रविवार, 22 मई 2016

मुन्ना-मुन्नी की अनोखी शादी

मेरी किशोरावस्था के तीन वर्ष रायबरेली में बीते हैं. वहां हम लोगों के मकान के पड़ौस में एक मास्साब (रिटायर्ड हेड मास्टर साहब) रहते थे. गाँधीवादी मास्साब अपनी विद्वत्ता और सज्जनता के लिए जग-प्रसिद्द थे किन्तु हम लड़कों के बीच में मुन्ना-हीरो के नाम से प्रसिद्द उनके सपूत हर बात में पूरी तरह से उनके उलटे थे. मास्साब के पढ़ाए हुए विद्यार्थी एक से एक ऊंचे ओहदे पर पहुँच गए थे लेकिन हमारे मुन्ना-हीरो ने हाई स्कूल में तीन-चार बार असफल होने के बाद अपनी सारी किताब-कौपियाँ कबाड़ी को बेचकर प्राप्त रकम से और अपनी अम्मा के बक्से से चुराए गए पैसों से हीरो बनने के लिए बम्बई की राह पकड़ ली थी. पर तीन महीने बाद ही तमाम फ़िल्म स्टूडियोज़ की ख़ाक छानने और पेट भरने के लिए बॉम्बे वीटी पर कुली-गिरी करने के बाद हमारे मुन्ना-हीरो, फिर से मास्साब का नाम धन्य करने के लिए बैरंग घर वापस आ गए थे.
मुन्ना-हीरो जैसी डायलॉग डिलीवरी तो लाखों में किसी एक की हो सकती थी. दिलीप कुमार, राज कपूर और देवानन्द तक इस कला में उनके सामने पानी भरते थे. शुद्ध-शाकाहारी परिवार के हमारे हीरो हमारे घर के पास के पोखर में जाल डालकर मछली पकड़ने में भी उस्ताद थे. मछलियाँ पकड़ कर और उन्हें बेच कर वो अच्छे-खासे पैसे भी कमा लेते थे पर अपने परिवार-जन की दृष्टि में वो हमेशा कुल-कलंक ही माने जाते थे और सबसे दुखदायी बात यह थी कि हमको हमारे हीरो से मिलने की या उनका किसी भी प्रकार का अनुकरण करने की सख्त मनाही कर दी गई थी.
मेरे पिताजी मास्साब की बहुत इज्ज़त करते थे. हफ़्ते में कम से कम एक बार तो मास्साब हमारे घर आकर पिताजी के साथ एक प्याली चाय तो ज़रूर ही पीते थे. दोनों के बीच दुनिया भर की बातें होती थीं पर हमारे मास्साब इस बातचीत का विषय हमेशा मुन्ना-हीरो के निंदा-पुराण की ओर मोड़ देते थे. पिताजी हर बार उनको समझाते थे कि अब वो पच्चीस साल के हो चुके अपने सपूत के ह्रदय-परिवर्तन की कोई उम्मीद नहीं रक्खें और अपने हालात से समझौता कर लें पर मास्साब थे कि खुद को कबीर और अपने सपूत को कमाल मान, यह कहकर, रोया करते थे –
‘बूड़ा बंस कबीर का, उपजा पूत कमाल.’
हमारे मुन्ना-हीरो यानी मास्साब के ‘कमाल’ ने इस बार तो वाक़ई कमाल कर दिया. एक दिन मास्साब मुन्ना-हीरो को घसीटते हुए पिताजी के पास लाकर उनके सामने रोते हुए कहने लगे –
‘मजिस्ट्रेट साहब, इस कमबख्त को आप फ़ौरन जेल भिजवाइए. इसने हमारे खानदान की नाक कटवा दी है.’
पिताजी ने मुन्ना-हीरो के कान पकड़ कर उनसे पूछा –
‘क्यूँ बरखुरदार इस बार तुमने क्या गुल खिलाया है? अपनी कारस्तानी खुद बताओगे या तुमसे बात उगलवाने के लिए पुलिसिया तरीक़ा अपनाया जाय?’
‘मुन्ना-हीरो ने पिताजी के पैर पकड़ते हुए कहा –
‘चाचाजी, बाबूजी तो बेकार में गुस्सा कर रहे हैं. मैंने तो बस, अपनी मर्ज़ी से शादी की है, कोई खून थोड़े किया है?’
मास्साब ने अपना सर पीट कर कहा –
‘यह चोर पुत्तन हलवाई की लड़की मुन्नी को भगाकर हमारे घर ले आया है.’
मुन्ना-हीरो ने अपने बाबूजी को करेक्ट करते हुए कहा –
‘मैंने और मुन्नी ने मंदिर में जाकर शादी की है. मैं उसे भगाकर नहीं लाया हूँ.
पिताजी ने मुन्ना-हीरो से पूछा –
‘क्या लड़की बालिग़ है? तुम उसे यहाँ लेकर आओ. मैं उससे मालूम करूँगा कि तुमने कहीं उसके साथ कोई ज़ोर-जबरदस्ती तो नहीं की है.’

