रविवार, 22 मई 2016

मुन्ना-मुन्नी की अनोखी शादी

मेरी किशोरावस्था के तीन वर्ष रायबरेली में बीते हैं. वहां हम लोगों के मकान के पड़ौस में एक मास्साब (रिटायर्ड हेड मास्टर साहब) रहते थे. गाँधीवादी मास्साब अपनी विद्वत्ता और सज्जनता के लिए जग-प्रसिद्द थे किन्तु हम लड़कों के बीच में मुन्ना-हीरो के नाम से प्रसिद्द उनके सपूत हर बात में पूरी तरह से उनके उलटे थे. मास्साब के पढ़ाए हुए विद्यार्थी एक से एक ऊंचे ओहदे पर पहुँच गए थे लेकिन हमारे मुन्ना-हीरो ने हाई स्कूल में तीन-चार बार असफल होने के बाद अपनी सारी किताब-कौपियाँ कबाड़ी को बेचकर प्राप्त रकम से और अपनी अम्मा के बक्से से चुराए गए पैसों से हीरो बनने के लिए बम्बई की राह पकड़ ली थी. पर तीन महीने बाद ही तमाम फ़िल्म स्टूडियोज़ की ख़ाक छानने और पेट भरने के लिए बॉम्बे वीटी पर कुली-गिरी करने के बाद हमारे मुन्ना-हीरो, फिर से मास्साब का नाम धन्य करने के लिए बैरंग घर वापस आ गए थे.
मुन्ना-हीरो जैसी डायलॉग डिलीवरी तो लाखों में किसी एक की हो सकती थी. दिलीप कुमार, राज कपूर और देवानन्द तक इस कला में उनके सामने पानी भरते थे. शुद्ध-शाकाहारी परिवार के हमारे हीरो हमारे घर के पास के पोखर में जाल डालकर मछली पकड़ने में भी उस्ताद थे. मछलियाँ पकड़ कर और उन्हें बेच कर वो अच्छे-खासे पैसे भी कमा लेते थे पर अपने परिवार-जन की दृष्टि में वो हमेशा कुल-कलंक ही माने जाते थे और सबसे दुखदायी बात यह थी कि हमको हमारे हीरो से मिलने की या उनका किसी भी प्रकार का अनुकरण करने की सख्त मनाही कर दी गई थी.
मेरे पिताजी मास्साब की बहुत इज्ज़त करते थे. हफ़्ते में कम से कम एक बार तो मास्साब हमारे घर आकर पिताजी के साथ एक प्याली चाय तो ज़रूर ही पीते थे. दोनों के बीच दुनिया भर की बातें होती थीं पर हमारे मास्साब इस बातचीत का विषय हमेशा मुन्ना-हीरो के निंदा-पुराण की ओर मोड़ देते थे. पिताजी हर बार उनको समझाते थे कि अब वो पच्चीस साल के हो चुके अपने सपूत के ह्रदय-परिवर्तन की कोई उम्मीद नहीं रक्खें और अपने हालात से समझौता कर लें पर मास्साब थे कि खुद को कबीर और अपने सपूत को कमाल मान, यह कहकर, रोया करते थे –
‘बूड़ा बंस कबीर का, उपजा पूत कमाल.’
हमारे मुन्ना-हीरो यानी मास्साब के ‘कमाल’ ने इस बार तो वाक़ई कमाल कर दिया. एक दिन मास्साब मुन्ना-हीरो को घसीटते हुए पिताजी के पास लाकर उनके सामने रोते हुए कहने लगे –
‘मजिस्ट्रेट साहब, इस कमबख्त को आप फ़ौरन जेल भिजवाइए. इसने हमारे खानदान की नाक कटवा दी है.’
पिताजी ने मुन्ना-हीरो के कान पकड़ कर उनसे पूछा –
‘क्यूँ बरखुरदार इस बार तुमने क्या गुल खिलाया है? अपनी कारस्तानी खुद बताओगे या तुमसे बात उगलवाने के लिए पुलिसिया तरीक़ा अपनाया जाय?’
‘मुन्ना-हीरो ने पिताजी के पैर पकड़ते हुए कहा –
‘चाचाजी, बाबूजी तो बेकार में गुस्सा कर रहे हैं. मैंने तो बस, अपनी मर्ज़ी से शादी की है, कोई खून थोड़े किया है?’
मास्साब ने अपना सर पीट कर कहा –
‘यह चोर पुत्तन हलवाई की लड़की मुन्नी को भगाकर हमारे घर ले आया है.’
मुन्ना-हीरो ने अपने बाबूजी को करेक्ट करते हुए कहा –
‘मैंने और मुन्नी ने मंदिर में जाकर शादी की है. मैं उसे भगाकर नहीं लाया हूँ.
पिताजी ने मुन्ना-हीरो से पूछा –
‘क्या लड़की बालिग़ है? तुम उसे यहाँ लेकर आओ. मैं उससे मालूम करूँगा कि तुमने कहीं उसके साथ कोई ज़ोर-जबरदस्ती तो नहीं की है.’

