शुक्रवार, 28 जनवरी 2022

एक प्राचीन कथा का नवीनीकरण

 सबेरा कैसे होगा ?

किसी गांव में एक बुढ़िया रहती थी , उसके पास एक मुर्गा था.

जब मुर्गा बांग देता तो सभी लोग समझ लेते कि सबेरा हो गया और जग कर अपने काम में लग जाते.

एक बार डोकरी गाँव वालों की किसी बात से नाराज़ हो गयी.

वह गांव के लोगों से बोली-

'तुम लोग मुझे अगर अपनी बातों से नाराज करते रहोगे हो तो मैं अपना मुर्गा लेकर दूसरे गांव में चली जाऊंगी.

मुर्गा न होगा तो बांग कौन देगा?

मुर्गा बांग न देगा तो सूरज नहीं उगेगा और सूरज न उगेगा तो सबेरा भी कैसे होगा?'

गाँव वाले बुढ़िया की धमकी से डर गए और फिर उन्होंने कभी कोई ऐसी बात नहीं की कि बुढ़िया उन से नाराज़ हो कर बांग देकर सूरज को जगाने वाले अपने मुर्गों को ले कर उनके गाँव से बाहर चली जाए.

गाँव वाले ख़ुश कि सूरज मुर्गों की बांग सुन कर समय से उठ रहा है और सवेरा कर रहा है. इधर बुढ़िया ख़ुश कि उसकी बंदर घुड़की काम कर गयी.  

मेरे द्वारा रचित एक नवीन कथा

'सवेरा तो होकर ही रहेगा' –

किसी गांव में एक बुढ़िया रहती थी, उसके पास दर्जनों मुर्गे थे और उन मुर्गों में बड़ा भाई-चारा था.

ये सभी मुर्गे जब एक साथ बांग देते थे तो सभी लोग समझ लेते कि सबेरा हो गया और जग कर अपने काम में लग जाते.

एक बार डोकरी गाँव वालों की किसी बात से से नाराज़ हो गयी और गांव के लोगों से बोली

'तुम लोग अगर मुझे अपनी बातों से इसी तरह नाराज करोगे तो मैं अपने सारे मुर्गे लेकर दूसरे गांव में चली जाऊंगी.

मुर्गे नहीं होंगे तो बांग कौन देगा?

मुर्गे बांग न देंगे तो सूरज नहीं उगेगा और सूरज न उगेगा तो सबेरा भी कैसे होगा?'

लेकिन गाँव वालों ने बुढ़िया की धमकी पर कोई ध्यान नहीं दिया.

फिर एक दिन गाँव वालों से नाराज़ हो कर बुढ़िया अपनी बांग से सूरज को जगाने वाले अपने मुर्गों के साथ दूसरे गाँव में शिफ्ट हो गयी.

दूसरे गाँव वालों ने अपनी बांग से सूरज को जगाने वाले मुर्गों का और उनकी मालकिन बुढ़िया का भव्य स्वागत किया.   

दूसरे गाँव में जाते ही बुढ़िया के सारे के सारे मुर्गे, अपनी खातिरदारी देखकर फूल कर कुप्पा हो गए, उनमें घमंड आ गया और घमंड के मारे वो एक दूसरे के प्रतिद्वंदी बनकर राजनीति में प्रविष्ट हो गए.

अब हर-एक मुर्गा अलग-अलग समय पर बांग देने लगा.

गाँव वाले परेशान ! किस मुर्गे की बांग सुनकर वो यह मानें कि सूरज उग आया है और किस की बांग सुनकर वो यह समझें कि अभी सूरज नहीं उगा है.

आखिरकार गाँव वालों ने आपस में चोंच लड़ाने वाले उन मुर्गों को अपने गाँव से बाहर निकाल दिया.

आश्चर्य कि अब सूरज उगने पर किसी तरह का कोई कनफ्यूज़न नहीं रहा.

