शनिवार, 24 दिसंबर 2022

चौधरी हांकू लाल

1990 के दशक के मध्य में लिखी गयी मेरी इस कहानी को अल्मोड़ा के आर्मी स्कूल में पढ़ रही मेरी 10-12 साल की बेटी गीतिका अपनी ज़ुबान में और अपने शरारत भरे अंदाज़ में सुनाती है.
इस कहानी में बच्चों की मस्तियों और उनकी शरारतों से ज़्यादा उनके आसपास के बड़े-बूढ़ों की विचित्र और लोटपोट करने वाले हरक़तें हैं.
हास्य-विनोद से भरपूर इस कहानी में बच्चों के लिए किसी प्रकार का उपदेश तलाशने की कोशिश करने वाले पाठकों के हाथों में घोर निराशा ही लगेगी लेकिन इस बात की गारंटी है कि इसे पढ़ कर खुद उनका मन बच्चों की जैसी शरारतें-मस्तियाँ करने के लिए मचलने लगेगा. )
चौधरी हाँकूलाल -
मेरठ शहर सन् 1857 के विद्रोह के लिए प्रसिद्ध है. वहाँ की कैंची, गजक और तिलबुग्गा भी मशहूर हैं पर हमारे अल्मोड़ा में अगर मेरठ की कोई सौगात लोकप्रिय है तो वो है वहाँ से चालीस साल पहले आकर यहीं पर बस गए, हमारे चौधरी चाचा यानी कि चौधरी हाँकूलाल.
चौधरी चाचा का असली नाम अल्मोड़ा में शायद ही कोई जानता हो. बच्चों के लिए वो हाँकू चाचा हैं और बड़ों के लिए चौधरी हाँकूलाल. अल्मोड़ा के रहने वाली पिछली दो पीढि़याँ भी उन्हें इन्हीं नामों से जानती हैं.
हाँकू चाचा करीब पिचहत्तर साल के होंगे पर अभी भी खूब हट्टे-कट्टे हैं. हमारे जैसे तो दो बच्चों को वो अपने कन्धों पर बिठा कर एक-दो किलोमीटर तक दौड़ सकते हैं.
बकौल हांकू चाचा उन्होंने कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और अटक से लेकर कटक तक के तमाम शहरों में घूम-घूम कर ऐसे बेशुमार लोगों को मुफ़्त में तालीम दी है जिन्होंने कि आगे चल कर बहुत नाम कमाया है.
हम लोग जिन्हें ट्रेजेडी किंग दिलीपकुमार के नाम से जानते हैं उन्हें हांकू चाचा प्यार से यूसुफ़ भाई जान कहते हैं.
हांकू चाचा बताते हैं कि आज अपनी नफ़ीस उर्दू के लिए मशहूर दिलीपकुमार पहले उर्दू का – ‘अलिफ़, बे, पे, ते’ भी नहीं जानते थे और पंजाबी-पश्तो की खिचड़ी ज़ुबान में बोला करते थे.
हांकू चाचा ने उन्हें ख़ालिस उर्दू की ऐसी तालीम दी कि आज न जाने कितने लोग उनकी ख़ूबसूरत ज़ुबान के दीवाने हैं.
यह बात दूसरी है कि हांकू चाचा ख़ुद हमेशा लट्ठमार मेरठी खड़ी बोली की ज़ुबान का इस्तेमाल करते हैं.
हाँकू चाचा कहते हैं कि अपनी जवानी के दिनों में वो रुस्तमे ज़मां दारासिंह पहलवान के उस्ताद रहे हैं.
पहले दारा सिंह बिल्कुल सींकिया पहलवान थे पर हांकू चाचा ने उन्हें दूध के साथ उबले चने खिलाए और उनके कंधे पर बैठ कर उन से रोज़ाना सौ-सौ दंड-बैठकें लगवाईं.
हाँकू चाचा की मेहनत और उनकी कोचिंग का नतीजा अब दुनिया के सामने है.
हाँकू चाचा का यह भी दावा है कि उन्होंने भारतीय सेना में रह कर बड़े से बड़े जनरल्स को निशानेबाज़ी की तालीम दी है.
1948 में उन्होंने कश्मीर में क़बीलाई हमलावरों से लड़ते हुए उनमें से सैकड़ों को मौत के घाट उतार दिया था.
