रविवार, 23 दिसंबर 2018

खोल न लब, आज़ाद नहीं तू


फ़ैज़ की नज़्म बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे, इमरजेंसी का अनुशासन पर्व, जॉर्ज ओर्वेल के उपन्यास नाईन्टीन एटी फ़ोर का अधिनायक – बिग ब्रदर, और साहिर का नग्मा हमने तो जब कलियाँ मांगीं, काटों का हार मिला, ये सब एक साथ याद आ गए तो कुछ पंक्तियाँ मेरे दिल में उतरीं, जिन्हें अब मैं आपके साथ साझा कर रहा हूँ - 
  
खोल न लब, आज़ाद नहीं तू -

तुझे लीज़ पर मिली हुई थी जो आज़ादी,
सुन गुलाम, उसकी मियाद अब, ख़त्म हो गयी,
मुंह खोला तो, गोली खाना, आह भरी, फटकार मिलेगी, 
यदि अनुशासन पर्व मानकर, नाचा तो, सौगात मिलेगी.
कलम तोड़ दे, घर में घुसकर, बड़े ब्रदर का, रोज़ जाप कर,
आँख मूँद कर, कान बंद कर, मुंह पर पट्टी बाँध, मौज कर.
जहाँ जन्म लेने को तरसें, कोटि देवता, उस भारत में, सुख से जीना,
उफ़ मत करना, लब सी लेना, कोशिश कर, आंसू पी लेना.

मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

अरे इन कोउन राह न पाई

 कबीरदास ने आपस में लड़ने वाले हिन्दुओं और मुसलमानों के लिए कहा है -
‘अरे इन दोउन राह न पाई’ 
लेकिन धर्म के नाम पर लड़ने का पागलपन हमारे देश के हर समुदाय में किसी न किसी रूप में पाया जाता है और इसलिए कबीरदास की बानी में ‘दोउन’ की जगह मैंने ‘कोउन’ कर दिया है ताकि किसी भी समुदाय को यह शिक़ायत न हो कि धर्म के नाम पर लड़ने वाले सूरमाओं में, मासूमों का खून बहाने वाले धर्मात्माओं में, किसी का घर जलाकर उसके पास बैठकर हाथ तापने वाले देवी-देवताओं में, हमारा नाम क्यों नहीं शामिल किया गया. 
ठीक 34 साल, 1 महीने और 15-16 दिन बाद, 1984 के दंगों के महानायक सज्जन कुमार को उनके कारनामों के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा आजीवन कारावास दिया गया है. मुझे अब इस उक्ति – ‘भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं है.’ पर विश्वास नहीं रह गया है. इंसाफ़ में इतनी देर, अगर अंधेर नहीं है तो फिर अंधेर और क्या है? और अभी तो यह मामला सुप्रीमकोर्ट जाएगा, जहाँ फ़ैसला आने से पहले ही सज्जन कुमार संभवतः इस दुनिया से अपना टिकट कटा चुके होंगे.
भीष्म साहनी ने भारत विभाजन से पहले 1946 में रावलपिंडी में हुए हिन्दू-मुस्लिम दंगों की पृष्ठभूमि में अपना अमर उपन्यास ‘तमस’ लिखा था. किसको पता था कि ‘तमस’ की कहानी को 1984 में सिख हत्याकांड के रूप में फिर से दोहराया जाएगा. 1984 के इस दंगे की यह खासियत है कि इसमें सिर्फ़ एक समुदाय के हज़ारों लोग मारे गए, इसलिए इसको दंगा कहना अनुचित होगा. यह तो नृशंस हत्याकांड था जो कि हमको नादिरशाह के हुक्म से दिल्ली के क़त्लेआम की याद दिलाता है. 
1984 के इस हत्याकांड की पृष्ठभूमि में पंजाब में मुख्यतः खेती से जुड़े हुए सिक्खों तथा मुख्यतः व्यापार से जुड़े हिन्दुओं के बीच प्रभुत्व स्थापित करने की लड़ाई थी. नेहरु-गाँधी परिवार की सिख-विरोधी नीतियों का पुरज़ोर विरोध करने वाले अकाली दल ने हिन्दू-सिख वैमनस्य को और बढ़ा दिया था. अकाली दल के प्रभाव को कम करने के लिए कांग्रेस द्वारा भिंडरवाला का जिन्न खड़ा किया गया लेकिन यह पासा उल्टा पड़ गया. अब ‘खालिस्तान आन्दोलन’ ज़ोर पकड़ने लगा और जगह-जगह पर निरीह हिन्दू मारे जाने लगे. इस समय बहुत कम सिख ऐसे होंगे जिन्होंने ऐसे नृशंस हत्याकांडों की निंदा की होगी. अपने धार्मिक केन्द्रों को आतंकवादी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल किए जाने पर भी सिख समुदाय आम तौर पर चुप रहा. 
जून, 1984 में ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ ने इंदिरा गाँधी सरकार द्वारा इमरजेंसी लगाए जाने की क्रूरता को भी फीका कर दिया. और फिर 31, अक्टूबर 1984 को इंदिरा गाँधी के दो सिख अंग रक्षकों ने उनको गोलियों से भून दिया. 
फिर क्या हुआ? क्या यह किसी को बताने की ज़रुरत है? 
34 साल से ऊपर हो गए हैं इतिहास के इस बेहद शर्मनाक अध्याय को, लेकिन उस से भी शर्मनाक है इस काण्ड से जुड़े हुए हत्यारों को अदालत द्वारा सज़ा न मिलना. हमारे राजनीतिक दलों ने इस त्रासदी को अपनी-अपनी सुविधा से भुनाया है. एक दूसरे पर आरोपों की झड़ी लगाने वाले ये राजनीतिक दल आज भी किसी न किसी रूप में सामुदायिक सद्भाव मिटाने पर तुले हुए हैं. 
हिन्दू-सिख दंगा फिर से नहीं भी होगा तो क्या हुआ? वो हिन्दू-मुस्लिम दंगा तो करा ही सकते हैं. 
अब इस फ़ैसले को आधार बनाकर कांग्रेस के वोट काटने की अपील की जाएगी. लेकिन ऐसी अपील करने वाला दल ख़ुद साम्प्रदायिकता की आग भड़काता रहता है. रोना तो यह है कि सभी कुओं में भांग पड़ी है. 
हिन्दू-सिख दंगा फिर से नहीं भी होगा तो क्या हुआ? वो हिन्दू-मुस्लिम दंगा तो करा ही सकते हैं. गोधरा और मुज़फ्फ़रनगर के दंगों को क्या भुलाया जा सकता है? 
अदम गोंडवी का सवाल है - 
'गलतियाँ बाबर ने कीं, जुम्मन का घर फिर क्यूँ जले?' 
आज ये सवाल सिर्फ़ अदम गोंडवी का नहीं, बल्कि इन दंगाइयों से हम सब जागरूक लोगों का है. .

धर्म-मज़हब-पंथ-रिलीजन के नाम पर सामुदायिक कटुता फैलाने वाले हर शख्स को, हर राजनीतिक नेता को, हर साधु को, हर मौलवी को, हर पादरी को, हर ग्रंथी को, हमको नकारना होगा. हमको अपना धार्मिक शोषण करने वालों को ऐसा सबक सिखाना होगा कि आगे वो हमको आपस में बांटने की, हमको गुमराह करने की, हिम्मत न करें. धर्म-मज़हब के नाम पर वोट मांगने वालों को हमको एक सिरे से खारिज करना होगा. पर सवाल उठता है कि इस खतरनाक बिल्ली के गले में कौन चूहा घंटी बांधेगा? 
यह बहादुर चूहा मैं भी हो सकता हूँ, आप भी हो सकते हैं, या कोई और भी हो सकता है. लेकिन अब वक़्त आ गया है कि हम में से बहुतों को इस बहादुर चूहे की भूमिका निभानी होगी. 
नीरज कहते हैं -
‘अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए,
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए.’ 
लेकिन इस शुभ कार्य के लिए किसी नीरज को या किसी कबीर को बुलाने की कोई ज़रुरत नहीं है. इसके लिए हमको खुद आगे आना होगा और जिस दिन हमने इस काम को करने का बीड़ा उठा लिया तो यकीन मानिए, ये साम्प्रदायिकता का ज़हर उगलने वाले किस्म-किस्म के सांप, अपने-अपने बिलों में घुस जाएंगे और ता-क़यामत हमारे सामने आने की हिम्मत नहीं करेंगे.

