शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

फ़िल्मी गानों की धुनों पर साहित्य चर्चा

बचपन में कविताएँ याद करना मेरे लिए किसी सर-दर्द से कम नहीं था. शुद्ध, प्रांजल भाषा, दुरूह शब्द-चयन और अगम्य-भाव हम जैसे साहित्य के पैदल सैनिकों के लिए बहुत भारी पड़ जाते थे. रटंत विद्या में सदैव बैक-बेंचर होने के कारण मेरे लिए कविताओं को कंठस्थ करना टेढ़ी खीर था. खैर इंटरमीडिएट तक तो इस रटंत-अभ्यास में - ‘रो-रो कर, सिसक-सिसक कर, मेरी हिट रही कहानी, पर बी. ए. आते-आते, मुझे याद आ गयी नानी.’
कबीर, सूर, मीरा, तुलसी, केशव, बिहारी आदि भक्तिकालीन तथा रीतिकालीन कवियों की रचनाएँ तो गेय होती थीं, उनकी एक निश्चित लय होती थी और उस लय पर उसको आसानी से कंठस्थ किया जा सकता था पर हाय, आधुनिक कवियों की विपाशा नदी (बिपासा बसु नहीं) की भांति निर्बन्ध कविताओं को कैसे याद किया जाय?

एक बार मैं कामायनी का प्रथम सर्ग पढ़ रहा था. कंठस्थ करने की दृष्टि से पहला ही छंद जानलेवा था –

‘हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह,
एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह.
नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन.’


मैं कभी ‘हिमगिरि’ पर अटकता तो कभी ‘उत्तुंग’ पर. आधे घंटे तक मैं नाकाम क़वायद करता रहा पर तभी नेपथ्य से किशोर कुमार की मखमली आवाज़ में एक नग्मा गूँज उठा-

‘क़श्ती का खामोश सफ़र है, शाम भी है, तन्हाई भी,
दूर किनारे पर बजती है, लहरों की शहनाई भी.’


बस, मेरी समस्या का तुरंत समाधान हो गया. मैंने इसी धुन पर यह छंद कंठस्थ कर लिया.
हम सबने अपने बचपन में यह प्यारी सी कविता अवश्य पढ़ी होगी –

‘नन्हीं नन्हीं जल कि बूँदें, जब लेकर आता बादल,
बेला की नव पंखुड़ियों में, मोती बिखराता बादल.
कुछ झुक-झुक कर, कुछ हंस-हंस कर, कुछ सिहर-सिहर, कुछ मचल-मचल,
चम्पे की कलियाँ खिल उठतीं, जल से सुरभित हो-हो कर.’


मेरी बेटियों को यह कविता अच्छी तो लगती थी पर उनके लिए इसे याद करना बड़ा कठिन था. उनके पिताश्री ने उन्हें फ़िल्म ‘रेलवे प्लेटफ़ॉर्म’ के प्रसिद्द गीत का कैसेट सुना दिया –

‘बस्ती-बस्ती, पर्वत-पर्वत, गाता जाए बंजारा, लेकर दिल का इकतारा.’

बेटियों को यह कविता तो इस गाने की धुन पर याद हो गई पर उनके पापा ने और इस गाने ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. जब भी वो पढ़ाई-लिखाई को ताक पर रखकर टीवी देखने में मगन हो जाती थीं तो उनके पापा श्री - ‘बस्ती-बस्ती, पर्वत-पर्वत’ की धुन पर - ‘नन्हीं-नन्हीं, जल की बूंदे’ गाना शुरू कर देते थे और वो बेचारियाँ टीवी छोड़कर किताबों का दामन थाम लेती थीं.

हरवंश राय बच्चन जी की इस कालजयी रचना से तो हर साहित्य प्रेमी परिचित होगा –

‘इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उदित होकर नभ में, कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरालहरा यह शाखाएँ, कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ, हँसकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से, संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले, मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का, उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!’


आज से पचास साल पहले हमारे श्रीश भाई साहब, इस कविता को गाकर सुनाते थे तो समां बाँध देते थे. पर उनके काव्य-पाठ को सुनकर मैं बेचैन सा हो जाता था. ए. सी. पी. प्रद्युम्न की तरह से मेरे दिल से आवाज़ निकलती थी –

‘कुछ तो गड़बड़ है.’ कुछ दिनों बाद मैंने गड़बड़ का रहस्य जान लिया. राजकपूर की महान फ़िल्म ‘आवारा’ के अमर संगीत से कौन वाकिफ़ नहीं है? क्या उसका यह गीत आपको याद है?

‘आ जाओ तड़पते हैं अरमां, अब रात गुज़रने वाली है.’


हमारे भाई साहब इसी धुन पर इस पार वाली प्रिये से गुफ्तगू करते थे. इस धुन पर आप भी इस कविता को गाइए और पूरी कविता 15 मिनट में याद कर लीजिए.

आपके मुंह का ज़ायका बदलने के लिए जिगर मुरादाबादी के एक सदाबहार क़लाम के चंद अशआर का ज़िक्र करते हैं -

‘इक लब्ज़े मुहब्बत का, अदना सा फ़साना है,
सिमटे तो दिले आशिक़, फैले तो ज़माना है.
क्या हुस्न ने समझा है, क्या इश्क ने जाना है,
हम खाक़ नशीनों की, ठोकर पे ज़माना है.
ये इश्क़ नहीं आसां, बस इतना समझ लीजे,
इक आग का दरिया है, और डूब के जाना है.
हम इश्क के मारों का, इतना सा फ़साना है,
रोने को नहीं कोई, हंसने को ज़माना है.’