चाचा की बेमिसाल बहादुरी के लिए भारत सरकार उनको महावीर चक्र देने वाली थी पर उन्होंने उसे लेने से इंकार कर दिया.
भला जो सूरमा परमवीर चक्र डिज़र्व करता हो वो उस से छोटे सम्मान को कैसे एक्सैप्ट कर सकता था?
हाँकू चाचा के पास बहुत सी ऐसी फ़ोटो हैं जिनमें वो अपनी छाती पर तमाम तमगे लगा कर भारतीय सेना के बड़े-बड़े जनरल्स के कन्धे पर हाथ रख कर मुस्कुरा रहे हैं.
कुछ दुष्ट लोग हाँकू चाचा की पीठ पीछे इन फ़ोटोज़ को ट्रिक फ़ोटोग्राफ़ी का कमाल बताते हैं पर उनमें से किसी की भी ये हिम्मत नहीं है कि अपनी दुनाली बन्दूक ताने चाचा के सामने उनकी इस ट्रिक फ़ोटोग्राफ़ी का ज़िक्र भी कर सके.
मशहूर गायिका आशा भोंसले को कौन नहीं जानता?
हाँकू चाचा हमको बताते हैं कि आशाजी अपने बचपन से ही उन्हें अपना राखी भाई मानती हैं.
चाचा को वो दिन अभी तक याद हैं जब लता मंगेशकर ने अपनी मीठी आवाज़ से पूरे हिन्दुस्तान में धूम मचा रखी थी पर उनकी छोटी बहन आशा अपनी मोटी-बेसुरी आवाज़ छिपाने के लिए बाहर वालों के सामने अपना मुँह ही नहीं खोलती थी.
हाँकू चाचा ने रक्षा बंधन के मौके पर अपनी इस बेसुरी बहन आशा को स्वर्गीय कुन्दनलाल सहगल की पालतू कोयल भेंट की थी.
इसी कोयल को उस्ताद मान कर उनकी आशा बहन ने बरसों रियाज़ किया और फिर दुनिया को दिखा दिया कि वो लताजी से किसी बात में कम नहीं है.
हाँकू चाचा ने एक बड़े राज़ की बात हमको बताई है.
असल में आशाजी की ही तरह मैलोडी क्वीन लता मंगेशकर की भी ओरिजिनल आवाज़ ख़ास मीठी नहीं थी. वो तो उन्होंने जर्मनी में सर्जरी करा कर अपने गले के अन्दर एक छोटी सी बाँसुरी फ़िट करवा ली है फिर उनके गले की मिठास के लिए इस बाँसुरी को क्रेडिट दिया जाए या फिर ख़ुद लताजी को?
फ़्लाइंग सिक्ख मिल्खासिंह ने सन् 1960 के रोम ओलम्पिक्स में 400 मीटर की दौड़ में वर्ड रिकॉर्ड तोड़ा था पर इसके बावजूद वो चौथे स्थान पर ही रहे थे.
सैकिण्ड के सौंवे हिस्से से मैडल चूक जाने का मिल्खा सिंह को बड़ा मलाल है पर अगर हाँकू चाचा की सलाह पर उन्होंने अमल किया होता तो आज उनके हाथ में ओलम्पिक्स का गोल्ड मैडल होता.
हाँकू चाचा की एक सीख मान कर मिल्खा सिंह ने नदी किनारे बालू में दौड़-दौड़ कर अपना स्टैमिना तो बढ़ा लिया पर दिल्ली की सिटी बसों को दौड़-दौड़ कर पकड़ने की प्रैक्टिस करने वाली सलाह पर उन्होंने बिल्कुल भी अमल नहीं किया.
फिर होना क्या था? दिल्ली की सिटी बसों के पीछे-पीछे भागने की प्रैक्टिस मिस करने की वजह से वो ओलम्पिक्स में मैडल पाने से चूक गए.
मशहूर क्रिकेटर कपिलदेव हाँकू चाचा की बहुत इज़्ज़त करते हैं.
चाचा बताते हैं कि अपने बचपन में कपिल मुण्डा बड़ा सुस्त था और उसकी बॉलिंग-बैटिंग तो उससे भी ज़्यादा ढीली थी.
कपिलदेव को अपने बैट से सिर्फ़ टुक-टुक करना आता था.
