मंगलवार, 13 फ़रवरी 2024

नाम में बहुत कुछ रक्खा है

 नाम में बहुत कुछ रक्खा है –

हमारे पिताजी का नाम – ‘अम्बिका प्रसाद’ है और माँ का नाम – ‘चन्द्र कला’ है.
पिताजी और माँ के नाम में शायद ही किसी को कन्फ्यूज़न होता था.
हाँ, कुछ विद्वान लोग पिताजी नाम - ‘अम्बिका प्रसाद’ की जगह – ‘अम्बा प्रसाद’ ज़रूर कर देते थे.
माँ-पिताजी की पांच संतान हुईं. सबसे बड़ी सन्तान हमारी स्वर्गीया बहन जी थीं. पिताजी ने बड़े प्यार से उनका नाम – ‘ज्योत्स्ना’ रक्खा.
स्कूल से ले कर कॉलेज तक और फिर शादी के बाद भी बहन जी के नाम का शुद्ध उच्चारण करने वाले उँगलियों पर ही गिने जा सकते थे.
कोई उन्हें – ‘ज्योतिसना’ कहता था तो कोई उन्हें – ‘ज्योतिष्ना’ कह कर संबोधित करता था.
उनकी एक महा-विदुषी जिठानी उन्हें प्यार से – ‘जोतना’ कहा करती थीं.
अपनी जिठानी जी का प्यार भरा संबोधन तो बहन जी बर्दाश्त कर लेती थीं पर जब हम भाई लोग उन्हें – ‘जोतना बहन’ कहते थे तो वो हमारे पीछे डंडा ले कर दौड़ पड़ती थीं.
हमारे जीजाजी ने बहन जी के इस कष्ट का निवारण करने के लिए उन्हें – ‘ज्योति’ कहना शुरू कर दिया था और ख़ुशकिस्मती से – ‘ज्योति’ को ‘जोती’ कहने वाले बहुत कम थे.
पिताजी ने हम चारों भाइयों के नाम एक-दूसरे से बेमेल रक्खे थे –
बड़े बेटे का नाम – ‘कमल कान्त’, दूसरे बेटे का नाम – ‘श्रीश चन्द्र’, तीसरे बेटे का नाम – ‘कानन विहारी’ और चौथे बेटे यानी कि मुझ खाक़सार का नाम – ‘गोपेश मोहन’ रक्खा था.
‘कमल कान्त’ नाम के साथ छेड़छाड़ करने वाले बिरले ही होते थे.
कुछ लोग भाई साहब के नाम को सुधार कर – ‘कमला कान्त’ अवश्य कर देते थे.
हमारे श्रीश भाई साहब के नाम के साथ बहन जी के नाम की ही तरह खूब अत्याचार होते थे.
श्रीश भाई साहब के एक क्लास टीचर ने अटेंडेंस रजिस्टर में उनका नाम – ‘शिरीष’ लिखा और भाई साहब को निर्देश दिया कि आगे से वो ख़ुद को – ‘शिरीष’ ही कहें.
भाई साहब के अधिकांश पुरबिए मित्रगण उनको – ‘सिरीस’ कहते थे लेकिन उनके एक मित्र उन्हें – ‘सिहिर’ कहा करते थे.
हमारे कानन विहारी भाई साहब को नाम के मामले में किसी ख़ास मुश्किल का सामना नहीं करना पड़ा.
मेरा सीधा-सादा सा नाम – 'गोपेश मोहन' पता नहीं क्यों लोगों के गले से नीचे नहीं उतरता था.
अधिकांश लोग मेरे नाम को सुधार कर – ‘गोपाल मोहन’ या फिर – ‘गोपी मोहन’ कर देते थे.
