बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

नया ताजमहल


दो अक्टूबर के अवसर पर,
राजघाट के बागीचे में,
सत्य, अहिंसा और धर्म की अन्तिम पौधें,
नीलामी के लिए धरा पर, बिछी हुई थीं।

बोली खातिर,
नेता, अफ़सर औ व्यापारी, तने खड़े थे।
सबसे ऊँची  कीमत बोली,
एक उभरते जननायक ने।

सत्य, अहिंसा और धर्म की सारी पौधें,
जननायक के सूटकेस में, बन्द हो गईं।
दृश्य मनोहर देख, ह्रदय में आशा जागी,
भारत के भावी रखवाले, तन-मन-धन देकर,
बापू का, हर सपना अब साकार करेंगे।
धर्म-विमुखता, झूठ और हिंसा के बादल,
छट जाएंगे, और अमन की धूप सुनहरी खिल जाएगी।

हमने नतमस्तक हो नेताजी से पूछा -
'हे जननायक ! हे भारत के भाग्य विधाता !
इन पौधों को पाल-पोस कर, वृक्ष बनाकर,
उनकी शीतल  छांह, हमें उपलब्ध कराकर,
अन्यायों से तप्त, हमारे व्यथित ह्रदय  पर,
रामराज्य के अमृत जल-कण बरसाओगे?'

जननायक ने तिरस्कार से भरी दृष्टि  फिर हम पर डाली,
एक कुटिल मुस्कान होठ पर, मन में पर उठती थी गाली।
हँस  कर बोले -

'रामराज्य की करे कल्पना,
जो मूरख, वह दण्डित  होगा।
कौओं, बगुलों की नगरी से,
हंस आज निष्कासित  होगा।

गांधीजी की थाती इन मुर्दा पौधों की,
शानदार  कब्रें बनवाकर, उनके ऊपर ,
ताजमहल सा भव्य मकबरा बनवाऊंगा ।
छल, प्रपंच,मक्कारी के रत्नों से जड़ फिर,
उसकी आभा-शोभा को द्विगुणित  कर दूंगा।

सुरा-सुन्दरी की सुविधा दिन-रात रहेगी,
नृत्य-गान की महफि़ल भी आबाद रहेगी।
और बगल में कल-कल बहती नदी, पाप की,
दुराचार की कश्ती  में, सब पार करेंगे।
आने वाले, अपना हर पल, युगों-युगों तक याद रखेंगे,
हर वर्जित फल चखकर भी वो, स्वर्गलोक से नहीं गिरेंगे।

प्रति टूरिस्ट, पाँच  सौ डॉलर लेकर,
मैं कुबेर जैसा, अतुलित धनवान बनूंगा।
रावण की सोने की लंका,
का मैं, फिर निर्माण करूंगा।
तार-तार हो गए स्वप्न गांधी बाबा के,
सखा गोडसे के सपने साकार करूंगा।।'
एक नया इतिहास रचूंगा,
एक नया इतिहास रचूंगा।

मंगलवार, 20 अगस्त 2013

अनर्थ नीति



अवमूल्यन सुख साधन लाय ,
नाक भले थोड़ी कट जाय ।
डॉलर, पॉण्ड, उधारी खाय ,
घर का स्वर्ण किन्तु बिक जाय ।।

आत्म समर्पण मात्र उपाय ,
औंधे गिरो, साख बढ़ जाय ।
एक अचम्भा देखो आय ,
प्रगति रसातल को ले जाय ।।

 

बुधवार, 24 जुलाई 2013

गाँधी के जाँनशीन

                   
जब भी रुकती है मेरी कार, किसी गाँव  के बीच ,
मुझको गाँधी  के ख़यालों पे, हंसी  आती है ।
न यहाँ बार, न होटल, न सिनेमा कोई,
इसमें इन्सान को रहने में , शरम आती है ।।

मुल्क की रूह, बसा करती है, इन गाँवों  में ,
सिर्फ़ दीवानों को ये बात, समझ आती है ।
यूँ इलैक्शन में चला जाता हूं, मजबूरी में,
गाँव में याद तो, पेरिस की गली आती है ।।

      

बुधवार, 10 जुलाई 2013

प्रगति गान


हर मुर्दे को कफ़न, भले ही हो न मयस्सर,
पर हर शासक का स्मारक बन जाता है ।
दुर्घटना का समाधान है, जांच  कमीशन,
दंगों  के ही बाद, सैन्यदल आ पाता है ।।

राहत कार्य भले ही, कागज़ पर चलता हो,
हर दौरे को, टी.वी. कवरेज मिल जाता है ।
उजड़े  बस्ती गाँव , घरों में जले न चूल्हा,
वक्तव्यों में, देश प्रगति करता जाता है ।।                    

बुधवार, 27 मार्च 2013

अधखाए बैल की सद्गति


अफ़सर टोला के रस्ते में, बीच सड़क पर ,
अधखाया इक बैल पड़ा था ।
जनसमूह उसको घेरे था ।
हमने पूछा- 'क्या किस्सा है ?'
उत्तर पाया- 'रात इसे इक बाघ खा गया ।।'

बहुत देर तक बाघों की जब चर्चा हो ली ,
तब हमने यह प्रश्न उठाया-
'अब इसका क्या किया जाएगा ?'
एक सयाना झट से बोला-
'नगरपालिका वाला ठेला, आकर इसको ले जाएगा ।।'

किंतु पालिका के बाबू ने हमें बताया-
'अफ़सर टोला का रस्ता तो, शहरी सीमा के बाहर है ।'
वापस लौटे, ग्राम सभापति को जा घेरा ,
ग्राम सभापति चीख उठे- 'क्या मुझसे नाता ?
अगर सड़कपति होता, तो मैं बैल हटाता ।।'

सोचा, स्वास्थ्य विभाग, हमारा काम करेगा ,
गलत जगह आ गए, न ये इल्ज़मा धरेगा ।
स्वास्थ्य विभाग नरेश, बड़े ही दयावान थे ,
पर नियमों के अनुपालन में सावधान थे ।
मरे बैल को उठवाने में , यूं तो वह बेहद आकुल थे ,
हत्या थी या आत्मघात, यह सत्य जानने को व्याकुल थे ।।

हर अफ़सर का जाकर हमने दर खटकाया ,
सभी जगह से, किंतु टके सा उत्तर पाया ।
जीपारूढ़ सैकड़ों  अफ़सर, रस्ते पर आते-जाते थे ,
किंतु शांत-दुर्गंध छोड़ता, बैल जहां का तहां पड़ा था ।


रूंधे गले से हमने अपना, नेता जी को हाल सुनाया ,
नेता बोले-' जन सेवा तो पुण्य कार्य है ,
किंतु इलैक्शन बीत गया है ,
अब तो अगले ही चुनाव में बैल हटेगा ।।'

बातों में कुछ ने टरकाया और कहीं पर धक्का खाया ,
इसी तरह से हफ़्तों ग़ुज़रे, बैल हटाने कोई न आया ।
किंतु चील कौओं ने अपना काम किया है ,
जन सेवा के बदले  कुछ ना, दाम लिया है ।
अब न गंध है, अब न रक्त है ,
चंद अस्थियाँ  मात्र शेष हैं ।
बैल कांड से मुक्ति मिली है ,
मिटे हमारे सभी क्लेश हैं ।।

नभ से आकर धरती की कर रहे सफ़ाई  ,
पेंडिंग युग में  तुम ही तत्पर पड़े दिखाई ।
इस विपदा से तुमने आकर मुक्ति दिलाई ,
धन्य-धन्य हे गिद्ध, चील, कौए, सुखदाई ।।

बाबू झिड़की, अफ़सर घुड़की,
नेता के वादे, भूलेंगे ।
पर नभचारी, बैल भक्षियों ,
तुमको कभी नहीं भूलेंगे, तुमको कभी नहीं भूलेंगे ।।

