मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015

लोग कहें मीरा भई बावरी

लोग कहें मीरा भई बावरी –
भगवान् श्री कृष्ण की अनन्य भक्त तथा महान कवियित्री के रूप में मीराबाई की ख्याति है. आमेर के राज-परिवार की कन्या मीरा, जिसका कि विवाह भारत के सबसे प्रतिष्ठित क्षत्रिय राज-कुल मेवाड़ के सिसोदिया वंश में किया जाता है, वह अपने पति को नहीं अपितु अपने आराध्य कान्हा को ही अपना स्वामी मानती है. वह अपने ससुराल की शैव और शाक्त धार्मिक मान्यताओं का अनुकरण नहीं करती है. उसकी वैष्णव विचारधारा उसमें  बलि-प्रथा का विरोध करने का साहस उत्पन्न कर देती है.
मीरा के पति की मृत्यु हो जाती है, चूंकि वह कान्हाजी को ही अपना पति मानती है इसलिए एक राजपरिवार की विधवा के जीवन से जुड़े हुए कठोर धार्मिक एवं सामाजिक प्रतिबंधों को वह स्वीकार नहीं करती है. मध्यकालीन भारत में एक राजपरिवार की युवा और सुंदरी विधवा को या तो सती हो जाना होता था अथवा उदास, निष्क्रिय तथा नितांत एकाकी जीवन व्यतीत करने के किये विवश होना पड़ता था किन्तु मीरा बाई भक्ति-पूर्ण, बंधन-मुक्त वैष्णव संतों की जीवन शैली अपनाती है. वह राज-परिवार की कुल-मर्यादा, लोक-लाज, सब कुछ अपने गिरधर गोपाल पर न्योछावर कर देती है. इस क्रांतिकारी कदम उठाने पर उसे बावरी और कुल-नासी कहा जाता है पर वो हर लांछन से बे-परवाह, हर दंड से अप्रभावित, एक पहाड़ी नदी की तरह हर बाधा को लांघते हुए अपने गंतव्य की ओर, अपने सांवरे से मिलन की आस में नाचते-गाते चलती चली जाती है.
मीरा बाई भगवान श्री कृष्ण की लीलास्थली के दर्शन हेतु मथुरा, वृन्दावन से लेकर द्वारिका तक का भ्रमण करती है. वृन्दावन में वह बिना अपना परिचय दिए चैतन्य महाप्रभु के शिष्य रूप गोस्वामी से मिलना चाहती है पर उनके शिष्य उसे यह बताते हैं कि उनके ब्रह्मचारी गुरूजी स्त्रियों से नहीं मिलते, केवल पुरुषों से मिलते हैं. मीरा यह कहते हुए लौट जाती है –
‘मैं तो समझती थी कि अखिल ब्रह्माण्ड में मेरा कान्हा ही एक पुरुष है पर तुम्हारे गुरूजी भी पुरुष हैं, यह तो मुझे पता ही नहीं था.’
 रूप गोस्वामीजी को जब उस अपरिचिता साध्वी के इस कथन के विषय में पता चलता है तो वो कह उठते हैं –‘ऐसा तो केवल मीरा कह सकती हैं.’
रूप गोस्वामी अपने पुरुष होने का दंभ त्याग कर मीरा माँ का आदर-सत्कार करने के लिए दौड़ पड़ते हैं.
मीरा बाई के आचार-विचार की तुलना हम 8 वीं शताब्दी की अरब निवासिनी रहस्यवादी सूफी राबिया-अल-अदाविया से कर सकते हैं. अपने मेहबूब यानी खुदा के प्रेम में निमग्न राबिया को न तो अपनी सुध रहती है और न ही अपने कपड़ों की. लोग उसे पागल समझ उस पर पत्थर बरसाते हैं. एक बार उससे कोई पूछता है कि वह अपने ऊपर पत्थर बरसाने वालों के साथ कैसा व्यवहार करेगी. राबिया जवाब देती है –
‘मैं सिर्फ प्रेम करना जानती हूँ इसलिए अपने ऊपर पत्थर बरसाने वालों को भी प्रेम ही करुँगी.’
राबिया तो शैतान पर भी अपना प्रेम लुटाने को तत्पर रहती है. मीरा बाई भी राबिया की तरह ही केवल प्रेम से ओतप्रोत है, बस अंतर यह है कि राबिया जिसे खुदा कहती है, मीरा बाई उसे कान्हा कहती है. राबिया और मीरा दोनों के लिए पिया की सेज सूली-ऊपर है. दोनों ही जीते जी अपने मेहबूब, अपने प्रेमी में समाहित हो जाती हैं.              
मीरा सामाजिक असमानता के सभी बंधन तोड़कर शूद्र कहे जाने वाले भक्त रैदास की निश्छल भक्ति से प्रभावित होकर उनको को अपना गुरु मानती है. जनश्रुति के अनुसार वह रामभक्त गोस्वामी तुलसीदास से यह पूछती है कि वह अपने प्रेम-भक्ति मार्ग में बाधक श्वसुर-कुल के साथ किस प्रकार का व्यवहार करे. तुलसीदास उससे कहते हैं –
‘जाके प्रिय न राम, बैदेही, तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही.’
(जो तुम्हारे आराध्य का विरोधी है, उसका तुम तुरंत परित्याग करो, भले ही वह तुम्हें कितना भी प्रिय क्यों न हो).