मेरी शादी के बाद मेरे ससुर जी ने मुझ से कहा –
‘गोपेश जी, हम लोग आपको – ‘योगेश’ कह कर बुलाएंगे.’
मैंने विनम्रता से पूछा –
‘पापा, आप लोगों को मेरा नाम बदलने की क्या ज़रुरत पड़ गयी?’
ससुर जी ने फ़रमाया –
‘गोपेश यानी कि कृष्ण जी के सोलह हज़ार रानियाँ थी.
भला हम क्यों चाहेंगे कि हमारी बेटी किसी ऐसे इंसान की पत्नी हो जिसके सोलह हज़ार पत्नियाँ हों.’
मैंने ससुर जी की इस बात पर अपनी दलील दी –
‘अगर आप लोग मेरा नाम सोलह हज़ार रानियों वाले ‘गोपेश’ से बदल कर – ‘योगेश’ कर देंगे तो आपकी बेटी को भारी दिक्कत हो जाएगी क्योंकि ‘योगेश’ यानी कि योगियों के ईश की तो कोई पत्नी या कोई रानी हो ही नहीं सकती.’
मेरी श्रीमती जी का नाम – ‘रमा’ है. इसको रोमन लिपि में – ‘Rama’ लिखा जाता है.
इस - ‘Rama’ को – ‘रमा’ पढ़ने वाले कम और - 'राम’ या फिर – ‘रामा’ पढ़ने वाले ज़्यादा मिलेंगे.
एक बार हम दिल्ली से झारखंड स्थित अपने तीर्थ-स्थल सम्मेद शिखर गए थे. रेलवे रिज़र्वेशन में रमा को फ़ीमेल की जगह मेल बना दिया गया. हमको इस यात्रा में कितनी परेशानी हुई यह हम ही जानते हैं.
मैंने तो सफ़र की ऐसी परेशानियों से बचने के लिए श्रीमती जी को नकली मूंछ लगाने की सलाह दी थी लेकिन उन्होंने उस पर अमल नहीं किया.
मेरी बड़ी बेटी गीतिका को बहुत से लोग – ‘गीता’ कहते हैं और वो इसका बुरा भी नहीं मानती.
एक बार अस्पताल के पर्चे में क्लर्क ने उसका नाम – ‘गुटका’ लिखा था. मुझे तो बिटिया जी का यह नया नाम बहुत पसंद आया पर बिटिया जी ने इस नाम को सुनते ही अपने दांतों को पीसना शुरू कर दिया.
हमारी छोटी बेटी रागिनी का नाम बिगाड़ने वालों में उसे – ‘रगीनी’ कहने वाले कम हैं और – ‘रजनी’ कहने वाले काफ़ी हैं.
गीतिका के बेटे – ‘अमेय’ को दुबई में कोई भी उसके सही नाम से नहीं पुकारता. कोई उसे – ‘अमेया’ कहता है, कोई उसे – ‘अमे’ कहता है तो कोई – ‘अमया’ कहता है.
मेरा आप मित्रों को सुझाव है कि अपने बच्चों का नामकरण करने से पहले अपने अड़ौसी-पड़ौसी से आप विचारणीय नाम का उच्चारण करवा कर देखिए.
अगर अधिकतर जनता प्रस्तावित नाम का गलत उच्चारण करती है तो फिर आप अपने बच्चे के लिए कोई सरल सा नाम चुन लीजिए.
इस से आपको उन परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ेगा जिन से हमारे परिवार को दो-चार होना पड़ा है.