मास्साब ने बीच में कूदकर कहा –
‘मजिस्ट्रेट साहब, लड़की तो इस से भी साल-दो साल बड़ी ही होगी और इसके साथ वो आई भी अपनी मर्ज़ी से है. पर आप किसी तरह मंदिर में हुई इनकी बेहूदा शादी को रद्द करवा कर लड़की को उसके बाप के घर वापस भिजवाने का इंतज़ाम करवा दीजिए.उसका बाप भी यही चाहता है.’


पिताजी ने मास्साब को समझाते हुए कहा –


‘मास्साब दो बालिगों ने अपनी मर्ज़ी से शादी की है. न तो क़ानून उसको रद्द नहीं करवा सकता है और न लड़का-लड़की के माँ-बाप. मेरी सलाह तो यह है कि लोक-लाज के लिए आप खुद इनकी विधिवत शादी करवा दीजिए. हम भी वर-वधू को आशीर्वाद देने पहुँच जाएंगे.’


पिताजी के वचन सुन कर कृतज्ञ मुन्ना-हीरो ने एक बार फिर उनके चरण पकड़ लिए. थोड़ा-बहुत हाय-हल्ला करने और रोने-धोने के बाद मास्साब भी पिताजी की बात मान गए और अपने घर से ही तीन दिन बाद मुन्ना-मुन्नी की शादी कराने को राज़ी हो गए.
अगले दिन सुबह-सुबह मुन्ना-हीरो एक रौबीली सी महिला को लेकर हमारे घर आ धमके. मुन्ना-हीरो और उस महिला ने माँ और पिताजी के चरण छुए. पूछने पर पता चला कि मुन्ना-हीरो के साथ आई यह महिला ही पुत्तन हलवाई की साहबज़ादी मुन्नी हैं. पिताजी ने असमय ही उनके आने का कारण पूछा तो हमारे मुन्ना-हीरो ने फ़रमाया –

‘चाचाजी, बाबूजी ने हमारी शादी के लिए सिर्फ 1000 रूपये दिए हैं. शादी में खर्चा इससे बहुत ज़्यादा आएगा. आप लोग बहू की मुंह दिखाई में जो रूपये देने वाले हैं वो अपनी बहू का मुंह देखकर अभी दे दीजिए.’

मुंह-दिखाई के नेग में पिताजी को अच्छा-खासा चूना लगाकर ही मुन्ना-मुन्नी ने हमारा घर छोड़ा और फिर वो दोनों अगला शिकार करने के लिए आगे बढ़ चले.

आगामी तीन दिनों में कभी कोई बर्तन देने, कभी पूजा का पटा पहुँचाने, तो कभी शादी का निश्चित समय पता करने या शादी का मंडप सजाने में अपना योगदान देने के बहाने मैंने मास्साब के घर के दस-बारह चक्कर तो लगा ही डाले. मुन्नी भाभी से तो मेरी अच्छी-खासी दोस्ती भी हो गई. खैर शादी का दिन भी आ पहुंचा. चूंकि शादी का सीज़न इस समय अपने शिखर पर था इसलिए हलवाइयों के रेट भी आसमान पर पहुँच गए थे. शादी के लिमिटेड बजट में तो उनकी सेवाएँ मिल पाना असंभव था पर हमारे नायक-नायिका के पास हर मुश्किल का हल था. सुबह से ही खुद दुल्हन घरेलू कपड़ों में और मुन्ना-हीरो कच्छा-बनियान में सज-धज कर पकवान बनाने में जुट गए और शाम तक उन दोनों ने पचास-साठ लोगों के खाने का बढ़िया इंतज़ाम कर लिया. इस अनुष्ठान को संपन्न करके ही दूल्हा और दुल्हन सजने के लिए तैयार हुए.


