रविवार, 18 मई 2025

कहत कबीर सुनो भई साधो

अरे इन दोउन राह न पाई !
सत्तापक्ष-विपक्ष लड़ें नित, भारत-हित बिसराई,
इक थैली के चट्टे--बट्टे,, लाज-सरम नहिं पाई,
मुर्दे गड़े उखाड़ें निस-दिन, फिर-फिर करें लड़ाई,
धरम, जाति को खेला करि-करि, घर-घर फूट कराई.
त्याग-तपस्या के भासन सुनि, स्रोता लेत जम्हाई,
खुद की पूंजी स्विस बैंकन में, देस दलिद्दर छाई.
बिस्व गुरू अरु महा-सक्ति कहं, अपनी करें बड़ाई,
चचा सैम के संकेतन पे, नाचें ता-ता थाई.
शब्दार्थ :
नित - रोज़ाना
निस-दिन - रात-दिन
बिसराई – भूल गए
दलिद्दर – दरिद्रता

चचा सैम – अंकल सैम अर्थात् अमेरिका 

सोमवार, 12 मई 2025

कल मातृदिवस था

 2006, माँ की मृत्यु से एक साल पहले की यादें -

मैं – माँ ! मैं यूनिवर्सिटी जा रहा हूँ दरवाज़ा बंद कर लीजिए.
माँ – बब्बा ! नाश्ता कर के जइयो !
मैं – नाश्ता तो मैं कबका कर चुका हूँ.
माँ - तूने अपना पर्स रख लिया?
मैं – हाँ, रख लिया.
माँ – चाबी रख ली? और धूप का चश्मा?
मैं – हाँ, ये भी रख लिए.
माँ - और अपना मोबाइल?
मैं – वो भी रख लिया.
माँ – अपनी वाटर बॉटल ज़रूर साथ ले जाना.
मैं – माँ, मैं पचपन साल का हो गया हूँ. आप कब तक मुझे बच्चा ही समझती रहेंगी?
माँ – पचपन का हो गया तो क्या हुआ? बचपना तो तेरा फिर भी नहीं गया है. देखा, अपनी कैप ले जाना तो तू फिर भूल गया.

सोमवार, 5 मई 2025

जंग से कुछ ना हासिल होगा

 

भारत-पाक तनाव को केवल युद्ध के माध्यम से दूर करने की हिमायत करने वालों से मेरे कुछ सवालात -

 जंग हुई फिर जीत गए,

कश्मीर का मसला हल होगा?

फिर न कहीं बमबारी होगी,

कहीं न फिर मातम होगा?

हिन्दू-मुस्लिम, गहरी खाई,

क्या इस से पट जाएगी?

और करोड़ों भूखों को,

हर दिन रोटी मिल जाएगी?

भटक रहे जो रोज़गार को,

रोज़ी उन्हें दिलाएगी?

माँ की कोख में सहमी कन्या,

जनम सदा ले पाएगी?

सूनी गोदें, उजड़ी मांगे,

क्या फिर से भर पाएंगी?

ताबूतों में रक्खी लाशें,

नहीं किसी घर आएंगी?

जंग जीत ली तो हाकिम के,

जल्वे कम हो जाएंगे?

किसे खरीदा, कहाँ बिके ख़ुद,

चर्चे कम हो जाएंगे?

चोरी, लूट, मिलावट, का क्या,

मुंह काला हो जाएगा?

जनता के सुख-दुःख में शामिल,

जन-प्रतिनिधि हो पाएगा?

मेहनतकश इंसान हमेशा,

मेहनत का फल पाएगा?

लोकतंत्र का रूप घिनौना,

क्या सुन्दर हो जाएगा?

राम-राज का सपना क्या,

भारत में सच हो जाएगा?

यह सब अगर नहीं हो पाया,

जीत-हार बेमानी है.

राजा सुखी, प्रजा पिसती है,

हरदम यही कहानी है.

वहशत, नफ़रत, खूंरेज़ी की

हर इक सोच, मिटानी है.

