रविवार, 18 दिसंबर 2022

मिर्ज़ा चाचा की सवारियां

 (यह कहानी मेरे अप्रकाशित बाल-कथा संग्रह – ‘कलियों की मुस्कान’ से ली गयी है. 1990 के दशक की मेरी इन कहानियों को मेरी 10-12 साल की बेटी गीतिका अपनी ज़ुबान में सुनाती है. पाठकों से अनुरोध है कि हास्य-विनोद और शरारत-मस्ती से भरी इस कहानी में वो किसी प्रकार के उपदेश की तलाश न करें.)

मिर्ज़ा चाचा की सवारियां –
हमारे अल्मोड़ा में मिर्ज़ा चाचा की सवारियों के किस्से उतने ही मशहूर हैं जितनी कि यहां की सिंगौड़ी और बाल-मिठाई हैं.
मिर्ज़ा चाचा हम बच्चों को बहुत प्यार करते हैं पर हमसे कहीं ज़्यादा प्यार वो अपनी सवारियों से करते हैं.
चाचा हमको बताते हैं कि उनके पुरखे पहले मेवाड़ में रहा करते थे और उनके सुपर लकड़ दादा हकीम मिर्ज़ा महाराणा प्रताप के खास दोस्त हुआ करते थे. दोनों दोस्त अपने-अपने घोड़ों पर लम्बी सैर के लिए निकल जाया करते थे. एक बार घुड़दौड़ में अपने ईरानी घोड़े रुस्तम पर सवार होकर हकीम मिर्ज़ा ने चेतक पर सवार महाराणा प्रताप को हरा दिया था.
महाराणा प्रताप ने अपने दोस्त से उनका प्यारा रुस्तम घोड़ा मांगा पर उन्होंने इन्कार कर दिया. बस फिर क्या था ! महाराणा प्रताप ने हकीम मिर्ज़ा को फ़ौरन मेवाड़ छोड़ने का हुक्म दे डाला. तब से हकीम मिर्ज़ा अल्मोड़ा आकर बस गए.
हकीम मिर्ज़ा मेवाड़ से अपने ईरानी घोड़े रुस्तम को अपने साथ अल्मोड़ा ले आए.
बकौल मिर्ज़ा चाचा, रुस्तम ने और फिर उसके बेटे ने और फिर उसके पोते-परपोते आदि ने अल्मोड़ा में होने वाली सभी घुड़दौड़ों में नए से नए रिकॉर्ड बनाते हुए जीत हासिल कीं लेकिन एक दिन रुस्तम खानदान के घोड़े अल्मोड़ा में न जाने क्यों, ख़त्म हो गए.
मिर्ज़ा चाचा हमको बताते हैं कि सैकिण्ड वर्ड वार के दौरान ब्रिटिश जनरल माउण्टगुमरी के कहने पर वो जर्मन फ़ौज के दांत खट्टे करने के लिए ब्रिटिश इण्डियन आर्मी में भरती हो गए.
जर्मन फ़ौज से लड़ते वक्त उन्होंने ट्रक चलाना सीख लिया. चाचा ने अपने ट्रक का नाम अपने पुरखे हकीम मिर्ज़ा के ईरानी घोड़े के नाम पर ‘ रुस्तम ’ रख दिया. इस रुस्तम पर सवारी करके उन्होंने मुश्किल से मुश्किल जर्मन ठिकानों तक पहुंच कर जर्मन फ़ौज के दांत खट्टे कर दिए.
अगर मिर्ज़ा चाचा और उनका ट्रक रुस्तम सेकंड वर्ड वार में न होते तो आज पूरी दुनिया पर हिटलर का राज होता.
अंग्रेज़ सरकार मिर्ज़ा चाचा की बहादुरी से इतनी खुश हुई कि फ़ौज से उन्हे रिटायर करते वक्त उसने उनका रुस्तम उन्हें इनाम में दे डाला.
चाचा से जलने वाले तो ये अफ़वाह फैलाते हैं कि सैकिण्ड वर्ड वार शुरू होने के समय उनकी उम्र कुल छह-सात बरस की थी इसलिए हिटलर की फ़ौज के दांत खट्टे करने वाली बात कोरी गप्प थी.