मास्साब के एक विद्वान पंडितजी मित्र, मुन्ना-हीरो के अनुरोध पर शादी में पंडित का दायित्व, निशुल्क निभाने को तैयार हो गए. अड़ौस-पड़ौस से कुछ बल्ब मांगकर मुन्ना-हीरो ने तार जोड़-जाड़कर रौशनी का खुद ही इंतज़ाम कर लिया. मांगे के सोफ़े, कुसियाँ, दरी और कालीन ने विवाह-स्थल की शोभा और भी बढ़ा दी.


अब रही रिकॉर्डिंग की बात तो उसका भी प्रबंध मुन्ना-हीरो के एक ने मित्र मुफ़्त में कर दिया किन्तु इसमें एक ज़बर्दस्त पेच था. मुन्ना-हीरो के इस मेहरबान दोस्त की शादी-ब्याह आदि में रिकॉर्डिंग कराने की दुकान थी पर इस समय वैवाहिक उत्सव से सम्बंधित गानों की ज़बरदस्त डिमांड थी. मुफ़्तखोरों के लिए तो फ़ालतू गाने ही उपलब्द्ध थे. मुन्ना-हीरो का तो बस यही सपना था कि उनकी शादी में भी रिकॉर्डिंग हो, अब यह कौन देख या सुन रहा था कि रिकॉर्डिंग के नाम पर क्या बज रहा है. हमने इस ऐतिहासिक रिकॉर्डिंग में जो गाने सुने उनमें से यादगार गाने थे –
‘मेरा जीवन साथी बिछड़ गया, लो ख़त्म कहानी हो गयी ----‘
‘क़ैद में है बुलबुल, सैय्याद मुस्कुराए, कहा भी न जाए, चुप रहा भी न जाए.’
‘दिल का खिलौना हाय टूट गया, कोई लुटेरा आके लूट गया ---‘
‘तकदीर का फ़साना, जाकर किसे सुनाएँ, इस दिल में जल रही हैं अरमान की चिताएं.’
‘जा और कहीं रो शहनाई, अब मैं हूँ और मेरी तन्हाई ---‘

सबसे खूबसूरत नज़ारा बाराती-कम-घराती का था. मुन्ना-हीरो हम सबको लेकर बारात का नेतृत्व करते हुए अपने ही घर के द्वार पर पहुंचे फिर जबरदस्ती कन्या की माताजी की भूमिका निभाने के लिए तैयार की गयी मेरी माँ से स्वागत का टीका कराने, आरती उतरवाने और कन्या द्वारा जय-माल की रस्म हो जाने के बाद वो अपनी शेरवानी और पगड़ी उतारकर खुद मेहमानों की खातिर में लग गए. अब समय मुन्ना हीरो के अनुकूल हो गया था. अब उनकी अम्मा और बाबूजी, दोनों ही शादी की रौनक देखकर बहुत खुश हो रहे थे और मंत्रोच्चार तथा फेरे के समय दिल से अपने बेटे-बहू को आशीर्वाद दे रहे थे.

मैंने अपनी ज़िन्दगी में कई भव्य शादियाँ देखीं हैं पर कन्या-पक्ष विहीन मुन्ना-हीरो और मुन्नी भाभी की स्व-पोषित शादी में शामिल होकर मुझे जितना आनंद आया था उतना आज तक किसी भी शादी में नहीं आया.

शनिवार, 14 मई 2016

निर्णायक महोदय



निर्णायक महोदय –
मुझको निर्णायक बनकर किसी की प्रतिभा या उसकी किस्मत का फ़ैसला करने का मौक़ा आम तौर पर उत्तर-पुस्तिकाओं के मूल्यांकन के दौरान ही मिला करता था. लेकिन मेरी ज़्यादा बोलने और अनाप-शनाप लिखने की बीमारी ने चंद लोगों में यह गलतफ़हमी पैदा कर दी कि मैं साहित्य, कला और इतिहास विषयक वाद-विवाद, भाषण, कविता आदि प्रतियोगिताओं में निर्णायक की भूमिका बखूबी निभा सकता हूँ. मेरे इन नादान कद्रदानों का क्या हश्र हुआ, इसका ज़िक्र करना इसलिए ज़रूरी है ताकि उनके अंजाम से सबक लेकर आने वाली नस्लें मुझे निर्णायक बनाने की हिमाक़त न करें.