मीरा बाई धार्मिक एवं सामाजिक दृष्टि से नितांत अप्रगतिशील सोलहवीं शताब्दी के भारत में भक्ति और प्रेम के आकाश में न केवल उन्मुक्त होकर उड़ती है अपितु अपने साथ हजारों-लाखों भक्तों को भी बंधन-मुक्त निश्छल भक्ति की आनंदानुभूति कराने में सफल होती है. मीरा नारी-उत्थान की जीवंत प्रतीक है. मेरी दृष्टि में मीरा न केवल भगवान् श्री कृष्ण की अनन्य भक्त है, एक महान कवियित्री है बल्कि इसके साथ-साथ वह एक ऐसी क्रान्तिकारी है जो कि अपने समय में प्रचलित अनेक धार्मिक और सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ती है. वह संकुचित लिंग-भेदी, जाति-भेदी - धार्मिक, नैतिक और सामाजिक दृष्टिकोण को खुलेआम चुनौती देती है. आने वाली पीढ़ियों के लिए, विशेषकर कन्यायों तथा स्त्रियों के लिए, मीरा नारी-स्वातंत्र्य की उद्घोषिका है और भक्तजन के लिए आडम्बर रहित उन्मुक्त प्रेम एवं निश्छल भक्ति का पाठ पढ़ाने वाली अभूतपूर्व शिक्षिका है.

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

धर्म और मज़हब के नाम पर

धर्म और मज़हब के नाम पर -
धर्म औ मज़हब की खातिर, खूँ बहाते जायेंगे,
बांट कर, भारत की हम, शोभा बढ़ाते जायेंगे.   
छत्रपति शम्भाजी भोंसले महान साम्राज्य निर्माता, छत्रपति शिवाजी का ज्येष्ठ पुत्र था किन्तु उसमें अपने पिता के सदगुणों का सर्वथा अभाव था. वह एक नितांत विलासी, गैर-ज़िम्मेदार, जल्दबाज़, क्रोधी, क्रूर और बड़ों की अवहेलना करने में आनंद का अनुभव करने वाला व्यक्ति था. शिवाजी ने उसकी उद्दंडता को देखते हुए उसे पन्हाला के किले में क़ैद कर दिया था पर वो वहां से भागकर मुगलों से जा मिला और एक साल उन्हीं के पास रहा. बाद में वह फिर अपने पिता की शरण में आ गया पर उसकी काली करतूतों से परेशान होकर एक बार फिर शिवाजी ने उसे पन्हाला के किले में क़ैद कर दिया. 1680 में शिवाजी की मृत्यु के समय शम्भाजी पन्हाला के किले में ही क़ैद था. शिवाजी की मृत्यु के बाद की राजनीतिक उठा-पटक में सफल होने पर शम्भाजी स्वयं को छत्रपति के रूप में प्रतिष्ठित करने में सफल रहा. उसने अपनी सौतेली माँ सोराबाई को अपने विरुद्ध षड्यंत्र रचने के अपराध में प्राणदंड दिया और उसके बेटे तथा अपने सौतेले भाई राजाराम को क़ैद कर लिया.
छत्रपति शम्भाजी ने औरंगजेब के बागी बेटे अकबर को अपने राज्य में शरण देकर मुगल-मराठा वैमनस्य को और भी बढ़ा दिया. मुगलों, उनके अधीनस्थ जंजीरा के सिद्दियों, मैसूर के वादियार और पुर्तगालियों के विरुद्ध, उसके सभी अभियान असफल रहे. शम्भाजी की प्रशासन में कोई अभिरुचि नहीं थी. उसकी विलासी प्रवृत्ति के कारण राज्य की कोई भी सुन्दर बहू-बेटी स्वयं को सुरक्षित नहीं समझती थी. कवि कलश शम्भाजी के पाप कृत्यों में उसका सबसे बड़ा सहायक था. मराठा प्रजा इस विलासी और आततायी छत्रपति से छुटकारा पाने के लिए भगवान् से नित्य प्रार्थना करती थी.
1682 में औरंगजेब ने अपनी विशाल सेना के साथ दक्षिण के लिए कूच किया. उसका उद्देश्य बागी शहजादे अकबर को पकड़ना, अकबर को शरण देने वाले छत्रपति शम्भाजी का दमन करना और बीजापुर व गोलकुंडा के राज्यों को जीतकर उन्हें मुग़ल साम्राज्य में सम्मिलित करना था. 1687 तक औरंगजेब अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में काफी हद तक सफल हो गया था. बागी शहजादा अकबर, ईरान भाग गया था, बीजापुर और गोलकुंडा मुग़ल साम्राज्य का अंग बन चुके थे और मराठों को वाई के युद्ध में पराजित किया जा चुका था. किन्तु शम्भाजी और कवि कलश को अपनी विलासिता से फुर्सत ही कहाँ थी कि वो इस सन्निकट संकट से मराठा साम्राज्य को बचाने की सोचते.