नहीं चाहिए जंग हमें अब,

शांति-ध्वजा फहरानी है.


 

रविवार, 26 जनवरी 2025

अमर रहे गणतंत्र हमारा

 

शासक को मिलते सुख अनंत
जन-गण-मन धक्के खाते हैं
स्कूल न जा मज़दूरी कर
बच्चे दो रोटी पाते हैं
गणतंत्र दिवस की झांकी में
चहुँ ओर प्रगति दिखलाते हैं
अनपढ़ भूखे बेकारों की
संख्या पर नहीं बताते हैं
दिनकर जा पहुंचे स्वर्गलोक
भारत से टूटे नाते हैं
भारत-संतति की क़िस्मत में
धोखे हैं झूठी बातें हैं
निर्धन पर कर का बोझ बढ़े
धनिकों के लिए सौगाते हैं
गणतंत्र दिवस का है उत्सव
अपनी तो काली रातें हैं

(यह कविता महा-कवि दिनकर की अमर रचना - 'श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बच्चे अकुलाते हैं - - - '' से प्रेरित है)

बुधवार, 1 जनवरी 2025

सन 24 ताहि बिसारि दे, तू 25 की सुधि लेय

 सन चौबिस का जंजाल गया,

हाथापाई का साल गया,
धक्कामुक्की का साल गया,
दोषारोपण का साल गया.

संसद की गरिमा भंग हुई
खूनी चुनाव की जंग हुई
भारत-मुद्रा बेबस हो कर
डॉलर समक्ष बेरंग हुई
रोहित सा कोई फ़ेल न हो,
निर्दोषों को फिर जेल न हो,
रेवड़ी बाँट का खेल न हो,
दल-बदलू रेलमपेल न हो.
जग में गुकेश का मान बढ़े,
हम्पी की हर कोई चाल पढ़े,
बुमरा की बॉलिंग शीर्ष चढ़े,
नित दीप्तिमान इतिहास गढ़े.
अब महंगाई का राज न हो ,
फ़िरको में बंटा समाज न हो,
रिश्वत से कोई काज न हो,
संस्तुति का भ्रष्ट रिवाज न हो.
अनपढ़ को पढ़ना भा जाए,
इंसाफ़ दलित भी पा जाए,
सुख-शांति देश में छा जाए,
अब राम-राज्य फिर आ जाए.

रविवार, 22 दिसंबर 2024

भारत दर्शन

 

(मेरे अप्रकाशित बाल-कथा संग्रह – कलियों की मुस्कान से ली गयी यह कहानी मेरी बारह साल की बेटी गीतिका सुनाती है. 1996 में लिखी गयी यह कहानी असंख्य मध्यवर्गीय परिवारों के भारत दर्शन के टूटे हुए सपनों को एक दिलचस्प अंदाज़ में पेश करने की कोशिश करती है.)  

          पापा एक चीनी कहावत पर अमल करते हैं जिसमें कहा गया है कि एक हज़ार पुस्तकें पढ़ने से जितना ज्ञान मिलता है, उससे ज़्यादा ज्ञान एक अकेली यात्रा करने  से मिल जाता है.

महात्मा गांधी भी पापा की राय से इत्तिफ़ाक रखते थे. उन्होंने दक्षिण अफ़्रीका से भारत लौटने के बाद सबसे पहले देश-भ्रमण किया था. हमारे परिवार में भी सभी को घूम-घूम कर भारत की खोज करने की बड़ी अभिलाषा है.

तीन साल पहले की बात है. हमारी दशहरे की वैकेशन्स हो चुकी थीं. जब से हमने टीवी पर कर्नाटक पर एक फ़ीचर देखा था, तभी से हमारे सपनों के सेवेन्टी एम० एम० स्क्रीन पर मैसूर और बंगलूरु के लुभावने सीन चल रहे थे. पापा के सामने हम बच्चों के फ़रमाइशी प्रोग्राम का रिकॉर्ड कुछ इस तरह ऑन  हो गया -

पापा हम इन छुट्टियों में मैसूर जाएँगे. सुनते हैं वहाँ का दशहरा पूरे भारत में सबसे शानदार होता है. हम मैसूर पैलेस की लाइट भी देखेंगे. आप हमें वृन्दावन गार्डन तो ज़रूर दिखाइएगा, वहाँ फि़ल्मों की शूटिंग भी होती है.’