रविवार, 3 सितंबर 2023

विश्वगुरु भारत

 अन्धविश्वास हमारे जीवन में कुछ इस तरह रचा-बसा है कि हम उसके बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकते.

अपनी आधुनिकता और अपनी प्रगतिशीलता का ढोल पीटने के बावजूद हम –
राफ़ेल विमानों को बुरी नज़र से बचाने के लिए उनके पहियों के नीचे नीबू-मिर्च रख देते हैं.
चंद्रयान – 3 की सफलता के लिए सैकड़ों स्थानों पर यज्ञ-हवन का आयोजन करते हैं.
सरकार के गठन के बाद शपथ-ग्रहण समारोह की तिथि और उसका समय, शुभ-मुहूर्त देख कर, आज भी कोई ज्योतिषी ही निर्धारित करता है.
यूँ तो हमारे समाज में पुरुष भी अन्धविश्वास से ग्रस्त होते हैं किन्तु हमारे स्त्री-समाज में तो इसका आज भी प्रभुत्व स्थापित है.
20 वीं शताब्दी के प्रारंभ तक हमारे देश में स्त्री-शिक्षा का प्रसार बहुत ही कम था और अनपढ़ स्त्रियों में अन्धविश्वास की जड़ें इतनी मज़बूत थीं कि उनके उन्मूलन हेतु सुधारकों के सारे के सारे प्रयास निष्फल ही सिद्ध होते थे.
सैयद अहमद देहलवी 19 वीं शताब्दी के अंतिम चरण में और 20 वीं शताब्दी के प्रारंभ में उर्दू के प्रसिद्द पत्रकार और प्रगतिशील लेखक थे.
उर्दू पत्रिका – ‘इस्मत’ (दिल्ली से प्रकाशित), दिसम्बर, 1908
में उनका लेख – ‘औरतों के मनगढ़न्त मसले’ प्रकाशित हुआ था.
इस लेख में उन्होंने तत्कालीन मुस्लिम स्त्रियों में व्याप्त 100 अंधविश्वासों का उल्लेख किया है.
इन 100 अंधविश्वासों में से मैं कुछ चुन कर आप मित्रो के समक्ष रख रहा हूँ.
इमानदारी से बताइएगा कि स्वयं आप उनमें से कितनों से ग्रस्त हैं -
1. पहलौटी के बच्चे को बिजली के सामने न आने दो क्यूँकि जेठे (बड़ा बेटा) पर अक्सर बिजली गिरती है. पहलौटी बच्चे की बहुत हिफ़ाज़त करो.
जिन्न वा (या) प्रेत को यह प्यारा होता है.
भेंट (बलि) इसकी चढ़ाई जाती है.
नज़र इसको लगती है, गरज़ कि सबसे ज़्यादा आफ़तें इस पर आती हैं.
2. तीतरा बेटा (तीन लड़कियों के बाद पैदा होने वाला बेटा) मँगाता (भीख मँगाता) और तीतरी बेटी (तीन लड़कों के बाद पैदा होने वाली) राज कराती है.
3. बहुत पानी बरसे तो बरसे पानी में तेल डाल दो, थम जाएगा.
4. सख़्त आँधी आए तो झाड़ू खड़ी कर दो. रुक जाएगी.
5. शबे बरात को परछाईं देखो, अगर नज़र आए तो जानो कि इस साल ज़िदा रहोगे वरना समझ लो कि हमारी उम्र पूरी हो गई.
6. अगर कोई टोके यानी तारीफ़ करे तो कह दो कि अपनी एड़ी देखो, इसमें क्या लगा है, ताकि उसकी टोक और नज़र न लगे.
7. छिपकली छू जाय तो सोने के पानी से धो डालो.
8. हाथ की चूडी टूटे तो ठन्डी हुई कहो क्योंकि बेवा होने पर चूड़ियाँ तोड़ी जाती हैं.
9. दुपट्टा कहीं से जल जाय तो दूध से धो डालो.
10. काली खाँसी हो जाए तो काले कुत्ते को दही चटा दो.
11. जब कोई अज़ीज़ (प्रिय) सफ़र को जाय तो उसकी पीठ को आइना दिखाओ ताकि जिस तरह जाते की पीठ देखी है, आते का मुँह देखो.
12. जिस वक़्त ज़लज़ला (तूफ़ान) आए तो पुकार कर कहो - ‘ज़ल्ले जलाल तू, आई बला को टाल तू’
13. बिल्ली रास्ता काट दे तो आगे न जाओ. बचकर निकल जाओ.
14. तीसरी तारीख़ (तृतीया) का चाँद देखना मनहूस है.
15.. कोई चीज़ तीन, तेरह लो न दो कि मुफ़ारक़त (विच्छेद) की अलामत (लक्षण) है.
16. गहन (ग्रहण) के दिन अक्सर बच्चा गहनाया (दोषयुक्त) हुआ पैदा होता है.
17. औरत की दाहिनी, मर्द की बाईं आँख फड़कनी अच्छी है, बिछड़ा हुआ अज़ीज़ मिलता है. उसके बरख़िलाफ़ (विरुद्ध)हो तो रेज़ व सदमें (बिछोह और शोक) की अलामत (लक्षण)है .
18. मूली की पेंदी (जड़) खाने से माँ-बाप मर जाते हैं.
19. मर्त ब्याही (जिसके बच्चे जीवित न रहते हों) औरत की परछाईं से बचो नहीं तो तुम्हारे बच्चे भी नहीं बचेंगे.
20. कव्वा बोले तो किसी अज़ीज़ परदेसी के आने का शगुन समझो और नाम लेकर पूछो कि क्या फलाँ शख़्स आता है, अगर उसके नाम पर उड़ जाय तो जानो कि वह आता है.
21. साँप कुवाँरी बाली (लड़की) के साये से अंधा हो जाता है.
22. खाना खा कर हाथ न झटको, इससे नहूसत (मनहूसियत) आती है.
23. कुरान शरीफ़ खुला न छोड़ो, शैतान पढ़ता है.
24. कुत्ता रोए तो जानो कि कोई आस्मानी आफ़त (दैवी आपदा) आएगी.
25. बिल्ली रोए तो जानो कि कोई घर का आदमी मरेगा.
26. गिलहरी बीबी फ़ातिमा (हज़रत मुहम्मद की बेटी) की गुड़िया है, उसे न मारो.
27. झाड़ू बदन को लग जाय तो थुकथुका फेंको (थूक दो) वरना दुबले सींक सलाई से हो जाओगे.
28. जिस औरत की पीठ पर नागिन (नागिन जैसा निशान) हो, उसका ख़ाविन्द (पति) ज़िन्दा नहीं रहता.
29. सोना (स्वर्ण) पाना भी बुरा और जाना भी बुरा.

