रविवार, 23 मई 2021

ह्रदय-परिवर्तन

 (सोमवार की सुबह)

शुक्ल जी – अहा गुप्ता बन्धु ! बहुत दिनों बाद मिले. सब कुशल मंगल?

गुप्ता जी – नमस्कार सुकुल बन्धु ! इधर कुछ अस्वस्थ था. अब ठीक हो गया हूँ तो सोचा कि थोड़ा घूम-फिर लूं.
शुक्ल जी – अच्छा हुआ तुम स्वस्थ हो गए. अब हमको सुबह घूमने के लिए एक साथी मिल जाएगा.
गुप्ता जी – अरे ये तो मेरा सौभाग्य होगा सुकुल मित्र ! चलो सिविल लाइन्स की तरफ़ चलते हैं.
शुक्ल जी – ना भाई ! हम तो ठंडी सड़क पर जाएंगे.
गुप्ता जी – बन्धु, इतने दिनों बाद तो घर से निकला हूँ. आज मेरे कहने से सिविल लाइन्स की तरफ़ ही चल दो.
शुक्ल जी – जैसी तुम्हारी मर्ज़ी. और सुनाओ क्या हाल-चाल हैं !
गुप्ता जी – बस तुम मित्रों की कृपा है.
अरे वाह, हनुमान-मन्दिर आ गया. चलो, यहाँ माथा टेक के चलेंगे.
शुक्ल जी (कुछ सोचते हुए) – घूमने-फिरने की बीच में भक्ति का क्या काम? तुम हनुमान जी के दर्शन फिर कभी कर लेना.
गुप्ता जी – क्या बात है सुकुल? हनुमान जी से तुम्हारी अनबन कब से हो गयी?
तुम तो उनके बड़े भक्त हुआ करते थे.
शुक्ल जी – अनबन तो नहीं लेकिन अब मन्दिर जाने का मन नहीं करता.
गुप्ता जी – क्या तुम नास्तिक हो गए हो?
शुक्ल जी – नास्तिक तो नहीं लेकिन संत रैदास की बानी का महत्व अब समझ में आ गया है – ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा.’
गुप्ता – यार, तुम यहीं खड़े रह कर अपने चंगे मन में गंगा बहाओ. मैं दो मिनट में बजरंगबली को प्रणाम कर के आता हूँ.
शुक्ल जी – ठीक है. जैसी तुम्हारी मर्ज़ी. मैं यहीं तुम्हारा इंतज़ार करता हूँ.
गुप्ता जी (मन्दिर से लौट कर) – सुकुल प्रसाद तो ले लो या फिर उसमें भी आपत्ति है?
शुक्ल जी – प्रसाद भी तुम्हीं ग्रहण करो. चलो अब आगे चलते हैं.
गुप्ता जी – समझ में नहीं आ रहा कि हमारे बजरंग बली भक्त को एकदम से क्या हो गया जो उसका ऐसा ह्रदय-परिवर्तन हो गया !
शुक्ल जी – तुम नहीं समझोगे.
(मंगलवार की सुबह)
गुप्ता जी (हनुमान-मन्दिर के प्रांगण में) – अरे सुकुल, तुम बजरंग बली के दरबार में?
शुक्ल जी – सवाल बाद में पूछना. पहले प्रसाद तो ले लो.
गुप्ता जी – ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ का पाठ पढ़ाने वाले संत रैदास के शिष्य हमारे सुकुल आज हनुमान जी का प्रसाद कैसे बाँट रहे हैं?
शुक्ल जी – अमाँ कल की बात भूल जाओ ! प्रसाद ग्रहण करो.
गुप्ता जी – हम प्रसाद तो तभी ग्रहण करेंगे जब तुम इस ह्रदय-परिवर्तन के रहस्य का उद्घाटन करोगे.
शुक्ल जी – प्रसाद ले लो यार ! बड़ी अच्छी बूंदी हैं.
गुप्त जी – पहले तुम इस ह्रदय-परिवर्तन का कारण बताओ. तुम्हें बजरंग बली की कसम !
शुक्ल जी – बड़े धर्म-संकट में डाल दिया तुमने ! बजरंग बली की झूठी कसम तो मैं खा नहीं सकता.
मेरा कोई ह्रदय-परिवर्तन नहीं हुआ है. बजरंग बली का भक्त मैं कल भी था और आज भी हूँ. हाँ मेरा मोज़ा-परिवर्तन ज़रूर हुआ है.
गुप्ता जी – मोज़ा-परिवर्तन? ये क्या बला है सुकुल?
शुक्ल जी – यार, कल मैंने जूते के अन्दर फटे हुए मोज़े पहन लिए थे.
मन्दिर जाने के लिए जूते-मोज़े उतारता तो तुमको ही क्या, दूसरे भक्तों को भी मेरे फटे हुए मोज़े दिख जाते.
आज मोज़ा-परिवर्तन कर मैं फिर से बजरंग बली के दरबार में हाज़िर हो गया हूँ.