एक दिन हाँकू ने चाचा कपिलदेव से बहुत नाराज़ हो कर पूछा –
‘कपिल पुत्तर ! तू इतना हट्टा-कट्टा है पर बॉलिंग करते वक्त और बैटिंग करते वक़्त तेरी सारी ताकत कहाँ चली जाती है? ’
कपिलदेव ने अपने कमज़ोर कन्धों का और बेजान बाज़ुओं का रोना शुरू कर दिया. पर हाँकू चाचा के पास तो हर मर्ज़ की दवा थी.
कपिलदेव को फ़ास्ट बॉलर बनाने के लिए चाचा ने उसे पत्थर मार-मार कर इमली तोड़ने की प्रैक्टिस करने की सलाह दी और अपने बल्ले से सिक्सर पर सिक्सर लगाने के लिए उन्होंने उसे गिल्ली-डंडा के खेल में गिल्ली को अपने डंडे से सौ-सौ मीटर तक दूर तक उड़ाने की कोचिंग भी दी.
इस दोहरी प्रैक्टिस से कपिलदेव के कमज़ोर कन्धे, बाज़ू मज़बूत हो गए और वह भारत का स्टार फ़ास्ट बॉलर बन गया. ऊपर से ये फ़ायदा अलग कि उसके घर में मुफ़्त इमली भी आने लगी.
हांकू चाचा की गिल्ली-डंडे वाली कोचिंग का कपिलदेव को कितना फ़ायदा हुआ यह हम सबने वर्ड कप में ज़िम्बाब्वे के खिलाफ़ उसके नाबाद 175 रन बनाने में देखा था.
कपिल की टीम ने जब सन् 1983 में ओवल के मैदान में वैस्ट इंडीज़ को हरा कर वन डे टूर्नामेन्ट का वर्ड कप जीता तो उसने हाँकू चाचा को वहां बहुत मिस किया.
हारने वाली टीम के कप्तान क्लाइव लायड चाहते थे कि हाँकू चाचा उसकी टीम के कोच बन जाएं पर चाचा अपने देश के साथ गद्दारी कैसे कर सकते थे?
उन्होंने क्लाइव लायड के ऑफ़र को तुरन्त ठुकरा कर अपनी देशभक्ति का सबूत दे दिया.
उड़न परी पी0 टी0 उषा ने हाँकू चाचा की सलाह मान कर अपने घर में कछुओं के बजाय खरगोश पाल कर अगर उनके साथ रेस की प्रैक्टिस की होती तो आज उसके पदकों की अल्मारी में ओलम्पिक्स का गोल्ड मैडल भी होता.
हाँकू चाचा की अब उम्र काफ़ी हो चुकी है.
हम बच्चों को अब वो मैदान में चल कर किसी भी गेम की कोचिंग नहीं दे सकते.
पर इस कमी को वो अपनी ओरल टिप्स से पूरा कर देते हैं.
हमको हाँकू चाचा की हर बात का विश्वास है.
चाचा की कोचिंग से और उनके दिए गए सुझावों से अल्मोड़ा में चोटी के कलाकारों और खिलाडि़यों की लाइन लग जाएगी.
हमको पूरा यकीन है कि हांकू चाचा को भारत सरकार का गुरु द्रोणाचार्य अवार्ड तो मिल कर ही रहेगा पर हम बच्चे यह बात अपने मम्मी-पापा लोगों को कैसे समझाएं?
उन्होंने तो हमको चाचा से दूर रहने का हुक्म दे दिया है.
मम्मी-पापा को डर है कि हम हाँकू चाचा की गप्पें सुन-सुन कर खुद भी दून की हाँकने लगेंगे.
अब कौन उन्हें समझाए?
कौन उन्हें बताए कि यही वो चाणक्य है जो कि अल्मोड़ा के हम बच्चों में से किसी चन्द्रगुप्त को तराशेगा, संवारेगा और यही वो द्रोणाचार्य अवार्ड विनर है जो कि अल्मोड़ा के ही किसी किशोर को या फिर किसी किशोरी को कोचिंग दे कर, उसे ओलंपिक्स का गोल्ड मैडलिस्ट बनवा कर, अल्मोड़ा का नाम सारी दुनिया में रौशन कराएगा.