हमारे चंद मेहरबान दोस्त इन अशआर को ऐसे सुनाते हैं जैसे कोई पहलवान अखाड़े में ताल ठोक रहा हो. ऐसे दोस्तों को मैं मशवरा दूंगा कि वो इसे फ़िल्म ‘बैजू बावरा’ के खूबसूरत गीत –

‘बचपन की मुहब्बत को, दिल से न जुदा करना,
जब याद मेरी आए, मिलने की दुआ करना.’


की धुन पर सुनाएँ तो पंछी तक अपना चहचहाना छोड़ कर जिगर साहब का क़लाम सुनने लगेंगे.
अब आखरी गाने पर आता हूँ. चोरों के पास एक मास्टर की होती है जिससे वो हर ताला खोल सकते हैं. मेरे पास भी गाने की शक्ल में एक मास्टर की है. इस गाने की धुन पर आप पचासों कविताएँ याद कर सकते हैं. यह गाना है –

‘दिल लूटने वाले जादूगर, अब मैंने तुझे पहचाना है,
नज़रें तो उठाकर देख इधर, तेरे सामने ये दीवाना है.’
मेरे नुस्खे को महादेवी वर्मा की इस कविता पर आज़माकर देखिए -
'''मैं नीर भरी दु:ख की बदली!

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विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली!’


इसी दिल लूटने वाली जादूगरी धुन पर श्री सोहन लाल द्विवेदी की बापू पर लिखी गयी कालजयी रचना को गुनगुनाकर देखिए -

‘चल पड़े जिधर दो डग मग में
चल पड़े कोटि पग उसी ओर,
पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि
गड़ गये कोटि दृग उसी ओर,
जिसके शिर पर निज धरा हाथ
उसके शिर-रक्षक कोटि हाथ,
जिस पर निज मस्तक झुका दिया,
झुक गये उसी पर कोटि माथ;
हे कोटिचरण, हे कोटिबाहु,
हे कोटिरूप, हे कोटिनाम,
तुम एकमूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि,
हे कोटिमूर्ति, तुमको प्रणाम.’

इस साहित्य चर्चा में वीर रस की किसी कविता का उल्लेख तो अब तक हुआ ही नहीं. क्यों न हम श्री श्याम नारायण पांडे की ‘हल्दीघाटी’ से चेतक की जांबाज़ी का प्रसंग ले लें –

‘रण बीच चौकड़ी धर-धर कर चेतक बन गया निराला था,
राणा प्रताप के घोड़े से, पड़ गया हवा का पाला था.’ 


ज़ाहिर है कि इस कविता को याद करने के लिए भी हमको ‘दिल लूटने वाले जादूगर’ की धुन की ज़रुरत पड़ेगी.

अंत में एक बार फिर प्रसादजी की कामायनी का उल्लेख हो जाय और भारतीय नारी की महानता को हम नतमस्तक होकर अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करें –

‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो,
विश्वास रजत नाग पग तल में,
पीयूष श्रोत सी बहा करो,
जीवन के सुन्दर समतल में.’

किन्तु यदि इन श्रद्धा-सुमनों को अर्पित करने में आपको कोई कठिनाई हो तो जैसवाल साहब द्वारा ईजाद की गयी – ‘दिल लूटने वाले जादूगर’ वाली मास्टर की का उपयोग कीजिए और अपने जीवन में कभी न बुझने वाली साहित्यिक फुलझड़ियाँ रौशन करते रहिए.

सोमवार, 24 अक्तूबर 2016

बड़ी-बड़ी आँखें


बचपन में उपेन्द्र नाथ अश्क़ का एक बहुत खूबसूरत रूमानी उपन्यास – ‘बड़ी-बड़ी आँखें’ पढ़ा था. तब 10-12 साल की उम्र में रोमांस को समझने की अक्ल तो नहीं थी पर इतना ज़रुर समझ में आ गया था कि बड़ी-बड़ी आँखें किसी की भी खूबसूरती में चार चाँद लगा सकती हैं. देवी-देवताओं के चित्र देखिए. जितने बड़े देवी-देवता, उनकी उतनी बड़ी आँखें. अब चाहे भगवान राम हो या श्री कृष्ण, चाहे माँ शारदे हों या लक्ष्मी माता, सभी अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से हमको सम्मोहित करते हैं.

अब अपने मुंह से क्या कहूँ पर लोगबाग कहते हैं कि मेरी भी बड़ी-बड़ी आँखें हैं. अश्क़ का उपन्यास पढ़ने के बाद आइने में अपनी आँखों का मुआयना करने का कोई मौक़ा मैं आसानी से जाने नहीं देता था-

‘वाह क्या आँखें हैं? बड़ी-बड़ी, चमकदार, पर ये भूरी-भूरी क्यूँ हैं? देवी-देवताओं में किसी की भी आँखें भूरी क्यूँ नहीं होतीं? पर क्या काली-काली आँखों ने ही खूबसूरती का ठेका ले रक्खा है? मेरी आँखें भी खूबसूरत हैं. हॉलीवुड के बहुत से हीरो-हेरोइन मेरी तरह से भूरी आँखों वाले हैं, अमेरिका के सुपर डैशिंग राष्ट्रपति केनेडी भी कंजे हैं पर इस भारतवर्ष में भूरी, कंजी आँखों का कोई क़द्रदान क्यूँ नहीं है?’

अंग्रेजी में पशु-पक्षियों पर एक बहुत सुन्दर पुस्तक हमारे घर में थी जिसमें उनके तमाम रंगीन फ़ोटो भी थे. उसमें कैट फैमिली के जितने भी फ़ोटो थे, उनमें सबकी आँखें भूरी थीं, किसी की हल्की भूरी, किसी की गहरी भूरी. अपनी आँखों के भूरे रंग का होने की मुझे क्या कीमत चुकानी पड़ी है, इस दर्द का मैं शब्दों में पूरी तरह बयान करने में सर्वथा असमर्थ हूँ. पर स्कूल में मेरे साथी जब मुझे ‘भूरी बिल्ली’ कह कर बुलाते थे और मेरे द्वारा उनकी शिकायत करने पर गुरुजन उन दुष्टों के कान खींचने के बजाय खुद हंसने लगते थे तो मैं भगवान द्वारा अपने साथ की गयी नाइंसाफ़ी पर दुखी होने के अलावा और कुछ भी नहीं कर पाता था.