चाचा के दुश्मन तो ये भी कहते हैं कि उनका रुस्तम जर्मन फ़ौज से भिड़ने नहीं गया था बल्कि उसे सन् 1955 में आर्मी के कबाड़ की नीलामी में मिर्ज़ा चाचा ने पुराने लोहे के भाव में खरीदा था.
उन दिनों हल्द्वानी से अल्मोड़ा के लिए सीधी सड़क नहीं थी,
गाडि़यों को रानीखेत का चक्कर लगाते हुए अल्मोड़ा से हल्द्वानी जाना पड़ता था.
मिर्ज़ा चाचा ने अल्मोड़ा के आसपास के गांवों से दूध खरीदना षुरू कर दिया पर वो हल्द्वानी दूध नहीं बल्कि बाल-मिठाई पहुंचाते थे. उनके रुस्तम को इस सवा सौ किलामीटर की लम्बी यात्रा के लिए कम से कम तीन-चार दिन चाहिए होते थे.
चाचा अपने रुस्तम में एक बड़ी सी कढ़ाही, पोर्टेबिल चूल्हा, बाल-मिठाई बनाने का मैटीरियल, लकड़ी का गठ्ठर और एक हल्वाई लेकर चलते थे. जैसे ही रुस्तम का इंजिन खतरे की घण्टी बजा देता था तो उनका हल्वाई सड़क किनारे बैठ कर चूल्हा जला कर, उस पर कढ़ाही चढ़ा कर दूध से खोया बनाना शुरू कर देता था.
इधर इंजिन जब तक वापस काम पर लगता था तब तक दूध का खोया बन जाता था.
अगले स्टॉप में उस खोये से बाल-मिठाई बना दी जाती थी और फिर उसे हल्द्वानी के बाज़ार में बेच दिया जाता था.
हल्द्वानी से मिर्ज़ा चाचा का रुस्तम अपने आधे हिस्से में दाल-चावल, आटा, घी, मसाले वगैरा ढोता था और बाकी में सब्ज़ी.
वापसी में उनका हल्वाई सब्जियों की तरकारी बना देता था और रुस्तम की रिपेयरिंग के हर पड़ाव पर श्रद्धालुओं को चार आना थाली भोजन कराया जाता था.
मिर्ज़ा चाचा की बाल-मिठाई की मोबाइल दुकान और उनका चलता-फिरता भोजनालय पूरे कुमाऊँ में मशहूर हो गए थे लेकिन हमारे पैदा होने से बहुत पहले ही रुस्तम के इंजिन का हार्टफ़ेल हो गया और उसे एक्टिव सर्विस से रिटायर कर दिया गया पर उसने चाचा की सेवा उसके बाद भी की.
रुस्तम को मिर्ज़ा चाचा ने सड़क के किनारे एक खाली जगह में उल्टा खड़ा कर दिया और उसे कार्पेन्टर की मदद से एक दुकान में बदल दिया. रुस्तम को एक प्रोविज़न स्टोर में बदल दिया गया है.
हम बच्चों की तो रुस्तम स्पेशल सेवा कर रहा है. इस प्रोविज़न स्टोर के पिछले हिस्से यानी रुस्तम के फ्रंट पोर्शन में हमको जाने की खुली छूट है. हम बच्चे इसकी ड्राइविंग सीट पर बैठ कर इसके स्टीरिंग को घुमा-घुमा कर अपनी ड्राइविंग स्किल को तराशते हैं और अक्सर आँख-मिचौली खेलने के दौरान इसे छुपने के लिए भी प्रयोग में लाते हैं.
रुस्तम को रिटायर किए जाने के बाद मिर्ज़ा चाचा को अपने लिए एक नई सवारी की ज़रूरत महसूस हुई. एक रिटायर्ड अंग्रेज़ कर्नल अल्मोड़ा में बस गया था. उसके पास सन् 1928 की कन्वर्टिबिल फ़ोर्ड कार थी.
उस अंग्रेज़ कर्नल से उसकी एन्टीक कार मिर्ज़ा चाचा ने नकद एक हज़ार रुपयों में खरीद ली. इस कार के पहियों में साइकिल और मोटर साइकिल के पहियों जैसी तीलियां थीं और इसकी छत कपड़े की थी. मिर्ज़ा चाचा ने हमको बताया कि उनकी गाड़ी हवाई जहाज की स्पीड से भागती है.