फ़रवरी, 1689 में जब शम्भाजी और कवि कलश संगामेश्वर में रंगरेलियां मना रहे थे तब उनकी असावधानी का लाभ उठाकर मुगलों ने उन पर आक्रमण कर उन्हें क़ैद कर लिया. सभी को अनुमान था कि बादशाह औरंगजेब अपने इस प्रबल विरोधी के साथ किस प्रकार का व्यवहार करने वाला है. कैदी शम्भाजी को अपने प्राण बचाने के लिए मुगलों की आधीनता स्वीकार करने, अपने किले और अपने राज्य का अधिकांश भू-भाग मुगलों को समर्पित करने तथा धर्म परिवर्तन करने के लिए कहा गया. शम्भाजी को अपना अंजाम पता था. इस बार अपने साहस का परिचय देते हुए उसने न केवल इन शर्तों को मानने से इंकार किया बल्कि औरंगजेब के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग भी किया. धर्म परिवर्तन कर अपनी जान बचाने के प्रस्ताव पर उसने कहा –
‘अगर औरंगजेब मुझे अपना दामाद भी बना ले तो भी मैं धर्म परिवर्तन नहीं करूँगा.’
औरंगजेब ने ऐसी धृष्टता करने वाले दुस्साहसी कैदी की तुरंत जीब कटवा दी, आँखें तरेरने के इलज़ाम में उसकी आँखें निकाल ली गयीं. उसके अंग-अंग काटकर उसे 24 दिन तक यातना देकर उसके प्राण लिए गए. शम्भाजी के शव का अंतिम संस्कार भी नहीं किया गया अपितु उसके शरीर के बचे हुए मांस के लोथड़े को जंगली कुत्तों के आगे डाल दिया गया.
औरंगजेब को लगता था कि उसने हर तरफ सफलता के झंडे गाड़ दिए हैं, खासकर मराठों को तो उसने हमेशा के लिए कुचल दिया है. पर उसने जो सोचा था वैसा कुछ भी नहीं हुआ. दक्षिण में उसने खुद अपनी और मुग़ल सल्तनत की कब्र खोद ली थी. मराठों ने अपने दिवंगत अयोग्य व अत्याचारी-दुराचारी छत्रपति को अब महानायक, धर्मवीर, धर्म-रक्षक और शहीद का सम्मान दिया. राजा राम के नेतृत्व में मराठा राज्य और अपने धर्म की रक्षार्थ अब स्वतंत्रता संग्राम व धर्मयुद्ध छिड़ गया जिसे उसकी मृत्यु के बाद उसकी पत्नी तारा बाई ने जारी रक्खा. मराठा सेनापतियों - धानाजी जाधव और संताजी घोरपड़े ने, अपने छापामार हमलों से मुगलों की नाक में दम कर दिया. अब मुग़ल अपनी जान बचाने के लिए मराठों को इस बात की रिश्वत देने लगे कि वो उन पर हमला न करें. मुग़ल आपूर्ति व्यवस्था को भंग कर और मुगलों का माल लूट कर मराठे ऐश करने लगे. बेबस औरंगजेब अपने प्रिय भोज्य-पदार्थ - सूखे मेवे और करोंदों को खाने के लिए भी तरसने लगा. अब मराठे चाहते थे कि बाबा औरंगजेब दकिन में ही अपना डेरा जमाये रक्खें और सलामत रहें ताकि वो उनको लूटकर मौज उड़ाते रहें. पच्चीस साल तक मराठों को जीतने की नाकाम कोशिश में अपना लगभग सभी कुछ गँवा कर निराश और हताश औरंगजेब ने दकिन में (औरंगाबाद में) ही अपनी आख़िरी सांस ली.
औरंगजेब और शम्भाजी के इस प्रसंग से हमको पता चलता है कि धर्म के नाम पर किस प्रकार की राजनीति होती है. बाप को क़ैद करने वाले, भाइयों का खून बहाने वाले और मज़हब के नाम पर मुग़ल साम्राज्य की जड़ें खोखली करने वाले  औरंगजेब को इस्लाम का रक्षक तथा ज़िन्दा पीर कहा जाता था. महा विलासी, अत्याचारी, लुटेरे और अनाचारी शम्भाजी को उसकी दुखद मृत्यु के बाद ‘धर्मवीर’ कहा जाने लगा था. आज भी हम धर्म के नाम पर किसी को, उसके अनेक कुकृत्यों के बावजूद, धर्म-संरक्षक का महत्त्व दे देते हैं. आज भी हम किसी फिरका-परस्त, ज़ालिम और मौका-परस्त को मज़हब के नाम पर अपना मसीहा समझ बैठते हैं. हमने इतिहास से कोई सबक नहीं लिया है. हम बार-बार धर्म और मज़हब के नाम पर खुद को और दूसरों को तबाह करने पर आमादा हो जाते हैं.