मंगलवार, 18 मई 2021

हरी मिर्च

 (यह कहानी मेरे अप्रकाशित बाल-कथा संग्रह – ‘कलियों की मुस्कान’ से ली गयी है.

1990 के दशक की यह कहानी मेरी 10-12 साल की बेटी गीतिका की ज़ुबानी कही गयी है.)
हरी मिर्च -
क्या आपने तीन फ़ीट ऊँची हरी मिर्च देखी है?
एक और सवाल का जवाब दीजिए।
क्या ऐसी कोई मिर्च होती है जिसे आप खा तो नहीं सकते पर जिसका चरपरापन आप जिन्दगी भर भुला नहीं सकते?
ज़ाहिर है कि मेरे दोनों सवालों का जवाब आप ‘ना’ में देंगे और साथ ही मेरे ऐसे अटपटे सवालों को सुनकर आप मुझे बुद्धू या कोई पागल समझेंगे। पर मैं एक ऐसी हरी मिर्च से आपको मिलवा सकती हूँ जिसका कि क़द कुल तीन फ़ीट है और जो हम सबकी कल्पना से भी ज़्यादा चरपरी है। आप उसे खा नहीं सकते पर वो आपका भेजा चाट सकती है, कभी-कभी उसे खा भी सकती है।
ये हरी मिर्च चलती-फिरती भी है, हंसती-बोलती भी है। इस जादुई, आउट ऑफ़ दि वर्ड मिर्च को हम आलोक के नाम से जानते हैं।
आलोक महाशय हमारे लखनऊ वाले माथुर अंकिल के सुपुत्र हैं जिन्होंने अभी कुछ दिन पहले अपना छठा जन्मदिन मनाया था। इस बर्थ-डे पर उन्होंने केक काटकर खुद खाया था, और उसके पीसेज़ अपने कुछ खास दोस्तों को खिलाए थे पर अपने अनचाहे मेहमानों को उन्होंने सिर्फ़ उस केक पर लगी हुई मोमबत्तियों के टुकड़े खिला दिए थे।
आलोक को देखकर कोई भी मेरी बातों पर यकीन नहीं करेगा।
सुन्दर, सलोना, गोलमटोल चेहरे वाला, चमकदार बटन जैसी आँखों वाला आलोक हर किसी को अपना फ़ैन बना लेता है। उसकी लुभावनी मुस्कान, भोली-भाली हंसी, मीठी-मीठी बातें और गज़ब का कान्फि़डेन्स नए-नए दोस्त बनाने में उसके बहुत काम आते हैं।
कभी-कभी तो पहली मुलाकात के बाद दस मिनट के अन्दर ही वो मिलने वाले को अपना दोस्त बना लेता है। पर इस नए बने दोस्त को कुछ देर बाद ही यह पता चल जाता है कि उसका पाला किसी इनोसेन्ट और क्यूट बच्चे से नहीं बल्कि शैतान के नाना से पड़ा है।
हमारी घरेलू बिजली में दो सौ बीस वोल्ट का करेन्ट होता है जो कि काफ़ी खतरनाक होता है पर हमारे आलोक महाशय अपने मित्रों को चार सौ चालीस वोल्ट का झटका देने की काबिलियत रखते हैं।
कहा जाता है कि - ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात’ पर हमारे आलोकजी के चीकने पात की जगह नुकीले दांत ज़रूर निकले। पिछले पाँच साल से आलोक अपने नुकीले दांतों का ज़बर्दस्त इस्तेमाल कर रहे हैं। जैसे पोस्ट ऑफिस से कोई भी डाक बिना मोहर लगाए बाहर नहीं जा सकती वैसे ही आलोक के घर से कोई भी मेहमान अपने बदन पर उनके दांतों के गहरे-गहरे निशान लिए बगैर नहीं जा सकता।
मुझे और रागिनी को तो वो अपनी सबसे फ़ेवरिट दीदी कहते हैं पर हम दोनों के शरीर पर उनके दांतों की ग्रोथ का पूरा इतिहास अंकित है। तीन-चार साल पहले तक लोगबाग खुशकिस्मत हुआ करते थे क्योंकि उन्हें आलोकजी के सिर्फ़ दो-चार दांतों का प्रसाद मिलता था पर अब तो उनके दो दर्जन दांत हैं और उनमें अपने शिकारों पर दांत गड़ाने के लिए पहले से ताकत भी ज़्यादा आ गई है। सुनते हैं कि बड़े होने पर पूरे बत्तीस दांत आते हैं। अब अगर आलोक के भी पूरे बत्तीस दांत आ गए तो आगे चलकर हमारा क्या होगा?