रविवार, 18 दिसंबर 2022

मिर्ज़ा चाचा की सवारियां

 (यह कहानी मेरे अप्रकाशित बाल-कथा संग्रह – ‘कलियों की मुस्कान’ से ली गयी है. 1990 के दशक की मेरी इन कहानियों को मेरी 10-12 साल की बेटी गीतिका अपनी ज़ुबान में सुनाती है. पाठकों से अनुरोध है कि हास्य-विनोद और शरारत-मस्ती से भरी इस कहानी में वो किसी प्रकार के उपदेश की तलाश न करें.)

मिर्ज़ा चाचा की सवारियां –
हमारे अल्मोड़ा में मिर्ज़ा चाचा की सवारियों के किस्से उतने ही मशहूर हैं जितनी कि यहां की सिंगौड़ी और बाल-मिठाई हैं.
मिर्ज़ा चाचा हम बच्चों को बहुत प्यार करते हैं पर हमसे कहीं ज़्यादा प्यार वो अपनी सवारियों से करते हैं.
चाचा हमको बताते हैं कि उनके पुरखे पहले मेवाड़ में रहा करते थे और उनके सुपर लकड़ दादा हकीम मिर्ज़ा महाराणा प्रताप के खास दोस्त हुआ करते थे. दोनों दोस्त अपने-अपने घोड़ों पर लम्बी सैर के लिए निकल जाया करते थे. एक बार घुड़दौड़ में अपने ईरानी घोड़े रुस्तम पर सवार होकर हकीम मिर्ज़ा ने चेतक पर सवार महाराणा प्रताप को हरा दिया था.
महाराणा प्रताप ने अपने दोस्त से उनका प्यारा रुस्तम घोड़ा मांगा पर उन्होंने इन्कार कर दिया. बस फिर क्या था ! महाराणा प्रताप ने हकीम मिर्ज़ा को फ़ौरन मेवाड़ छोड़ने का हुक्म दे डाला. तब से हकीम मिर्ज़ा अल्मोड़ा आकर बस गए.
हकीम मिर्ज़ा मेवाड़ से अपने ईरानी घोड़े रुस्तम को अपने साथ अल्मोड़ा ले आए.
बकौल मिर्ज़ा चाचा, रुस्तम ने और फिर उसके बेटे ने और फिर उसके पोते-परपोते आदि ने अल्मोड़ा में होने वाली सभी घुड़दौड़ों में नए से नए रिकॉर्ड बनाते हुए जीत हासिल कीं लेकिन एक दिन रुस्तम खानदान के घोड़े अल्मोड़ा में न जाने क्यों, ख़त्म हो गए.
मिर्ज़ा चाचा हमको बताते हैं कि सैकिण्ड वर्ड वार के दौरान ब्रिटिश जनरल माउण्टगुमरी के कहने पर वो जर्मन फ़ौज के दांत खट्टे करने के लिए ब्रिटिश इण्डियन आर्मी में भरती हो गए.
जर्मन फ़ौज से लड़ते वक्त उन्होंने ट्रक चलाना सीख लिया. चाचा ने अपने ट्रक का नाम अपने पुरखे हकीम मिर्ज़ा के ईरानी घोड़े के नाम पर ‘ रुस्तम ’ रख दिया. इस रुस्तम पर सवारी करके उन्होंने मुश्किल से मुश्किल जर्मन ठिकानों तक पहुंच कर जर्मन फ़ौज के दांत खट्टे कर दिए.
अगर मिर्ज़ा चाचा और उनका ट्रक रुस्तम सेकंड वर्ड वार में न होते तो आज पूरी दुनिया पर हिटलर का राज होता.
अंग्रेज़ सरकार मिर्ज़ा चाचा की बहादुरी से इतनी खुश हुई कि फ़ौज से उन्हे रिटायर करते वक्त उसने उनका रुस्तम उन्हें इनाम में दे डाला.
चाचा से जलने वाले तो ये अफ़वाह फैलाते हैं कि सैकिण्ड वर्ड वार शुरू होने के समय उनकी उम्र कुल छह-सात बरस की थी इसलिए हिटलर की फ़ौज के दांत खट्टे करने वाली बात कोरी गप्प थी.