हमको औरंगजेब जैसे ज़ालिम, धर्मांध ज़िन्दापीर और इस्लाम के संरक्षक नहीं चाहिए, हमको शम्भाजी जैसे अनाचारी, दुराचारी धर्म-रक्षक और धर्मवीर नहीं चाहिए. पर यहाँ तो धार्मिक उन्माद, मज़हबी वहशीपन की आंधी में हमारा विवेक, हमारा ज़मीर कहीं उड़न छू हो जाता है और हमारा अपना भारत बार-बार खून के आंसू बहाने पर, तो कभी अपने टुकड़े करवाने पर, मजबूर हो जाता है.                                             

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

'वह तोड़ती पत्थर'

वह तोड़ती पत्थर –
दिनभर पसीना बहाती और रात में अपने मर्द के ज़ुल्मो-सितम पर आंसू बहाती एक श्रमिक महिला की दुःख भरी गाथा कहती, निराला की कविता –‘वह तोड़ती पत्थर, इलाहबाद के पथ पर’ से सभी हिंदी-साहित्य प्रेमी परिचित होंगे. ए. सी. कमरे में सोफे पर तशरीफ़ रक्खे हुए, अपने सेल फ़ोन पर बतियाती हुई मेमसाहिबों और जेवर से ढकी, नौकर-चाकरों पर हुक्म झाड़ती सेठानियों और बेगमों को छोड़ दें तो हमारी तथाकथित अबला भारतीय नारी, आम तौर पर एक जन्म में ही इतना काम कर देती है जितना कि सबल माना जाने वाले मर्द सात जन्म में भी नहीं कर पाता है.
खेत और खलिहान में कृषक महिला, किसी कृषक की तुलना में कहीं अधिक पसीना बहाती है पर किसानों को जब संबोधित किया जाता है तो आमतौर पर सिर्फ ‘किसान भाइयो’ कहा जाता है. भव्य शो रूम्स में रक्खे एक-दो हज़ार रुपयों के चिकन के कुर्तों को खरीदने वालों को यह कहाँ पता रहता है कि इन पर खूबसूरत काम करने और इनकी सिलाई करने वाली महिलाओं को प्रति कुरता महज़ 10 या 20 रुपया मिलता है. एक आम गृहिणी सुबह से शाम तक काम करने के बाद बाहर से आये अपने पति का दौड़कर स्वागत करने से पहले ही चूल्हे पर चाय का पानी चढ़ा देती है. कितने घरों में पति अपनी पत्नी से यह कहते हुए सुना जा सकता है – आज तुम बहुत थक गयी होगी, चलो, थोड़ा आराम कर लो.’
मुझ जैसे नारी-उत्थान पर लम्बे लेक्चर झाड़ने वाले के श्री मुख से भी यह छोटा सा वाक्य साल में शायद एकाद बार ही निकल पाता होगा.    
मेरे मित्र प्रोफ़ेसर प्रकाश उपाध्याय ने मुझसे पहाड़ की महिलाओं और लड़कियों की कर्मठता का उल्लेख किया था. स्वयं प्रकाश की इजा को अपने काम की व्यस्तता के कारण थकने की फुर्सत ही नहीं मिलती थी. पिथौरागढ़ के एक गाँव की रहने वाली हमारी इजा का सारा बचपन अपने मायके में, और उनकी पूरी किशोरावस्था व युवावस्था ससुराल में – पीने के लिए नौलों से पानी लाने में, जंगल से लकड़ी बीनने में, गाय, बैल की सेवा करने में, उनके लिए चारा काटने में, उपले बनाने में, खेती के काम करने में, और घर में खाना बनाने, कपड़े धोने व बच्चे सम्हालने में बीत गयी थी. अल्मोड़ा में भी जब बूढ़ी हो चुकी इजा प्रकाश के पास रहने को आतीं थीं तो वो उसे घर का कोई काम नहीं करने देती थीं. वो हम लोगों की खातिर करने और हम पर अपनी ममता बरसाने के लिए भी हमेशा तत्पर रहती थीं.
पहाड़ की बालाओं और महिलाओं में मुझे कहीं न कहीं प्रकाश की माँ अर्थात हमारी इजा के ही दर्शन होते हैं. मेरी कुछ जागरूक छात्राएं अक्सर क्लास में बड़ी थकी-थकी दिखाई देती थीं, मैंने उनसे इसका कारण पूछा तो पता चला कि कॉलेज आने से पहले नौले से घर के उपयोग के लिए सारा पानी लाना और माँ के साथ खाना बनाना, कपड़े धोना, घर की सफाई आदि करना उन्हीं की ज़िम्मेदारी होती है जब कि उनके भाई लोग आम तौर पर मटर-गश्ती करने में या चरस-गांजे की खोज में व्यस्त रहते हैं.