बुधवार, 12 दिसंबर 2018

एक पैदाइशी आलोचक का अपने मित्रों से एक निवेदन



कल दिन भर हम लोग टीवी न्यूज़ देखते रहे. बीजेपी के तीन किले ध्वस्त हो गए. यह देखकर बड़ा संतोष मिला. घमंडी का सर नीचा होना ही चाहिए और हिंदुत्व के नाम पर देश में सांप्रदायिक वैमनस्य को बढ़ाने के लिए सतत प्रयत्नशील राजनीतिक दल के पूर्ण अथवा आंशिक पराभव का जश्न मनाया ही जाना चाहिए.
लेकिन लोकसभा चुनाव के इस सेमी फ़ाइनल में कांग्रेस की सफलता से उसके समर्थकों के उत्साहितिरेक को और राहुल गाँधी को देश का उद्धारक समझने की चाटुकारिता को, किसी क़ीमत पर भी अपना समर्थन नहीं दिया जाना चाहिए.
अभी दिल्ली बहुत दूर है. बीजेपी को केंद्र में सत्ता से हटाना इतना आसान नहीं है और फिर अगर बीजेपी सेमी फ़ाइनल में पटखनी खाने के बाद संभलकर कुछ ठीक काम करती है तो उसके फिर से सत्ता में आने की संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता. (वैसे इसकी सम्भावना बहुत कम है क्योंकि हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण हेतु आगामी चुनाव तक सरकार की नीतियों को कट्टर हिंदुत्ववादी और ढोंगी-प्रपंची साधू-महात्मा संचालित करने वाले हैं.)     
सत्ता में आते ही किसी भी राजनीतिक दल के और उसके अंधभक्तों के तेवर बदल जाते हैं. फिर भक्तों के मध्य चाटुकारिता की प्रतियोगिता प्रारंभ हो जाती है.
चाटुकारों के मध्य ऐसी प्रतियोगिताएँ होना और ऐसे संवाद होना आम बात है. इनकी कुछ बानगी देखिए -   
1. तूने सिर्फ़ दुम हिलाई जब कि मैंने दुम हिलाने के साथ प्रभु के तलुए भी चाटे.
2. मैं नित्य प्रभु-चालीसा का पाठ करता हूँ.
3. मैंने देश के इतिहास में अपने प्रभु को महावीर, बुद्ध और महात्मा गाँधी से भी ऊंचे आसन पर विराजमान किया है.
4. मेरे प्रभु के महा-प्रयाण के बाद राज-सत्ता, उनके वंश के अधिकार में ही रहनी चाहिए.
5. प्रभु के आँख मूंदते ही उनकी स्मृति में दो-चार सरकारी भवनों में उनका स्मारक तथा उनकी एक भव्य मूर्ति बनाए जाने के लिए सरकार के 10-20 अरब रूपये खर्च करने में किसी प्रकार का कोई संकोच नहीं करना चाहिए.
6. प्रभु के निंदक और आलोचक को या तो देश-निकाला दे दिया जाना चाहिए या फिर उसे जेल में ठूंस दिया जाना चाहिए.
7. ज़रुरत पड़ने पर प्रभु के कट्टर विरोधी को किसी फ़ेक एनकाउंटर में दोज़ख पहुँचाने में भी कोई तक़ल्लुफ़ नहीं करना चाहिए.
8. मेरे प्रभु सपने में भी ग़लत नहीं हो सकते. उनका प्रत्येक कार्य दोष-रहित होता है, उनकी वाणी में माँ शारदा निवास करती हैं और उनके पाँवों तले जन्नत होती है.  
ऐसे अमर वाक्य लाखों हो सकते हैं किन्तु उक्त आठ उदाहरणों से ही मेरी बात शायद सब तक पहुँच सकती है.
मुझे इस अंधभक्ति से, इस चाटुकारिता से, इस तलुए चाटने की होड़ से, और अपने आक़ा के आलोचकों पर भूखे भेड़िये जैसा टूट पड़ने पर, सख्त ऐतराज़ है. आजकल फ़ेसबुक पर या अपने ब्लॉग पर अपने निर्भीक तथा बेबाक विचार व्यक्त करते ही मुझे चाटुकारों की इस जमात के कोप का भाजन होना पड़ता है.
मैं अपनी आदत से मजबूर हूँ. नेहरु जी का प्रशंसक होते हुए भी मैं 1962 में उनकी असावधानीवश चीन से भारत की क़रारी शिक़स्त को मैं भूल नहीं पाता.