रविवार, 17 मार्च 2013

प्रलय - 4


आपदा प्रबन्धन मन्त्री का बिशनपुर गांव का दौरा नहीं हो पाया क्योंकि उनको हैलीकॉप्टर उपलब्ध नहीं कराया गया। बिशनपुर गांव वाले बड़े निराश  थे पर मन्त्रीजी के समर्थक बहुत नाराज़ थे। एक कैबिनेट स्तर के मन्त्री को हैलीकॉप्टर उपलब्ध न कराना क्या उनका अपमान नहीं था? पीडि़तों को अब मुख्यमन्त्री के दौरे का इन्तज़ार  था। बिशनपुर गांव तक गाड़ी जाने के लिए कोई रोड नहीं थी पर अच्छी बात ये थी कि मुख्यमन्त्रीजी को टूटी सड़कों और लैण्डस्लाइड्स को हैलीकॉप्टर पर आसीन होकर सिर्फ़  आसमान से महसूस करना था। वैसे भी शैलनगर कैन्टुनमन्ट के हैलीपैड से बिशनपुर गांव की दूरी महज़ पाँच  किलोमीटर ही थी। इतना पैदल तो श्रीमान चल ही सकते थे। सबको उम्मीद थी कि मुख्यमन्त्रीजी बिशनपुर गांव को सहायता राशि का एक बड़ा सा पिटारा देकर ही जाएंगे। सवेरे से कई आला अफ़सर गांव के चक्कर लगा चुके थे। सरकारी पैसे से गांव वालों को चाय-नानाश्ता  कराया जा रहा था। मृतकों और घायलों के लिए मुआवज़े का ऐलान भी किया जा रहा था। पटवारीजी के कहने पर ग्राम-प्रधानजी ने गांव में दो-चार साफ़-सुथरे बच्चों को तलाश  लिया  था। मुख्यमन्त्रीजी कभी भी किसी बच्चे को अपनी गोद में उठा सकते थे। ऐसे हादसे के वक्त ज़रूरी तो नहीं था पर जनसेवकों के स्वागतार्थ फूल-मालाओं का इन्तज़ाम  भी कर लिया गया था।

बिशनपुर गांव में नेताओं का जमावड़ा लग चुका था। पीडि़तों को बिन मांगे, कम्बल बांटे जा रहे थे, उन्हें सहायता--शिविरों  में शिफ़्ट  किया जा रहा था। मलबे से घायलों और शवों  को निकालने का काम अब खत्म हो चुका था। मृतकों का अन्तिम संस्कार किया जा चुका था। बाहर पड़े हुए मरे हुए जानवरों को तो गाड़ दिया गया था पर मलबे में दबे हुए मुर्दा जानवरों की दुर्गन्ध सबको परेशान  कर रही थी। कई ऑफिसर्स  दुर्गन्ध छोड़ने वाली जगहों पर मलबा साफ़ कराने के लिए जवानों को डायरेक्शन  दे रहे थे। लाख कोशिशों  के बावजूद दुर्गन्ध का प्रकोप कम नहीं हो पा रहा था। पता नहीं कितने जानवर इस नई कब्रगाह में दफ़न हो गए थे। गैमक्सीन पाउडर, फि़नाइल, धूप-अगरबत्ती का असर भी कुछ खास नहीं पड़ रहा था। ऐसे हालात में मुख्यमन्त्रीजी गांव का दौरा कैसे कर सकते थे? अफ़सरों ने यह तय किया कि मुख्यमन्त्रीजी को गांव के सिर्फ़  उस हिस्से का दौरा कराया जाए जहां पर बदबू का प्रकोप कम है।

भानू पंडितजी  मुख्यमन्त्रीजी के साथ मृतकों की आत्मा की शांति  के लिए पूजा-अर्चना करने के लिए अपना पूजा का थाल सजा चुके थे। नेताओं और आला अफ़सरों पर अपना अच्छा इम्प्रैशन  छोड़ने का यह सुनहरा मौका था। उनके घर तक अगर पक्की सड़क बन जाती तो उनके मकान की कीमत दुगनी हो जाती। पूजा के बाद भानू पपंडितजी मुख्यमन्त्रीजी के सामने पूरे गांव की तरफ़ से सड़क बनाए जाने की मांग रखने वाले थे।
जिलाधीश महोदय ने यह घोषणा  कर दी थी कि जिन पेड़ों  से मकानों को खतरा है, उन्हें काट दिया जाए। कुछ खतरनाक हो रहे टूटे और अधटूटे पेड़ों  का काटा जाना तो ज़रूरी था पर इस घोषणा  का फ़यादा उठाकर ठाकुर जमनसिंह और उनके साथियों ने सैकड़ों  पेड़ों  पर आरे चलवा दिए। अब इन लोगों के लिए इमारती लकड़ी और ईंधन की कोई कमी नहीं थी। कुछ दुकानदारों ने इस नैचुरल कैलेमिटी को अपनी आमदनी का ज़रिया बना लिया। सामान की किल्लत के अन्देसे  से आटा, दाल, चावल, चीनी, नमक, दूध, मोमबत्ती, माचिस, कैरोसिन और सब्जि़यों के दाम आसमान छूने लगे थे। कुछ लोगों ने आने वाले भूकम्प की खबर फैला दी। लोगबागों ने अपने घरों को छोड़ सारी रात खुले आसमान के नीचे बिताई। भूकम्प तो नहीं आया पर उसके डर से हुए खाली घरों में रात भर चोरों और उठाईगीरों ने अपने हाथ साफ़ कर लिए।

बालनिकुन्ज संस्था की संचालिका श्रीमती सोनालिका गांव के दो ताज़ा अनाथ हुए अबोध भाई-बहन पर अपना प्यार उड़ेल रही थीं। उनकी संस्था इन बच्चों  को अपने यहां रखने वाली थी। बाद में इन्हें बच्चा गोद लेने के इच्छुक व्यक्तियों के सुपुर्द कर दिया जाना था। सोनालिकाजी के पास मुम्बई के एक अरबपति सेठ की डिमाण्ड पड़ी हुई थी। गोद लेने के लिए उन्हें कोई सुन्दर सा अनाथ बालक चाहिए था जो कि अपने माता-पिता की लेजिटिमेट सन्तान हो। इसके लिए सेठजी सोनालिकाजी की संस्था को पचास लाख का डोनेशन  देने को तैयार थे। एक स्विस दम्पत्ति को एक सुन्दर सी बेटी चाहिए थी और वो इसके लिए विदेशी  मुद्रा में एक मोटी रकम देने को तैयार था। ऐसी आपदाओं में सोनालिकाजी को एडॉप्शन  का एकाद फ़यादेमन्द सौदा करने का मौका मिल ही जाता था। इन बच्चों को पाकर सोनालिकाजी की लॉटरी खुल गई थी।      
रिटायर्ड मास्साब पंडित  दीनानाथ पाण्डे जब चालीस रूपये किलो आलू और साठ रूपये किलो टमाटर खरीद कर ला रहे थे तब उन्हें भूकम्प की अफ़वाह का फ़यादा उठाने वाले उठाईगीरों की कारस्तानी और सोनालिकाजी के सौदेबाज़ी की खबर मिली। मास्साब अपना सर पकड़ कर सोच रहे थे -
'एनवाइरॉन्मेन्टलिस्ट्स परेशान  हैं कि गिद्धों  की तादाद घटती जा रही है पर अब उन्हें चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है। ज़िन्दा  इंसानों को बेचने वाले, उनका खून चूसने वाले और मांस नोंच-नोंच कर खाने वाले इंसानी गिद्ध उनकी जगह लेते जा रहे हैं।'