हम बच्चों ने उनकी गाड़ी का नाम पुष्पक विमान रख दिया. इस पुष्पक विमान पर अल्मोड़ा की सैर करने का सबसे पहला मौका हम बच्चों को ही मिला. पूरे एक दर्जन बच्चों को अपनी गाड़ी में बैठा कर चाचा रानीखेत की तरफ़ उड़ चले पर चार किलोमीटर चल कर ही गाड़ी के इंजिन ने स्ट्राइक कर दिया. चाचा की लाख कोशिशों के बाद भी कार दुबारा स्टार्ट नहीं हुई पर चाचा परेशान नहीं हुए. अल्मोड़ा का सबसे काबिल कार मैकेनिक ख़ालिद उन्हें बहुत मानता था. दो घण्टे बाद ख़ालिद अपने टूल्स लेकर बीमार कार का इलाज करने पहुंच गया. दो-तीन घण्टे की ठोकापीटी और उठा-पटक के बाद ख़ालिद अपना सामान समेट कर वहां से जाने लगा. मिर्ज़ा चाचा ने हैरानी से पूछा –
‘ बेटा ख़ालिद, कहां जा रहा है? पहले कार तो ठीक कर ! ’
ख़ालिद ने जवाब दिया –
‘ चाचा कब्रिस्तान जा कर अपने परदादा मरहूम को कब्र में से उठाने जा रहा हूँ. उनके ज़माने की गाड़ी है और वो ही इसको ठीक करना जानते होंगे. ’
बाद में चाचा के पुष्पक विमान को भी रुस्तम का पड़ौस नसीब हो गया और उसे भी ठीक-ठाक करा कर एक चाय की दुकान का दर्जा दे दिया गया.
ये चाय की दुकान पूरे अल्मोड़ा में अनोखी है क्योंकि ये पोर्टेबिल है. हर छोटे-बड़े मेले में चाचा रस्सियों से बांध कर इसे खिंचवा कर ले जाते हैं और वहां अपने ग्राहकों को गर्मा-गर्म चाय और पकौड़े सर्व करते हैं.
मिर्ज़ा चाचा ने कार के बाद साइकिल का रुख किया. मिर्ज़ा चाचा की इस सैकिण्ड हैण्ड मगर इम्पोर्टेड साइकिल की शान ही निराली थी.
मैंने ऐसी पहली साइकिल देखी थी जिसमें लाइट के लिए मिट्टी के तेल से जलने वाला लैम्प और घण्टी की जगह, पुराने ट्रकों में इस्तेमाल किया जाने वाला भौंपू वाला हॉर्न लगा हो.
चाचा की साइकिल में आगे बच्चों की एक सीट भी लगी थी. चाचा ने अपनी साइकिल पर सवार हो कर हमको बड़े-बड़े करतब दिखाए.
हम बच्चों की फ़ौज़ उनके पीछे पड़ गई कि वो हमको भी अपनी साइकिल पर अल्मोड़ा की सैर कराएं. बेचारे चाचा अपनी एक अदद साइकिल पर सब बच्चों को एक साथ तो घुमा नहीं सकते थे इसलिए उन्होंने लाटरी निकाल कर बारी-बारी से हम बच्चों को अपनी साइकिल की बच्चों वाली सीट पर सवारी करने का मौका दिया और बारी-बारी से हमको अपनी बिना ब्रेक वाले साइकिल से गिरा कर हमको घायल किया.
हम बच्चों के पेरेंट्स ने मिर्ज़ा चाचा की साइकिल को ज़बर्दस्ती ज़ब्त कर के एक कबाड़ी के हाथों उसे 20 रुपयों में बेच दिया और उन रुपयों को हमारी मरहम-पट्टी करने पर खर्च कर दिया.
मिर्ज़ा चाचा को लगा कि उन्होंने मशीनों पर भरोसा करके गल्ती की थी. अपने पुरखे हकीम मिर्ज़ा की तरह उन्हें भी घोड़े पालने का शौक हो गया.
चाचा किसी पशु मेले से एक घोड़ी खरीद कर ले आए. हमको उन्होंने बताया कि उनकी घोड़ी महाराजा रंजीत सिंह की घोड़ी लिली के खानदान की है इसलिए उन्होंने उसका नाम लिली ही रखा है.