अब सवाल उठता है कि हम इस दूसरे गाँव के निवासियों जैसा क़दम क्यों नहीं उठाते और अलग-अलग वक़्त पर बाग़ देने वाले सियासती मुर्गों को अपनी ज़िन्दगी से निकाल क्यों नहीं फेंकते?

यकीन कीजिए, एक बार अलग-अलग वक़्त पर बांग देने वाले इन सियासती मुर्गों को हमने अगर अपनी ज़िन्दगी से निकाल फेंका तो फिर हमारे भाग्य का सूरज अपने समय पर ज़रूर-ज़रूर उगता रहेगा.

मंगलवार, 25 जनवरी 2022

मक्कारधर पद्धतिः की सीख

 अकृत्वा परसंतापं अगत्वा खलमन्दिरं।

अनुल्लंघ्य सतां वर्त्म यत्स्वल्पमपि तद्बहु:।
शार्ङ्गधर पद्धतिः
(दूसरे को दुख दिये बिना,
दुष्ट के आसरे में जाये बिना,
श्रेष्ठों के मार्ग को त्यागे बिना
जो थोडा ही मिले वह बहुत है।)
हमारे नेताओं के लिए श्री मक्कारधर की सीख -
दूसरे को सुख दिये बिना,
दुष्ट के आसरे को छोड़े बिना,
जालसाज़ों के मार्ग को त्यागे बिना,
अगर स्वर्ग-लोक का राज्य भी मिल जाए तो उस से भी अधिक हड़पने का प्रयास
जारी रखना चाहिए.
मक्कारधर पद्धतिः
संस्कृत के आचार्य मेरे मित्र प्रोफ़ेसर कौस्तुभानंद पांडे द्वारा मेरे अनुरोध पर
मक्कारधर पद्धतिः के उपदेश की संस्कृत श्लोक में अभिव्यक्ति -
परपीडनं कृत्वापि,यल्लभेत् महत्फलम्।
तस्येव भवति साम्राज्यम्,यतो हि घोरकलियुगम्।।,
(दूसरे को पीड़ित करके ही जो महान् फल का भोग करते हैं,उन्हीं का साम्राज्य
होता है, यही कलियुग की घोर नियति है।)

शनिवार, 22 जनवरी 2022

फ़्रांसिस बेकन के बोल

 'बुरा व्यक्ति उस समय और भी बुरा हो जाता है जब वह अच्छा होने का ढोंग रचता

है.'
आज का समाचार :
कई बगुला भक्तों ने और अपने चुनावी मैनिफ़ेस्टो में भारत को फिर से सोने की
चिड़िया तथा जगद्गुरु बनाने का दावा करने वाले नेताओं ने, स्वर्ग में विराजे
फ़्रांसिस बेकन पर मानहानि का मुक़द्दमा दायर करने का फ़ैसला लिया.
चुनाव में खड़े बगुला भगत को फ़ोटोग्राफ़र की हिदायत :
'मान्यवर, एक भगत के रूप में अपनी छवि बनाने के लिए फ़ोटो खिंचाते समय
अपनी चोंच से मछली गिरा कर उस में एक माला तो अटका लीजिए..'

गुरुवार, 20 जनवरी 2022

चुनाव से पहले अपने क्षेत्र की जनता से नेताजी के दो मासूम से सवाल

 उम्रे दराज़ मांग के लाए थे चार दिन


दो तो ठगी में कट गए बाक़ी में क्या करें?

चोरी-डाके में मुनाफ़ा नाम का ही रह गया

क्यों न हम कूदें चुनावी जंग में पर्चा भरें?

सोमवार, 17 जनवरी 2022

मत चूको चौहान

 उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है

जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है
वसीम बरेलवी
चुनाव से ठीक पहले –
अगर कुर्सी पे आंच आए बदलना दल ज़रूरी है
बहाना दलितों-पिछड़ों के हितों का भी ज़रूरी है
शरम को छोड़ जा पहुँचो चुनावी मंडियों में तुम
मिले जो भाव ऊंचा फिर तो बिक जाना ज़रूरी है

शुक्रवार, 14 जनवरी 2022

मन चंगा तो कठौती में गंगा

आज मकर संक्रांति का पावन पर्व है. आज गंगा-स्नान का अत्यंत महत्व है. पतित पावनी माँ गंगे हमारे जन्म-जन्मान्तर के पाप धोने की क्षमता रखती हैं. आज के दिन गंगा-स्नान करना हमारे लिए किसी वरदान से कम नहीं है.