बिशनपुर गांव में बिन्नो के परिवार सहित कुछ परिवार ऐसे थे जिनका कोई भी सदस्य जीवित नहीं बचा था। इन परिवारों के मृतकों का मुआवज़ा किसे दिया जाए, यह प्रश्न  बड़ा गम्भीर था। ऐसे परिवारों के तमाम स्वयंभू रिश्तेदार  प्रकट होकर मुआवज़े की दावेदारी पेश  कर रहे थे। बिन्नो के एक चाचा पता नहीं कहां से अवतरित हो गए थे और छाती पीट-पीट कर अपनी भाभी और दोनों भतीजियों की अकाल मृत्यु का शोक मना रहे थे।
मुख्यमन्त्रीजी का हैलीकॉप्टर आसमान में मंडराने लगा था। ग़मगीन माहौल में भी उनकी जय-जयकार करने वालों की कमी नहीं थी। अभी तो मुख्यमन्त्रीजी के आने में कम से कम एक घण्टे का वक्त बाकी था पर बिशनपुर गांव में अभी से प्रेस रिपोर्टरों, फोटोग्राफरों , नेताओं, और याचकों में धक्का-मुक्की शुरू  हो गई थी। जिलाधीश,  एस0 पी0, ए0 डी0 एम0 वगैरा मुख्यमन्त्रीजी के स्वागत हेतु हैलीपैड के लिए प्रस्थान कर चुके थे। बाकी बचे छुटभैये अफ़सर भीड़ को व्यवस्थित  करने में नाकाम हो रहे थे। अब भीड़ बेसब्र हो रही थी मगर इन्तज़ार  करने के अलावा कोई और चारा नहीं था। मुख्यमन्त्रीजी के हैलीकॉप्टर को शैलनगर पहुंचे एक घण्टे से ज़्यादा हो चुका था। एक सयाना बोला -
' मुख्यमन्त्रीजी पहले शायद  नन्दगांव चले गए होंगे। वहां भी तो बादल फटने से ऐसी ही तबाही मची है।'
दो घण्टे बीत जाने के बाद भी जब मुख्यमन्त्रीजी के दर्शन  नहीं हुए तो अफ़सरों और नेताओं के मोबाइल फ़ोन  बजने लगे। सूचना मिली कि मुख्यमन्त्रीजी बिशनपुर गांव का सिर्फ़  हवाई दौरा करेंगे और पैदल चलकर सिर्फ़  कटरा गांव का दौरा करेंगे। कटरा गांव में ज़्यादा तबाही तो नहीं हुई थी पर मुख्यमन्त्रीजी वहां सिर्फ़  एक किलोमीटर पैदल चलकर पहुँच  सकते थे। कुछ देर बाद मुख्यमन्त्रीजी का हैलीकॉप्टर आकाश  में चक्कर लगाता हुआ दिखने लगा। तीन चक्कर लगाने के बाद वो भी उड़न-छू हो गया।

एक विपक्षी नेता ने व्यंग्य कसा - 'मुख्यमन्त्रीजी बिशनपुर गांव कैसे आ सकते थे? मुर्दा जानवरों की बदबू से बीमारी फैलने का जो डर था।'
दूसरे आलोचक ने चुटकी ली -
'भैया ! राजा-महाराजाओं को टूटे-फूटे रास्ते पर चार-पाँच  किलोमीटर पैदल चलकर प्रजा के दुख में शामिल  होने की क्या ज़रूरत है? बिशनपुर गांव में सड़क और मकान बनें न बनें पर हैलीपैड ज़रूर बन जाना चाहिए। फिर तो हर मन्त्री यहां का दौरा कर लेगा।'              
कुछ ही देर में मेला उजड़ गया। जहां भीड़ की रेलम-पेल थी वहां अब मरघट का सन्नाटा छा गया। बिशनपुर गांव के रहने वालों ने थोड़ी राहत की सांस ली। तमाशबीनों  ने उन्हें उनके हाल पर छोड़ कर बड़ा एहसान किया था।

बिशनपुर गांव में बादल फटने के हादसे को चार-पाँच  दिन बीत चुके थे। दिल्ली के दो मशहूर  अखबारों के रिपोर्टर्स लम्बे और उबड़ -खाबड़ आल्टरनेटिव रूट से शैलनगर  आए और वहां से बिशनपुर गांव पहुंचे। दोनों ने तबाही का मन्ज़र देखा। रोता-सिसकता बिशनपुर गांव फिर से अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश  में लगा था। अपने कैमरे में इस टूट-फूट को उन्होंने कैद तो किया पर उन्हें कोई खास थ्रिल  नहीं मिला। पहले रिपोर्टर ने दूसरे रिपोर्टर से कहा -
'यार ! इस कमर तोड़ सफ़र के बाद एक भी फड़कता हुआ स्नैप नहीं ले पाया हूँ । लोगबाग तो रोज़मर्रा की जि़न्दगी बिताते हुए दिख रहे हैं। यहां न तो पोर्ट ब्लेयर में हुई सूनामी वाली ग्रैन्ड स्केल वाली तबाही है और न लेह में बादल फटने से हुई जाइन्ट स्क्रीन  पर दिखाने लायक बरबादी। लेह जाते तो वहां आमिर खान मिल जाता, यहां तो चील-कौए और हम-तुम ही हैं।'
दूसरे रिपोर्टर ने आह भर कर कहा -
'अब न तो रोज़-रोज़ प्रलय आती है और न हर जगह बॉलीवुड के सितारे पहुंचते हैं। इस नॉनग्लैमरस, कस्बई तबाही के फीके से किस्से को तो लोग-बाग दो-चार दिन में भूल जाएंगे। पर हमको तो अपना काम करना है, चाहे वो बोरिंग हो या एक्साइटिंग। चलो ! नन्दगांव और कटरा में हुए डिज़ास्टर को कवर करने की खानापूरी भी कर लेते हैं और कल ही दिल्ली लौट चलते हैं।' 
           
 