चाचा के दुश्मन तो ये भी कहते हैं कि उनका रुस्तम जर्मन फ़ौज से भिड़ने नहीं गया था बल्कि उसे सन् 1955 में आर्मी के कबाड़ की नीलामी में मिर्ज़ा चाचा ने पुराने लोहे के भाव में खरीदा था.
उन दिनों हल्द्वानी से अल्मोड़ा के लिए सीधी सड़क नहीं थी,
गाडि़यों को रानीखेत का चक्कर लगाते हुए अल्मोड़ा से हल्द्वानी जाना पड़ता था.
मिर्ज़ा चाचा ने अल्मोड़ा के आसपास के गांवों से दूध खरीदना षुरू कर दिया पर वो हल्द्वानी दूध नहीं बल्कि बाल-मिठाई पहुंचाते थे. उनके रुस्तम को इस सवा सौ किलामीटर की लम्बी यात्रा के लिए कम से कम तीन-चार दिन चाहिए होते थे.
चाचा अपने रुस्तम में एक बड़ी सी कढ़ाही, पोर्टेबिल चूल्हा, बाल-मिठाई बनाने का मैटीरियल, लकड़ी का गठ्ठर और एक हल्वाई लेकर चलते थे. जैसे ही रुस्तम का इंजिन खतरे की घण्टी बजा देता था तो उनका हल्वाई सड़क किनारे बैठ कर चूल्हा जला कर, उस पर कढ़ाही चढ़ा कर दूध से खोया बनाना शुरू कर देता था.
इधर इंजिन जब तक वापस काम पर लगता था तब तक दूध का खोया बन जाता था.
अगले स्टॉप में उस खोये से बाल-मिठाई बना दी जाती थी और फिर उसे हल्द्वानी के बाज़ार में बेच दिया जाता था.
हल्द्वानी से मिर्ज़ा चाचा का रुस्तम अपने आधे हिस्से में दाल-चावल, आटा, घी, मसाले वगैरा ढोता था और बाकी में सब्ज़ी.
वापसी में उनका हल्वाई सब्जियों की तरकारी बना देता था और रुस्तम की रिपेयरिंग के हर पड़ाव पर श्रद्धालुओं को चार आना थाली भोजन कराया जाता था.
मिर्ज़ा चाचा की बाल-मिठाई की मोबाइल दुकान और उनका चलता-फिरता भोजनालय पूरे कुमाऊँ में मशहूर हो गए थे लेकिन हमारे पैदा होने से बहुत पहले ही रुस्तम के इंजिन का हार्टफ़ेल हो गया और उसे एक्टिव सर्विस से रिटायर कर दिया गया पर उसने चाचा की सेवा उसके बाद भी की.
रुस्तम को मिर्ज़ा चाचा ने सड़क के किनारे एक खाली जगह में उल्टा खड़ा कर दिया और उसे कार्पेन्टर की मदद से एक दुकान में बदल दिया. रुस्तम को एक प्रोविज़न स्टोर में बदल दिया गया है.
हम बच्चों की तो रुस्तम स्पेशल सेवा कर रहा है. इस प्रोविज़न स्टोर के पिछले हिस्से यानी रुस्तम के फ्रंट पोर्शन में हमको जाने की खुली छूट है. हम बच्चे इसकी ड्राइविंग सीट पर बैठ कर इसके स्टीरिंग को घुमा-घुमा कर अपनी ड्राइविंग स्किल को तराशते हैं और अक्सर आँख-मिचौली खेलने के दौरान इसे छुपने के लिए भी प्रयोग में लाते हैं.
रुस्तम को रिटायर किए जाने के बाद मिर्ज़ा चाचा को अपने लिए एक नई सवारी की ज़रूरत महसूस हुई. एक रिटायर्ड अंग्रेज़ कर्नल अल्मोड़ा में बस गया था. उसके पास सन् 1928 की कन्वर्टिबिल फ़ोर्ड कार थी.
उस अंग्रेज़ कर्नल से उसकी एन्टीक कार मिर्ज़ा चाचा ने नकद एक हज़ार रुपयों में खरीद ली. इस कार के पहियों में साइकिल और मोटर साइकिल के पहियों जैसी तीलियां थीं और इसकी छत कपड़े की थी. मिर्ज़ा चाचा ने हमको बताया कि उनकी गाड़ी हवाई जहाज की स्पीड से भागती है.
