आज मकर
संक्रांति का पावन पर्व है. आज गंगा-स्नान का अत्यंत महत्व है. पतित पावनी माँ
गंगे हमारे जन्म-जन्मान्तर के पाप धोने की क्षमता रखती हैं. आज के दिन गंगा-स्नान
करना हमारे लिए किसी वरदान से कम नहीं है.
तमाम टीवी
चेनल्स अखबार और पंचांग आदि चिकने-चुपड़े बाबाजियों और ज्योतिषियों के माध्यम से
जन-जन तक यही सन्देश पहुंचा रहे हैं.
एक तरफ़
तीज-त्यौहार तो दूसरी तरफ़ कोरोना की मार फिर तीसरी तरफ़ इलेक्शन का प्रकोप, इन सबकी वजह
से या तो भक्त गंगा जी में डुबकी लगाएगा या फिर मरणोपरांत तैरेगा.
भगवान के
दरबार में किसी पर्व के अवसर पर पवित्र नदियों में स्नान करने से अथवा तीर्थों की
यात्रा करने से पापी से पापी व्यक्ति भी पाप-मुक्त हो सकता है.
यह व्यवस्था
कितनी सुविधाजनक है ! हम बड़े से बड़ा पाप करें, कोई चिंता नहीं किन्तु जघन्य से जघन्य पाप
करने से पहले ही हम अगर तीर्थ-यात्रा और गंगा-स्नान की एडवांस प्लानिंग कर लें तो
फिर हमको मृत्य के उपरांत स्वर्ग जाने से कौन रोक सकता है?
कोई कबीर था
जिसे इन बाबाजियों, इन ज्योतिषियों की बात पर विश्वास नहीं था और वो अपनी मृत्यु का समय नज़दीक समझ
मोक्ष-दायिनी काशी को छोड़ कर मरने के लिए मगहर चला गया था. उस मगहर को, जिस के लिए यह
मान्यता थी कि जो वहां मरता है, वह अगले जन्म में गधे की योनि में जन्म लेता
है.
कोई रैदास था
जो गंगा-स्नान के दिन काशी जी में रहते हुए भी गंगा जी में स्नान करने के लिए जाने
के स्थान पर अपने किसी ग्राहक का जूता गांठने के लिए चमड़े को पानी से भरी कठौती
में भिगो रहा था. उस बावरे को तो अपने कर्म से बड़ा कोई तीर्थ, कोई
गंगा-स्नान दीख ही नहीं रहा था.
'मन चंगा तो
कठौती में गंगा' रैदास के इस अमर कथन को हम और हमारे पुरखे करीब पांच सौ साल से दोहराते आ रहे
हैं किन्तु फिर भी इस कथन के मर्म को समझने वाले बहुत कम हैं और इसके विपरीत
कर्म-काण्ड के चमत्कारी प्रभाव का गुणगान करने वाले करोड़ों हैं.
आज – ‘मन चंगा’ वालों का नहीं, ‘मन नंगा’ वालों का ज़माना है. आज का दिन भले ही पतित पावनी गंगा जी में स्नान का हो पर
ज़माना तो आज पाप की गंगा में नहाने का, उसमें तैरने
का और अगर हो सके तो उसमें डूबने का है.
मुझे
कर्म-कांड का विरोध करने वालों से, 'कर का मनका छांड़ के मन का, मनका फेर' कहने वालों से
कोई सहानुभूति नहीं है.
हम 'कांकर, पाथर जोरि के, मस्जिद बनाय, ख़ुदा को आवाज़
क्यों न दें?
हम 'जप, माला, छापा, तिलक आदि की
महत्ता क्यों अस्वीकार कर दें?
मेरा एक
प्रस्ताव है –
तीर्थ यात्रा, गंगा-स्नान, हज्ज, दरवेशों की
दरगाहों की ज़ियारत, रविवार को नियमित रूप से चर्च जाना, गुरु पर्व पर गरीबों को भोजन कराने से और
दरबार साहब में मत्था टेकने से, जैन धर्मावलम्बियों के लिए सम्मेद शिखर की
परिक्रमा करने से यदि भगवान-ख़ुदा-गॉड-वाहेगुरु के दरबार में सारे पाप धुल जाते हैं
तो ऐसी ही व्यवस्था अदालतों में भी कर दी जाने चाहिए.
अगर अपनी कार
से आधा दर्जन प्रदर्शनकारियों कोई कुचल कर निकल जाए फिर बाद में पकडे जाने पर वह अदालत
में यह सिद्ध कर दे कि क़त्ल करने से पहले और उसके बाद भी वह नियमित रूप से
तीर्थ-यात्रा, गंगा-स्नान, हज्ज करने आदि का पुण्य-सबाब अर्जित करता रहा है तो अदालत को उसे बा-इज्ज़त बरी
कर देना चाहिए.