तमाम टीवी चेनल्स अखबार और पंचांग आदि चिकने-चुपड़े बाबाजियों और ज्योतिषियों के माध्यम से जन-जन तक यही सन्देश पहुंचा रहे हैं.

एक तरफ़ तीज-त्यौहार तो दूसरी तरफ़ कोरोना की मार फिर तीसरी तरफ़ इलेक्शन का प्रकोप, इन सबकी वजह से या तो भक्त गंगा जी में डुबकी लगाएगा या फिर मरणोपरांत तैरेगा.

भगवान के दरबार में किसी पर्व के अवसर पर पवित्र नदियों में स्नान करने से अथवा तीर्थों की यात्रा करने से पापी से पापी व्यक्ति भी पाप-मुक्त हो सकता है.

यह व्यवस्था कितनी सुविधाजनक है ! हम बड़े से बड़ा पाप करें, कोई चिंता नहीं किन्तु जघन्य से जघन्य पाप करने से पहले ही हम अगर तीर्थ-यात्रा और गंगा-स्नान की एडवांस प्लानिंग कर लें तो फिर हमको मृत्य के उपरांत स्वर्ग जाने से कौन रोक सकता है?

कोई कबीर था जिसे इन बाबाजियों, इन ज्योतिषियों की बात पर विश्वास नहीं था और वो अपनी मृत्यु का समय नज़दीक समझ मोक्ष-दायिनी काशी को छोड़ कर मरने के लिए मगहर चला गया था. उस मगहर को, जिस के लिए यह मान्यता थी कि जो वहां मरता है, वह अगले जन्म में गधे की योनि में जन्म लेता है.

कोई रैदास था जो गंगा-स्नान के दिन काशी जी में रहते हुए भी गंगा जी में स्नान करने के लिए जाने के स्थान पर अपने किसी ग्राहक का जूता गांठने के लिए चमड़े को पानी से भरी कठौती में भिगो रहा था. उस बावरे को तो अपने कर्म से बड़ा कोई तीर्थ, कोई गंगा-स्नान दीख ही नहीं रहा था.

'मन चंगा तो कठौती में गंगा' रैदास के इस अमर कथन को हम और हमारे पुरखे करीब पांच सौ साल से दोहराते आ रहे हैं किन्तु फिर भी इस कथन के मर्म को समझने वाले बहुत कम हैं और इसके विपरीत कर्म-काण्ड के चमत्कारी प्रभाव का गुणगान करने वाले करोड़ों हैं.

आज – ‘मन चंगा वालों का नहीं, मन नंगा वालों का ज़माना है. आज का दिन भले ही पतित पावनी गंगा जी में स्नान का हो पर ज़माना तो आज पाप की गंगा में नहाने का, उसमें तैरने का और अगर हो सके तो उसमें डूबने का है. 

मुझे कर्म-कांड का विरोध करने वालों से, 'कर का मनका छांड़ के मन का, मनका फेर' कहने वालों से कोई सहानुभूति नहीं है.

हम 'कांकर, पाथर जोरि के, मस्जिद बनाय, ख़ुदा को आवाज़ क्यों न दें?

हम 'जप, माला, छापा, तिलक आदि की महत्ता क्यों अस्वीकार कर दें?

मेरा एक प्रस्ताव है –

तीर्थ यात्रा, गंगा-स्नान, हज्ज, दरवेशों की दरगाहों की ज़ियारत, रविवार को नियमित रूप से चर्च जाना, गुरु पर्व पर गरीबों को भोजन कराने से और दरबार साहब में मत्था टेकने से, जैन धर्मावलम्बियों के लिए सम्मेद शिखर की परिक्रमा करने से यदि भगवान-ख़ुदा-गॉड-वाहेगुरु के दरबार में सारे पाप धुल जाते हैं तो ऐसी ही व्यवस्था अदालतों में भी कर दी जाने चाहिए.