एक बार हमारे इतिहास विभाग में राष्ट्रीय आन्दोलन विषयक भाषण प्रतियोगिता का आयोजन किया गया और उसके लिए मुझे निर्णायक बनाया गया. एक नेता किस्म के प्रतियोगी ने जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड पर बड़ा ओजस्वी भाषण दिया और फिर बड़े विस्तार से बताया कि कैसे सरदार ऊधम सिंह ने 1940 में हत्यारे जनरल डायर को मारकर इस हत्याकांड का बदला लिया. मेरी कु-बुद्धि इस भाषण को हज़म नहीं कर पाई. मुझको पता था कि जलियाँवाला बाग़ में निहत्थों पर गोलियां बरसाने वाले जनरल डायर की 1927 में ही स्वाभाविक मृत्यु हो चुकी थी और सरदार ऊधम सिंह ने जिसे 1940 में मारा था, वह महा अत्याचारी, पंजाब में मार्शल लॉ लगाने वाला, वहां का तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर, माइकल ओडवेयर था. मैंने उस प्रतियोगी को इस गलती के कारण बहुत कम अंक दिए. मेरे इस आकलन का घोर विरोध करने वालों में मेरे कई साथी भी थे क्योंकि उनके विचार से भी ऊधम सिंह ने जनरल डायर को ही मारा था. मजबूरन मुझे मंच पर आकर 5 मिनट तक जनरल डायर तथा माइकल ओडवेयर में अंतर स्पष्ट करना पड़ा किन्तु फिर भी बहुमत ने मुझे क्रूर और अत्याचारी ही माना.


हिंदी विभाग के मित्रों का मुझे हमेशा प्यार मिला किन्तु मैंने अक्सर उनके प्यार का गलत सिला ही दिया. ‘हिंदी दिवस’ पर आयोजित कार्यक्रमों में मेरी भागेदारी ज़रूरी मानी जाती थी और अक्सर वाद-विवाद अथवा भाषण प्रतियोगिताओं में मुझे निर्णायक की कुर्सी पर बिठा दिया जाता था. हिंदी को राष्ट्र-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किए जाने के समर्थन में अधिकांश प्रतियोगी ‘सारे जहाँ से अच्छा’ क़ौमी तराने की यह पंक्ति उदधृत करते रहे –‘हिंदी हैं, हम वतन हैं, हिन्दोस्तां हमारा.’ बेचारे अल्लामा इकबाल को क्या पता था कि उनके द्वारा ‘हिंदी’ अर्थात - हिन्द के बाशिंदे, हिंदुस्तान के निवासी के अर्थ में प्रयुक्त इस शब्द को ‘हिंदी भाषा’ के सन्दर्भ में लिया जाएगा. मैंने जब अल्लामा इक़बाल के साथ ज़ुल्म करने वाले इन सभी अत्याचारियों को कम अंक दिए तो एक बार फिर असफल प्रतियोगियों और उनके समथकों ने मुझे निंदा-प्रशस्ति-पत्र प्रदान कर दिया.


एक कविता प्रतियोगिता में भी मुझे निर्णायक बनाया गया था. प्रतियोगी विद्यार्थीगण प्रगतिवादी, प्रयोगवादी, छायावादी, तुकांत, अतुकांत कविताओं से सबको आनंदित कर रहे थे. एक नवोदित कवि बच्चनजी की मधुशाला की तर्ज़ पर रूमानी रुबाइयाँ गा-गा कर सुना रहे थे किन्तु उनकी हर रुबाई में चौथी पंक्ति तुक के हिसाब से कुछ लड़खड़ा जाती थी. तालियों के हिसाब से वही सबसे सफल कवि थे. मैंने अपना फ़ैसला उस प्रतियोगी के पक्ष में सुनाया जिसने एक विचारोत्तेजक अतुकांत कविता कही थी. जूनियर बच्चन कवि ने बाद में मेरे पास आकर अपने साथ हुए अन्याय का मुझसे कारण पूछा तो मैंने उनकी कविता में भाव पक्ष और कला-पक्ष दोनों के ही पैदल होने की कमी बताई. भाव पक्ष की कमी को तो उन्होंने स्वीकार किया पर अपनी कविता के कला-पक्ष में उन्हें कोई कमी नज़र नहीं आई. मैंने संक्षेप में उनकी कविता के कला-पक्ष के दोष को उजागर करते हुए किसी अज्ञात कवि की कविता की एक पंक्ति कह दी –