मेरी माँ की नज़रों में मुझसे सुन्दर बच्चा और कोई नहीं हो सकता था. मेरी आँखों की सुन्दरता बढ़ाने के लिए वो मेरे पीछे काजल की डिबिया लेकर भागती रहती थीं. मुझे आँखों में काजल लगवाने से बड़ी चिढ़ थी पर यह सोचकर कि लगातार काजल लगवाने से मेरी भूरी आँखें शायद काली हो जाएंगी, मैंने माँ के अत्याचार को भी सहन कर लिया पर फिर आइने में उसका परिणाम देखा तो रुलाई छूट गयी. मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि भूरी आँखों वाला अगर अपनी आँखों में काजल लगा ले तो वो सिर्फ़ जोकर लग सकता है और कुछ नहीं.

मुहम्मद रफ़ी का एक बहुत खूबसूरत गाना है -

'गोरी तोरे नैन, कजर बिन कारे, कारे, कजरारे'

पुराने ज़माने में इस गाने को सुनकर मेरे तन-बदन में आग लग जाती थी. मुझे ऐसा लगता था कि रफ़ी साहब मुझे चिढ़ाते हुए गा रहे हैं -

'गोपू तोरे नैन, कजर लगवा के भी न भये कारे'

लखनऊ यूनिवर्सिटी में एम. ए. करने के दौरान बड़ी बहननुमा हमारी आपा को मेरी बड़ी-बड़ी आँखें बहुत प्यारी लगती थीं. मेरे साथ मेरे दोस्त खान साहब हमेशा मेरे साये की तरह मेरे साथ लगे रहते थे और आपा थीं कि उन्हें खान साहब को देखना भी गवारा नहीं था. खान साहब अपनी ज़्यादा उम्र, चुंदी और खिंची-खिंची आँखों के कारण लड़कियों में ‘बाबुल चंगेज़ी’ के नाम से मशहूर थे.

एक बार आपा ने उनसे कहा – ‘खान तू अपनी चुंदी-चुंदी आँखों के साथ इतनी बड़ी-बड़ी आँखों वाले गोपू के साथ मत रहा कर. तेरी और गोपू की जोड़ी जमती नहीं है.’

खान साहब ने पलटकर उनसे पूछ लिया – ‘आपा, तुम्हें ये बड़ी-बड़ी भूरी आँखों वाला बैल पता नहीं क्यूँ अच्छा लगता है? अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से क्या इसे दो के चार नज़र आते हैं और हमको सिर्फ़ एक?’

आपा ने उन्हें झिड़कते हुए कहा – ‘हाय, इतने प्यारे से ईरानी बिल्ले को तू बैल कह रहा है?’

‘हाय, मेरी घोर प्रशंसिका आपा भी मुझे बिल्ला ही मानती हैं. हे प्रभू ! मैं अब कहाँ जाऊं?’

अपनी आँखों पर निरंतर की जाने वाली टिप्पणियों से दुखी होकर मैंने उनको गौगल्स लगाकर ढकने का तरीक़ा अपनाया जो कि काफ़ी हिट रहा.

वैसे बड़ी-बड़ी आँखें कभी-कभी वरदान होने के स्थान पर संकट और विपत्ति का कारण भी बन जाती हैं. हमारी पौराणिक गाथाएं इस बात की गवाह हैं. बेचारी मछली की आंख को द्रौपदी के स्वयंवर में निशाना साधने के लिए इसलिए ही तो प्रयोग लाया गया क्योंकि वह अपने बड़े आकार के लिए प्रसिद्द थी.

हमारी फ़िल्मों में आँखों को लेकर कितने झूठ बोले जाते हैं, इसका हिसाब करना मुश्किल है. पुराने ज़माने में राजश्री अपनी खूबसूरत आँखों के लिए बड़ी मशहूर थी. एक साहब ने उसको लेकर फ़िल्म बनानी शुरू की –‘नैना’. फ़िल्म आधी छोड़कर राजश्री शादी करके अमेरिका भाग गईं और निर्माता महोदय ने चुंदी आँखों वाली मौशमी चटर्जी को लेकर बाक़ी फ़िल्म पूरी की. कहानी में नायक शशि कपूर एक हादसे में नैना की मौत से बहुत ग़मगीन है पर जब वह मौशमी चटर्जी की आँखों में नैना की आँखें देखता है तो उसकी ज़िन्दगी फिर से पटरे पर आ जाती है.

फ़िल्म ‘बाज़ीगर’ में आँखों के वर्णन में तो कमाल ही हो गया है. मेरी जैसी भूरी आँखों वाली काजोल को देखकर शाहरुख खान गाते हैं – ‘ये काली-काली आँखें, ये गोरे-गोरे गाल’ अब आप बताइए न तो काजोल की ऑंखें ही काली-काली हैं न उनके गाल ही गोरे-गोरे हैं पर गाना तो कमबख्त हिट हो ही गया.

मेरी श्रीमतीजी मेरी आँखों की भारी प्रशंसक हैं. मैं कभी बिलकुल सामान्य दृष्टि से भी उन्हें देखूं तो वो मुझसे पूछती हैं – ‘ऐसा मैंने क्या कर दिया जो आप मुझे ऐसे घूर रहे हैं?’

‘आँखें तरेरना’ , आँखें निकालना’ , आँखों से अंगारे बरसाना’ आदि मुहावरों का प्रयोग हमारे यहाँ केवल मेरे लिए ही किया जाता है.