आलोकजी की धमा-चौकड़ी और उनके बारे में पड़ौसियों की रोज़ाना आने वाली शिकायतों से परेशान होकर माथुर अंकिल ने उन्हें तीन साल से भी कम उम्र में स्कूल में डाल दिया। अपनी क्लास टीचर का दिल तो उन्होंने फ़ौरन ही जीत लिया। उनकी मिस ने उन्हें अपनी मनपसन्द चेयर पर बैठ जाने को कहा तो वो उन्हीं की चेयर पर विराजमान हो गए। बेचारी मिस ने जब तक उन्हें ढेर सारी टाफियों की रिश्वत नहीं दी तब तक उन्होंने अपनी कुर्सी नहीं बदली।
रोज़ाना स्कूल जाने से पहले आलोक अपने पापा से एक टॉफ़ी और अपनी मम्मी से एक छोटी चाकलेट वसूला करते थे पर स्कूल से लौटते समय उनका लन्च बॉक्स तमाम टॉफ़ी, चाकलेट्स और मिठाइयों से भरा मिलता था। माथुर अंकिल ने समझा कि उनकी टीचर्स उन पर कुछ ज़्यादा ही प्यार बरसा रहीं हैं। माथुर अंकिल उन्हें प्यार में बच्चे को बिगाड़ने से मना करने के लिए एक दिन आलोक के स्कूल पहुंचे तो एक दर्जन बच्चों के पैरेन्ट्स वहां पहले से मौजूद थे। उन सबकी यही शिकायत थी कि कोई शरारती बच्चा अपनी दादागिरी से अपने तमाम साथियों के लन्च बॉक्सेज़ का बढि़या माल झटक कर अपना लन्च बॉक्स भर लेता है। माथुर अंकिल ने चुपचाप वहां से खिसकने में ही अक्लमन्दी समझी। उन्होंने यह जानने की कोशिश नहीं की कि ये शरारती बच्चा कौन है।
माथुर अंकिल की मम्मी यानी हमारी माथुर दादी आलोक को नटखट कन्हैया का दूसरा अवतार मानती हैं। पर कभी-कभी उनको अपने कान्हा की शरारतों की अच्छी खासी कीमत चुकानी पड़ती है। माथुर दादी की कमर में अक्सर दर्द रहता है और अक्सर वो अपनी कमर दबवाने के लिए हम बच्चों की सेवाएं लेती रहती हैं। इन सेवाओं के बदले में हमको फ़ौरन अच्छा-खासा इनाम भी मिल जाता है। एक दिन माथुर दादी ने अपने कान्हाजी से अपनी कमर दबाने की फ़रमाइश कर दी। उनके कान्हाजी ने इस सेवा के बदले आइसक्रीम कोन की फ़रमाइश कर दी। बेचारी दादी को अपनी सेवा कराने के बदले में अपने खिदमतगार को काजू-बादाम वाला आइसक्रीम कोन दिलाने का वादा करना पड़ा। आलोक दादी की कमर दबाने लगे पर तीन-चार मिनट में ही उनके हिसाब से काम पूरा हो गया। उन्होंने दादी से प्यार से पूछा -
‘दादी ! बहुत हो गया। अब बस करूं?’
दादी भी उस्ताद थीं। वो आइसक्रीम कोन के बदले में अभी और सेवा कराना चाहती थीं। अपनी कमर पर उसके हाथ रुकते ही उन्होंने उसे घुड़कते हुए कहा -
‘चुपचाप मेरी कमर दबाता रह । जब तक मैं मना नहीं करूंगी, तू मेरी कमर दबाते रहना। अगर उससे पहले रुका तो तुझे आइसक्रीम नहीं दिलाऊँगी।’