‘थी तीन टांग की टेबल, चौथी में बांस अड़ा था.’


मुझको कक्षाओं और गोष्ठियों में रजिस्टर रख कर बोलने वाले विद्वानों से तथा भाषण एवं वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में पुर्जियां और पन्ने लेकर पढ़ने वाले प्रतिभागियों से, सख्त चिढ़ है. पर इनमें कुछ पर मेरा बस केवल निर्णायक के रूप में ही चल पाता है. एक भाषण प्रतियोगिता में मुझे जब फिर निर्णायक बनाया गया तो प्रतियोगिता प्रारम्भ होने से ठीक पहले मैंने घोषित कर दिया कि जो भी प्रतियोगी, इस प्रतियोगिता में कुछ लिखा हुआ लाकर बोलेगा, उसे मैं शून्य अंक दूंगा. कुछ प्रतियोगियों और उनके समर्थकों ने इसके विरोध में प्रतियोगिता का ही बहिष्कार कर दिया किन्तु पहली बार कुछ प्रतियोगियों ने मेरी इस हठधर्मिता का ताली बजाकर स्वागत भी किया.

अंतिम किस्सा छोटे बच्चों की प्रतियोगिता का है. हमारे दुगालखोला के दुर्गा मंदिर में होली के दिनों में बच्चों का फैंसी ड्रेस शो का आयोजन था. तीन निर्णायकों में से एक मैं भी था. किसी बच्चे ने महाराणा प्रताप का गेट-अप धारण कर यह कसम खाई कि – ‘जब तक मैं चित्तौड़ को दुबारा जीत नहीं लूँगा, तब तक मैं बिस्तर पर नहीं, ज़मीन पर सोऊंगा.’ एक बच्ची ने लक्ष्मी बाई के वेश में तलवार तानते हुए यह गर्जना की –‘मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी.’ किन्तु सबसे ज़्यादा तारीफ़ उस बच्चे की हुई जिसने मैले-कुचैले कपड़े पहनकर, अपने बाल बिखरा कर, हाथ में अधभरी बोतल लेकर देवदास का अभिनय करते हुए कहा था –‘कौन कमबख्त बर्दाश्त करने के लिए पीता है?’. मेरे साथी निर्णायकों ने उस बच्चे को प्रतियोगिता में सर्वाधिक अंक दिए किन्तु मैंने उसको डिसक्वालिफ़ाई कर दिया. मैंने उस बच्चे के माता-पिता की इस बात के लिए भर्त्सना की कि माँ दुर्गा के प्रांगण में वो उसको शराबी देवदास बनाकर लाए थे और फिर मैंने आयोजकों को भी इस घोर अपराध को होने देने के लिए लताड़ा. मेरे इस क्रान्तिकारी निर्णय और भाषण पर लोगों की फिर मिली-जुली प्रतिक्रिया रही. किसी ने मेरा निर्णय सराहा तो किसी ने मुझे बाक़ायदा बेरहम बताया. परन्तु इसके बाद फिर कभी मुझे दुर्गा मंदिर में किसी भी प्रतियोगिता में निर्णायक नहीं बनाया गया.

अल्मोड़ा में निर्णायक की भूमिका निभाने के लिए बरसों तक तरसते हुए मैंने वहां से विदा ली. अवकाश प्राप्ति के बाद मुझे बाहर कहीं भी निर्णायक की भूमिका निभाने का अवसर नहीं मिला है और मेरे अपने घर में मेरे क्रांतिकारी निर्णयों की मेरी श्रीमतीजी इतनी बड़ी प्रशंसक हैं कि मुझे खाना खिलाते समय वो मुझसे यह भी नहीं पूछतीं कि दाल-सब्ज़ी में नमक ठीक पड़ा है या नहीं.