रविवार, 27 अगस्त 2023

हम देखेंगे

 फैज़ अहमद फैज़ की अमर रचना –

हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिस का वादा है
जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ
रूई की तरह उड़ जाएँगे
हम महकूमों के पाँव-तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
(हिंदी अनुवाद)
हम देखेंगे
निश्चित है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वचन मिला है
जो वेदों में लिख रखा है
जब अत्याचार का हिमालय भी
रुई की तरह उड़ जाएगा
हम प्रजाजनों के कदमों तले
जब पृथ्वी धड़ धड़ धड़केगी
और शासक के सर के ऊपर
जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी
जब स्वर्गलोक सी पृथ्वी से
सब असुर संहारे जाएँगे
हम दिल के सच्चे और वंचित
गद्दी पर बिठाए जाएँगे
सब मुकुट उछाले जाएँगे
सिंहासन तोड़े जाएँगे
बस नाम रहेगा ईश्वर का
जो सगुण भी है और निर्गुण भी
जो कर्ता भी है साक्षी भी
उठेगा “शिवोऽहम्” का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगा ब्रह्म-पुरुष
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
हम देखेंगे!
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ से कुछ हट कर मेरी अपनी गुस्ताख़ी –
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे -
जो झूठे ज़ालिम अहमक हैं
मसनद पे बिठाए जाते हैं
मंसूर कबीर सरीखे सब
सूली पे चढ़ाए जाते हैं
क्यूं दीन-धरम की खिदमत में
नित लाश बिछाई जाती हैं
नफ़रत वहशीपन खूंरेज़ी
घुट्टी में पिलाई जाती हैं
बोली औरत की अस्मत की
हाटों में लगाई जाती है
नारी-पूजन की क़व्वाली
हर रोज़ सुनाई जाती है
बिकता हर दिन ईमान यहाँ
गिरवी ज़मीर हो जाता है
कुर्सी पर जैसे ही बैठे
फिर फ़र्ज़ कहीं सो जाता है
आहें सुनता है कौन यहाँ
फ़रियादों से न पिघलता है
नगरी-अंधेर में सिक्का तो
धोखे-फ़रेब का चलता है
बनवास राम का देखा था
अब राम-राज्य का देखेंगे
दोज़ख की आग में जलते हुए
हम ख़ुद को निस-दिन देखेंगे
घुट-घुट कर जी कर देखेंगे
तिल-तिल कर मर कर देखेंगे
फिर अगले जनम भी देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
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मंगलवार, 22 अगस्त 2023

ये है ग्रेटर नॉएडा मेरी जान

 फ़िल्म ‘सीआईडी’ का मशहूर गाना – ‘ज़रा हट के, ज़रा बच के, ये है बॉम्बे मेरी जान –‘ दरअसल हमारे ग्रेटर नॉएडा के शरीफ़ वाहन-चालकों के लिए और निरीह पैदल चलने वालों के लिए कुछ इस तरह से लिखा गया था –