आलोकजी ने दादी से जल्दी ना कराने के लिए एक अनोखा तरीका खोज निकाला। घर के बाहर बजरी पड़ी हुई थी। आलोकजी दादी की नज़रों से छुपकर चुपचाप कुछ महीन कंकडि़यां बीन लाए और उन्हें अपनी हथेलियों में दबाकर दादी की कमर दबाने लगे। हाय हाय करते हुए तुरन्त ही दादी ने आलोक को अपनी कमर दबाने से रोक दिया। अपनी कमर सहलाती हुई दादी आलोक को भला-बुरा कहती रहीं पर उन्हें अपने वादे के मुताबिक आलोक को आइसक्रीम कोन तो दिलाना ही पड़ा।
लखनऊ की मेहमाननवाज़ी के किस्से सारी दुनिया में मषहूर हैं पर आलोकजी अपने मेहमानों की ख़ातिर ज़रा अलग ढंग से करते थे। स्कूल में उन्होंने काउण्टिंग करना क्या सीख लिया, बस मेहमानों की तो शामत आ गई। पेटू मेहमानों की खुराक का हिसाब रखने की जि़म्मेदारी उन्होंने बिना किसी से पूछे सम्भाल ली। धड़ाधड़ रसगुल्ले और समोसे गपागप करने वाले मेहमान के सामने वो अपनी रनिंग कमेन्ट्री कुछ इस तरह शुरू कर देते -
‘अंकिल ! ये आपने चौथा रसगुल्ला खाया। ये आपकी प्लेट में जो समोसा रक्खा है, वो पाँचवां है।’
इसी तरह मोटी आंटियों पर भी वो बहुत मेहरबान रहते थे। जहां ऐसी किसी आंटी ने चिप्स या कोल्ड ड्रिंक उठाने के लिए हाथ बढ़ाया तो वो डॉक्टर बन कर जंक फ़ूड के खि़लाफ़ अपना भाषण शुरू कर देते। कभी-कभी तो वेइंग मशीन उठाकर ले आते और आंटियों को फ्री में अपना वेट लेने के लिए कहने लगते।
एक बार एक उनके घर एक ऐसे सज्जन आए जिनके दांत लगातार पान और तम्बाकू चबाने से बिल्कुल काले पड़ गए थे। आलोकजी मेरे कान में फुसफुसाकर बोले –
‘दीदी देखो आइरन मैन आया है। इसके सारे दांत लोहे के हैं।’
मैंने उसे डांटते हुए कहा –
‘हट! ऐसा नहीं है। इनके दांत असली हैं।’
मेरे रोकते-रोकते आलोकजी अपनी बात को सच सिद्ध करने के लिए अपने हाथों में छुपाकर कुछ ले गए और उन अंकिल के पास जाकर कहने लगे –
अंकिल आप ज़रा हंसिए।’
अंकिल ज़रा हंसे तो उन्होंने अपने हाथ में छुपाया हुआ मैग्नेट निकाल कर उनके दांतों पर लगा दिया। मैगनेट जब अंकिल के दांतों पर चिपका नही तो वो निराश होकर मुझसे कहने लगे –
‘दीदी आप ठीक कह रही थीं। अंकिल के दांत लोहे के नहीं हैं, ये तो असली हैं।’
माथुर दादी हर मंगलवार को हनुमान चालीसा का पाठ करती हैं। अब चाहे वो किचिन में हों या बेडरूम में, या ड्राइंग रूम में, उनका ये पाठ हर जगह चलता रहता है। सबसे मज़दार सिचुएशन तब होती है जब कि दादी टीवी के सामने बैठकर भी अपना पाठ जारी रखती हैं। टीवी पर प्रोग्राम देखने वालों को इससे डिस्टर्बेन्स हो तो हो, पर उनकी भक्ति में कोई बाधा नहीं पहुंचा सकता। एक दिन वो टीवी के सामने बैठकर हनुमान चालीसा का पाठ पढ़े जा रही थीं और टीवी पर बच्चों की कोई मज़ेदार कार्टून फि़ल्म चल रही थी। आलोक ने दादी से चुप हो जाने के लिए कहा पर दादी ज़ोर-ज़ोर से अपना पाठ पढ़ती रहीं। उनसे अपनी वोल्यूम कम करने की प्रार्थना की गई पर उन्होंने उसे भी ठुकरा दिया। आलोकजी ने दौड़ कर टीवी का रिमोट अपने हाथ में लिया और दादी को चुप करने के लिए उनके के सामने खड़े होकर उन्होंने रिमोट का म्यूट वाला बटन दबा दिया। टीवी रिमोट का म्यूट वाला बटन दबाने पर भी जब दादी की वोल्यूम पर असर नहीं पड़ा तो वो दुखी होकर माथुर अंकिल से बोले –