रविवार, 10 मार्च 2013

प्रलय- 3

 
तेज़ बारिश में शंकर  की ट्रेन  गौरीद्वार पहुंची। सुबह के सात बज रहे थे पर इतना अंधेरा था कि लगता था कि अभी पौ भी नहीं फटी है।शंकर स्टेशन  से बाहर निकला तो टैक्सियां नदारद। सड़क जैसे भारी-भरकम पनाला बन गई थी। एक घण्टे के इंतज़ार  के बाद उसे शैलनगर जाने वाली एक टैक्सी मिली भी तो पर-सीट साढ़े तीन सौ रूपये के रेट पर। गरीब फ़ौजी  जवान शंकर के लिए डेड़ सौ के बदले साढ़े तीन सौ रूपये ज़्यादा तो थे पर उसे अपनी माँ  और अपनी नई-नवेली बीबी बिन्नो तक पहुंचने की इतनी बेताबी थी कि वो बिना कोई सौदेबाज़ी किए हुए टैक्सी में बैठ गया। ड्राईवर  को गाड़ी चलाने में बहुत दिक्कत हो रही थी। गाड़ी के वाइपर्स, शीशे पर पड़ने वाले पानी के थपेड़ों  को साफ़ करने में नाकाम साबित हो रहे थे। गाड़ी की लाइट ऑन  होने के बावजूद दस मीटर आगे तक देख पाना भी नामुमकिन हो रहा था पर सबको शैलनगर  पहुंचने की जल्दी थी। जैसे-तैसे तीन घण्टों में टैक्सी दो-तिहाई रास्ता पर कर राजाघाट तक पहुंची पर फिर ड्राईवर ने हाथ खड़े कर दिए। सामने पहाड़ से गिरे मलबे का दस फ़ीट ऊँचा  टीला बन चुका था। सड़क पर गिर रहे पत्थरों से बच-बचाकर निकल जाना नामुमकिन था, उस पर पानी का बहाव ऐसा था कि टैक्सी को भी अपने साथ बहा ले जाए और नीचे उफ़नती नदी में विसर्जित कर दे। शंकर के अलावा बाकी सब लोगों ने आगे बढ़ने का अपना  प्रोग्राम  कैंसिल कर दिया पर वो अकेला हिम्मत करके कार से उतर कर अपना सूटकेस अपने कंधे पर लाद कर और अपने सर पर छाता तान कर, शैलनगर के लिए पैदल चल पड़ा।
शंकर का छाता इस तेज़ बरसात में, पानी से तो उसका बचाव नहीं कर पा रहा था पर छोटे-मोटे कंकड़-पत्थरों से उसके सर की हिफाज़त  ज़रूर कर रहा था। वो पानी से तर-बतर ऊपर पहाड़ से लुढ़कते पत्थरों से खुद को बचाता हुआ आगे बढ़ता चला जा रहा था पर किसी कछुए की स्पीड से। घबराया हुआ शंकर अपने भगवान को याद कर रहा था -
'हे भोलेनाथ ! कृपा करो ! इस तूफ़ानी  बरसात को रोक दो। इस भयानक बरसात में तीस किलोमीटर पैदल चलकर मैं कब बिशनपुर पहुंचूंगा?'
शंकर को अपनी पैंट की अन्दर की जेब में रखे दो हज़ार  रूपयों और पन्द्रह हज़ार  के ड्राफ़्ट  के भीगने का डर भी लगा था। कल रात से उसने कुछ खाया-पीया भी नहीं था पर घर पहुंचने की बेताबी में वो अपनी सारी परेशानियों को भूलकर आगे बढ़ता जा रहा था। शंकर दस किलोमीटर चलकर भवानीपुर पहुंचा। वहां चाय की बस एक दुकान खुली थी। चाय और बिस्किट  से अपनी भूख मिटाते हुए उसने वहां थोड़ा आराम किया और फिर चलने के लिए उठ खड़ा हुआ। चाय वाले ने उसे रोकने की गरज से कहा -
'भैया ! क्या बावले हुए हो? ऐसी बरसात में क्या कोई बाहर निकलता है?'
शंकर ने उसे अपने घर पहुंचने की अपनी बेताबी का सबब नहीं बताया। चाय वाले ने उससे फिर कहा -
'अब बरसात तो थमने से रही। ऐसा करो कि तुम रात मेरे घर ही रूक जाओ। कल सवेरे बरखा थम जाए तो शैलनगर चले जाना। तब तक शायद  रोड भी खुल जाएगी और तुम्हें शैलनगर के लिए कोई गाड़ी भी मिल जाएगी।'
शंकर ने उस भले आदमी की, अपने घर पर ठहरने की दावत कबूल नहीं की और उसे धन्यवाद देकर वो फिर अपनी मन्जि़ल की तरफ़ कदम बढ़ाने  लगा। रास्ते में टूटे पेड़ों  को लांघते हुए, सड़क पर पानी के तेज़ बहाव से खुद को बचाते हुए वो आगे बढ़ता रहा। अब उसने अपने कदम तेज़ कर दिए। रात से पहले वो अपने घर पहुंचना चाहता था। पिछले छह घण्टों से वो लगातार पैदल चला जा रहा था पर अभी उसकी मन्जि़ल सिर्फ़  आधी पार हुई थी। अब उसे कोई चाय की दुकान भी खुली नहीं दिखाई दे रही थी। पर भूख-प्यास और थकान से एक साथ लड़ना उसे आता था। शंकर  की मिलिट्री ट्रेनिंग  उसके काम आ रही थी। धीरे-धीरे अंधेरा होने लगा पर उसने हिम्मत नहीं हारी। अंधेरे का सहारा उसकी टॉर्च बन गई थी। बिजली कड़कने और दूर कहीं बिजली गिरने की भयानक आवाज़ें भी उसको रोकने में नाकाम हो रही थीं। शंकर को अपनी छुट्टी का पूरा एक महीना अपनी माँ  और बिन्नो के साथ बिताना था और इसी दौरान उसे अपना मकान भी पक्का करवाना था। उसकी शादी के समय उसके पास इतने पैसे नहीं थे कि मकान को पक्का करा सके पर अब दस महीने की बचत उसकी जेब में थी। अब तो मकान को टिपटॉप कराकर ही उसे दम लेना था।
चलते-चलते मानों एक युग बीत चुका था। अब तो सुबह होने वाली थी। पर अब बिशनपुर भी तो नज़दीक आ चुका था। थकान के बावजूद शंकर के कदम अब और तेज़ पड़ने लगे थे। अब तो उसे अम्मा के हाथों की गरम चाय पीकर अपनी थकान मिटानी थी और बिन्नो पर इतना प्यार बरसाना था कि ये घनघोर हो रही बरसात भी फीकी पड़ जाए।
बिशनपुर पहुंच कर शंकर को लगा कि वो कहीं और आ गया है। ये तो कोई उजड़ा हुआ मुर्दा गांव लग रहा था। लोग-बाग थे पर सबके चेहरे पर मुर्दानगी छाई थी। कई जगह तम्बू गड़े थे। शंकर के कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि माजरा क्या है। ये तो साफ़ था कि बरसात से भयंकर तबाही हुई है। चारों तरफ़ उफ़नता हुआ पानी, तमाम मकान मलबे से ढके हुए, भानू पंडितजी  और ग्राम प्रधान ठाकुर जमनसिंह के मकान ही सही सलामत दिख रहे थे, बाकी सब मिट्टी में मिल गए थे। शंकर को अपना मकान ढूढ़े नहीं मिल रहा था, उसने पंडितजी के मकान से दिशाओं  का अन्दाज़ा लगा कर उसे जैसे-तैसे खोज लिया पर वहां पहुंच कर उसके हाथ-पैर फूल गए। उसका मकान मलबे में दबा हुआ था और मकान के सामने सफ़ेद कफ़न में एक लाश  बंधी हुई थी। शंकर को देखकर कुछ गांव वाले उसको ढाढस बंधाने के लिए आ पहुँचे । उसके पड़ोस  के दीवान दा उसका हाथ पकड़ कर उसे लाश  के पास ले गए और उससे रूंधे गले से कहने लगे -
'शंकर ! आखरी बार अपनी अम्मा के पैर छू ले। तेरा इन्तजार करते-करते उन्होंने अपने प्राण त्यागे हैं।'
शंकर 'हाय अम्मा ! हाय अम्मा !' कहकर अपनी माँ  के पैरों में गिर पड़ा। भानू पंडितजी ने उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा -
'बेटा शंकर ! तेरी अम्मा का अब संस्कार हो जाना चाहिए। पिछले चौबीस घण्टों से बस हम तेरा ही इंतज़ार  कर रहे थे। और हाँ बेटा ! तुझे कुछ दान-पुण्य भी करना होगा। मैं पूजा की सामग्री अपने साथ ले आया हू¡।'
शंकर ने अपनी आँखें  पोंछकर अपनी जेब से एक पाँच  सौ का एक भीगा हुआ नोट पंडितजी के सुपुर्द किया। पंडितजी  ने दो सौ रूपयों की और माँग  की तो वो भी उनको प्राप्त हो गए। अब इस तेज़ बरसात में उसे अम्मा को श्मशान घाट ले जाना था। शंकर की मुसीबत में उसका साथ देने वालों की कमी नहीं थी। उनमें से कई ऐसे भी थे जिन्होंने पिछले दिन ही अपने किसी आत्मीय का अंतिम संस्कार किया था। शंकर को बिन्नो की तलाश  थी पर बिन्नो उसे कहीं दिखाई नहीं दी। कहीं वो भी तो इस प्रलय के चपेटे में नहीं आ गई?
उसने दीवान दा से पूछा -
'दादा ! बिन्नो कहां है? वो भी क्या मुझको छोड़ कर चली गई?'
दीवान दा ने उसे ढाढस बंधाते हुए कहा -
'नहीं भैया ! अपनी मां और अपनी छोटी बहन को श्मशान  घाट के लिए उसी ने विदा किया है। और लछमिया चाची की अर्थी भी उसी ने तैयार कराई है। अपनी मां और अपनी बहन के लिए वो फूल चुनने गई होगी, जल्द आ जाएगी। अब तू उसकी फिकर छोड़ और चाची को श्मशानघाट पहुंचाने की तैयारी कर।' 
   श्मशानघाट जाने की जल्दी में शंकर को बिन्नो को ढूंढ़ने की फ़ुर्सत भी कहां थी? अब तो वहां से लौट कर ही वो उससे मिल सकता था।    
शंकर अपनी अम्मा की चिता को प्रज्जवलित करने के बाद मिट्टी की हांडी में उसकी अस्थियाँ  एकत्र करने तक मूर्ति बना खड़ा रहा। उसकी अस्थियों  की हांडी को लेकर जब शंकर  लौटने लगा तो उसके दोस्त बलबीर ने उससे पूछा -
शंकर तेरी गाड़ी का एक्सीडैन्ट तो  शैलनगर से बारह किलोमीटर दूर माधोपुर के पास हुआ था? तुझे ज़्यादा चोट तो नहीं आई? तू वहां से यहां कैसे पहुंचा?'
शंकर को बलबीर के सारे सवाल कुछ अटपटे से लगे। उसने बलबीर से कहा -
'मेरा एक्सीडैन्ट कहां हुआ? मैं तो रोड ब्लॉक हो जाने की वजह से राजाघाट से तीस किलोमीटर पैदल चलकर आ रहा हूँ .
बलबीर ने हैरान होकर पूछा - 'फिर कुलवन्त और चन्द्रभान ने बिन्नो से ये क्यों कहा कि माधोपुर के पास तेरा एक्सीडैन्ट हो गया है?'
ग्रामप्रधान ठाकुर जमनसिंह का बेटा कुलवन्त और भानू पंडितजी  का बेटा चन्द्रभान, दोनों ही इलाके के छटे हुए बदमाश थे। दोनों बिन्नो को भाभी के रिश्ते  का बहाना कर छेड़ते रहते थे। शंकर  ने बलबीर से घबराकर पूछा -
'बिन्नो क्या अपनी अम्मा और बहन के लिए फूल चुनने के लिए नहीं गई है?'
बलबीर ने जवाब दिया - 'वो तो उनको अंतिम संस्कार के लिए विदा करने के फ़ौरन  बाद ही कुलवन्त और चन्द्रभान के साथ तुझे देखने माधोपुर के लिए चल दी थी। उसके बाद से मैंने उसे देखा नहीं है।'
बिशनपुर गांव वापस पहुंचकर शंकर  ने अपनी अम्मा की अस्थियों को एक सुरक्षित स्थान पर रखकर बिन्नो की तलाश जारी कर दी पर वो उसे कहीं नहीं मिली। कुलवन्त और चन्द्रभान का अता-पता किसी को मालूम नहीं था। शंकर , पुलिस में बिन्नो की गुमशुदगी  या उसके अपहरण की रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए जाने लगा तो ठाकुर जमन सिंह और भानू पंडितजी  ने उसे रोक दिया। पंडितजी  ने शंकर  को समझाते हुए कहा -
शंकर बेटा ! चन्द्रभान और कुलवन्त तो पिछले सात दिन से दिल्ली में है। भला ऐसे संस्कारी लड़के  किसी लड़की को बहकाकर अपने साथ ले जाने का पाप कर सकते हैं ? फिर बिन्नो तो इन लड़कों के लिए बहन जैसी है। मैंने तो बिना दान-पुण्य लिए बिन्नो की अम्मा भग्गो और उसकी बहन मुन्नी के क्रिया करम की सब पूजा की है। इस बलबीर के बच्चे का दिमाग खराब हो गया है। पता नहीं क्यों वो चन्द्रभान और कुलवन्त जैसे भोले-भाले लड़कों के बारे में अनाप-शनाप  बक रहा है। पर तू घबड़ा मत। बिन्नो हमको मिल जाएगी।'
ठाकुर जमनसिंह ने पंडितजी  की बात का समर्थन करते हुए शंकर को बताया -
पिछले छह-सात दिनों से दिल्ली से कुलवन्त और चन्द्रभान के रोज़ फ़ोन आ रहे हैं। जब से उन्होंने यहां की विपदा की खबर सुनी है तब से तो बेचारों को यहीं की फि़कर लगी रहती है। मेरा पूरा परिवार जनसेवा के लिए अपनी जान तक दे सकता है। मैंने तो श्मशान  में भग्गो और मुन्नी के क्रिया करम के खर्चे के लिए अपनी जेब से पाँच  सौ रूपये भी दिए हैं।'
शंकर को पुलिस में रिपोर्ट करने से ज़ोर -जबर्दस्ती रोक लिया गया। शंकर और उसके सब दोस्त बिन्नो की खोज में लग गए पर इसके लिए उन्हें ज़्यादा वक्त नहीं लगाना पड़ा। बिशनपुर गांव से कुछ दूर एक नाले में, पेड़ की एक टूटी डाल में फंसी, उसकी फूली हुई लाश  मिल गई। ठाकुर जमनसिंह ने पागलों की तरह अपना सर पीट-पीट कर रोते हुए शंकर को दिलासा देते हुए कहा -
'बेटा शंकर ! पानी का बहाव तो इतना तेज़ था कि मकान के मकान बह गए। एक बेचारी लड़की की क्या बिसात थी? अपनी अम्मा और अपनी बहन की मौत के गम में बिचारी नाले के पास बैठकर रो रही होगी और फिर वहीं उसका पैर फिसला होगा और वो नाले में बह गई होगी। तू कुलवन्त और चन्द्रभान के बारे में कुछ उल्टा-सीधा मत सोचना। बेटा ! जल में रहकर मगरमच्छों से बैर लेकर तू कैसे टिक पाएगा?'
ठाकुर जमनसिंह ने बिन्नो की लाश  को उठवा कर चुपचाप शंकर के मकान के मलबे में दबवा दिया और फिर हो-हल्ला कर उसको मलबे में से बाहर भी निकलवा लिया। कई लोगों ने इस नाटक को देखा भी पर गांव के मगरमच्छों के खिलाफ़ बोलने की हिम्मत कौन कर सकता था?
भानू पंडितजी  ने बिना दान-दक्षिणा लिए बिन्नो के अंतिम संस्कार से पहले होने वाली पूजा कर दी। ठाकुर जमनसिंह ने एक बार फिर अपनी उदारता का परिचय दिया। उन्होंने इस बात का पक्का इंतजाम  कर दिया कि शंकर को अपनी माँ  और अपनी पत्नी की मौत का पूरा-पूरा मुआवज़ा मिले। शंकर की ज़िद की परवाह न करते हुए उन्होने बिन्नो का पोस्टमार्टम नहीं होने दिया और अपने खर्चे पर चटपट उसका अंतिम संस्कार करा दिया।