‘ज़रा हट के, ज़रा बच के,
ये है ग्रेटर नॉएडा मेरी जान’
पर बाद में इसे चोरी कर के और इसमें थोड़ा फेर-बदल कर के, इसका इस्तेमाल बॉम्बे के बाशिंदों को होशियार करने लिए कर लिया गया.
आप कहेंगे कि ‘सीआईडी’ फ़िल्म तो 1956 में रिलीज़ हुई थी और ग्रेटर नॉएडा की नींव 1992 में पड़ी थी फिर ये गाना चोरी करने वाली बात कैसे सच हो सकती है.
इस सवाल के जवाब में हम कहेंगे कि इस गीत की रचना बहुत पहले ज्योतिष-विद्या में प्रवीण एक अज्ञात कवि ने ग्रेटर नॉएडा के सम्बन्ध में अपनी भविष्यवाणी के रूप में की थी.
वैसे भी आजकल इतिहास को तो बुद्धि-विवेक को ताक पर रख कर ही लिखा, पढ़ा और समझा जाता है.
हमारे ग्रेटर नॉएडा में घी-दूध की नदियाँ तो नहीं बहतीं पर सड़कों पर, फुटपाथों पर, थोक के भाव गाय-भैंस का गोबर (बरसात के मौसम में) और उनका मूत्र (बारहों महीने) अवश्य बहता है.
सुना है कि बाबा आँख मारू पांच-छह सौ रूपये में गौ-मूत्र की एक बोतल बेचते हैं और पंच-गव्य के नाम पर भी ऊंचे दाम पर लोगों की जेबें काटते हैं.
बाबा हमारे ग्रेटर नॉएडा में अगर अपना प्लांट खोल लें तो उन्हें रॉ मटीरियल की कभी कोई कमी नहीं रहेगी.
अपने निस्वार्थ जनहित-कार्य के लिए यहाँ की गाय-भैंस भी यहाँ के नागरिकों की भांति ही ट्रैफ़िक नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुए, यत्र-तत्र-सर्वत्र उल्टी-सीधी दिशाओं में विचरण करती हुई, मोदी जी के स्वच्छ-भारत अभियान की ऐसी की तैसी करती रहती हैं.
भारत में जन-प्रतिनिधि सभाओं के बाद सबसे ज़्यादा तादाद में छुट्टा सांड आपको ग्रेटर नॉएडा में ही दिखाई देंगे.
इन सांडों के सौजन्य से भले ही गायों की आने वाली नस्लें सुधरें या फिर न सुधरें पर इनके सड़कों पर आवारा घूमने से हमारे आने-जाने में हमारी जान जाने का कितना ख़तरा रहता है, उसका आप आसानी से अंदाज़ा लगा सकते हैं.
यहाँ के दूध बेचने वाले मोटर साइकिल पर अगल-बगल तीस-तीस लीटर की 5-6 कैन्स ले कर चलते हैं और आम तौर पर उल्टी दिशा में ही चलते हैं.
प्रैक्टिकली इन दूध-वाहक दुपहिया वाहनों की चौड़ाई हमारी छोटी सी कार आल्टो 800 से ही क्या, छोटे-मोटे ट्रक से भी ज़्यादा हो जाती है.
हमारे ग्रेटर नॉएडा में सड़कें बहुत चौड़ी हैं और दिल्ली, नॉएडा की तुलना में यहाँ ट्रैफ़िक भी कम है लेकिन यहाँ रॉंग डायरेक्शन में चलने का रिवाज़ इतना ज़्यादा है कि हम जैसे ट्रैफ़िक नियमों का पालन करने वाले वाहन चालकों को शक़ हो जाता है कि कहीं हम ही तो गलत नहीं जा रहे हैं.
कभी 70 किलोमीटर की स्पीड से रॉंग डायरेक्शन में चलने वाले की गाड़ी से जब हमारी कार भिड़ते-भिड़ते बच जाती है तो वह आँखे तरेर कर और गुर्राते हुए हमसे पूछता है –
‘ताऊ, अँधा है क्या?’
हमारे ग्रेटर नॉएडा में पार्कों की भरमार है लेकिन जीर्ण-क्षीर्ण अवस्था के इन पार्कों में हम प्रातःकालीन भ्रमण के लिए अगर जाते हैं तो वहां हमको कुत्तों, गायों और सांडों से ख़ुद को बचते-बचाते हुए चलना पड़ता है.
ग्रेटर नॉएडा में ट्रैफ़िक पुलिस सिर्फ़ तब दिखाई देती है जब कोई महा-माननीय किसी समारोह में पधारता है और फिर उसके प्रस्थान करते ही वह गधे के सर पर सींग की तरह गायब भी हो जाती है.