‘पापा ! टीवी रिमोट का म्यूट वाला बटन खराब हो गया है, दादी तो इससे म्यूट ही नहीं होतीं।’
एक बार पापा और माथुर अंकिल को अपने एक दोस्त के बच्चे की बर्थ-डे पार्टी में जाना था। उनके साथ हम दोनों बहनें और आलोक भी जा रहे थे। पापा और माथुर अंकिल आपस में ये बात कर रहे थे कि अगर सिर्फ़ टी पार्टी हुई तो एक सौ एक रुपये वाला लिफ़ाफ़ा और अगर वहां डिनर होगा तो दो सौ इक्यावन वाला लिफ़ाफ़ा देंगे। इस हिसाब से दोनों तरह के लिफ़ाफ़े बनाकर दोनों दोस्तों ने अपनी-अपनी जेबों में रख लिए। बर्थ-डे पार्टी में हम पहुंचे तो आलोकजी ने देखा कि वहां तो डिनर का इन्तजाम था। उन्होंने पचास लोगों के सामने अपनी फ़ुल वोल्यूम पर अपने पापा से कहा –
‘पापा यहां तो डिनर का इन्तज़ाम है, आप दो सौ इक्यावन वाला लिफ़ाफ़ा निकालिए।’
आलोकजी ने पिछले साल कुंग फ़़ू क्लासेज़ ज्वाइन किए पर उसकी प्रैक्टिस के लिए उन्होंने अपने पापा को सैण्ड बैग की तरह इस्तेमाल किया। माथुर अंकिल ने आलोकजी के प्रहारों से खुद को बचाते-बचाते कुंग फ़ू के अच्छे-खासे दांवपेच सीख लिए हैं पर इस साल उनका पूरा ध्यान क्रिकेट सीखने पर है। अगला सचिन बनने के लिए वो अभी से तैयारी कर रहे हैं। अब इसके लिए उनकी कॉलोनी के मकानों के दो-चार दर्जन शीशे टूट-फूट जाएं तो चिन्ता की क्या बात है? पर माथुर अंकिल उनके क्रिकेट प्रेम से बहुत परेशान हैं। दो-चार दर्जन शीशे टूटने के हादसे तो अभी उनकी टेनिस वाली बौल से हो रहे हैं पर जब वो कॉर्क की बौल से खेलने लगेंगे तो कॉलोनी के तमामघरों के दरवाज़ों और खिड़कियों के शीशों के साथ अंकिलों, आंटियों, दीदियों और भैया लोगों के सर भी टूटा करेंगे।
मेरे पापा ने कॉलोनी वालों को यह सलाह दी है कि वो सब अपने घरों की बाउण्ड्री वाल्स को बहुत ऊँचा करवा लें और जब भी आलोक बैटिंग कर रहे हों तो वो घर से निकलते वक्त हैल्मेट पहन कर निकलें।
आलोकजी से हमारी मुलाकात अब तक सिर्फ़ हमारे विण्टर वैकेशन्स के दौरान होती है। हम अल्मोड़ा में रहते हुए आलोकजी को बहुत मिस करते हैं। अब माथुर अंकिल ने यह तय किया है कि वो इस साल, गर्मियों की छुट्टियां, सपरिवार हमारे साथ अल्मोड़ा में बिताएंगे। हम दोनों बहनें बेसब्री से आलोकजी से मिलने का इन्तज़ार कर रही हैं और उनके साथ धमाचौकड़ी करने का पूरा प्लान बना रही हैं पर हमारे पापा अपने पडौसियों के घरों की बाउण्ड्री वाल्स को ऊँचा करवाने में बिज़ी हैं। आस-पड़ौस के सभी घरों में हैल्मेट्स और फर्स्ट-एड का पूरा इन्तज़ाम भी कर दिया गया है और पापा ने खुद अपने लिए एन्टिसिपेट्री बेल के लिए अभी से एप्लाई भी कर दिया है।