 

शुक्रवार, 1 मार्च 2013

प्रलय- 2

बादल फटने के हादसे के अगले दिन बिशनपुर  गांव एक उजड़ा हुआ समुद्री टापू लग रहा था। जगह-जगह नाले फूट पड़े थे। मूसलाधार बारिश अब भी अपना कहर बरपा रही थी। खण्डहर हुए मकान मलबे से ढके हुए थे। पहाड़ की मिट्टी भरभरा कर गिरती चली जा रही थी। मलबों से ढके मकानों के अन्दर से उनमें फंसे और दबे हुए ज़िन्दा  लोगों की चीख-पुकारें दूर-दूर तक सुनाई दे रही थीं। मातम मनाने वालों का शोर  बारिश और तूफ़ान  के शोर  को भी मद्धम कर रहा था। कुछ मुरदा जानवर इधर-उधर ज़मीन पर छिटके पड़े थे और कुछ पानी के तेज़ बहाव के साथ बहे चले जा रहे थे। दो-चार कुत्ते गिरे हुए पेड़ों  को पुल की तरह से इस्तेमाल करके इधर से उधर जा रहे थे।

पूरे बिशनपुर गांव में बस भानू पंडितजी  और ग्रामप्रधान ठाकुर जमनसिंह के पक्के मकान सुरक्षित थे। भानू पंडितजी  अपने घर के बरामदे में चिंतित  मुद्रा में खड़े होकर हालात का जायज़ा ले रहे थे। पंडितजी  मन ही मन हिसाब लगाते हुए सोच रहे थे -
'हे भगवान ! बड़ा बुरा हुआ। किसना दर्जी और भूसन लुहार का तो पूरा कुनबा मिट गया। दोनों पर मेरा करीब तीन हज़रा का कर्ज़ा  बाकी था। अब उसकी भरपाई कौन करेगा? बिन्नो की छोटी बहन मुन्नी की शादी  में हजार-दो हजार मिलने वाले थे, वो भी डूबे। उसकी अम्मा और खुद मुन्नी तो परलोक सिधार गए। अब तो बिशनपुर  गांव में एक साल तक कोई जसन होने से रहा। भानू पंडितजी  की कुल दान-दक्षिणा समझो गई बट्टे-खाते में।'
सामने से किसना की भैंस रस्सी तुड़ा कर भागती हुई आ रही थी। भैंस माता के दर्शन  कर भानू पंडितजी  की बांछे खिल गईं। अब किसना का उधार उसकी भैंस अपने घर बांधकर वसूल हो जाएगा। भूसन लुहार के घर कोई गाय-भैंस तो नहीं थी पर उसके औज़ारों  को दूसरे लुहारों को बेचकर हज़ार हज़ार -पाँच  सौ तो इकट्ठे हो ही जाने थे। गांव के दो दर्जन मृतकों के अन्तिम संस्कार का जिम्मा भी तो पंडितजी  को ही मिलना था। उसमें भी दान-पुण्य के रूप में उन्हें मोटी रकम हासिल होने वाली थी। अब तक दुखी भानू पंडितजी का चित्त गद्गद हो चुका था। उन्होंने श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़ कर इन्द्रदेव को उनकी महती कृपा के लिए धन्यवाद दिया।

शैलनगर और आसपास के गांवों से बिशनपुर  गांव में तमाशबीनों   की भारी भीड़ जमा हो चुकी थी। आर्मी और एस0 एस0 बी0 के जांबाज़  जवान तेज़ बारिश में, अपनी जान की परवाह किए बग़ैर, मलबे में फंसे हुए लोगों को बाहर निकालने में जुटे हुए थे। आर्मी मेडिकल कोर वाले घायलों की मरहम पट्टी कर रहे थे तो कुछ रोते हुए बच्चों को कुछ खिला-पिलाकर बहलाने की कोशिश में भी लगे थे पर दर्शकों  की जमात शोर-शराबा करने के अलावा उनके काम में अड़ंगा डालने का कर्तव्य निभा रही थी। कुछ के लिए ये हादसा किसी तमाशे जैसा था। खबर उड़ी थी कि बिशनपुर  गांव में मरने वालों की तादाद सैकड़ों में है और पूरा गांव श्मशान  में तब्दील हो गया है पर तमाशबीनों  को सिर्फ  बीस-पच्चीस लोगों की मौत और तीस-चालीस मकानों के ज़मीदोज़ हो जाने की ख़बर  ने काफ़ी निराश  किया। सिर्फ़ तमाशा  देखने के लिए इतनी मेहनत करके और इतना खतरा मोल लेकर जो लोग आए थे वो टूटे मकानों, टूटे पेड़ों  और मलबे के ढेर पर खड़े होकर फोटो  खिंचवा रहे थे। मशहूर  फोटोग्राफर  राजेश्वर उपाध्याय ने अपने आसपास खड़े दर्शकों की जनरल नॉलिज बढ़ाने  के लिए कहा -
'इस नज़ारे  को देखकर पुरानी फि़ल्म मदर इंडिया  की बाढ़ का सीन याद आ गया। मैंने तो अपने कैमरे में एक से एक सेंसेशनल  सीन्स कैद कर लिए हैं। एक चाय-पकौड़ी वाले की दुकान गिरकर एक पेड़ पर टंग गई थी, अब तो वह ज़मीन पर आ गई है पर मैंने इस हैंगिग रैस्त्रां के कई एंगिल्स से स्नैप्स लिए हैं। उत्तरकाशी के भूकम्प के फोटोफीचर  पर मुझे मनोहर टाइम्स वालों का इनाम भी मिला था। इस बार भी कोई न कोई अखबार वाला मुझे इनाम दे ही डालेगा। अब नन्द गांव जाता हूँ , वहां भी बादल फटा है और भारी तबाही हुई है। वहां से भी कुछ न कुछ एक्साइटिंग स्नैप्स का जुगाड़ तो हो ही जाएगा।'
इस शेखीखोर  राजेश्वर  उपाध्याय के कारनामों का घिसापिटा किस्सा सुनकर मधुकर टाइम्स के चीफ़ रिपोर्टर मुकुन्द तिवारी मन नही मन हंस रहे थे। उन्होंने मकान के मलबे में अधदबी एक औरत और उस की छाती से चिपट कर दूध पीते  उसके बच्चे की कीचड़ में सनी लाशों की ऐसी शानदार तस्वीर खींची थी कि उन्हें इंटर्नेशनल  अवार्ड मिलना तय था। अपने कैमरे को चारों तरफ़ घुमाते हुए इस विनाश लीला का हर दिलचस्प मन्ज़र कैद करते हुए मन ही मन वो अपने राइवल उपाध्याय से बात कर रहे थे -
'बेटा राजेश्वर  उपाध्याय ! फोटोग्राफी  के हुनर में मैं तुम्हारा बापहूँ । मैं बिशनपुर  गांव और नन्द गांव, दोनों जगह तुम पर भारी  पड़ूंगा। तुमको एक फोटोफीचर  पर नेशनल  अवार्ड मिला है तो मुझे चार नेशनल और दो इण्टरनेशनल अवार्ड्स  मिल चुके हैं। मण्डल कमीशन  के विरोध में किए जाने वाले आन्दोलन के दौरान दो स्टूडेन्ट्स के आत्मदाह का टीवी चैनल्स पर लाइव कवरेज मेरी ही बदौलत आया था।'            

ठेकेदार ठाकुर भोला सिंह बड़ी मुस्तैदी से पीडि़तों को चाय, नमकीन और बिस्किट  का नाश्ता करवा रहे थे। बिशनपुर  गांव की सौ मीटर से भी ज़्यादा टूटी सड़क, दो घ्वस्त पुलिया, मलबे में तब्दील हो चुके पंचायतघर, प्राइमरी पाठशाला  और प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र के पुननिर्माण का ठेका हासिल करने के लिए तीन-चार हज़ार का दान-पुण्य करना घाटे का सौदा नहीं था पर बुरा हो ठेकेदार हरीश  पाण्डे का। कम्बख़्त गांव के हर मर्द-औरत को सौ-सौ रूपये और एक-एक कम्बल बांट रहा था और अपने इस महान कार्य की वीडियो फि़ल्म भी बनवा रहा था। भोला सिंह सोच रहे थे -
'अब तो आला अफ़सरों और मन्त्रियों के दरबारों में चढ़वो चढ़ाकर  ही बिशनपुर  गांव के रिकंस्ट्रक्शन  का ठेका नसीब हो पाएगा।'