इंदिरा गाँधी द्वारा इमरजेंसी लगाया जाना और संजय गाँधी को देश का सर्वेसर्वा बनाने का उनका कृत्य, दोनों ही, मेरी दृष्टि में अक्षम्य थे.
राजीव गाँधी की श्री लंका के आतंरिक मामलों में टांग अड़ाना और फिर तमिलों की आकांक्षाओं को कुचलने में श्री लंका के राष्ट्रपति के हाथों उनका कठपुतली बनना मुझे आत्मघाती लगा था.
पी. वी. नरसिंह राव ने आर्थिक दृष्टि से भारत को मज़बूत बनाया था लेकिन अयोध्या में विवादित ढाँचे के विध्वंस को रोक न पाना उनकी सबसे बड़ी असफलता थी.  
अटल जी पाकिस्तान से दोस्ती करने के अभियान पर निकले थे और कारगिल में हमारी सेना सोती रही. पाकिस्तान द्वारा हमारी चौकियों पर अधिकार किए जाने की खबर हमको एक गरड़िए से मिली. और अटल जी सैकड़ों जवानों की शहादत के बाद उन चौकियों पर हमारे द्वारा फिर से अधिकार किए जाने पर 'विजय दिवस’ मना रहे थे. मैं इसको अटल जी के शासनकाल की सबसे बड़ी असफलता मानता हूँ.
मनमोहन सिंह को सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी के इशारों पर नाचना भी मुझे स्वीकार्य नहीं था.
मेरी दृष्टि में मोदी के नोटबंदी के फ़ैसले ने देश का कितना नुकसान किया, इसका आकलन करने के लिए अर्थ-शास्त्रियों को महाभारत से भी बड़ा ग्रन्थ लिखना होगा.
विदेश-यात्राओं में राजीव गाँधी का रिकॉर्ड तोड़कर और वहां भाड़े के प्रशसंकों से मोदी-मोदी के नारे लगवा कर देश को क्या हासिल हुआ, यह आज भी मेरी समझ से बाहर है.
और मैं मोदी-युग में टर्राने वाले देशभक्त, रामभक्त, गौभक्त, कुँए के मेढकों का उदय भी देश के लिए एक भयानक त्रासदी मानता हूँ.
समाजवादी पार्टी, आर. जे. डी.., ब. स. पा.,तृणमूल कांग्रेस, साम्यवादी पार्टियाँ, आप’ और दक्षिण भारत के विभिन्न राजनीतिक दल भी देश का किसी प्रकार से भला नहीं कर रहे हैं.
मैं अराजकतावादी नहीं हूँ और न ही लोकतंत्र की तुलना में तानाशाही का हिमायती हूँ लेकिन मैं यह मानता हूँ कि लोकतंत्र में शासक की नकेल कसने का अधिकार जनता का होना चाहिए और नीति निर्धारण में शासक की सनक से अधिक महत्व, उस विषय के विशेषज्ञों की राय को दिया जाना चाहिए.           
अपने मित्रों की पोस्ट पर भी जब मैं कोई टिप्पणी करता हूँ तो किसी न किसी राजनीतिक दल के या किसी धर्म-विशेष के दो-चार अंधभक्त मेरे खून के प्यासे हो जाते हैं.
मुझे आलोचना स्वीकार्य है. असहमति का मैं स्वागत करता हूँ, किन्तु वैचारिक मतभेद होने पर अनावश्यक रूप से आक्रामक भाषा और व्यक्तिगत आक्षेप को मैं सहन नहीं कर सकता.
मेरा अपने सभी मित्रों से करबद्ध निवेदन है कि वो अपनी पोस्ट पर अभद्र तथा आक्रामक टिप्पणी करने वालों को या तो नियंत्रित करें या फिर उनकी आपत्तिजनक टिप्पणी को यथा-शीघ्र डिलीट कर दें. बार-बार शालीनता की सीमा तोड़ने वाले को तो मित्र-मंडली से निष्कासित किया जाना ही श्रेयस्कर है.  
यदि मेरे मित्र मेरे इस अनुरोध के बावजूद अपने लठैत तथा गाली-गलौज करने वाले अभद्र-अशिष्ट मित्रों से मधुर सम्बन्ध बनाए रखते हैं तो उन्हें मुझसे सम्बन्ध तोड़ने होंगे अन्यथा मैं स्वयं उन से हमेशा-हमेशा के लिए नाता तोड़ लूँगा.    