          पापा जब तक जवाब देने के लिए अपना मुँह खोलते तब तक मम्मी की वीणा बज उठी -

सुनिएजी,  मेरे पास मैसूर सिल्क की अब एक भी साड़ी बाकी नहीं बची है. मैसूर में तो अच्छी से अच्छी साड़ी दो-तीन हज़ार तक में मिल जाएगी. क्योंजी ! आप का क्या ख़याल है? “

          मम्मी के ‘क्यों जी’ भला उनकी महंगी साड़ी खरीदने की फ़रमाइश को कैसे सही मान सकते थे?

फि़ज़ूलखर्ची पर पापा के आधे घण्टे के भाषण का रिकॉर्ड ऑन हो गया. पापा ने मम्मी के प्रस्ताव को नामन्ज़ूर करते हुए कहा -

सॉरी मैडम ! बच्चों का प्रस्ताव कर्नाटक यात्रा का है,  वो मुझे मन्ज़ूर है पर आपका खरीदारी का प्रोग्राम हमको और हमारी पॉकेट को मन्जूर नहीं.

अरे भई,  मैसूर जाओ तो वहाँ के पैलेस को देखो,  वहाँ के मन्दिरों में मूर्तियों की मनमोहिनी छटा निहारो,  वृन्दावन गार्डन में म्यूजि़कल फ़ाउन्टेन की फुहारों में भीगने का आनन्द लो,  भगवान गोमाटेश्वर के दर्शन का पुण्य लूटो,  श्रीरंगपट्टम, हालीविडु और वेल्लूर की ऐतिहासिक इमारतें देखकर इतिहास का अपना ज्ञान बढ़ाओ. यह क्या कि अपना पूरा समय और सारा पैसा मैसूर सिल्क एम्पोरियम की एक साड़ी के नाम कर दो.’

हम दोनों बहनों ने भी पापा के विचारों पर अपने समर्थन की मुहर लगा दी.

रागिनी ने कर्नाटक यात्रा में बैंगलौर के बाज़ार की सैर को शामिल किए जाने की ज़रूरत पर रौशनी डालते हुए पापा से कहा -

पापा ! आपको मालूम है, बंगलुरु में बच्चों के सामान की, दुनिया की सबसे बड़ी दुकान है. वहाँ से डांसिंग डॉल तो मैं ज़रूर खरीदूँगी और एक ड्रेस भी.’

रागिनी नादान थी पर मैं तो समझदार थी. मैंने पापा के दिमाग के पारे को चढ़ता हुआ जो देख लिया था,  मैनें रागिनी को समझाते हुए कहा -

देख रागू तू मम्मी जैसी जि़द मत कर. सारा पैसा हम शॉपिंग में खर्च कर देंगे तो वहाँ घूमेगे कैसे और खाएँगे कहाँ से?

          अब मैसूर यात्रा के दौरान खाने की बात चली तो पापा ने दक्षिण भारतीय व्यन्जनों के प्रति अपनी अरुचि दर्शाते हुए प्रस्ताव रखा कि खाना बनाने का सामान अपने साथ ही ले लिया जाए. पर मम्मी ने पापा का सुझाव पूरा सुने बग़ैर ही विरोध में अपने दाँत पीसने शुरू कर दिए. यात्रा में बावर्चिन का रोल निभाने से उन्होंने साफ़ इन्कार कर दिया.

नारी मुक्ति के इस दौर में मम्मी को नाराज़ करने का रिस्क उठाने की पापा में हिम्मत नहीं थी. आखि़रकार तय हुआ कि जेब हल्की हो तो हो पर यात्रा के दौरान इडली, डोसा, वडा जैसा सात्विक और सस्ता खाना ही खाया जाएगा.   