अगर अपनी कार से आधा दर्जन प्रदर्शनकारियों कोई कुचल कर निकल जाए फिर बाद में पकडे जाने पर वह अदालत में यह सिद्ध कर दे कि क़त्ल करने से पहले और उसके बाद भी वह नियमित रूप से तीर्थ-यात्रा, गंगा-स्नान, हज्ज करने आदि का पुण्य-सबाब अर्जित करता रहा है तो अदालत को उसे बा-इज्ज़त बरी कर देना चाहिए.

फ़्रांसीसी क्रान्ति से पहले पादरीगण आस्तिकों से पैसे लेकर उन्हें स्वर्ग जाने का परमिट निर्गत किया करते थे.

ऐसी ही कोई व्यवस्था मंदिरों, मठों, खानकाहों आदि के साथ अदालतों के साथ किसी राजनीतिक गठबंधन की भी हो जानी चाहिए.

हाँ, अपराध की गंभीरता बढ़ने के साथ तीर्थ-यात्राओं की संख्या और चढ़ावे की रक़म भी बढ़ाए जाने की व्यवस्था हो जानी चाहिए.

मैं अपने क्रांतिकारी विचारों से अन्धविश्वास की बुनियाद हिलाना तो बहुत चाहता था पर क्या करूं, मजबूरी है.

पिछले गंगा-स्नान के बाद से किये गए मेरे पापों को राइट ऑफ़ कराने के लिए आज मेरा गंगा-स्नान करना ज़रूरी है.

गंगा जी तक जाने के लिए मैंने जो टैक्सी मंगवाई थी, उसका ड्राइवर हॉर्न बजा-बजा कर परेशान कर रहा है. मुझको अब जाना ही होगा. 

सोमवार, 10 जनवरी 2022

पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा

 

अंतरात्मा की पुकारें फिर से गूंजेंगी यहाँ

 

दल-बदल लीला रचाई जाएगी फिर से यहाँ

 

भौंक भाई को छुरा दुश्मन से लग जाओ गले

 

स्वर्ण-लंका फिर विभीषण हाथ आएगी यहाँ


शनिवार, 8 जनवरी 2022

सर्दी के मौसम में चुनावी सरगर्मियां

अगर दुष्यंत कुमार नहीं समझाएं तो हर कोई यही समझेगा कि आम आदमी उनके सजदे
में झुका है.
उसने रैली में फ़क़त, मज़हब-धरम की बात की,
ये न पूछा किस के घर चूल्हा जला, अरमां नहीं !
दीन-ईमां बिक रहे हैं, अब चुनावी हाट में,

सच, वफ़ा, इंसानियत का, पर कोई सामां नहीं ! 

रविवार, 2 जनवरी 2022

जिन्हें नाज़ है हिन्द पर, वो कहाँ हैं?

 मुस्लिम महिलाओं की नीलामी कराने वाले एप – ‘बुली बाय’ के पुनर्पदार्पण पर

सुश्री सुभद्रा कुमारी चौहान की अमर रचना – 'झांसी की रानी' की तर्ज़ पर चंद
पंक्तियाँ -
कमसिन दुख्तर सिसक रही थी, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,

उनकी इज्ज़त-अस्मत बिकती, फूला-फला देह-व्यापार.

सरे आम नीलाम छापते, संस्कृति-रक्षक, लाज-उतार,

'रूप-हाट फिर सजी हुई है, मत चूको मौक़ा इस बार !’

नैतिकता की उड़ीं धज्जियाँ, पाप-ध्वजा फहरानी थी,
दुश्शासन के दुष्कर्मों की, कथा पुनः दोहरानी थी.

चिर-निद्रा में लीन सुशासन, उसकी लाश उठानी थी,

जगद्गुरु के अधोपतन की, हमने सुनी कहानी थी.