शुक्रवार, 7 मई 2021

ये स्पेशल भाभीजियां

 ये किस्सा मेरी अपनी तीन भाभीजियों का नहीं है क्योंकि वो सभी सामान्य किस्म की भाभीजियों की केटेगरी में आती हैं. मैं तो इस में सिर्फ़ अविस्मरणीय, हैरतअंगेज़ और स्पेशल किस्म की चार भाभीजियों का ज़िक्र करने जा रहा हूँ.1.     

1. पहला क़िस्सा मेरे लखनऊ प्रवास का है, स्वीट 25 वाला. उन दिनों मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी में लेक्चरर था. लखनऊ यूनिवर्सिटी में लेक्चरर होते ही मैंने साल भर के अन्दर रेगुलर एक्सरसाइज़, टेनिस और संयमित आहार से अपनी दस-बारह साल पुरानी गोलमटोल गोलगप्पे वाली छवि उतार फेंकी थी. लोगों की दृष्टि में और खुद अपनी दृष्टि में मैं अच्छा-खासा स्मार्ट हो गया था. कुछ मेरे फ़ीचर्स, कुछ मेरे घुंघराले बाल, और कुछ मेरी बड़ी-बड़ी आँखें, लोगों को संजीव कुमार की याद दिला देती थीं और मैं विनम्रतापूर्वक उनके कॉम्प्लीमेंट्स को स्वीकार भी कर लेता था.

उन दिनों हमारे श्रीश भाई साहब आगरा में केन्द्रीय हिंदी संस्थान में पढ़ाते थे और मैं आए दिन आगरा के चक्कर लगाया करता था. भाई साहब और भाभी के मित्रगण मेरे भी दोस्त बन गए थे. इन में एक भाभी जी अक्सर मुझसे कहती थीं

गोपेश भाई, आप तो फ़िल्म स्टार लगते हैं.