मास्साब ने बीच में कूदकर कहा –
‘मजिस्ट्रेट साहब, लड़की तो इस से भी साल-दो साल बड़ी ही होगी और इसके साथ वो आई भी अपनी मर्ज़ी से है. पर आप किसी तरह मंदिर में हुई इनकी बेहूदा शादी को रद्द करवा कर लड़की को उसके बाप के घर वापस भिजवाने का इंतज़ाम करवा दीजिए.उसका बाप भी यही चाहता है.’


पिताजी ने मास्साब को समझाते हुए कहा –


‘मास्साब दो बालिगों ने अपनी मर्ज़ी से शादी की है. न तो क़ानून उसको रद्द नहीं करवा सकता है और न लड़का-लड़की के माँ-बाप. मेरी सलाह तो यह है कि लोक-लाज के लिए आप खुद इनकी विधिवत शादी करवा दीजिए. हम भी वर-वधू को आशीर्वाद देने पहुँच जाएंगे.’


पिताजी के वचन सुन कर कृतज्ञ मुन्ना-हीरो ने एक बार फिर उनके चरण पकड़ लिए. थोड़ा-बहुत हाय-हल्ला करने और रोने-धोने के बाद मास्साब भी पिताजी की बात मान गए और अपने घर से ही तीन दिन बाद मुन्ना-मुन्नी की शादी कराने को राज़ी हो गए.
अगले दिन सुबह-सुबह मुन्ना-हीरो एक रौबीली सी महिला को लेकर हमारे घर आ धमके. मुन्ना-हीरो और उस महिला ने माँ और पिताजी के चरण छुए. पूछने पर पता चला कि मुन्ना-हीरो के साथ आई यह महिला ही पुत्तन हलवाई की साहबज़ादी मुन्नी हैं. पिताजी ने असमय ही उनके आने का कारण पूछा तो हमारे मुन्ना-हीरो ने फ़रमाया –

‘चाचाजी, बाबूजी ने हमारी शादी के लिए सिर्फ 1000 रूपये दिए हैं. शादी में खर्चा इससे बहुत ज़्यादा आएगा. आप लोग बहू की मुंह दिखाई में जो रूपये देने वाले हैं वो अपनी बहू का मुंह देखकर अभी दे दीजिए.’

मुंह-दिखाई के नेग में पिताजी को अच्छा-खासा चूना लगाकर ही मुन्ना-मुन्नी ने हमारा घर छोड़ा और फिर वो दोनों अगला शिकार करने के लिए आगे बढ़ चले.

आगामी तीन दिनों में कभी कोई बर्तन देने, कभी पूजा का पटा पहुँचाने, तो कभी शादी का निश्चित समय पता करने या शादी का मंडप सजाने में अपना योगदान देने के बहाने मैंने मास्साब के घर के दस-बारह चक्कर तो लगा ही डाले. मुन्नी भाभी से तो मेरी अच्छी-खासी दोस्ती भी हो गई. खैर शादी का दिन भी आ पहुंचा. चूंकि शादी का सीज़न इस समय अपने शिखर पर था इसलिए हलवाइयों के रेट भी आसमान पर पहुँच गए थे. शादी के लिमिटेड बजट में तो उनकी सेवाएँ मिल पाना असंभव था पर हमारे नायक-नायिका के पास हर मुश्किल का हल था. सुबह से ही खुद दुल्हन घरेलू कपड़ों में और मुन्ना-हीरो कच्छा-बनियान में सज-धज कर पकवान बनाने में जुट गए और शाम तक उन दोनों ने पचास-साठ लोगों के खाने का बढ़िया इंतज़ाम कर लिया. इस अनुष्ठान को संपन्न करके ही दूल्हा और दुल्हन सजने के लिए तैयार हुए.