हम बच्चों ने उनकी गाड़ी का नाम पुष्पक विमान रख दिया. इस पुष्पक विमान पर अल्मोड़ा की सैर करने का सबसे पहला मौका हम बच्चों को ही मिला. पूरे एक दर्जन बच्चों को अपनी गाड़ी में बैठा कर चाचा रानीखेत की तरफ़ उड़ चले पर चार किलोमीटर चल कर ही गाड़ी के इंजिन ने स्ट्राइक कर दिया. चाचा की लाख कोशिशों के बाद भी कार दुबारा स्टार्ट नहीं हुई पर चाचा परेशान नहीं हुए. अल्मोड़ा का सबसे काबिल कार मैकेनिक ख़ालिद उन्हें बहुत मानता था. दो घण्टे बाद ख़ालिद अपने टूल्स लेकर बीमार कार का इलाज करने पहुंच गया. दो-तीन घण्टे की ठोकापीटी और उठा-पटक के बाद ख़ालिद अपना सामान समेट कर वहां से जाने लगा. मिर्ज़ा चाचा ने हैरानी से पूछा –
‘ बेटा ख़ालिद, कहां जा रहा है? पहले कार तो ठीक कर ! ’
ख़ालिद ने जवाब दिया –
‘ चाचा कब्रिस्तान जा कर अपने परदादा मरहूम को कब्र में से उठाने जा रहा हूँ. उनके ज़माने की गाड़ी है और वो ही इसको ठीक करना जानते होंगे. ’
बाद में चाचा के पुष्पक विमान को भी रुस्तम का पड़ौस नसीब हो गया और उसे भी ठीक-ठाक करा कर एक चाय की दुकान का दर्जा दे दिया गया.
ये चाय की दुकान पूरे अल्मोड़ा में अनोखी है क्योंकि ये पोर्टेबिल है. हर छोटे-बड़े मेले में चाचा रस्सियों से बांध कर इसे खिंचवा कर ले जाते हैं और वहां अपने ग्राहकों को गर्मा-गर्म चाय और पकौड़े सर्व करते हैं.
मिर्ज़ा चाचा ने कार के बाद साइकिल का रुख किया. मिर्ज़ा चाचा की इस सैकिण्ड हैण्ड मगर इम्पोर्टेड साइकिल की शान ही निराली थी.
मैंने ऐसी पहली साइकिल देखी थी जिसमें लाइट के लिए मिट्टी के तेल से जलने वाला लैम्प और घण्टी की जगह, पुराने ट्रकों में इस्तेमाल किया जाने वाला भौंपू वाला हॉर्न लगा हो.
चाचा की साइकिल में आगे बच्चों की एक सीट भी लगी थी. चाचा ने अपनी साइकिल पर सवार हो कर हमको बड़े-बड़े करतब दिखाए.
हम बच्चों की फ़ौज़ उनके पीछे पड़ गई कि वो हमको भी अपनी साइकिल पर अल्मोड़ा की सैर कराएं. बेचारे चाचा अपनी एक अदद साइकिल पर सब बच्चों को एक साथ तो घुमा नहीं सकते थे इसलिए उन्होंने लाटरी निकाल कर बारी-बारी से हम बच्चों को अपनी साइकिल की बच्चों वाली सीट पर सवारी करने का मौका दिया और बारी-बारी से हमको अपनी बिना ब्रेक वाले साइकिल से गिरा कर हमको घायल किया.
हम बच्चों के पेरेंट्स ने मिर्ज़ा चाचा की साइकिल को ज़बर्दस्ती ज़ब्त कर के एक कबाड़ी के हाथों उसे 20 रुपयों में बेच दिया और उन रुपयों को हमारी मरहम-पट्टी करने पर खर्च कर दिया.
मिर्ज़ा चाचा को लगा कि उन्होंने मशीनों पर भरोसा करके गल्ती की थी. अपने पुरखे हकीम मिर्ज़ा की तरह उन्हें भी घोड़े पालने का शौक हो गया.
चाचा किसी पशु मेले से एक घोड़ी खरीद कर ले आए. हमको उन्होंने बताया कि उनकी घोड़ी महाराजा रंजीत सिंह की घोड़ी लिली के खानदान की है इसलिए उन्होंने उसका नाम लिली ही रखा है.