अब गोपेश भाई विनम्रता से – ‘हें, हेंकरते हुए इस कॉम्प्लीमेंट को स्वीकार कर लेते थे. एक दिन श्रीश भाई साहब ने उन भाभी जी से पूछ ही लिया

ज़रा बताइए तो हमारा गोपेश आपको किस फ़िल्म स्टार जैसा लगता है?’

भाभी जी बोलीं

'अरे क्या नाम है उसका? ज़ुबान पर नहीं आ रहा है. हाँ, उसका पापा भी फ़िल्म स्टार है.

अब यह सुनकर तो मेरा दिल बैठ गया क्यूंकि मेरे हमशक्ल संजीव कुमार के पापा तो फ़िल्म लाइन में थे नहीं. मेरे दिल में हलचल हो रही थी. पता नहीं भाभी जी अब किस हीरो को मेरा हमशक्ल बताने वाली हैं.

मुगले आज़म पृथ्वी राज कपूर के बेटे राज कपूर से?

या फिर उनके बाग़ी बेटे याहू शम्मी कपूर से?

लेकिन अगले पल ही भाभी ने संस्पेंस खोल दिया. 

भाभी जी एक दम से चहक कर बोलीं

हाँ याद आ गया. अपने गोपेश भाई हूबहू कॉमेडियन आगा के बेटे जलाल आगा जैसे लगते हैं.

 (पाठकगण नोट करें. दिल के अरमां, आंसुओं में बह गएनग्मा फ़िल्म निक़ाहमें आने से पहले मेरे दिल से आह की शक्ल में निकला था.)

2.     2. आतिथ्य सत्कार में अल्मोड़ा प्रसिद्द हमारी एक भाभी जी पापड़ पर शायद मुक्का मार कर उसके पचास टुकड़े कर के आधी-आधी चाय की प्यालियों के साथ अतिथियों का सत्कार करती थीं. इतिहास में पहली बार क्रीम बिस्किट को बीच में से चीरकर एक बिस्किट के दो बिस्किट बनाने का हुनर मैंने उन्हीं के यहाँ देखा था.

हमारी छोटी बिटिया रागिनी उन दिनों चार साल की रही होगी. कंजूस आंटी के यहाँ बीच में से चीरे हुए क्रीम बिस्किट्स पाकर वह बड़ी प्रसन्न हुई. उसने बिस्किट खाए तो नहीं पर उन में लगी क्रीम चाट-चाट कर बिस्किट्स प्लेट में वापस रख दिए. यह नज़ारा देखकर भाभी जी का दिल बैठा जा रहा था हम लोग रागिनी को इस गुनाहे-अज़ीम के लिए डांट ही रहे थे कि भाभी जी ने आह भरते हुए कहा

भाई साहब जो नुक्सान होना था, वो तो हो ही गया, अब आप लोग कुछ और खाने से पहले रागिनी के झूठे बिस्किट्स खाकर उन्हें ख़त्म कीजिए.

3. हमारी एक भाभी जी पूरे अल्मोड़ा में अपनी बेतकल्लुफ़ी के लिए प्रसिद्द थीं. हमारे यहाँ जब कभी आती थीं तो चाय पीते समय मेरी श्रीमती जी से कहती थीं

भाभी जी ये चाय का तक़ल्लुफ़ आपने बेकार किया. आप तो हमको दो-दो चपाती के साथ दाल-सब्जी खिला दीजिए. अब पहाड़ पर इतना चल कर फिर घर लौट कर खाना बनाने की ताक़त किस में बच पाती है?’

सपरिवार चाय, नाश्ते के बाद भोजन कर के जब भाभी जी हमारे घर से निकलतीं तो हम सब से यह वादा लेकर जातीं कि हम अगले रविवार को सपरिवार उनके यहाँ लंच पर पहुंचेंगे.