सबसे ज़्यादा दुःख की बात यह है कि मेरी श्रीमतीजी की दृष्टि में कोई कंजा कभी शरीफ़ नहीं हो सकता.

अब जब कि मेरे सर की खेती सूख गयी है, ‘कंजे और गंजे’ वाला कॉम्बिनेशन मुझे और दुखी कर रहा है.

मेरी बेटी गीतिका की आँखें कुछ-कुछ मेरी जैसी ही हैं. उसकी आँखों की जब तारीफ़ की जाती है तो मुझे हैरत होती है. पर शोध करने के बाद मुझे पता चला है कि कंजे लड़के और कंजे मर्द बदमाश होते हैं किन्तु कंजी लड़कियां क्यूट होती हैं. वैसे गीतिका की एक प्रशंसिका का यहाँ ज़िक्र करना ज़रूरी हो जाता है. मेरी एक हृष्ट-पुष्ट छोटी बहन हैं, बिल्कुल बीजापुर के गोल गुम्बद जैसी. गीतिका करीब-करीब एक साल की होगी जब उसने अपनी गोल गुम्बद बुआजी के दर्शन किए होंगे. गोल गुम्बद बुआजी ने बच्ची को बड़े गौर से देखा फिर मेरी तरफ़ मुखातिब होकर वो बोलीं -

'भाई साहब, ये बंदरिया तो बिल्कुल आप पर गयी है. वही नाक-नक्श. वैसी ही गोल-गोल, कौड़ियों जैसी बड़ी-बड़ी आँखें --'

बेचारी गोल गुम्बद बुआजी अपना वाक्य भी पूरा नहीं कर पाईं क्योंकि उनके भाई साहब ने उन्हें ऐसी लताड़ लगाई कि वो उनसे आज भी रूठी हुई हैं.

आजकल कांटेक्ट लेंस लगाने का ज़माना है. नई तकनीक का लाभ उठाकर मैं भी अपनी भूरी, कंजी आँखों का रंग बदलकर उन्हें काला कर सकता हूँ पर अब शायद थोड़ी देर हो चुकी है. अब तो ता-उम्र कंजा ही रहना होगा. और वैसे भी अगर भूरी बिल्ली होगी तो घर में चूहों का खौफ़ नहीं रहेगा.

सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

बागेश्वर प्रवास

बागेश्वर प्रवास –
लखनऊ विश्विद्यालय के मध्यकालीन एवं भारतीय इतिहास में तदर्थ प्रवक्ता के रूप में कार्यरत रहते हुए मुझे चार साल हो गए थे. सितम्बर, 1978 में मैं अपनी पीएच. डी. थीसिस भी सबमिट कर चुका था  पर 1979 के प्रारंभ से मेरे ही गर्दिश के दिन शुरू हो गए. दो स्थायी  नियुक्तियों के लिए हम तीन प्रत्याशी थे, मेरे दोनों प्रतिद्वंदी मुझसे शैक्षिक योग्यता में बहुत पीछे थे, उनमें से एक साहब हक्ले भी थे पर दोनों बहुत वज़नदार लोगों की संतान थे. उनके इशारे पर मेरा पीएच. डी. वाइवा टलता रहा, मेरे शोध निर्देशक और विभागाध्यक्ष बिना बात मुझसे खफ़ा हो गए. ज़ाहिर था कि चयन समिति द्वारा नियुक्ति तो मेरे प्रतिद्वंदियों की ही होनी थी. जनवरी, 1980 में, मैं सड़क पर आ गया.
1979 के संकटकाल में मैंने उत्तर प्रदेश के गवर्नमेंट डिग्री कॉलेज में इतिहास के प्रवक्ता पद के लिए आवेदन किया था पर उनका कोई जवाब नहीं आया था.
मार्च, 1980 की बात थी. एक दिन मैं निराश, दुखी और मायूस सा घर पहुंचा तो मुस्कुराती हुई माँ ने मेरा स्वागत किया और मुझसे बोलीं –
‘बब्बा (मुझे प्यार से वो ‘बब्बा’ कहती थीं) ! बागेश्वर जाने की तैयारी कर ले.’
अब माँ के बब्बा ने तो बागेश्वर का नाम भी नहीं सुना था. मैंने पूछा –
‘ मैं बागेश्वर क्यूँ जाऊं, किसने आपको ऐसी खबर दी है? और ये बागेश्वर है कहाँ?’
माँ ने एक टेलीग्राम मुझे पकड़ाते हुए कहा –
‘ये तो मैं नहीं जानती, तेरे पिताजी तो कोर्ट गए हैं. मैं पडौस के अग्रवाल साहब से ये टेलीग्राम पढ़वाकर लाई हूँ, तुझे गवर्नमेंट डिग्री कॉलेज, बागेश्वर ज्वाइन करना है.’
मैंने झपट के उनके हाथ से टेलीग्राम लिया और अपनी आँखों से बहते आंसुओं के बीच उसका मजमून को बड़ी मुश्किल से पढ़ा. माँ की सूचना सही थी. वाह ! मेरे एक कागजी आवेदन पर सीधे नियुक्ति पत्र? इसका मतलब था कि भगवानजी अपनी छुट्टी से वापस आ गए हैं.
दो दिन बाद रजिस्टर्ड पत्र से नियुक्ति पत्र भी आ गया. अब मुझे अपना मेडिकल एग्जामिनेशन कराना था, बागेश्वर के बारे में जानकारी जुटानी थी. पता चला कि बागेश्वर अल्मोड़ा की एक तहसील है और वहां अल्मोड़ा होते हुए ही पहुंचा जाता है. इससे पहले कुमाऊँ में मैं, सिर्फ़ नैनीताल और हल्द्वानी गया था. खैर पहाड़ी यात्रा और पहाड़ी प्रवास की पूरी तैयारी कर मैंने काठगोदाम जाने वाली ट्रेन पकड़ी. हल्द्वानी रेलवे स्टेशन से मैं हल्द्वानी बस स्टैंड पहुँचा जहाँ पर बागेश्वर ले जाने वाली केएमओयू. की एक मरगिल्ला बस मेरा इंतज़ार कर रही थी. आठ घंटे धक्के खाते, हिचकोले खाते, जलेबी जैसे रास्ते से चलते हुए शाम को साढ़े सात बजे हमारी बस सांय-सांय करते सुनसान, शांत बागेश्वर पहुंची. रात एक होटल में बिताकर, सुबह तैयार होकर मैं कॉलेज पहुंचा तो उसकी भव्यता देखकर मैं हैरान रह गया. एक टूटे-फूटे, छोटे से, डाक बंगले में हमारा कॉलेज था. कॉलेज ज्वाइन करने के लिए जब मैं प्रिंसिपल साहब, प्रोफ़ेसर गुप्ता के कक्ष में गया तो वो परेशान और हैरान होकर मेरे डाक्यूमेंट्स देखते रहे. फिर उन्होंने मुझसे ये सवाल पूछे –
‘तुम वाक़ई 5 साल लखनऊ यूनिवर्सिटी में पढ़ा चुके हो? वहां के तुम टॉपर भी हो? फिर भैया, तुमको इस बागेश्वर में लेक्चरर की एड हॉक जॉब पर आने की क्या ज़रूरत पड़ गयी?’
मैं उनके प्रश्नों का उत्तर ज़ुबानी तो नहीं दे पाया पर मेरे आंसुओं ने उनके हर सवाल का जवाब दे दिया.
प्रोफ़ेसर गुप्ता के रिटायर्मेंट में दो-तीन साल बाक़ी थे. उनका बड़ा बेटा उत्तर प्रदेश के ही एक गवर्नमेंट डिग्री कॉलेज में लेक्चरर था. पहली भेंट में ही मैं प्रोफ़ेसर गुप्ता को पसंद आ गया. उन्होंने स्टाफ़ रूम में मुझे अपने साथियों से मिलवाया. कुछ वरिष्ठ थे, कुछ मेरी ही तरह नए रंगरूट थे. साथियों के लिए मैं अजूबा ज़्यादा था पर उनमें से कुछ मुझ पर मेहरबान भी हो गए. इनमें एक थे इंगलिश डिपार्टमेंट के हेड पंतजी. पंतजी, कवि सुमित्रानंदन पंत के भतीजे थे और बागेश्वर के शायद सबसे ज्ञानी व्यक्ति थे. इंगलिश डिपार्टमेंट के ही एक पांडेजी भी विद्वान थे पर हमारे अधिकांश साथी पढ़ाई-लिखाई में पैदल थे. उनकी अभिरुचियाँ भी बड़ी विचित्र थीं. घंटों तक ये विद्वानगण इस बात पर बहस कर सकते थे कि ‘पहलवान छाप बीड़ी’ ज़्यादा अच्छी है या ‘बीड़ी नंबर 207’.
उन दिनों पहाड़ में पर्यटन स्थलों को छोड़कर सभी जगह नशाबंदी लागू थी और बागेश्वर में भी सबको गाँधीवादी बनना पड़ता था. हमारे शौक़ीन साथी या तो चोरी-छुपे आर्मी वालों की मेहरबानी से कुछ बोतलें प्राप्त कर लेते थे या ‘डाबर सुरा’ या किसी अन्य एल्कोहलयुक्त टॉनिक से अपना काम चला लेते थे. मेरे एक चैंपियन मित्र तो तलब लगने पर नीट पोदीन हरा ही पी लेते थे. मेरे जैसे टी टोटलर के लिए ऐसे रसिकों का साथ कितना त्रासदायी होता था, इसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता था. 
प्रोफ़ेसर गुप्ता ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक नये लेक्चरर के साथ मेरे रहने की व्यवस्था करा दी थी. वो पट्ठा बोल-बोलकर अपने अगले लेक्चर की तैयारी करता था और सोते वक़्त ज़ोरों के खर्राटे लिया करता था पर बागेश्वर के सुनसान वातावरण में यह अनचाहा शोर भी मुझे संगीत जैसा मधुर लगता था.