मंगलवार, 10 मई 2016

माननीय स्नातक

माननीय स्नातक -

आज से क़रीब दो सौ साल पहले आर्थिक संसाधन जुटाने के लिए अमेरिका के विश्वविद्यालय पैसे लेकर किसी को भी डिग्री दे देते थे. एक समृद्ध किन्तु बेहद कम लिखा-पढ़ा किसान अपने घोड़े पर सवार होकर एक विश्वविद्यालय के दफ़्तर पहुंचा और वहां जाकर उसने अपने लिए एक डिग्री की मांग की. 50 डॉलर में बिना पूर्व-शैक्षणिक योग्यता देखे, रजिस्ट्रार महोदय ने उसके नाम की डिग्री उसे प्रदान कर दी. अपनी डिग्री अपने पास रखते हुए उस किसान ने रजिस्ट्रार से पूछा -
'आप पैसे लेकर किसी को भी डिग्री दे सकते हैं?'
रजिस्ट्रार ने जवाब दिया -
'हाँ, जो भी पैसे देगा, हम उसको डिग्री दे देंगे.'
किसान ने मुस्कुराकर पूछा -
'अगर मैं कहूं कि 50 डॉलर लेकर मेरे घोड़े को आप डिग्री प्रदान कर दें तो क्या आप उसे भी डिग्री दे देंगे?'
रजिस्ट्रार ने भी मुस्कुराते हुए जवाब दिया -
'अभी-अभी आपने देखा कि हमने एक गधे को पैसे लेकर डिग्री दी है. फिर भला पैसे के बदले में घोड़े को डिग्री देने में हमको क्या ऐतराज़ हो सकता है?'

नोट: कृपया इस किस्से को चुटकुला समझ कर ही पढ़ें, इसका कोई अन्य अर्थ लगाने की कोशिश हानिकारक हो सकती है.

गुरुवार, 5 मई 2016

गले पड़े पाठ्यक्रम और थोपी गयी पाठ्य-पुस्तकें

हिंदी साहित्य और उर्दू साहित्य की पाठ्य-पुस्तकों में अनेक बार ऐसे कवि, शायर और लेखकों की रचनाएँ सम्मिलित कर ली जाती हैं जिनको कि केवल मक्खी-मच्छर भगाने के लिए प्रयोग में लाना चाहिए. आम तौर पर ऐसे सतही साहित्यकार किसी सत्ताधारी की विशेष अनुकम्पा के पात्र होने के कारण ही अपनी रचनाओं को पाठ्य-पुस्तकों में सम्मिलित कराने में सफल होते हैं. मैंने आज से पैंतालिस साल पहले तब कानपुर विश्वविद्यालय से सम्बद्ध, झाँसी के बुंदेलखंड कॉलेज से बी. ए. किया था. हमारे हिंदी के पाठ्यक्रम में आधुनिक कविता की एक पुस्तक थी –‘आधुनिक काव्य संग्रह’ इस पुस्तक का संपादन किन्हीं ‘शुक्ल’ महानुभाव ने किया था, उनका पूरा नाम मुझे याद नहीं है पर यह याद है कि वो एक स्व-घोषित महा-कवि थे और उनका उपनाम - ‘राष्ट्रीय आत्मा’ था.