खाने की व्यवस्था के बाद हमको यात्रा में अपने रहने का बन्दोबस्त भी तो करना था. पर इस मामले में ज़्यादा फि़क्र की ज़रूरत नहीं थी. बैंगलौर में तो राजीव मामा रहते ही थे और मैसूर में ठहरने का इन्तज़ाम यूनीवर्सिटी गैस्टहाउस में होने वाला था.

यात्रा की सारी योजना निर्विघ्न तैयार कर ली गई पर दशहरे की छुट्टियों में मैसूर के लिए ट्रेन में रिज़र्वेशन मिल पाना नामुमकिन था. लाख कोशिश करने पर भी पापा को रिज़र्वेशन नहीं मिला. सारा बना-बनाया प्रोग्राम चौपट हो गया.

पापा ने मम्मी को खुश करने के लिए मैसूर सिल्क की एक साड़ी खरीद कर ला दी और और हम बच्चों को भी एक-एक बढ़िया सी ड्रेस दिलवा दी. रिश्वत में उनको, हमें कुछ खिलौने भी दिलाने पड़े.

 

          मैसूर यात्रा कैंसिल होने का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि हमारे घर में वाशिंग मशीन आ गई.   

अगले साल भ्रमण के ख़याली पुलाव फिर से पकने लगे.

मुम्बई से पापा के रेलवेज़ वाले मामाजी का निमन्त्रण आया था. उनका चर्चगेट पर खूब बड़ा फ़्लैट था जिसमें वो अकेले रहते थे. विन्टर वैकेशन्स में मुम्बई का प्रोग्राम पक्का कर दिया गया.

पापा ने अनाउन्स कर दिया कि मुम्बई में सबसे पहले हम एसेलवर्ड जाएँगे.

हमने पापा से वादा लिया कि वो हमको चौपाटी पर ट्रीट देंगे.

पापा एलीफ़ैन्टा, अजन्ता और एलोरा की गुफ़ाएँ देखने में पूरे तीन दिन खर्च करना चाहते थे. मम्मी को अजंता, ऐलोरा का प्रोग्राम तो मन्ज़ूर था पर ऐलीफ़ैन्टा जाने के लिए हम शरारती लड़कियों के साथ समुद्र में मोटरबोट का सफ़र करने पर उन्हें ऐतराज़ था.

हमको मुम्बई से गोवा भी जाना था. अब सवाल यह था कि वहाँ तक शिप से जाएँ कि ट्रेन से?  शिप से जाने का आइडिया तो बड़ा थ्रिलिंग था पर इतनी लम्बी समुद्री-यात्रा की कल्पना से ही मम्मी को चक्कर आने लगे थे. यही तय हुआ कि, ट्रेन से ही गोवा चला जाय.

          गोवा के सी बीचेज़ का क्या कहना ! पर मम्मी वहाँ न तो हम लड़कियों को ले जाने देना चाहती थीं और न ही पापा को. बच्चियों के समुद्र में डूब जाने का खतरा था लेकिन इस से भी बड़ा खतरा था कि गोवा के सी बीच पर पापा विदेशी सुन्दरियों को निहारा करेंगे.

विन्टर वैकेशन्स शुरू होने से दो महीने पहले से ही से रोज़ाना यात्रा के नए-नए प्लान्स बनते,  बिगड़ते और बदलते रहे. टूर में फ़ोटोग्राफ़ी करने के लिए कई रील्स भी ले ली गईं.

सुबह हमारी चर्चा का विषय होता था मुम्बई यात्रा तो शाम को गोवा की सैर डिस्कस की जाती थी.

पापा हर रोज़ कैलकुलेटर,  कागज़, पेन लेकर न जाने क्या जोड़ते-घटाते रहते थे. नतीजा यह हुआ कि क्लास फोर्थ के हाफ़-ईयरली एक्ज़ाम्स में मेरे मार्क्स बिलकुल ही एवरेज आए.

पापा ने फ़ैसला लिया कि मुम्बई और गोवा की ट्रिप  कैंसिल.