स्थानीय दबंग नेता और पिछले विधान सभा चुनाव में अपनी ज़मानत खो चुके विरोधी पक्ष के ठाकुर बलवन्त सिंह अपने दल-बल के साथ दुर्घटना-स्थल पर मौजूद थे। इस हादसे के पीछे उन्हें सत्तापक्ष का नाकारापन साफ़ नज़र आ रहा था। सरकार की प्रशासनिक  स्तर पर कमियों और लापरवाहियों पर वो एक ओजस्वी भाषण  देना चाहते थे पर इसके लिए उन्हें कोई मौका नहीं दे रहा था पर उनकी खुशकिस्मती  से एक टीवी न्यूज़ चैनल का रिपोर्टर उनसे इस हादसे के बारे में सवाल करने की भूल कर बैठा और उसके कैमरे के सामने उन्होंने भाषण फोड़ने की अपनी पूरी भड़ास  निकाल ही डाली। पर अभी अपनी जनसेवा का उन्हें कोई फड़कता हुआ नमूना भी शैलनगर की जनता के सामने पेश  करना था। अपने शिकार  उस टीवी रिपोर्टर के कान में कुछ कहकर उन्होंने नोटों का एक बण्डल चुपके से उसकी जेब में डाला, फिर अपने दो समर्थकों को कीचड़ में सनवा कर, भीड़भाड़ से दूर एक मकान के मलबे में फंसवा दिया और फिर उन्हें अपनी जान पर खेल कर सकुशल निकालने लाने का बड़ा नेचुरल अभिनय किया। नोटों का बण्डल पाकर मगन न्यूज़ रिपोर्टर ने इस रेस्क्यू ऑपरेशन   का हर दृश्य  अपने वीडियो कैमरे में कैद किया और ठाकुर साहब से उसने वादा किया कि अगले दिन उसका चैनल दिन में दस बार उनका यह महान कार्य प्रसारित करेगा।

सरकारी महकमा लाल बत्ती वाली सफ़ेद एम्बैसडरों और नीली बत्तियों वाली जिप्सियों में लद-फंद कर बिशनपुर  गांव की शोभा  बढ़ाने  आ पहुंचा था। अधिकारीगण कीचड़ से अपने कीमती जूतों और पोशाकों  को इतनी निष्ठा  से बचाने की कोशिश  कर रहे थे कि उन्हें गांव वालों की तकलीफ़ पर ध्यान देने की ज़्यादा फ़ुर्सत ही नहीं मिल पा रही थी। वैसे भी आज दिन के ग्यारह बजे एक मन्त्री के दौरे के वक्त इस गांव का उन्हें दोबारा चक्कर लगाना था और कल मुख्यमन्त्री के दौरे के समय तीसरा। आज ही अगर गांव वालों की सारी -शिकायतें सुनकर उनका समाधान करने की कोशिश शुरू  कर दी जाती तो दूसरे और तीसरे दौरे के वक्त मन्त्रीजी और मुख्यमन्त्रीजी के सामने स्थानीय प्रशासन  की बड़ी किरकिरी हो जाती। सबॉर्डिनेट ऑफिसर्स  को राहत कार्य के लिए कुछ ज़रूरी इन्सट्रकशन देकर जिले के टॉप अफ़सरान, हादसों के शिकार  दूसरे क्षेत्रों के तूफ़ानी  दौरे पर निकल पड़े।        



- क्रमशः ...

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

प्रलय- 1


        पिछले दो महीने से बारिश जैसे थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। सितम्बर का आधा महीना बीत चुका था। अब तो इन्द्र भगवान को लॉन्ग  लीव पर चले ही जाना चाहिए था। सबको उम्मीद थी कि कि अब खुले आसमान के रोज़ दर्शन  हुआ करेंगे। बरसात के बाद शैलनगर की सुन्दरता देखते बनती है। हिमालय की चोटियां बिलकुल साफ़ दिखाई देती हैं और वो भी ऐसे जैसे आप हाथ बढ़कार उन्हें छू सकते हैं। पहाडि़यां और वादियां हरी मखमल की खूबसूरती को समेटे हुए दिखाई पड़ती हैं और जंगलों में फूलों की बहार होती है। पिकनिक, ट्रेकिंग और पर्वतीय तीर्थ-यात्रा के लिए ये मौसम बड़ा खुशगावार होता है। पर इस बार इन्द्र भगवान ने सितम्बर को सितमगर बनाने की ठान ली थी। पन्द्रह सितम्बर से पानी बरसना शुरू हुआ। लगा कि आखरी बरसात है, हमको थोड़ा-बहुत भिगोकर हमसे विदा ले लेगी पर पानी था कि थमने का नाम ही नहीं ले रहा था।
बिशनपुर गांव की लछमिया का फौजी  बेटा शंकर छुटि्टयों में अपने घर आने वाला था। दो दिन की लगातार बारिश से लछमिया का जी घबराने लगा था। वो भगवान से मना रही थी कि उसका बेटा सही-सलामत उस तक पहुंच जाए। अब बादल कब छटेंगे ये तो पत्रा देखकर भानू पंडितजी  ही बता पाएंगे। बीस रूपये का एक नोट,एक थैली में अपने खेत की पैदावार करेले, कद्दू की थैली और गाय के दूध से भरा एक बड़ा लोटा पंडितजी के चरणों में अर्पित करके उसने उनसे पूछा -
'पंडितजी! जरा पत्रा देखकर बताइए कि इन्दर देवता कब अपने घर वापस जाएंगे। मुझे संकर की बड़ी फिकर हो रही है। कल वो रेलगाड़ी से गौरीद्वार पहुंच रहा है पर ऐसी बरखा में शैलनगर कैसे आ पाएगा?'
भानू पंडितजीने काले बादलों को देखा, अपनी उंगलियों पर कुछ गणना की, पत्रा के दो-चार पन्ने पलटे, फिर इत्मीनान से अपने मुहं में गुटके की एक बड़ी डोज़ डाल कर बोले -
'अरे लछमिया तू बेकार में परेशान  हो रही है। कहावत है -काला बादल जी डरवावे, भूरा बादल पानी लावे। अब तो बादलों का रंग भूरे से काला पड़ गया है। अब कोई चिन्ता की बात नहीं है। पत्रा बांचने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा  हूँ  कि दो-चार घण्टों में तेरी चिन्ता दूर हो जाएगी। मैं मन्तर पढ़ देता हूं। बारिश  शर्तिया रूक जाएगी। और हाँ  घर जाकर बाहर की दीवाल के सहारे सींक वाली झाड़ू उल्टी रख देना। इससे बारिश रुक  जाएगी।'

लछमिया इस भविष्यवाणी  को सुनकर और पंडितजीके मन्तर की शक्ति को जानकर खुश  हो गई। उसने पूरी श्रद्धा से पंडितजी को दण्डवत प्रणाम किया और फिर अपने घर जाने के लिए उठने लगी। पंडितजी ने उससे उलाहने के स्वर में कहा -

'अरी भागवान! मेरी दक्षिणा तो देती जा ।'

लछमिया के कुछ समझ नहीं आया। बीस का एक नोट, थैली भर करेले-कद्दू और लोटा भर गाय का बढि़या दूध क्या पंडितजी की मुहं दिखाई के लिए दिए थे?

पंडितजी ने लछमिया के कंफ्यूजन  को दूर करने के लिए उसे समझाया - 'अरे तेरा चढ़ावा  तो पत्रा देखने में खरच हो गया। बरखा रोकने का मन्तर पढ़ने में मेरा जो पुण्य लगा उसका मेहनताना तो और देती जा।'

अपनी साड़ी में उरसा हुआ बीस का आखरी नोट पंडितजी को थमाने में लछमिया को कष्ट  तो बहुत हुआ पर बेटे के घर आने की खुशी  में उसने लालची पंडित का ये गुनाह माफ़ कर दिया। उसने घर पहुंचते ही देवी मैया का जाप करके दीवाल के बाहर सींक वाली झाड़ू को उल्टा करके रख दिया। अब चिन्ता की कोई बात नहीं थी। उल्टी झाड़ू के टोटके और भानू पंडितजी के मन्तर के चमत्कार से बरसात थमने ही वाली थी और कल उसका लाडला संकर उससे गलबहिंया करने ही वाला था।