सैनिक छावनी से लगे गाँव दुगालखोला में मेरे जीवन के 23 वर्ष बीते हैं. इस अर्ध-शहरी गाँव में अच्छे-खासे खाते-पीते घरों की लड़कियां और महिलायें गाय चराती हुई, घास काटकर उसका गट्ठर बनाकर अपने सिर पर उसे ढोती हुई और नल में पानी न आने पर नौले से पानी लाती हुई देखी जा सकती थीं. हमारे पड़ौस में एक पतली, दुबली, छोटी सी आंटी रहती थीं. उनके दो बेटे थे, बड़ा चिर-रोगी और छोटा गंजेड़ी. आंटी ही घर का सारा काम सम्हालती थीं. अपने घर से सौ मीटर नीचे सड़क तक गैस का खाली सिलिंडर ले जाना और वहां से भरा हुआ सिलिंडर लाने का काम भी आंटी ही करती थीं जब कि उनसे बीस बरस छोटा और उनसे दुगुने से भी ज्यादा वज़न का यह नाचीज़ इस काम के लिए हमेशा किसी मेट की खोज में रहता था.
हमारे यहाँ साफ़-सफाई का काम करने के लिए आने वाली शांति की इजा सी परिश्रमी महिला मैंने कभी देखी ही नहीं. सेना में ड्राईवर की विधवा, शांति की इजा को मिलने वाली फैमिली पेंशन उस के बड़े परिवार के भरण-पोषण के लिए पर्याप्त नहीं थी. उसके पति के फण्ड का पैसा उसके जेठ और उनके लड़के खा गए थे. शांति की इजा घरों में साफ़-सफाई का काम करती थी, मेट न मिलने पर हमारा गैस सिलिंडर लाने-ले जाने का काम भी वही करती थी. अपने माल गाँव के घर में वह गाय पालती थी, 10-12 नाली के खेत में अनाज और सब्जी बोती थी और फुर्सत में मकानों के लिए सीमेंट के ब्लॉक्स भी बनाती थी. अपनी कमाई से ही उसने अपनी तीन बेटियों की शादी की और अपने लिए पक्का मकान बनाया. बुढ़ापे में जब वह कठोर श्रम करने के लायक नहीं रही तो उसने दुगालखोला में ही बच्चों के एक स्कूल में आया का काम कर लिया.            
दुगालखोला से नीचे के माल गाँव से अपने सिरों पर बड़ी-बड़ी टोकरियों में सब्जी रखकर उसे बाज़ार में बेचने की ज़िम्मेदारी वहां की बहू-बेटियों की हुआ करती थी. इस सौदे को बेचकर मिलने वाले पैसे से आम तौर पर गृह-स्वामी जुआ खेलने और नशा करने का दायित्व निभाते थे और अन्तःपुर में इसका विरोध होने पर, इस विरोध को दबाने के लिए अपने पशु-बल का प्रयोग किया करते थे.
मुझे तब बहुत खुशी हुई थी जब प्रसिद्द कवि और रंगकर्मी स्वर्गीय बृजेंद्र लाल साह ने मुझे  बताया था कि अब गाँव की महिलाएं सौदा बेचकर उसका पैसा अपने घर वाले को देने के बजाय उसका इस्तेमाल अपने बच्चों के स्कूलों की फीस भरने और उनके लिए कॉपी, किताब, पेंसिल, बस्ते आदि खरीदने में करने लगी हैं, भले ही इसके लिए उन्हें अपने मर्द की गालियाँ और उसकी मार ही क्यूँ न खानी पड़ें. इतनी प्रतिकूल परिस्थितयों में भी पर्वत-बालाएं धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में न केवल बढ़-चढ़ कर भाग लेती हैं अपितु अपने योगदान से उनकी शोभा में चार चाँद लगा देती हैं. पहाड़ की, विशेषकर, वहां के गाँवों की अर्थव्यवस्था तो स्त्रियों के सक्रिय सहयोग के बिना एक ही दिन में चरमरा जाएगी. रोज़गार के लिए परदेस गए मर्दों की अनुपस्थिति में कुशल गृह-संचालन कोई पहाड़ की स्त्रियों से सीखे.  
एक विद्यार्थी के रूप में पहाड़ की लड़कियां वहां के लड़कों की तुलना में अधिक जागरूक, अधिक अनुशासित और प्रतिबद्ध हैं. मादक पदार्थों का सेवन करने वाली महिलायें उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं जबकि इस पुनीत कार्य में लिप्त महापुरुषों की संख्या लाखों में होगी. मैदानी क्षेत्रों की तुलना में पहाड़ की बालाएं-महिलाएं अधिक सुरक्षित हैं और पहाड़ में महिला-उद्यमिता को अपेक्षाकृत अधिक सम्मानजनक दृष्टि से देखा जाता है. लेकिन समस्त भारत की ही तरह पहाड़ में भी कन्याओं और महिलाओं को अधिक सम्मान, अधिक महत्त्व और अधिक अधिकार दिए जाने की आवश्यकता है ताकि हमारे पहाड़ में और अन्नपूर्णा (हिमालय पुत्री पार्वती) उत्पन्न हो सकें, और शिवानी अपनी लेखनी से साहित्य की शोभा बढ़ाएं, और गौरा  देवी हों ताकि पहाड़ हरे-भरे रहें, और बेचेंद्री पाल हो ताकि लड़कियों के हौसलों की बुलंदी हिमालय से भी अधिक ऊंचाइयों तक पहुँच जाये.                                      