बागेश्वर के विद्यार्थी भोले थे, नादान थे, थोड़े बुद्धू भी थे पर उन्होंने मुझे अपना भरपूर प्यार दिया. बिना नोट्स की मदद के पढ़ाने का मेरा तरीक़ा उन्हें पसंद आता था, फिर मेरे द्वारा सुनाई गईं इतिहास की अंतर्कथाएं भी उन्हें अच्छी लगती थीं. मेरा शेर कहने का अंदाज़ भी उन्हें पसंद था. पंतजी ने मुझे एक बार हंसकर बताया था कि उनसे कुछ छात्राएं कह रही थीं –
‘जैसवाल सर, शेर बहुत अच्छे मारते हैं.’
बागेश्वर के बीचोबीच सरयू और गोमती का संगम है और इस संगम पर ही दाह-संस्कार होता है. मैंने शहर के बीच पहली बार श्मशान देखा था और श्मशान के दृश्यों ने कितनी रातों की मेरी नींद ख़राब की थी, इसकी गिनती करना मुश्किल था.
इंगलिश डिपार्टमेंट के पंतजी से मैं बाकायदा लड़ता रहता था कि वो कैसे ऐसे मनहूस वातावरण में, साहित्य और अदब से दूर वातावरण में, हँसते-मुस्कुराते रहते हैं. पंतजी कहते थे –
‘भैया, चिंता मत करो या तो तुम अपनी लखनऊ यूनिवर्सिटी में वापस चले जाओगे या फिर तुमको इस माहौल की आदत पड़ जाएगी.’
पंतजी की दोनों बातें ग़लत सिद्ध हुईं. लखनऊ यूनिवर्सिटी ने कभी मुझे वापस बुलाया नहीं और मुझे बागेश्वर तो क्या, 31 साल अल्मोड़ा में रहकर वहां के माहौल की भी आदत नहीं पड़ी.
कॉलेज ज्वाइन करने के 10 दिन बाद ही मुझे मुरादाबाद के रामा बुक डिपो से इतिहास विभाग के लिए किताबें खरीदकर लाने का दायित्व दिया गया. आवंटित राशि का आधा पाठ्य-पुस्तकों पर और आधा सन्दर्भ ग्रंथों पर खर्च करना था. मुझे आधे से भी कम दामों में भारतीय विद्या भवन प्रकाशन की पुस्तकें मिलीं तो मैंने सन्दर्भ ग्रंथों के लिए आवंटित राशि से उसकी पूरी सीरीज़ ख़रीद ली. बागेश्वर लौटकर जब मैंने प्रोफ़ेसर गुप्ता को अपनी उपलब्धि बताई तो वो शांत रहे पर बाद में स्टाफ़ मीटिंग में उन्होंने मेरी क्लास ले ली. मुझे बाकायदा डांट पड़ी कि मैंने संदर्भ ग्रंथों की पूरी राशि एक सीरीज़ खरीदने में लगा दी.
मैंने प्रिंसिपल साहब से खड़े होकर विनम्रता से कहा –
‘सर, आपका डिसिप्लिन तो केमिस्ट्री है. हिस्ट्री तो आपने आठवें क्लास तक ही पढ़ी होगी. मैंने तो केमिस्ट्री इंटरमीडिएट तक पढ़ी है. मैं अगर आपके सब्जेक्ट पर एक्सपर्ट की तरह बोलूँ तो आपको कैसा लगेगा?’
पूरे कक्ष में सन्नाटा छा गया. प्रिंसिपल साहब ने ‘सॉरी, जैसवाल’ कहके बात ख़त्म कर दी पर मीटिंग ख़त्म होने के बाद उन्होंने मुझे अकेले में बुलाया फिर प्यार से बोले –
‘जैसवाल, आज शाम घर आना, तुम्हारी आंटी तुम्हें याद कर रही थीं.’
आंटी से मेरी बड़ी दोस्ती हो गयी थी, जब भी उन के घर जाओ तो वो बड़े प्यार से पकवान बना-बनाकर  खिलातीं थीं. उस दिन भी पकवान खिलाए गए पर फिर प्रोफ़ेसर गुप्ता ने मेरी ऐतिहासिक क्लास ले डाली. उन्होंने मुझसे बड़े प्यार से कहा –
‘बेटा जैसवाल, आज स्टाफ़ मीटिंग में जो तुमने बदतमीज़ी की थी, उसकी वजह से तुम्हारी नौकरी भी जा सकती थी. माना कि मैंने तुमसे ग़लत बात की थी पर एक एडहॉक लेक्चरर अपने प्रिंसिपल से क्या ऐसे बात कर सकता है?’
मैंने सॉरी सर कहा तो उन्होंने प्यार से मेरे गाल थपथपाते हुए कहा –
मैं भगवान से दुआ करूँगा कि तुम्हारी नौकरी किसी यूनिवर्सिटी में फिर से लग जाए क्यूंकि तुम तो अपनी लड़ाकू आदत से बाज़ आओगे नहीं और हर प्रिंसिपल या तुम्हारा हेड तुम्हारी हरक़तों को इस बेचारे प्रोफ़ेसर गुप्ता की तरह माफ़ तो करेगा नहीं.’
मैंने प्रोफ़ेसर गुप्ता के चरण छूकर उन्हें वचन दिया कि मैं आगे ऐसी कोई हरक़त नहीं करूँगा. बागेश्वर में कुल आठ महीने चार दिन काम करके मेरी नियुक्ति कुमाऊँ विश्विद्यालय में हो गयी पर मैंने प्रोफ़ेसर गुप्ता को दिया अपना वचन क़तई निभाया नहीं और अपने शेष सेवा-काल में अपने उच्चस्थ अधिकारी अर्थात अपने विभागाध्यक्ष के साथ मैं निरंतर तलवारबाज़ी करता रहा.
बागेश्वर में वहां की तहसील का दफ़्तर रेलवे प्लेटफार्म के रूप में मशहूर था. मुझे तो काठगोदाम और टनकपुर के अलावा और निकटस्थ स्टेशन की जानकारी थी नहीं फिर ये बागेश्वर में रेलवे प्लेटफार्म कहाँ से आ गया?
पता चला कि बहुत पहले प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने अपने बागेश्वर आगमन पर यह घोषणा की थी कि टनकपुर से बागेश्वर तक रेलवे लाइन बिछाई जाएगी और इसके लिए रेलवे स्टेशन तथा रेलवे प्लेटफार्म की जगह भी निश्चित कर दी गयी थी. उसी जगह पर तहसील दफ़्तर बना पर वह रेलवे प्लेटफार्म ही कहलाता रहा.
बागेश्वर में पहले एक मोबाइल सिनेमा था पर बाद में वह भी बंद हो गया था. हर शाम हमारे जैसे एकाकी लोगों के लिए टेप रिकॉर्डर पर मुकेश के दर्द भरे नग्मे सुनने के अलावा कोई काम नहीं होता था.         
बागेश्वर के ग़मगीन वातावरण ने मुझे कवि बना दिया. उन आठ महीनों में मैंने एक से एक निराशावादी कविताएँ लिखीं जिनमें से एक प्रस्तुत है -
‘दिन बदलते हैं सभी के, पर यहाँ पर रात ढलती ही नहीं है,
वेदना के स्वर हमेशा गूंजते हैं, मद भरा संगीत बजता ही नहीं है.
शाम की तनहाइयों में डूबता मन, आज जाने क्यूँ विकल है,
ठोकरों ने सिर्फ़ इतनी सीख दी है, पत्थरों में प्यार पल सकता नहीं है.
अब कोई उम्मीद का नग्मा, भुलाकर गम, मुझे छलता नहीं है,
दर्दे-दिल को थपकियाँ देकर सुला दे, ऐसा कोई चारागर मिलता नहीं है.
मौत ही शायद दवा हो, कौन जाने, मंज़िले-मक़सूद भी हो,
राह कब तक मैं खड़ा उसकी निहारूं, ज़िन्दगी को अब सहा जाता नहीं है.’                    