ईरानी नस्ल की लिली घोड़ी में और चाचा की लिली की कद-काठी में ज़मीन-आस्मान का फ़र्क ज़रूर था.
स्लो मोशन में दौड़ती हुई ठिगनी लिली हमको वाकई खानदानी घोड़ी लगती थी. हम बच्चों से उसने जल्दी ही दोस्ती कर ली. हमने उस पर बैठ कर खूब सैर की.
मिर्ज़ा चाचा ने इण्डिपेडेन्स डे पर आर्मी-परेड ग्राउण्ड में होने वाली घुड़दौड़ प्रतियोगिता में अपनी लिली को उतार दिया.
आर्मी-परेड ग्राउण्ड में जब अपनी लिली पर सवार हो कर मिर्ज़ा चाचा पधारे तो हज़ारों तालियों और कुल उतने ही ठहाकों ने उनका स्वागत किया. लिली पर सवार चाचा के पैर ज़मीन छू रहे थे. एक दर्शक ने चाचा से पूछ लिया –
‘ चाचा ! आपका धड़़ घोड़ी पर है पर आपके पाँव ज़मीन पर क्यों हैं? ’
मिर्ज़ा चाचा ने तपाक से जवाब दिया –
‘ बेटा ! अगर मैं अपने पैरों से ब्रेक लगाता हुआ नहीं चलूंगा तो मेरी घोड़ी दौड़ने के बजाय उड़ने लगेगी.’
परेड ग्राउण्ड में ड्रम्स और बैग पाइप्स का शोर था और दर्शकों की भीड़ अलग हल्ला मचा रही थी. चाचा की लिली के पाँव कांप रहे थे और वो दाएं-बाएं ज़ोर-ज़ोर से अपना सर हिला रही थी. राइफ़ल की धांय के साथ घुड़दौड़ शुरू हुई. बाकी सारे घोड़े दौड़ पड़े पर लिली टस से मस नहीं हुई, बस एक ही जगह पर खड़े उसके पैर कांपते रहे.
चाचा ने उसे प्यार से थपथपाया, हल्का सा चपतियाया, फिर - ‘ बक-अप लिली ! और शाबाश लिली ! ’ कह कर उसे ललकारा, फिर उस पर से उतर कर उसे थोड़ा सा धकियाया भी पर बात कुछ बनी नहीं.
अचानक लिली को जोश आया और उसने बैक गियर में तेज़ दौड़ना शुरू कर दिया. चाचा लिली की अनोखी दौड़ का आनन्द़ बहुत देर नहीं उठा पाए और कुछ देर बाद ही उस पर से धड़ाम से गिर गए.
चाचा को गिरा कर तालियों की गड़गड़ाहट को अनसुना कर लिली सरपट अपने घर की तरफ़ दौड़ पड़ी.
कराहते हुए चाचा के हमदर्दों ने उन्हें उठाया तो चाचा ज़ोर-ज़ोर से रो कर कहने लगे –
‘ हाय ! मेरी अकल पर पत्थर पड़ गए थे. मैं अपनी ईरानी घोड़ी से फ़ारसी के बजाय हिंदी में और अंग्रेज़ी में बात कर रहा था. वो बेचारी मेरी बात कैसे समझती?’
मिर्ज़ा चाचा ने लिली पर दुबारा सवारी करने के लिए फ़ारसी सीखने की कोशिश तो की पर वो इसमें कामयाब नहीं हो पाए पर पता नहीं क्यों लिली हम बच्चों की हिंदी में कही बात को बड़े मज़े से समझ लेती है और अपनी पीठ पर हमको बड़े प्यार से सवारी कराती है.
अब मिर्ज़ा चाचा ने अपने लिए एक ऐसी गाड़ी का इन्तजाम किया है जिसके फ़ेल हो जाने का या बिदक जाने का, कोई चांस नहीं है.
चाचा ने ग्यारह नम्बर की बस यानी अपने पैरों को ही अपनी परमानेन्ट सवारी बना लिया है.
हम बच्चे भी अपनी-अपनी ग्यारह नम्बर की बस पर सवार होकर चाचा का साथ दे रहे हैं और अल्मोड़ा के खुशगवार मौसम का लुत्फ़ उठाते हुए अपनी सेहत बना रहे हैं.