उन दिनों न तो हमारे यहाँ फोन था और न ही हमारे मित्रगणों के यहाँ. पहले से निश्चित कार्यक्रम के अनुसार ही हम लोग एक दूसरे के यहाँ पहुँच जाते थे. पूर्व-निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार जब हम भाभी जी के यहाँ लंचियाने पहुँचे तो मकान के दरवाज़े एक बड़ा सा ताला हमारा स्वागत कर रहा था. हम भूखे और गुस्से से भरे एक रेस्तरां में पहुंचे. पेट की आग तो शांत हुई पर दिल में जो आग लगी थी वो तो भाभी जी और उन के पतिदेव की मरम्मत कर के ही शांत हो सकती थी. पर इस कहानी का क्लाईमेक्स अभी बाक़ी है. इस दुर्घटना के एक सप्ताह बाद हमको अपराधी दंपत्ति बाज़ार में मिल गया. मेरे तानों और उलाहनों की बरसात शुरू होने से पहले ही भाभी जी ने हमको अपने घर से गायब होने का एक ठोस बहाना दिया. हमको मजबूरन उनको माफ़ करना पड़ा. पर भाभी जी ने हाथ जोड़ कर कहा

आप लोगों ने ज़ुबानी तो हमको माफ़ कर दिया पर दिल से नहीं किया. हम अगले रविवार को खुद माफ़ी मांगने आपके घर आएँगे. और हाँ, भाभी जी, आप चाय-वाय का तक़ल्लुफ़ मत कीजिएगा, सीधे ही सादा सा खाना हमको खिला दीजिएगा.

4. अल्मोड़ा में हमारी एक और भाभी जी थीं, स्मार्ट, मॉडर्न और अच्छी खासी स्नॉब. इंग्लिश मीडियम में पढ़ी-लिखी ये भाभी जी हिंदी मीडियम की पढ़ी महिलाओं को काम वाली बाई से ज़्यादा नहीं समझती थीं और आमतौर पर भाभीजियों के बजाय हम भाई साहबों की कंपनी में ही बैठना पसंद करती थीं. इन भाभी जी वाले भाई साहब काफ़ी ठिगने और बेकार से थे. इस दंपत्ति को अपनी रईसी बघारने का बहुत शौक़ था.

हमारे रईस दोस्त अपने बेटे का बर्थ डे बहुत धूम-धाम से मनाते थे एक बार उनके बेटे के जन्मदिन की पार्टी में हम लोग गए. जाड़ों के दिन थे. मैंने अपनी शादी के दिनों वाला सूट निकाला और उसे पहनकर उस पार्टी में पहुंचा. पचास लोगों के बीच भाभी जी ने हमारा स्वागत किया फिर वो मुस्कुराती हुई बोलीं

भाई साहब आप इस सूट में बहुत जंच रहे हैं पर आपको शायद याद न हो, यही सूट आपने हमारे बेटे की पिछली बर्थ डे पार्टी में भी पहना था.

लोगबाग भाभी जी की बात सुनकर चुप रहे, उनको पता था कि यह दुष्ट जैसवाल कोई न कोई क्रांतिकारी जवाब ज़रूर देगा. मैंने हाथ जोड़कर भाभी जी को एक सवालनुमा जवाब दिया

भाभी जी, सबके सामने और ख़ासकर मेरी श्रीमती जी के सामने आप मुझमें इतनी दिलचस्पी मत लिया करिए. आप को अब तक याद है कि आप के बेटे की बर्थ डे में मैंने पिछले साल क्या पहना था, पर क्या आपको पता है कि आज आप के पतिदेव ने क्या पहना है?’

मेरे इस भोले से सवालनुमा जवाब का घातक परिणाम निकला. स्मार्ट भाभी जी ने अगले साल से अपने बेटे की बर्थ डे पार्टी में हमको बुलाना छोड़ दिया.

अभी तो और भी भाभीजियों के किस्से सुनाने बाक़ी हैं पर आज बस इतना ही.