मैं कृतघ्न हूँ, जिस बागेश्वर ने मुझ बेरोजगार को रोटी दी, उसका मैं शुक्रगुज़ार न हुआ. बागेश्वर में मेरे कुछ दोस्त भी बने, कुछ वहां अच्छा वक़्त भी बीता, कुछ शरारतें भी कीं और तमाम नादानियाँ भी, पर मैं लखनऊ को ही अपना मक्का शरीफ़ मानकर उधर की तरफ़ ही मुंह करके नमाज़ पढ़ता रहा. 31 वर्ष के अल्मोड़ा प्रवास में बागेश्वर जाने के दो-चार अवसर मिले भी तो वो मैंने जानबूझकर जाने दिए. पर अब एक बार बागेश्वर जाने का मन हो रहा है. अब तो बागेश्वर का बहुत विकास हो चुका है, वह जिला भी बन गया है, सुनते हैं कि वहां कॉलेज की बड़ी भव्य इमारत है. पर इस बार बागेश्वर जाऊँगा तो यह तय है कि वहां जाकर मैं कोई निराशावादी कविता नहीं लिखूंगा बल्कि कृतज्ञता-ज्ञापन का एक प्यारा सा गीत लिखूंगा.                                          

गुरुवार, 13 अक्तूबर 2016

सर्वधर्म समानत्व

राजीव गाँधी के राज में धर्म-विकृति अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गयी थी. सवर्ण हिन्दू निर्लज्ज होकर अपने दलित भाइयों की आहुति दे रहे थे. शाह बानो प्रकरण में इस्लाम के अंतर्गत स्त्री-अधिकार की समृद्धि परंपरा की धज्जियाँ उड़ाई जा रही थीं. जैन समुदाय में दुधमुंही बच्चियों को पालने में ही साध्वी बनाकर धर्म का प्रचार-प्रसार किया जा रहा था. उस समय खालिस्तान आन्दोलन अपने शिखर पर था और धर्म के नाम और स्वतंत्र खालिस्तान के नाम पर अन्य धर्मावालाबियों का खून बहाया जा रहा था. और हमारे ईसाई धर्म-प्रचारक डॉलर आदि की थैलियाँ खर्च कर हज़ारों की तादाद में धर्म-परिवर्तन करा, मानवता की सेवा कर रहे थे. इस कविता में मैंने यह प्रश्न उठाने का साहस किया है कि धर्म-विकृति को ही हम कब तक अपना धर्म मानते रहेंगे. आज भी धर्म-विकृति को ही हम धर्म के नाम पर अपना रहे हैं. एक जैन धर्मावलम्बी होने के नाते 13 वर्ष की अबोध बालिका आराधना समदरिया की निर्मम आहुति दिए जाने से और उससे भी अधिक जैन समाज द्वारा उसके क्रूर, स्वार्थी, प्रचार-प्रिय माता-पिता का, निर्लज्जता के साथ पक्ष लेने के कारण मैं आहत हूँ, क्षुब्ध हूँ, लज्जित हूँ. और सच कहूँ तो मेरा मन ऐसे धर्म का परित्याग कर नास्तिक होने का कर रहा है -                     
सर्व-धर्म समानत्व
जहां धर्म में दीन दलित की,  निर्मम आहुति दी जाती है,
लेने में अवतार, प्रभू की छाती,  कांप-कांप जाती है।
जिस मज़हब में घर की ज़ीनत,  शौहर की ठोकर खाती है,
वहां कुफ्र की देख हुकूमत,  आंख अचानक भर आती है।।
जहां पालने में ही बाला,  साध्वी बनकर कुम्हलाती है,
वहां अहिंसा का उच्चारण करने में,  लज्जा आती है।
जिन गुरुओं की बानी केवल,  मिलकर रहना सिखलाती है,
वहां देश के टुकड़े करके,  बच्चों की बलि दी जाती है।।
बेबस मासूमों की ख़ातिर,  लटक गया था जो सलीब पर,
उसका धर्म प्रचार हो रहा,  आज ग़रीबों को ख़रीद कर।
यह धर्मों का देश,  धर्म की जीत हुई है,  दानवता पर,