शनिवार, 8 दिसंबर 2018

गुरुवे नमः


गुरुवे नमः -


यह किस्सा मुझे मेरे मौसाजी, स्वर्गीय प्रोफ़ेसर बंगालीमल टोंक, जो कि आगरा कॉलेज में इतिहास के प्रोफ़ेसर थे, उन्होंने सुनाया था.

नेहरु जी की मृत्यु के बाद प्रधानमंत्री आवास, 'तीन मूर्ति' को नेहरु पुस्तकालय और संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया था (सरकारी भवन का दुरूपयोग).
सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में यह भारत का सर्वश्रेष्ठ पुस्तकालय कहा जा सकता है.

प्रोफ़ेसर टोंक एक रिसर्च-प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे और इस सिलसिले में उन्हें शोध-सामग्री एकत्र करने के लिए तीन मूर्ति पुस्तकालय के चक्कर लगाने पड़ते थे.

प्रोफ़ेसर टोंक को पुस्तकालय में आते-जाते और रीडिंग रूम में अक्सर एक सज्जन दिखाई देते थे – गोरा रंग, चेहरे पर सफ़ेद, छोटी सी दाढ़ी,  सर पर एक विशिष्ट प्रकार की टोपी, शेरवानी, चूड़ीदार पजामा पहने और आँखों पर काला चश्मा लगाए वह सज्जन, उन्हें एक देवदूत से दिखाई देते थे. प्रोफ़ेसर टोंक अपने काम में इतने व्यस्त रहते थे कि उन सज्जन से कई बार आमना-सामना होने के बाद भी उनका आपस में परिचय नहीं हुआ था.

एक दिन अपना कार्य समाप्त करके प्रोफ़ेसर टोंक चाय पीने के लिए कैंटीन जा रहे थे कि वह सज्जन उन्हें रास्ते में मिल गए. बिना आपसी परिचय के दोनों में बातचीत शुरू हो गयी. प्रोफ़ेसर टोंक को बात करते समय लग रहा था कि इन सज्जन को मैंने तीन मूर्ति लाइब्रेरी के अलावा भी कहीं देखा है, लेकिन कहाँ, यह उन्हें याद नहीं आ रहा था. खैर, उन सज्जन ने प्रोफ़ेसर टोंक से उनका परिचय प्राप्त किया. प्रोफ़ेसर टोंक ने संकोच करते हुए उन सज्जन से उनका परिचय प्राप्त नहीं किया.
वह सज्जन मुस्कुरा कर प्रोफ़ेसर टोंक की इस गफ़लत का कुछ देर तक मज़ा लेते रहे फिर उन्होंने कहा -
'मैं अपना तार्रुफ़ भी आपको करा दूं. मुझे ज़ाकिर हुसेन कहते हैं.'