मेरी पढ़ाई की खातिर मुम्बई, गोवा का रिज़र्वेशन कैंसिल करा दिया गया. इस बार पापा ने मम्मी की माइक्रो अवन की ख़्वाहिश पूरी कर दी.

 

पिछला साल मम्मी की पीएच0 डी0 सबमिशन के लिए समर्पित कर दिया गया. इस बार यात्रा-कार्यक्रम स्थगित होने से मम्मी को किचिन में एक्वागार्ड का उपहार मिल गया.

पापा से अगले साल की यात्रा की योजना सुन कर मम्मी अचानक ही बेगम अख़्तर की गाई हुई यह ग़ज़ल गुनगुनाने लगीं -

ग़ज़ब किया तेरे वादे का ऐतबार किया ---’

मम्मी के मीठे स्वर में हमको तो यह ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी पर पता नहीं क्यूँ पापा इसे सुन कर अपने पाँव पटकते हुए घर से बाहर निकल गए.

मैं अब फिफ्थ क्लास में आ गई हूँ और रागिनी क्लास थर्ड में.

हम दोनो बहनों ने कड़ी मेहनत कर हाफ़-ईयरली एक्ज़ाम्स में अच्छे मार्क्स सीक्योर किए हैं. बच्चों की परफॉरमेंस से खुश होकर पापा ने इन विन्टर वैकेशन्स में राजस्थान यात्रा का प्रस्ताव रखा है.

जयपुर,  उदयपुर,  रणकपुर,  जोधपुर, चित्तौड़गढ़ और लौटते में फ़तेहपुर सीकरी और आगरा.

वाह क्या कार्यक्रम है ! हवा महल से लेकर ताजमहल तक आनन्द ही आनन्द !

मम्मी को गिफ़्ट की जाने वाली जयपुरी साड़ी का रंग भी पापा ने पहले से तय कर लिया है. हम दोनों बहनों को जयपुरी जूतियाँ,  उदयपुरी लहँगे और साँगानेरी सूट्स भेंट किए जाएँगे.

आजकल पापा मम्मी से कभी चूरमा,  कभी पापड़ की सब्ज़ी तो कभी दाल-बाटी बनाने की फ़रमाइश करते रहते हैं.

हमको जेम्स टॉड की ‘एनल्स ऑफ़ राजस्थान’ ,श्याम नारायण पाण्डेजी की ‘हल्दीघाटी’ और ‘जौहर’ से रोज़ाना कुछ न कुछ सुनाया जाता है. कैमरे में रील लोड कर ली गई है.

राजस्थान में ठहरने की पक्की व्यवस्था भी कर ली गई है. रेलवे रिज़र्वेशन का भी इस बार पक्का इन्तजाम हो गया है. पर मम्मी हैं कि पापा की बात पर यकीन करने की जगह बेवजह गुनगुना रही हैं –

झूठ बोले कौआ काटे

काले कौए से डरियो’

          मम्मी ने पापा को टाइटिल दिया है - प्रोफ़ेसर टालमटोल.

मम्मी ने तो यह भी डिसाइड कर लिया है कि इस बार ट्रिप कैंसिल होने पर वह पापा से बतौर कम्पेन्सेशन बड़ा वाला फ़्लैट टीवी लेंगी.

मम्मी पापा को छेड़ते हुए कहतीं हैं  -

अगर झूठ-मूठ की ट्रिप ही करानी है तो हम सबको आप लन्दन,  पेरिस घुमाने क्यों नहीं ले जाते?’

          मम्मी पापा की बातें सुन कर अपना मुँह फेर कर हँसें या खुलेआम पर हमको अपने पापा पर और उनके वादों पर पूरा भरोसा है.

पापा को इस बार काला कौआ नहीं काटेगा और हमारे पापा कोई प्रोफ़ेसर टालमटोल भी नहीं हैं पर अगर किसी मक्खी ने ऐन वक़्त पर छींक दिया या किसी काली बिल्ली ने उनका रास्ता काट दिया तो वो बेचारे प्रोग्राम कैंसिल करने के सिवा और क्या कर सकते हैं?