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2015

ये जो हल्का-हल्का सुरूर है

ये जो हल्का-हल्का सुरूर है –
लोकतान्त्रिक मूल्यों की स्थापना हेतु अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित करने वाले महात्मा गाँधी अपने मद्य-निषेध कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए एक दिन के लिए तानाशाह भी बनने को तैयार थे. मैंने अपने जीवन में किसी भी मादक पदार्थ का सेवन नहीं किया है किन्तु मैं नहीं समझता कि कोई कानून बनाकर मद्य-निषेध अभियान को सफल बनाया जा सकता है, इसके लिए तो नशा करने वाले को खुद ही पहल करनी होगी. मेरे विचार से किसी भी व्यक्ति के शराब पीने में या किसी भी प्रकार का नशा करने में तब तक कोई खराबी नहीं है जब तक कि वह उसके स्वास्थ्य, उसके नैतिक मूल्यों, उसके आचार-विचार, उसके पारिवारिक दायित्व, उसकी आर्थिक स्थिति, उसकी बौद्धिक क्षमता, उसकी कार्यक्षमता और उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा पर प्रतिकूल प्रभाव न डाले. लेकिन अगर यह नशाखोरी उसे, खुद अपने और परिवार के लिए बायसे शर्मिंदगी और बर्बादी का कारण बना दे, अपने सहकर्मियों और मित्रों के लिए एक मुसीबत बना दे और समाज पर बोझ बना दे तो फिर उसकी यह लत सबके लिए घातक हो जाएगी.
बादशाह जहाँगीर ने अपनी अफीम और शराब की लत के कारण राजकाज का सारा ज़िम्मा नूरजहाँ को सौंप दिया था और मलिका साहिबा ने भाई-भतीजा वाद से, षड्यंत्रों की रचना व भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा कर मुग़ल प्रतिष्ठा को धूल में मिला दिया था. हमारे ज़माने के एक बहुत सम्माननीय प्रधान मंत्री के विषय में प्रसिद्द था – ‘एट पी. एम. नो पी. एम.’ (रात आठ बजे के बाद टुन्न होकर प्रधान मंत्री कोई काम करने लायक नहीं रह जाते हैं)
कभी अपनी कर्मठता के लिए प्रसिद्द पंजाब की अधिकांश युवा पीढ़ी आज नशा-खोरी में खुद को बर्बाद कर रही है. उत्तर-पूर्व में भी इसका भयंकर प्रकोप है. यूँ तो यह समस्या हर जगह है पर पहाड़ में इसकी व्याप्ति कुछ अधिक ही है. लोग कहते हैं –‘सूर्य अस्त, पहाड़ मस्त’        
मार्च, 1980 में मैंने राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बागेश्वर ज्वाइन किया. मेरे एक वरिष्ठ सहकर्मी इस बात के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को कोसते रहते थे कि उसने पहाड़ में शराबबंदी लागू कर रक्खी है. बेचारे दिन-रात बोतलों के जुगाड़ में लगे रहते थे और अपने प्रयासों में असफल होने पर डाबर कंपनी की सुरा और अगर वो भी न मिले तो पुदीन हरा (वो भी नीट) पीकर अपनी तलब मिटा लिया करते थे. कॉलेज के परिसर में उनके पहुँचने से दस सेकंड पहले ही उनकी साँसों की महक उनके आगमन की सूचना दे देती थी. हमारे इन प्रोफ़ेसर साहब ने अपने घर वालों की ज़िन्दगी को नरक बना दिया था पर 50 साल की आयु में इस असार संसार को छोड़ते समय उत्तर प्रदेश सरकार पर उन्होंने एक एहसान अवश्य किया और वह यह था कि सरकार को उन्हें पूरी पेंशन देने के स्थान पर उनकी पत्नी को पूरी पेंशन से बहुत कम, सिर्फ फैमिली पेंशन ही देनी पड़ी.
शराबबंदी के दिनों में पर्यटन स्थल होने के कारण नैनीताल इस बंधन से मुक्त था. हमारे अल्मोड़ा परिसर के कई तलबी मित्र केवल वहां से चोरी-छुपे बोतलें लाने के लिए यूनिवर्सिटी का कोई भी काम करने के लिए अपनी सेवाएँ देने के लिए सदैव तत्पर रहते थे.
खैर दुःख की घड़ियाँ बीत गयीं और शराब सर्वत्र सुलभ हो गयी. हमारे परिसर में एक क्लर्क था, बहुत काबिल और हंसमुख. एक घंटे में वह 10-12 पेज टाइप कर देता था. अक्सर मैं उसी से अपनी कहानियाँ, कवितायें या शोध-पत्र टाइप करवाता था. मेरी शर्त थी कि वो पारश्रमिक के पैसे से शराब नहीं पिएगा पर वो हर बार मुझे दिया गया अपना वादा तोड़कर, शराब पीकर, बाज़ार के  किसी कोने में अर्ध-मूर्छित पड़ा पाया जाता था. शराब के नशे में ही सीढ़ियों से धड़ाम गिरने से ब्रेन हैम्ब्रेज हो जाने से उसकी मृत्यु हो गयी और उसकी बिना पढ़ी-लिखी पत्नी को परिवार के भरण-पोषण की खातिर हमारे ही परिसर में चपरासी की नौकरी करनी पड़ी.
मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी अपने विषय के ख्याति-प्राप्त विद्वान माने जाते थे. वो हमारे परिसर के चयनित     प्रोफेसरों में से एक थे. लेकिन ये श्रीमानजी बोतल भर नहीं बाल्टी भर शराब पिया करते थे. बोतल के पैसों का लिए वो अपने साथियों से तो क्या, छात्रों और चपरासियों तक के सामने हाथ फैलाये खड़े रहते थे. तमाम बैंकों से उन्होंने लोन ले रक्खा था और उनकी आधी से ज्यादा तनखा इनकी किश्तें चुकाने में चली जाती थी. धीरे-धीरे उनके पठन-पाठन की गति पर लगाम लगी, उनकी जुबान लड़खड़ाने लगी और अक्सर उन्हें किसी नाली में से उठाकर घर पहुँचाया जाने लगा. अंत में जब अपना लिवर पूरी तरह से ख़राब करके वो एक बड़े अस्पताल ले जाए गए तो डॉक्टर ने उन्हें एक्जामिन करने के बाद उनका ऑपरेशन करने से इनकार करते हुए सिर्फ इतना कहा –
‘ये शख्स अब तक जिंदा कैसे रहा?’
मेरे कई मित्र मेरे आलेख को लेकर नाराज़ हो सकते हैं पर मैं नशाखोरी के विरुद्ध कोई प्रवचन नहीं दे रहा हूँ केवल यह सलाह दे रहा हूँ कि अपनी लत को वो अपनी बीमारी न बना लें. मशहूर शायर मजाज़ लखनवी को उर्दू साहित्य जगत में जोश मलिहाबादी और जिगर मुरादाबादी का उत्तराधिकारी माना जाता था लेकिन इन जनाब को बिना बोतल मुंह में लगाए हुए एक भी शेर कहते हुए नहीं बनता था. शराब की लत ने उन्हें कई बार अस्पताल पहुँचाया और एक बार तो वो पागलखाने तक भी पहुंचाए गए. उनकी तबियत सुधरने पर जिगर मुरादाबादी उनकी खैर-खबर लेने पहुंचे और उनको समझाने लगे –
‘बरखुरदार, उर्दू अदब (साहित्य) ने तुमसे बहुत उम्मीदें लगा रक्खी हैं. यूँ खुद को शराबखोरी से बर्बाद मत करो. पीते तो हम भी हैं पर सलीके से. मुझको जब इसकी तलब लगती है तो मैं गिलास में एक पेग डाल लेता हूँ, सामने घडी रखकर उसे धीरे-धीरे पंद्रह मिनट में पीता हूँ. एक दो पेग में ही तलब मिट जाती है. शराब पीने का यही सही सलीका है. आगे से तुम भी सामने घड़ी रखकर पिया करो.’
मजाज़ तपाक से बोले –‘हुज़ूर आप घड़ी रखकर पीने की बात कर रहे हैं. मेरा बस चले तो मैं घड़ा रख कर पियूं.’
ज़ाहिर है इस किस्से को पढ़कर सब के होठों पर मुस्कराहट आएगी पर तब शायद नहीं जब उन्हें यह मालूम होगा कि शराबखोरी के कारण दिमाग की नसें फट जाने से मजाज़ की असमय ही मृत्यु हो गयी.