यह सुनकर प्रोफ़ेसर टोंक को अपने पैरों के नीचे की ज़मीन सरकती हुई दिखाई दी. उन्होंने हाथ जोड़कर ज़ाकिर हुसेन साहब से कहा -
'मेरी जहालत के लिए मुझे माफ़ कीजिएगा डॉक्टर साहब, मैं आपको पहचान नहीं पाया था. मुझे लग रहा था कि मैंने आपको पहले भी कहीं देखा है पर मैं उसे लोकेट नहीं कर पा रहा था.'

उप-राष्ट्रपति जी ने प्यार से उनके कंधे पर हाथ रख कर कहा -
मैं भी तो आपके जैसे स्कॉलर को आज से पहले नहीं जानता था, लेकिन मैं तो इसके लिए आपसे माफ़ी नहीं मांग रहा हूँ.'
अपने उप-राष्ट्रपति काल के दौरान डॉक्टर ज़ाकिर हुसेन तीन मूर्ति पुस्तकालय में आकर अक्सर ऐसे ही प्रोफ़ेसरान से अपनी तरफ़ से दोस्ती करते थे और अपनी तरफ़ से उनके शोध-कार्य के लिए कुछ टिप्स भी दे दिया करते थे.
नेहरु पुस्तकालय में बनाए गए अपने नए दोस्तों को वो एक बार अपने बंगले पर जलपान के लिए ज़रूर बुलाते थे. प्रोफ़ेसर टोंक को भी यह सु-अवसर प्राप्त हुआ था.
राष्ट्रपति के रूप में भी डॉक्टर ज़ाकिर हुसेन अपनी व्यस्तता के बावजूद विद्वानों से हमेशा बहुत प्यार और ख़ुलूस से मिलते रहे.

इस प्रसंग के बाद मुझे तीन मूर्ति पुस्तकालय का 1987 का, अपना खुद का, एक वाक़या याद आ रहा है.
उन दिनों मैं भी शोध-कार्य के सिलसिले में अक्सर तीन मूर्ति पुस्तकालय जाया करता था.
एक बार मैं अपने जैसे ही शोध-कार्य हेतु तीन मूर्ति पुस्तकालय की खाक छानने वाले तीन मित्रों के साथ वहां से बाहर निकल ही रहा था कि ज़ोर-ज़ोर से साइरन बजने की आवाज़ आई. हम चारों जब तक कुछ समझें, एक स्टेनगन-धारी जवान दौड़ता हुआ और चिल्लाता हुआ हमारी तरफ़ आया और उसने सड़क के किनारे पीठ करके हम सबको अपने-अपने हाथ पीछे बाँध कर खड़े होने का हुक्म दे दिया.
कुछ देर बाद प्रधानमंत्री राजीव गांधी का, पचास गाड़ियों का काफ़िला गुज़रा और तब कहीं जाकर हम सबको इस अपमानजनक सज़ा से छुटकारा मिला.

इस अपमानजनक और कष्टदायक स्थिति में खड़ा-खड़ा मैं, न जाने क्यों, मन ही मन तस्मै श्री गुरुवे नमः का जाप कर रहा था और इसके साथ-साथ यह भी सोच रहा था कि काश हम चारों गुरुजन भी डॉक्टर ज़ाकिर हुसेन जैसी किसी महान विभूति के समकालीन होते तो मुदर्रिसी करते हुए हमको भी ज़िन्दगी में किसी महान हस्ती के साथ जलपान करने का मौक़ा मिलता, थोड़ी-बहुत इज्ज़त भी मिलती और बिना कुसूर हाथ बाँध कर, सबकी तरफ़ पीठ करके, यूँ अपराधियों की तरह, दंड भी नहीं भुगतना पड़ता.