ग्रेटर नॉएडा से नॉएडा जाने के दो रास्ते हैं.
एक रास्ता परी चौक से एक्सप्रेस वे से होता हुआ नॉएडा पहुंचता है और दूसरा हाथी चौक से भंगेल के रास्ते नॉएडा पहुंचता है.
अपेक्षाकृत 6-7 किलोमीटर छोटा होने की वजह से नॉएडा जाने के लिए पहले हम भंगेल वाला रास्ता पकड़ते थे पर भंगेल में बीच सड़क पर कार, बस और ट्रक, या अपना ठेला खड़ा करना, यहाँ के निवासियों का जन्मसिद्ध अधिकार है.
आप अपनी कार को सिर्फ़ उड़ा कर या फिर भिड़ा कर, इन बाधाओं को पार कर सकते हैं.
दो-चार बार अपनी कार को ठोकरें लगवा कर और गलत दिशा में आ रहे वाहक-चालकों की गालियाँ-धमकियाँ खा कर, हमने इस रास्ते का हमेशा के लिए परित्याग कर दिया है और नॉएडा जाने के लिए एक्सप्रेस वे वाला लम्बा रास्ता अपना लिया है.
स्कूल और ऑफ़िस के खुलने के और बंद होने के टाइम पर बसों के और कारों के, बेलगाम हुजूम में कई बार फंसने के बाद हमने उस टाइम पर घर से बाहर निकलना छोड़ ही दिया है.
रात में हमको कुछ ख़ास सूझता नहीं है इसलिए शाम के बाद हम अपनी कार को विश्राम ही देते हैं.
हाँ, रविवार की सुबह हम जैन मन्दिर तक अपनी कार से ज़रूर चले जाते हैं. आने-जाने में कुल जमा साढ़े तीन किलोमीटर का चक्कर लगाने से हमारी कार का आवश्यक साप्ताहिक व्यायाम हो जाता है और साथ में हमको धर्म-लाभ भी हो जाता है.
हमारे यहाँ पद-यात्री सबसे निरीह प्राणी होता है.
यहाँ की फुटपाथों पर पेड़ों का या फिर हॉकर्स का क़ब्ज़ा होता है.
जिन रास्तों से पद-यात्री सड़क क्रॉस करता है उसका इस्तेमाल दुपहिया वाहन-चालक भी करते हैं और गौ-माताएं भी.
हमारे यहाँ ज़ेबरा क्रासिंग पर वाहन चालक अपनी गाड़ी की गति धीमी करने के बजाय उसे और ज़्यादा तेज़ कर देते हैं.
अब यह किसी पद-यात्री के भाग्य पर निर्भर करता है कि वह इस अप्रत्याशित आक्रमण से बच पाता है या नहीं.
यहाँ के बाज़ारों में गाड़ियाँ पार्क करने की और चौराहों पर ऑटो पार्क करने की, स्वच्छंद व्यवस्था हमको काल्पनिक अंधेर नगरी के यातायात नियमों को साकार करती हुई दिखाई पड़ती है.
पिछले पांच सालों से हम सुनते आ रहे हैं कि यहाँ वाहन-चालकों को ट्रैफ़िक नियमों का पालन कराने के लिए महत्वपूर्ण चौराहों पर ट्रैफ़िक लाइट्स और क्लोज़ सर्किट कैमरा लगाए जाने की व्यवस्था होने जा रही है. लेकिन अब तक हम ऐसी घोषणाओं के क्रियान्वयन की प्रतीक्षा ही कर रहे हैं.
जानकार कहते हैं कि हमारी ज़िंदगी के बाक़ी दिन भी ऐसी प्रतीक्षा में ही बीत जाएंगे और भारत का होने वाला यह सिंगापुर, भेड़ियाधसान ही बना रहेगा.
फिर भी उम्मीद पे दुनिया क़ायम है.
हमको उम्मीद है कि ग्रेटर नॉएडा की सड़कों पर व्यवस्था क़ायम होने की हमारी दिली आरज़ू एक न एक दिन ज़रूर पूरी होगी.
हम यहाँ के हालात सुधर जाने का इंतज़ार कर रहे हैं और हमको यकीन है कि कभी ना-उम्मीद हो कर हमको यह शेर नहीं गुनगुनाना पड़ेगा –
उम्रे दराज़ मांग के लाए थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गए दो इंतज़ार में