 पर लगता है भानू पंडितजी का मन्तर और उल्टी झाड़ू का टोटका कुछ असरदार नहीं निकले। बरसात थमने की उनकी प्रार्थना ऊपर  इन्द्र भगवान तक नहीं पहुँची। पानी पहले की तरह झमाझम बरसता रहा। बल्कि थोड़ी देर बाद बिजली के कड़कने की आवाज़ें कुछ ज़्यादा ही तेज़ हो गई और बारिश  ने भी तूफ़ान  का रूप ले लिया। लछमिया का एक कमरे का मकान कई जगह से फ़र्श  की सिंचाई करने लगा। लछमिया बेचारी की बाल्टी, थाली और परात सब के सब फ़र्श को सूखा रखने में खर्च हो गए। लछमिया की बहू बिन्नो उसके साथ काम में हाथ बटाने लगी। लछमिया ने बिन्नो को प्यार से कहा -
'बिन्नो ! हम गरीबों की कुटिया में तेरी जैसी लच्छमी आई है। अभी तो तेरी लगन का साल भर भी नहीं हुआ है। मैं तुझ से ये उल्टे-सीधे काम कराऊँगी ? तेरी माँ  भग्गो को मैं क्या जवाब दूंगी? तू आराम कर मैं सब कर लूंगी।'
पर बिन्नो उसके साथ सामान बचाओ अभियान में जुटी रही। बिन्नो ने घर के कीमती(?) आइटम्स को घर की एकमात्र चौकी पर रखकर उन्हें टूटे त्रिपाल के टुकड़ों  और पॉलीथीन की थैलियों से ढक दिया। वैसे लछमिया को अपनी जान की कोई चिन्ता नहीं थी और न अपने घर या उसके सामान की। उसका लायक बेटा इस बार मकान की छत और घर के कच्चे फ़र्श को पूरी तरह से पक्का कराने वाला था। उसको चिन्ता थी तो बस बिन्नो की और शंकर  की। लछमिया शंकर की चिन्ता कर सोच रही थी कि वो इस तूफ़ना में कैसे घर पहुंचेगा। उसको भानू पंडितजी पर गुस्सा आ रहा था। इतना चढ़ावा  अगर वो सीधे इन्दर देवता को चढ़ाती  तो वो खुद बरसात रोक देते पर वो तो पंडितजी के झांसे में आ गई। लछमिया ने अपने हाथ ऊपर  जोड़ कर भगवान से अरदास की -
'हे भगवान ! भली करियो ! मेरा संकर कुसल से घर आ जाए या ऐसा करो कि उसको गौरीद्वार पर ही रोक दो !'

कड़कड़ की आवाज़ के साथ लछमिया के घर के बगल का तून का पेड़ बिन्नो के मायके वाले घर पर गिर पड़ा। बिन्नो 'हाय अम्मा ! हाय मुन्नी !' का चीत्कार करते हुए उस तरफ़ दौड़ पड़ी। लछमिया भी उसके साथ भागी पर दोनों मकान के मलबे में दबी औरतों की दर्द भरी चीखें सुनने के अलावा कुछ नहीं कर पाईं। उनकी मदद की गुहार सुनकर कोई नहीं आया। सबके सब अपनी जान और अपना-अपना घर बचाने में लगे हुए थे। रोती कलपती बिन्नो का हाथ पकड़ कर लछमिया उसे फिर अपने घर खींच लाई। यहां कम से कम उनकी जान जाने का खतरा तो नहीं था। घर की टूटी खिड़की से दोनों सास-बहू रोती-कलपती अपनी आँखें  फाड़-फाड़ कर विनाश  लीला देख रही थीं। किसना दर्जी के घर में पनाला सा बह रहा था और वो कुदाली से पानी की निकासी की नाकाम कोशिश कर रहा था पर कुछ देर बाद उसको इस कसरत से छुटकारा मिल गया। उसके घर के ऊपर  के टीले पर बना भूसन लुहार का मकान भरभराकर उसके मकान पर गिर पड़ा। बिन्नो अपने दर्द को भूलकर किसना को बचाने के लिए दौड़ पड़ी पर किसना तब तक मलबे में दबकर बिलकुल शांत हो गया था।
कुछ देर बाद बिजली कड़कने के साथ एक दिल दहलाने वाली आवाज़ हुई। लगा कि जैसे आसमान ही फट गया हो। पर ऐसा कुछ हुआ नहीं था। आसमान कहां फटता है? वो तो धमाके के साथ ज़रा सा बादल फट गया था। अब इस छोटे से हादसे से बिशनपुर  गांव में दो मन्जि़ला बाढ़ आ जाए और तीस-चालीस मकान बह जाएं या टूट जाएं तो क्या किया जा सकता है?    



- क्रमशः ...

शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

राम राज्य


हर तरफ़ मजबूरियाँ  हैं, हर तरफ़ फ़रियाद है ,
राम तेरे राज की कितनी हँसीं बुनियाद है ।
खु़दकुशी के फ़ैसले से दूर होंगी मुश्किलें,
हम परिन्दों ने हिफाज़तदां चुना सय्याद है ।।


 

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

शाश्वत प्रश्न ???

पिघले कोलतार की चिपचिप से उक्ताई,
गर्म हवा के  क्रूर थपेड़ों  से मुरझाई,
मृग तृष्णा सी लुप्त, सिटी बस की तलाश में,
राजमार्ग पर चलते-चलते ।
मेरी नन्ही सी, अबोध, चंचल बाला ने,
धूल उड़ाती , धुआँ  उगलती,
कारों के शाही गद्दों पर,
पसरे कुछ बच्चों को देखा।
बिना सींग के, बिना परों के,
बच्चे उसके ही जैसे थे।

स्थिति  का यह अंतर उसके समझ न आया ,
कुछ पल थम कर, साँसें भर कर,
उसने अपना प्रश्न उठाया-
'पैदल चलने वाले हम सब,
पापा ! क्या पापी होते हैं ?

कुछ पल उत्तर सूझ न पाया,
पर विवेक ने मार्ग दिखाया।
उठा लिया उसको गोदी में,
हँसते -हँसते  उससे बोला -
'होते होंगें,पर तू क्यों चिंता करती है ?
मेरी गुडि़या रानी तू तो,
शिक्षित घोड़े पर सवार है ।'
यूँ  बहलाने से लगता था मान गई वह,
पापा कितने पानी में हैं, जान गई वह ।

काँधे  से लगते ही मेरे,
बिटिया को तो नींद आ गई,
किंतु पसीने से लथपथ मैं,
राजमार्ग पर चलते-चलते ।
अपने अंतर्मन में पसरे,
परमपिता से पूछ रहा था-
'पैदल चलने वाले हम सब,
पापा ! क्या पापी होते हैं?'


Copyright © 2013

जश्न-ए-मातम


अरे मृतक की बेवा तुझको, इस अवसर पर लाख बधाई !

अखबारों में चित्र छपेंगे, पत्रों से घर भर जाएगा ,
मन्त्री स्वयम् सांत्वना देने, आज तिहारे घर आएगा ।
सरकारी उपहार मिलेंगे, भाग्य कमल भी खिल जाएगा,
पिता गए हैं स्वर्ग जानकर, पुत्र गर्व से मुस्काएगा ।।

विधवा ! रोती इसीलिए क्या, तेरी माँग  उजड़ जाएगी ?
जल्दी ही सूने माथे की, तुझको आदत पड़ जाएगी ।
यह उदार सरकार, दया के बादल तुझ पर बरसाएगी ,
थैली भर रूपयों के बदले तेरी बिंदिया ले जाएगी ।।

छाती पीट रही क्यों पगली, अभी कर्ज़ यम के बाकी हैं,
यहाँ  मौत का जाम पिलाने पर आमादा, सब साक़ी हैं ।
बकरों की माँ  खैर नहीं है, यहाँ  भेडि़ए छुपे हुए हैं,
कुछ ख़ूनी जामा पहने हैं, पर कुछ के कपड़े खाकी हैं ।।

मृत्यु सभी की अटल सत्य है, फिर क्यों छलनी तेरा सीना ?
बाट जोहने की पीड़ा से मुक्ति मिली, क्यों आँसू  पीना ?
बच्चों की किलकारी का कोलाहल भी अब कष्ट न देगा ,
शांत, सुखद, शमशान-महीषी, बन, आजीवन सुख से जीना ।।

अरे मृतक की बेवा तुझको, इस अवसर पर लाख बधाई,
आम सुहागन से तू, बेवा ख़ास  हुई है, तुझे बधाई ।।







 


Copyright © 2013