पर विकृत हो बोझ बना है धर्म,  आज खुद मानवता पर।।

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2016

यह तो मेरा धर्म नहीं है

यह तो मेरा धर्म नहीं है –
हमारे जैन धर्म में सत्य, अहिंसा अस्तेय अपरिग्रह आदि पर बहुत बल दिया जाता है हमारे चौबीसों तीर्थंकर राज-परिवार से सम्बद्ध थे किन्तु उन्होंने वैभव सुख-सुविधाओं आदि का परित्याग कर त्याग मानव-कल्याण हेतु अपना जीवन समर्पित कर दिया था पर आज हम उनके अनुयायी क्या कर रहे हैं?
सिकंदराबाद के एक धनाढ्य जैन परिवार ने अपनी 13 वर्षीय बेटी आराधना समदरिया को 68 दिनों के निराहार व्रत के लिए ‘प्रेरित किया’. यहाँ मैं जान बूझकर ‘विवश किया’ शब्दों का प्रयोग नहीं कर रहा हूँ. कहा जा रहा है कि बालिका आराधना ने स्वयं ही इस तथाकथित तपस्या का निर्णय लिया था. पिछले साल उसने 34 दिनों का निराहार व्रत का अनुष्ठान सफलतापूर्वक संपन्न किया था. बालिका आराधना ने अपना 68 दिनों का निराहार व्रत संपन्न किया किन्तु इसके दो दिनों बाद ही 3 अक्टूबर, 2016 को दिल का दौरा पड़ने से उसकी मृत्यु हो गयी.
प्रश्न उठता है कि क्या किसी को भी, विशेषकर किसी अल्प-वयस्क को, ऐसा आत्मघाती निर्णय लेने का अधिकार है? बच्चों के अधिकारों से जुड़े अनेक संगठन इस दिल दहलाने वाली मानव-निर्मित अमानवीय त्रासदी के विरुद्ध लामबंद हो गए हैं. पुलिस में बच्ची के माता-पिता के विरुद्ध केस दर्ज किया गया है. आराधना के माता-पिता के विरुद्ध केस दर्ज होते ही हैदराबाद के जैन समाज ने हैदराबाद में कोटी में एक सभा आयोजित की और फिर जैन गुरु श्री मांगीलाल भंडारी ने यह घोषणा की –
‘किसी को भी हमारे धर्म का पालन करने के मार्ग में, बाधा पहुँचाने का अथवा हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है. आराधना के माता-पिता के विरुद्ध केस दर्ज करना, जैन समुदाय के आध्यात्मिक विषय में हस्तक्षेप है.’
आम तौर पर (भले ही अप्रत्यक्ष रूप से) हत्या कहा जाने वाला एक कुकर्म, कैसे जैन समाज का आध्यात्मिक विषय हो गया? यह कैसा धर्म है जो किसी अबोध बालिका के खून में रंगा हुआ है? सबसे दुःख की, शर्म की बात यह है कि न केवल सिकंदराबाद का जैन समुदाय दिवंगत आराधना के माता-पिता के पक्ष में आगे आया है अपितु अन्य क्षेत्रों से भी हमारे जैनी भाई-बंधु समदरिया दंपत्ति के समर्थन में एकजुट हो गए हैं. कहीं से भी जैन समाज द्वारा, विशेषकर हमारे जैन आचार्यों-साध्वियों द्वारा इस घोर अमानवीय एवं पाखंडी धार्मिक अनुष्ठान की भर्त्सना नहीं की गयी है.
कुछ समय पूर्व एक नवयुवती ने जैन साध्वी (अर्जिका) की दीक्षा ली थी किन्तु उसने अपने साथ अपनी डेड़ साल की दुधमुंही बच्ची को भी साध्वी बनवा दिया था. और हमारा जैन समाज ऐसे अनाचार को रोकने के स्थान पर – ‘धन्य हो, धन्य हो’ के नारे लगाता रहा.
जैन समाज में शिक्षा का प्रचलन बहुत अधिक है परन्तु धर्म के नाम पर पाखण्ड तथा धन-प्रदर्शन (वल्गर डिस्प्ले ऑफ़ मनी) उससे भी अधिक है. हम अपने त्यागी भगवानों की मणियों की. स्वर्ण की, अष्टधातु की मूर्तियाँ बनवाते हैं. हम ऐसे स्थानों पर कई और भव्य मंदिरों का निर्माण करवा देते हैं जहाँ पहले से ही पचासों क्या, सैकड़ों मंदिर विद्यमान हैं. अब हमारे भगवानों की मूर्तियाँ इस उद्देश्य से बनाई जाती हैं कि अपनी विशालता और अपनी भव्यता के कारण उनका नाम गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ड रिकॉर्ड्स में आ सके. हेलीकॉप्टरों से हमारे पंच-कल्याणकों में पुष्प-वृष्टि की जाती है. सत्ताधारियों के साथ हमारे मुनि तथा अर्जिकाओं की सैकड़ों तस्वीरें हमारे मंदिरों की शोभा बढ़ाती हैं. हमारे मुनिगण अब जन-प्रतिनिधि सभाओं में जाकर उपदेश भी देने लगे हैं और चौबीसों घंटे टीवी चैनलों पर छा रहे हैं.   
जैन समाज में औषधि-दान, शिक्षा-प्रचार आदि जन-सेवा के सैकड़ों कार्य होते हैं पर हमारे अति-धनाढ्य समुदाय में लोक-कल्याण के इससे कहीं अधिक कार्य करने की क्षमता है.   
आज जैन समाज को एक साहसी राजा राममोहन रॉय की आवश्यकता है. कोई तो आगे आकर ग़लत को ग़लत कहने का साहस करे. कोई तो हो जो कबीर बनकर भटके हुओं को राह दिखा सके. कोई यह कह सके कि काले धन की कमाई से, हवाला से, किसी जैन डायरी से, तुम धर्म-लाभ प्राप्त नहीं कर सकते.
हो सकता है कि मुझे अपने विचारों के लिए विरोध का सामना करना पड़े, हो सकता है कि जैन समाज इसे किसी पागल की बकवास समझकर इसकी नितांत उपेक्षा करे किन्तु यदि मेरी बात जैन समाज की युवा पीढ़ी को उचित लगती है, विचारणीय लगती है तो मुझे अत्यंत प्रसन्नता होगी.

हमको आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि हम जैन समुदाय के लोग एक ऐसा दिन देखेंगे जब हम आध्यात्मिक उन्नति, आडम्बर हीन निश्छल भक्ति, मानव-कल्याण, परोपकार, सच्चाई, विनम्रता, सादगी और त्याग में ही धर्म को खोजेंगे.