मंगलवार, 11 जुलाई 2023

ये मीना कुमारियाँ

 हमारे एक खानदानी भाई साहब बड़े रंगीले हुआ करते थे.

किशोरावस्था में और जवानी के दिनों में रंगीले भाई साहब का यह मजनूँपना उनके लिए कई बार घातक सिद्ध हुआ था. इसके लिए उन्हें अक्सर थाने में हाज़री लगानी पड़ती थी तो कभी अपनी डेंटिंग-पेंटिंग के लिए अस्पताल के चक्कर भी लगाने पड़ते थे. लेकिन बाद में अपने ऐसे साहसिक अभियानों में चोटें और ठोकरें खाते-खाते वो इतने एक्सपर्ट और इतने घाघ हो गए थे कि उनको अब न तो किसी भी तरह का

नुक्सान उठाना पड़ता था और न ही किसी को किसी भी तरह का कोई खामियाज़ा देना पड़ता था.

सयाना होने के बाद हमारी मजनूँ भाई साहब अब अपनी लैलाओं का चयन बड़ी दानिशमंदी से करने लगे थे.

बड़े जुगाड़ के बाद भाई साहब ने अपना कैरियर सचिवालय में लोअर डिवीज़न क्लर्क से किया था.

नियुक्ति के तुरंत बाद उन्होंने अपनी अधेड़ बॉस, एक चिरकुमारी को अपने जाल में फंसा लिया था.

अपनी बॉस की आँखों में चढ़े और उनके दिल में बसे, उन से लगभग दस साल छोटे और उन से तीन ओहदे नीचे वाले, हमारे रंगीले भाई साहब की तो लाटरी लग गयी.

ऑफ़िस में नाम का काम करते हुए, अपनी बॉस के साथ थोक में आशिक़ी करते हुए और रोज़ाना उनके हाथ का बनाया बादाम का हलवा खाते हुए, उन्होंने तीन साल में ही लोअर डिवीज़न क्लर्क से अपर डिवीज़न क्लर्क का ओहदा हासिल कर लिया.

रंगीले भाई साहब की एक और ऐसी ही मेहरबान अधेड़ लेडी-बॉस ने उन्हें आननफ़ानन में सेक्शन ऑफ़िसर बनवा दिया.

आउट ऑफ़ टर्न विभागीय पदोन्नति दिलवाने के अलावा भाई साहब की ये वरिष्ठ मह्बूबाएं उन्हें कभी डिनर पर ले जातीं तो कभी उन्हें सिनेमा हॉल की बालकनी की कार्नर वाली सीट्स बुक करवा कर फ़िल्म दिखातीं तो कभी बेशकीमती उपहारों से उनका घर भर देतीं.

भाई साहब कहा करते थे –

 

मछली अपने तेल से, पके तभी रंग लाय,

फ़िल्म दिखाए, डिनर दे, वही प्रिया मन भाय.

 

हमारे भाई साहब के ऐसी वरिष्ठ किन्तु महा-उपयोगी प्रेमिकाओं के चयन पर जब उनके मित्रगण उन पर लानत भेजते थे तो वो बेशर्मी के साथ मुस्कुराते हुए उन्हें समझाते थे –

 

हर धर्मेन्द्र को स्टार बनने के लिए किसी न किसी मीना कुमारी की ज़रुरत तो पड़ती ही है. 

            

सचिवालय में सेक्शन ऑफ़िसर के पद पर नियुक्त हो जाने के बाद उनके पिता श्री यानी कि हमारे बाबा ने एक सुकन्या से उनकी शादी करवा दी.  

इन भाई साहब वाली हमारी भाभी जी सुन्दर थीं लेकिन आत्मोत्थान हेतु चाचा जी का भंवरत्व पूर्ववत बरक़रार था.

हाँ, वो यह सावधानी ज़रूर बरतते थे कि भाभी जी तक उनके इस हरजाईपन की ख़बर न पहुंचे.

वरिष्ठ प्रेमिकाओं के दूरदर्शितापूर्ण चयन की कृपा से भाई साहब की विभागीय पदोन्नतियां आउट ऑफ़ टर्न जारी रहीं और जल्द ही वो प्रदेश सरकार में डिप्टी सेक्रेटरी के ओहदे तक पहुँच गए.

शादी के बीस साल हो गए थे.

भाई साहब अब तक दो प्यारे से टीन एजर बेटों के पिता बन गए थे. लेकिन इस बीस साल के ज़ालिम वक़्त में उनका धर्मेन्द्र वाला पुराना चार्म जा चुका था.

रंगीले भाई साहब का चेहरा अब बेरंग हो चला था अब उनकी काया पर भी उम्र का असर होने लगा था, अब वो हल्की सी तोंद के मालिक भी बन चुके थे, उनकी लहराती हुई ज़ुल्फें अब इतिहास बन चुकी थीं और उनकी आँखों पर अब प्लस 4 का चश्मा लग चुका था.

अब कोई दुधारू मीना कुमारी उनकी लुटी-पिटी पर्सनैलिटी देख कर उनके प्रेम-जाल में फंस कर उन पर मेहरबानियाँ लुटाने वाली नहीं थी.

अब एक करोड़ वाला सवाल यह था कि हमारे भाई साहब कोई कल्पवृक्ष जैसी मछली अपने जाल में कैसे फसाएँ?

हमारे चतुर भाई साहब ने अब ख़ुद के बजाय अपने बच्चों को चारा बना कर मछली फसाने की दूरदर्शी योजना प्रारंभ की.

भाई साहब के बंगले के निकट कन्या महा-विद्यालय की प्राचार्या का बंगला था.