मास्साब के एक विद्वान पंडितजी मित्र, मुन्ना-हीरो के अनुरोध पर शादी में पंडित का दायित्व, निशुल्क निभाने को तैयार हो गए. अड़ौस-पड़ौस से कुछ बल्ब मांगकर मुन्ना-हीरो ने तार जोड़-जाड़कर रौशनी का खुद ही इंतज़ाम कर लिया. मांगे के सोफ़े, कुसियाँ, दरी और कालीन ने विवाह-स्थल की शोभा और भी बढ़ा दी.


अब रही रिकॉर्डिंग की बात तो उसका भी प्रबंध मुन्ना-हीरो के एक ने मित्र मुफ़्त में कर दिया किन्तु इसमें एक ज़बर्दस्त पेच था. मुन्ना-हीरो के इस मेहरबान दोस्त की शादी-ब्याह आदि में रिकॉर्डिंग कराने की दुकान थी पर इस समय वैवाहिक उत्सव से सम्बंधित गानों की ज़बरदस्त डिमांड थी. मुफ़्तखोरों के लिए तो फ़ालतू गाने ही उपलब्द्ध थे. मुन्ना-हीरो का तो बस यही सपना था कि उनकी शादी में भी रिकॉर्डिंग हो, अब यह कौन देख या सुन रहा था कि रिकॉर्डिंग के नाम पर क्या बज रहा है. हमने इस ऐतिहासिक रिकॉर्डिंग में जो गाने सुने उनमें से यादगार गाने थे –
‘मेरा जीवन साथी बिछड़ गया, लो ख़त्म कहानी हो गयी ----‘
‘क़ैद में है बुलबुल, सैय्याद मुस्कुराए, कहा भी न जाए, चुप रहा भी न जाए.’
‘दिल का खिलौना हाय टूट गया, कोई लुटेरा आके लूट गया ---‘
‘तकदीर का फ़साना, जाकर किसे सुनाएँ, इस दिल में जल रही हैं अरमान की चिताएं.’
‘जा और कहीं रो शहनाई, अब मैं हूँ और मेरी तन्हाई ---‘

सबसे खूबसूरत नज़ारा बाराती-कम-घराती का था. मुन्ना-हीरो हम सबको लेकर बारात का नेतृत्व करते हुए अपने ही घर के द्वार पर पहुंचे फिर जबरदस्ती कन्या की माताजी की भूमिका निभाने के लिए तैयार की गयी मेरी माँ से स्वागत का टीका कराने, आरती उतरवाने और कन्या द्वारा जय-माल की रस्म हो जाने के बाद वो अपनी शेरवानी और पगड़ी उतारकर खुद मेहमानों की खातिर में लग गए. अब समय मुन्ना हीरो के अनुकूल हो गया था. अब उनकी अम्मा और बाबूजी, दोनों ही शादी की रौनक देखकर बहुत खुश हो रहे थे और मंत्रोच्चार तथा फेरे के समय दिल से अपने बेटे-बहू को आशीर्वाद दे रहे थे.

मैंने अपनी ज़िन्दगी में कई भव्य शादियाँ देखीं हैं पर कन्या-पक्ष विहीन मुन्ना-हीरो और मुन्नी भाभी की स्व-पोषित शादी में शामिल होकर मुझे जितना आनंद आया था उतना आज तक किसी भी शादी में नहीं आया.

2 टिप्‍पणियां:

  1. अल्मोड़ा में कुछ नहीं कराया क्या आपने? शादियाँ तो आपके यहाँ रहने के जमाने में हुई ही होंगी ?
    :)

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  2. अल्मोड़ा में हमारे एक मित्र के 18 वर्षीय साले बाबू ने अपनी एक मित्र से मंदिर में शादी कर ली थी. इन हीरो की शादी तुड़वाने में मेरी भी भूमिका थी.

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