इसलिए मित्रो, जिगर मुरादाबादी की तरह मेरा केवल एक अनुरोध है, आप नशा करना नहीं छोड़ना चाहते तो न छोड़ें पर उसे करने का सलीका तो सीख लें और मजाज़ और मेरे तलबी मित्रों के जैसे हश्र से खुद को बचा लें.                  

रविवार, 11 अक्तूबर 2015

श्राद्ध में दान

श्राद्ध में दान –
उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अपनी विनोदप्रियता के लिए प्रसिद्द, अवधी के कवि, बेनी कवि ने श्राद्ध में अपने कंजूस यजमानों द्वारा दान में मिली वस्तुओं और मिष्ठान्न आदि का उल्लेख किया है. एक यजमान ने उन्हें दान में एक बूढ़ी घोड़ी दी तो बेनी कवि ने यह बताया कि उसी घोडी पर चढ़कर मुग़ल बादशाह बाबर हिंदुस्तान आया था. मुग़ल बादशाहों और फिर अवध के नवाबों की सेवा करने के बाद अवकाश प्राप्त घोडी उनके यजमान तक और अंत में बेनी कवि तक पहुंची. बेनी कवि घोडी को देखकर सोचते हैं –
‘राम कहाऊँ कि लगाम लगाऊँ?’ (इस घोडी का अंत समय देखते हुए इससे राम-राम कहलाऊँ या इस पर सवार होने के लिए इस पर लगाम कसूं?)
एक यजमान ने उन्हें ऐसी रजाई दान में दी जिसको ओढ़ते ही उसका खोल और अस्तर उड़ गया और सिर्फ दो दिन के लिए दिया जलाने की बाती के बराबर रुई शेष रह गयी –
‘सांस लेत उड़ि गयो उपरला, दुपरला हू, दिन द्वै की, रुई हेत बाती रह गयी है.’    
एक पद में उन्होंने एक यजमान द्वारा अपने पिता के श्राद्ध में दान दिए गए पेड़ों की महिमा का बखान किया है –
‘चींटी न चाटत, मूस न सूँघत, बास सों माखी न आवत नियरे,
आन धरे जबसे घर में, तब से रहे, हैजा पड़ोसिन घेरे,
माटिहं में कछु स्वाद मिले, इन्हें खाय के ढूंढ़त हर्र-बहेड़े, 
चौंक परो पित लोक में बाप, सपूत के देख सराध के पेड़े.
मूस – चूहा
बास – दुर्गन्ध
माखी – मक्खी
नियरे – निकट 
हर्र-बहेड़े – पेट ठीक करने की औषधि
पित लोक – पितृलोक
सराध – श्राद्ध 

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2015

पर्वत महिमा


पहाड़ पर 31 साल से भी अधिक समय का मेरा प्रवास खट्टी-मीठी यादों से भरा हुआ है. पर्वतवासियों का भोलापन, उनकी सादगी, उनकी बेफिक्री और अपनी संस्कृति से उनका जुड़ाव हम सब के लिए अनुकरणीय है पर उनका मदिरा प्रेम, उनकी अकर्मण्यता, उनकी परमुख-कातरता हम सभी पर्वत प्रेमियों को व्यथित करती है. मैंने यह कविता 1986 में लिखी थी और एक कवि सम्मेलन में इसका पाठ किया था. हिंदी और कुमायुंनी के प्रसिद्द कवि स्वर्गीय बालम सिंह जनौटी को मेरी कविता बहुत पसंद आई थी पर उन्होंने मुझसे आग्रह किया था कि मैं- ‘यहाँ स्वर्ग वासी बसते हैं’, पंक्ति कविता से हटा दूँ पर मैंने इस पंक्ति को नहीं हटाया क्यूंकि मेरा दिल ऐसा करने की मुझे अनुमति नहीं दे रहा था. पर मुझे पर्वतवासियों की नयी पीढ़ी पर यह विश्वास है कि एक दिन वह पहाड़ को वास्तव में जीवंत स्वर्ग बनाकर मुझे अपनी कविता से यह विवादास्पद पंक्ति हटाने के लिए विवश कर देगी.                   
पर्वत महिमा -
यह पहाड़ है,
गोल घूमती सड़क यहां हैकलकल बहती नदी यहां है।
ठन्डी मन्द बयार यहां हैहिम से मण्डित शिखर यहां है।
स्वर्ण लुटाती सुबह यहां है, कुमकुम जैसी शाम यहां है।
देवदार वृक्षों से सज्जित, स्वयं धरा का स्वर्ग यहां है।
पर इनमें इन्सान कहां हैहर मन में श्मशान यहां है।
हाला, प्याला छोड़प्रेम रस डूबेऐसा मीत कहां है?
ख़ैरातों पर कटे जि़न्दगीस्वाभिमान की रीत कहां है?
मुर्दा दिल में जान फूंक देओज भरा वह गीत कहां है?
यहां मृत्यु के आर्तनाद मेंजीवन का संगीत कहां है?
यह पहाड़ है,
पर पहाड़ हैविपदाओं कानिर्बलता का,
फ़ाकोंआहोंनिर्धनता का
दुर्व्यसनों कानिर्वासन का,
 कलुषित, व्यभिचारी शासन का।
स्वर्ग लोक सा यह पहाड़ हैयहां स्वर्ग वासी बसते हैं।
जीते जी तिल-तिल मरते हैंमहा शाप से मुक्ति मिल सके,
नित्य यही पूजा करते हैं।
यह पहाड़ है,
मानवता का तिरस्कार हैकिन पापों का पुरस्कार है?
जहां जि़न्दगी ख़ुद पहाड़ होउस पहाड़ को नमस्कार है।
उसे दूर से नमस्कार हैबहुत दूर से नमस्कार है।