हमारे भाई साहब की हम उम्र ये प्राचार्या महोदया तलाक़शुदा थीं और उनके कोई संतान नहीं थी. कहा जाता था कि संतानहीन होने की वजह से ही उनका और उनके पति का रिश्ता टूट गया था.

ये प्राचार्या महोदया अपने अड़ौस-पड़ौस के बच्चों को बेहद प्यार करती थीं. अगर बच्चे क्रिकेट खेलते तो वो भी उनके साथ बैटिंग-बॉलिंग करने पहुंच जातीं और फिर बच्चों को पूरी क्रिकेट किट गिफ्ट में दे डालतीं.  अगर बच्चे बैडमिंटन खेल रहे होते तो उनके अनुरोध पर वो भी अपना रैकेट चलाने पहुँच जातीं और फिर इन आंटी की कृपा से बच्चों को पूरे एक महीने तक शटल कॉक्स खरीदने की ज़रुरत नहीं पड़ा करती थी.

 

हमारे भाई साहब का तेरह साल का छोटा बेटा इन आंटी को बेहद प्यारा लगता था.

हमारे दूरदर्शी भाई साहब ने अपने इस बेटे को अपनी नई आंटी के घर सुबह-शाम हाज़री लगाने के लिए भेजना शुरू कर दिया.

कुछ दिनों बाद यह हालत हो गयी कि आंटी और उनके इस भतीजे की दोस्ती जय-बीरू की दोस्ती से भी आगे निकल गयी.  

दरियादिल आंटी की जब एक बेटे से दोस्ती हुई तो उनका बड़ा बेटा भी आंटी से दोस्ती करने में क्यों पीछे रहता?

कुछ दिनों बाद हमारे भाई साहब के दोनों बेटों के सारे शौक़, उनकी सारी फ़रमाइशें, ये कल्पवृक्ष आंटी पूरा करने लगीं.

अपने बच्चों के बहाने हमारे भाई साहब की भी उस घर में एंट्री हो गयी.

 

हमारी भाभी जी अपने बेटों पर इस नई आंटी के बढ़ते हुए अधिकार से और अपने पति से उनकी बढ़ती हुई दोस्ती से, पहले तो त्रस्त थीं लेकिन बाद में उनके समझ में आ गया कि सिर्फ़ अपने बच्चों के प्यार में हिस्सेदारी करने वाली इस एटीएम आंटी से रिश्ता बनाए रखने में फ़ायदा ही फ़ायदा है और रही अपने पति से उस से दोस्ती की बात तो वो यह अच्छी तरह से जानती थीं कि जिस राख के ढेर में न तो शोला बचा था और न ही चिंगारी, वह तो सिर्फ़ बर्तन मांजने के काम आ सकती थी. 

 

भाई साहब के ज़ालिम दोस्तों ने अब चाचा जी को धर्मेन्द्र की जगह कमाल अमरोही कहना शुरू कर दिया जिसने कि अपने बेटों के ज़रिए इस नई मीना कुमारी के दिल पर और उसकी तिजोरी पर क़ब्ज़ा कर लिया था.

हमारे भाई साहब बेशर्मी से ऐसी बातों को एक कान से सुन कर उन्हें दूसरे कान से उड़ा देते थे.

अब तो भाई साहब बस, इसी आस में जी रहे थे कि कब ये मेहरबान आंटी, ये नई मीना कुमारी, उनके दोनों बेटों को अपना वारिस बना कर ये दुनिया छोड़ेगी.

हमारे भाई साहब की ज़िंदगी में ये मेहरबान मीना कुमारियाँ न होतीं तो वो अब तक अपर डिवीज़न क्लर्क के मामूली ओहदे से रिटायर हो चुके होते. लेकिन वो एक आला अफ़सर बन कर रिटायर हुए हैं, उनका अपना शानदार बंगला है, उनका अपना मोटा बैंक बैलेंस है और उनके बेटों की हायर एजुकेशन का पूरा ख़र्चा इस मेहरबान मीना कुमारी आंटी ने उठा कर उन्हें मल्टीनेशनल कंपनीज़ में ऊंचे-ऊंचे ओहदों पर तैनात करने में मुख्य भूमिका निभाई है.

कहा जाता है कि भगवान जी ही किसी की किस्मत बिगाड़ते या संवारते हैं लेकिन हमारे इन भाई साहब की किस्मत संवारने में तो कई मीना कुमारियों का ही रोल रहा है और भगवान जी बेचारे तो सिर्फ़ तमाशाई का रोल ही निभा पाए हैं.