भारतेंदु हरिश्चंद्र, जय शंकर प्रसाद, मैथिली शरण गुप्त, निराला, सुमित्रा नंदन पन्त, महादेवी, दिनकर आदि की रचनाएँ हमारे पाठ्यक्रम में थीं. हम सब ‘भारतीय आत्मा’ श्री माखन लाल चतुर्वेदी’ की रचनाओं से परिचित थे और उनकी ‘एक पुष्प की अभिलाषा’ तो बचपन से ही गाया करते थे पर उनकी रचनाएँ हमारे पाठ्यक्रम में जगह बनाने में ना-कामयाब रहीं थीं. हाँ, उनकी रचनाओं में ही थोड़ा हेर-फेर करके उन्हें अपने नाम से छपवाने वाले स्व-घोषित महा-कवि इन्हीं संपादक महोदय ‘राष्ट्रीय आत्मा’ की कुछ बेतुकी सी देशभक्ति-पूर्ण कविताएँ हमारे पाठ्यक्रम में सम्मिलित थीं. हमारे गुरूजी उनकी रचनाओं को पढ़ाते समय खोज-खोज कर माखनलाल चतुर्वेदीजी की उन रचनाओं से भी हमको परिचित कराते थे जिनकी कि ‘राष्ट्रीय आत्मा’ ने निसंकोच नक़ल की थी. हम साहित्य प्रेमी विद्यार्थियों ने सामूहिक रूप से इस नकलची महा-कवि की रचनाओं का बहिष्कार कर दिया था और यह भी निश्चय कर लिया था कि यदि संभव हुआ तो परीक्षा में भी इन की रचनाओं पर पूछे गए सवालों का बहिष्कार करेंगे.

बीसवीं शताब्दी के पांचवें दशक में कृशन चंदर, राजिंदर सिंह बेदी, मजाज़, इस्मत चुगताई, साहिर लुधियानवी आदि ने उर्दू-साहित्य में बहुत नाम कमाया था लेकिन उर्दू साहित्य की पाठ्य-पुस्तकों में उनका नाम और उनका काम नदारद था. पाठ्यक्रम निर्धारित करने वाली एक कमेटी में एक साहब ने प्रस्ताव रक्खा कि इन नौजवानों की रचनाओं को भी पाठ्यक्रम में स्थान दिया जाय. इस प्रस्ताव का घोर विरोध हुआ. एक परम्परावादी साहब ने कहा –
‘ये तरक्की-पसंद नौजवान तो नई पीढ़ी को गुमराह कर रहे हैं.’

इन नौजवानों की वकालत कर रहे उन साहब ने अपनी दलीलों से उठाये गए तमाम इल्जामों से इन अदीबों को बरी तो करवा दिया पर तब भी उनकी रचनाओं को पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया गया. जब इसका कारण पूछा गया तो जवाब मिला –
‘हम कोर्स में उन्हीं अदीबों के अफ़साने और शायरी शामिल करते हैं जिनका कि इंतकाल हो चुका है.’
इस पर इन अदीबों के हिमायती ने कुढ़ कर कहा –
‘अगर इन अदीबों को कोर्स में शामिल किये जाने की सिर्फ़ यही शर्त है तो मैं इन सबको गोली मार देता हूँ.’

खैर यह तो मज़ाक़ था लेकिन सन 2000 के आसपास दिल्ली सरकार द्वारा कक्षा 7 अथवा कक्षा 8 की हिंदी-पाठ्य पुस्तक के साथ किया गया मज़ाक़ बर्दाश्त कर पाना शायद हम सब के लिए असह्य था. गोवा की वर्तमान राज्यपाल श्रीमती मृदुला सिन्हा एक प्रतिष्ठित हिंदी कहानीकार हैं. उनकी एक कहानी को पाठ्यक्रम में शामिल करने के लिए पाठ्यक्रम में पहले से शामिल एक कहानी को हटाया गया. इस हटाई गयी कहानी के लेखक थे – प्रेमचंद.
जब इस निर्णय का घोर विरोध हुआ तो मृदुलाजी को न केवल प्रेमचंद के समान महान कहानीकार बताया गया बल्कि प्रेमचंद की रचनाओं को बासी और नए ज़माने के हिसाब से मिसफ़िट भी बताया गया.
सत्तासीन महानुभाव अनादि काल से पाठ्य-पुस्तकों, पाठ्यक्रमों के साथ और बच्चों के वर्तमान व भविष्य के साथ खिलवाड़ करते आ रहे हैं. हमारी विद्वान मानव-संसाधन मंत्री के नेतृत्व में इतिहास और साहित्य के बाद अब विज्ञानं को भी तोड़-मरोड़कर पढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है. ऐसी सूरत में गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर की तरह स्वाध्याय का मार्ग अपनाना ही श्रेयस्कर लगता है. उसमें कम से कम गले पडी पाठ्य-सामग्री और ज़बरदस्ती थोपे गए पाठ्यक्रमों से तो हमको निज़ात मिल सकेगी.