मेरा शत-शत नमस्कार हैमेरा शत-शत नमस्कार है।। 

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2015

जिन्हें नाज़ है हिन्द पर, वो कहाँ हैं?

साहिर लुधियानवी से क्षमा याचना के साथ
जिन्हें नाज़ है, हिन्द पर, वो कहाँ हैं?

अयोध्या में, या दादरी में कहाँ हैं?
मुज़फ्फरनगर, गोधरा में कहाँ हैं?
जहाँ पर बहे खून-ए-दरिया, वहां हैं?
या छब्बिस नवम्बर सा मंज़र जहाँ है?
वो उस सल्तनत में, शायद मिलेंगे,
जहाँ कोई दाऊद, शाहे-जहाँ हैं.
सबर के क्या बाकी, अभी इम्तिहाँ हैं?
हमारे तो बर्बाद, दोनों जहाँ हैं.
हमारे तो बर्बाद, दोनों जहाँ हैं.
जिन्हें नाज़ है, हिन्द पर, वो कहाँ हैं -----

(दोनों जहाँ – इहलोक और परलोक)      

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2015

नव-भारत के राष्ट्रपिता और मोहन गाँधी

पुनर्जन्म ले मोहन गाँधी बड़ा दुखी था.
यूं वकील था, पर फिर भी बेरोजगार था, खूँटी पर ही काला कोट, टंगा रहता था.
कब तक वह राणा प्रताप बन, घास-पात की रोटी सुख से, खा सकता था.
कब तक खाली पेट, मगन हो, भजन राम के, सांझ-सवेरे गा सकता था.
सभी ओर से हो निराश वह, आत्मघात का निश्चय, मन में ठान चुका था.

किन्तु समय ने करवट लेकर, उसके बिगड़े काम बनाए.
एक दया के सागर बाबा, खुद उसके घर चल कर आए.
रख उसके सिर हाथ प्यार से बोले बाबा-

“मेरे वरद हस्त के नीचे, बेटा तू, भूखा न मरेगा,
हुकुम अगर मानेगा मेरा, तुझसे सकल जहान डरेगा.”
मोहन गांधी नत-मस्तक हो, अपने उद्धारक से बोला - 
 
“रोज़ी दाता, रोटी दाता, हे उपकारी, भाग्य-विधाता !
शरण तुम्हारी आकर मैंने, तोड़ दिया चिन्ता से नाता.
शर्म-हया, इज्ज़त, ज़मीर सब, आज समर्पित करता तुमको,
अपनी कृपा-सुधा बरसाकर, दास बनाए रखना मुझको.
किन्तु दयामय ! इस सेवक को, अपना परिचय भी तो दे दो,
और काम क्या करना मुझको, इसका विवरण भी कुछ दे दो.” 
 
बाबा बोले – “राष्ट्र-पिता के मंदिर का मैं मुख्य पुजारी, तुझे मेरी रक्षा करनी है,
फोड़ नारियल सदृश खोपड़ी, निन्दकजन की, नित्य तुझे खातिर करनी है.” 

मोहन चौंका – “राष्ट्रपिता गाँधी बाबा तो सत्य, अहिंसा को भजते थे,
करुणा, पर-उपकार सदृश गुण, उनके जीवन में सजते थे.” 

बाबा गरजे – “मूर्ख ! बीसवीं सदी तो अब, इतिहास हो गयी,
नरसिंह मेहता की बानी भी, इक कोरी बकवास हो गयी.*
नव-भारत के राष्ट्रपिता, श्री परम पूज्य नाथू बाबा हैं,
नरमुंडों से सज्जित स्थल, उनके काशी और काबा हैं.
मत्स्य-न्याय, पशु-बल ही सच है, धर्म-नीति, केवल माया है.
पुत्र ! उठा बन्दूक, मिटा दे, मुझ पर जो संकट छाया है.”

धांय-धांय औ ठांय-ठांय का मन्त्र, प्राण का है रखवैया,
अगर शस्त्र हो हाथ,, सिंह भी बन जाता है, बेबस गैया.
भंवर बीच जो नाव फंसी थी, उसे मिल गया सबल खिवैया,
नाथू-मंदिर के आँगन में, नाचे मोहन, ता-ता थैया.
नाचे मोहन, ता-ता थैया, ता ता थैया, ता ता थैया -------------

(* नरसिंह मेहता की बानी –‘वैष्णव जन्तो तेने रे कहिये, जे पीर पराई जानि रे’)