फ़्रांसीसी
क्रान्ति से पहले पादरीगण आस्तिकों से पैसे लेकर उन्हें स्वर्ग जाने का परमिट
निर्गत किया करते थे.
ऐसी ही कोई
व्यवस्था मंदिरों, मठों, खानकाहों आदि के साथ अदालतों के साथ किसी राजनीतिक गठबंधन की भी हो जानी
चाहिए.
हाँ, अपराध की
गंभीरता बढ़ने के साथ तीर्थ-यात्राओं की संख्या और चढ़ावे की रक़म भी बढ़ाए जाने की
व्यवस्था हो जानी चाहिए.
मैं अपने क्रांतिकारी विचारों से अन्धविश्वास
की बुनियाद हिलाना तो बहुत चाहता था पर क्या करूं, मजबूरी है.
पिछले गंगा-स्नान के बाद से किये गए मेरे
पापों को राइट ऑफ़ कराने के लिए आज मेरा गंगा-स्नान करना ज़रूरी है.
गंगा जी तक जाने के लिए मैंने जो टैक्सी मंगवाई थी, उसका ड्राइवर हॉर्न बजा-बजा कर परेशान कर रहा है. मुझको अब जाना ही होगा.
बहुत सटीक व्यंग, गोपेश भाई।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ज्योति. हम-तुम व्यंग्य कसने के सिवा और कुछ कर भी क्या सकते हैं? ये दुष्ट तो कभी सुधरने वाले हैं नहीं.
हटाएंचंगा गंगा पंगा कितने सुरीले शब्द हैं एक कम है बस :)
जवाब देंहटाएंमित्र, सुरीले शब्द - 'नंगा' का प्रयोग किया जा चुका है. अब इस तुक वाला शब्द तो -'दंगा' ही बचा है जो चुनाव के दिनों में तो हमको-तुमको रोज़ ही सुनाई दे रहा है.
हटाएंबहुत ही सटीक और सराहनीय आलेख 👌👌🙏🙏
जवाब देंहटाएंमेरे आलेख की प्रशंसा के लिए धन्यवाद जिज्ञासा !
हटाएंसटीक आलेख
जवाब देंहटाएंआलेख की प्रशंसा के लिए धन्यवाद ओंकार जी.
हटाएंआस्था पर कोई प्रहार नहीं , लेकिन मैं तो मानती हूँ मन चंगा तो कठौती में गंगा ।
जवाब देंहटाएंतीक्ष्ण व्यंग्य ।
मेरे विचारों से आंशिक रूप से सहमत होने के लिए धन्यवाद संगीत स्वरुप (गीत) जी.
हटाएंएक दिन ऐसा भी आ सकता है जब आप आस्था से सम्बंधित हर बात को बुद्धि और विवेक की कसौटी पर परखने के बाद ही स्वीकार अथवा अस्वीकार करें.
मुझे उस दिन का इंतज़ार रहेगा.
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंहम राजगीर के गरम कुण्ड के दर्शन को गए... मान्यता है कि उसमें नहाने से रोग मुक्त हो सकते हैं... भक्तों की भीड़ थी और कुण्ड की जो स्थिति दिखलाई दे रही थी उसमें नहाना तो दूर हाथ-पैर धोने की भी कल्पना हम नहीं कर सके और भागकर बाहर आ गए... अब जितना पाप चढ़ा हो अगले जन्म में ही उतार पाएंगे
जवाब देंहटाएंआपका लेखन अच्छा लगा
कभी कभी यों लगता है आपने मेरे ही मन के भाव लिख दिए हो औरत हूँ अपनी कठोरता दर्शाना नहीं चाहती। बड़े भोले हैं मेरे देश के लोग,पीछे पीछे हो लेते है विवेक बुद्धि को तकलीफ नहीं देना चाहते फिर चाहे मौत ही क्यों न मिले।
जवाब देंहटाएंगज़ब लिखते हो सर।
सादर प्रणाम
तारीफ़ के लिए शुक्रिया अनीता.
जवाब देंहटाएंतुम एक बहादुर सैनिक की वीर पत्नी हो.
तुम किसी भी गलत बात का, किसी अन्याय का, मुखर विरोध करने से क्यों पीछे हटोगी?
हमको-तुमको-सबको, अंधविश्वास का, पाखंडी कर्मकांड का और सड़ी-गली आस्थाओं-मान्यताओं का खुल कर विरोध करना होगा.