ईरानी नस्ल की लिली घोड़ी में और चाचा की लिली की कद-काठी में ज़मीन-आस्मान का फ़र्क ज़रूर था.
स्लो मोशन में दौड़ती हुई ठिगनी लिली हमको वाकई खानदानी घोड़ी लगती थी. हम बच्चों से उसने जल्दी ही दोस्ती कर ली. हमने उस पर बैठ कर खूब सैर की.
मिर्ज़ा चाचा ने इण्डिपेडेन्स डे पर आर्मी-परेड ग्राउण्ड में होने वाली घुड़दौड़ प्रतियोगिता में अपनी लिली को उतार दिया.
आर्मी-परेड ग्राउण्ड में जब अपनी लिली पर सवार हो कर मिर्ज़ा चाचा पधारे तो हज़ारों तालियों और कुल उतने ही ठहाकों ने उनका स्वागत किया. लिली पर सवार चाचा के पैर ज़मीन छू रहे थे. एक दर्शक ने चाचा से पूछ लिया –
‘ चाचा ! आपका धड़़ घोड़ी पर है पर आपके पाँव ज़मीन पर क्यों हैं? ’
मिर्ज़ा चाचा ने तपाक से जवाब दिया –
‘ बेटा ! अगर मैं अपने पैरों से ब्रेक लगाता हुआ नहीं चलूंगा तो मेरी घोड़ी दौड़ने के बजाय उड़ने लगेगी.’
परेड ग्राउण्ड में ड्रम्स और बैग पाइप्स का शोर था और दर्शकों की भीड़ अलग हल्ला मचा रही थी. चाचा की लिली के पाँव कांप रहे थे और वो दाएं-बाएं ज़ोर-ज़ोर से अपना सर हिला रही थी. राइफ़ल की धांय के साथ घुड़दौड़ शुरू हुई. बाकी सारे घोड़े दौड़ पड़े पर लिली टस से मस नहीं हुई, बस एक ही जगह पर खड़े उसके पैर कांपते रहे.
चाचा ने उसे प्यार से थपथपाया, हल्का सा चपतियाया, फिर - ‘ बक-अप लिली ! और शाबाश लिली ! ’ कह कर उसे ललकारा, फिर उस पर से उतर कर उसे थोड़ा सा धकियाया भी पर बात कुछ बनी नहीं.
अचानक लिली को जोश आया और उसने बैक गियर में तेज़ दौड़ना शुरू कर दिया. चाचा लिली की अनोखी दौड़ का आनन्द़ बहुत देर नहीं उठा पाए और कुछ देर बाद ही उस पर से धड़ाम से गिर गए.
चाचा को गिरा कर तालियों की गड़गड़ाहट को अनसुना कर लिली सरपट अपने घर की तरफ़ दौड़ पड़ी.
कराहते हुए चाचा के हमदर्दों ने उन्हें उठाया तो चाचा ज़ोर-ज़ोर से रो कर कहने लगे –
‘ हाय ! मेरी अकल पर पत्थर पड़ गए थे. मैं अपनी ईरानी घोड़ी से फ़ारसी के बजाय हिंदी में और अंग्रेज़ी में बात कर रहा था. वो बेचारी मेरी बात कैसे समझती?’
मिर्ज़ा चाचा ने लिली पर दुबारा सवारी करने के लिए फ़ारसी सीखने की कोशिश तो की पर वो इसमें कामयाब नहीं हो पाए पर पता नहीं क्यों लिली हम बच्चों की हिंदी में कही बात को बड़े मज़े से समझ लेती है और अपनी पीठ पर हमको बड़े प्यार से सवारी कराती है.
अब मिर्ज़ा चाचा ने अपने लिए एक ऐसी गाड़ी का इन्तजाम किया है जिसके फ़ेल हो जाने का या बिदक जाने का, कोई चांस नहीं है.
चाचा ने ग्यारह नम्बर की बस यानी अपने पैरों को ही अपनी परमानेन्ट सवारी बना लिया है.
हम बच्चे भी अपनी-अपनी ग्यारह नम्बर की बस पर सवार होकर चाचा का साथ दे रहे हैं और अल्मोड़ा के खुशगवार मौसम का लुत्फ़ उठाते हुए अपनी सेहत बना रहे हैं.