत अच्छा हैं. अपनी कलम को रुकने मत दिया कीजिए.मेरी बेटी गीतिका, श्वेता सिन्हा जी और अब आप भी श्री राम और श्री कृष्ण के विषय में मेरे विचारों से सहमत नहीं हैं. लगता है कि नारी-शक्ति के समवेत विरोध के समक्ष मुझे अपने ये शब्द वापस लेने पड़ेंगे. काम-लोलुप पुरुषों के साथ अवसरवादी स्त्रियाँ भी समाज का कलंक हैं. और रही सरपंच की बेटी चंपा के युवती होने की बात तो उसे कोई फ़िक्र नहीं, वो तो तब भी नहीं सुधरेगा जब उसकी चम्पा की बेटी भी जवान हो जाएगी.

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    2. जी गोपेश जी -- सही कहा आपने सरपंच को कोई चिंता नहीं है क्योकि वह सुधरने की फितरत ले पैदा ही नही हुआ , पर देर - सवेर उसके मुंह पर कालिख पुतेगी ये तय है | और आपके प्रेरक शब्दों के लिए सादर आभार |

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    3. ऐसे सभी सरपंचों के मुखों पर काली चेरी ब्लॉसम का लेप लगाने के लिए जनता बेसब्री से प्रतीक्षा कर रही है.

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  8. गोपेश जी, बहुत ही विचारणीय आलेख के लिए धन्यवाद। सही कहा आपने कि मीडिया को यौन-शोषण की घटनाओं को अपने फ़ायदे के लिए प्रकाश में लाने के लालच से बचना चाहिए और यौन-शोषण करने वालों को यह सोचना चाहिए कि इस ‘मी टू’ के दायरे में कभी उनकी अपनी बहन, अपनी बेटी और अपना बेटा भी आ सकता है.

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    1. धन्यवाद ज्योति जी. इस आन्दोलन का प्रभाव फ़िल्मी दुनिया पर तो पड़ता दिखाई दे रहा है. राजनीति के गलियारों में, दफ़्तरों और सबसे अधिक अपने ही घर के बंद कमरों में 'मी टू' की घटनाएँ रोजाना होती रहती हैं.
      हमको 'मी टू' के अपराधियों को चौराहे पर दण्डित करना चाहिए. इन दरिंदों की दरिंदगी बिना कोड़े खाए जाने वाली नहीं है. ये अपने आप डाकू से वाल्मीकि नहीं बनने वाले.

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  9. आस्था को भी , ये खतरे तो उठाने होंगे !
    ढोंगियों के दिए , वरदान भुलाने होंगे !

    रूप संतों का रखे , चोर उचक्के पूजे
    साधु सेवा से मिले पुण्य , भुलाने होंगे !

    झूठ के बीज को,जड़ से समाप्त करने को
    तीक्ष्ण अभिव्यक्ति को,खतरे भी उठाने होंगे !

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    1. बहुत ख़ूब सतीश सक्सेना जी. लेकिन सावधान ! हम और आप अगर ऐसा ही लिखेंगे तो कोई आसाराम या राम-रहीम जेल में रहते हुए भी हमारा-आपका अपहरण करवा सकता है या ज़रुरत पड़ने पर खात्मा भी करवा सकता है.

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