8 टिप्‍पणियां:

  1. वाह!!!!
    मजेदार कहानी
    बच्चों बड़ों सबके लिए ।
    पहाड़ों पर सबसे बेहतर ग्यारह नम्बर गाड़ी ।

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    1. कहानी की प्रशंसा के लिए धन्यवाद सुधा जी.
      अल्मोड़ा में हमारा परिवार 11 नंबर की बस का अधिकतम उपयोग करने के लिए जाना जाता था और हम प्रोफ़ेसर पैदल के नाम से मशहूर थे.

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  2. 😄😄😄🙏बहुत खूब लिखा है आपने आदरणीय गोपेश जी।बचपन में जिस बालक ने मिर्जा चाचा की बदौलत इतने असली अथवा कपोल काल्पनिक प्रसंगों का आनन्द लिया हो उसकी बुद्धि- विलास की प्रगति तो वीर बजरंगी की तरह सरपट भागेगी।😄 बतरस भी कमाल का।मेवाड की गलियों में चेतक को हराते रुस्तम से ग्यारह नम्बर की गाड़ी तक।सलामत रहिये मिर्जा चाचा।आपने फेन्की तो बड़े आराम से पर ये गप्प आसमान छू गई!!
    आनन्द आ गया ये मीठा-सा रोचक प्रसंग पढ़कर।बतरसिया के कौशल को सादर नमन 🙏🙏🙏😄😄

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    1. रेणुबाला, आजकल फेंकने वालों का ही ज़माना है.
      10-12 साल की गीतिका के मुख से मैंने उसी के बचपन की सम्वाद-शैली का और उसी की भाषा का प्रयोग कर के कहानी को थोडा सजीव और प्रामाणिक बनाने का प्रयास किया है.

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  3. उत्तर
    1. मेरी कहानी के ऐसे उदार आकलन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद गजेन्द्र भट्ट 'हृदयेश' जी.

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  4. बहुत मजेदार कहानी। वैसे 11 नम्बर की गाड़ी सभी के लिए बेस्ट ऑप्शन है। न पेट्रोल, न दाना पानी और न ही मरम्मत का खर्चा।

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    1. मेरी हास्य-विनोद की इस बाल-कथा की प्रशंसा के लिए धन्यवाद ज्योति.
      11 नंबर की बस का जम कर इस्तेमाल करने से मेरी ब्लड शुगर भी नियंत्रित रहती है.

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