उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है
जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है
वसीम बरेलवी
चुनाव से ठीक पहले –
अगर कुर्सी पे आंच आए बदलना दल ज़रूरी है
बहाना दलितों-पिछड़ों के हितों का भी ज़रूरी है
शरम को छोड़ जा पहुँचो चुनावी मंडियों में तुम
मिले जो भाव ऊंचा फिर तो बिक जाना ज़रूरी है
'दीप तुम कब तक जलोगे?' (चर्चा अंक - 4313) में मेरी व्यंग्य-रचना को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद कामिनी जी.
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर मंगलवार 18 जनवरी 2022 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
'पांच लिंकों का आनंद' में मेरी व्यंग्य-रचना को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी.
हटाएंबहुत खूब।
जवाब देंहटाएंतारीफ़ के लिए शुक्रिया नितीश जी.
हटाएंतारीफ के लिए शुक्रिया विकास नैनवाल 'अंजान' जी.
जवाब देंहटाएंतारीफ के लिए शुक्रिया विभा जी.
जवाब देंहटाएंचुभता व्यंग्य. अपने हिसाब से आदमी अर्थ करता है. जिसकी जैसी प्रवृत्ति.
जवाब देंहटाएंतारीफ़ के लिए शुक्रिया नूपुरं जी.
हटाएंबिना आत्मा के शरीर वाले इन नेताओं से कुछ भी उम्मीद करना तो भूत से पूत मांगने जैसी मूर्खता है.
चुनाव में हर दल सजा कर बैठ है मंडी
जवाब देंहटाएंइसीलिए नेताओं की दूर होती नहीं गंदगी ।
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टिकट न मिलने पर किसी दल से ,
बैठ जाता है जा कर अलग
गर जीत गया कहीं गलती से
खुद का भाव लगा देता है बढ़ चढ़ कर ।।
आपकी पोस्ट से उपजे विचार ।
शानदार लिखा आपने ।
प्रशंसा के लिए धन्यवाद संगीता स्वरुप (गीत) जी.
जवाब देंहटाएंहमारे त्यागी नेताओं के विषय में आपके विचार और मेरे विचार सियासती दुनिया में कभी स्वीकार नहीं किए जाएंगे.
नेतागण खुद को बेचते हैं या अपना दल बदल लेते हैं, उसमें उनका कुछ भी स्वार्थ नहीं होता. यह सब कुछ तो वो अंतरात्मा की पुकार पर देश-हित में करते हैं.
सच में! अब रोटी, कपड़ा और मकान की जगह बिकना ही जरूरी है ।
जवाब देंहटाएंअमृता तन्मय जी, अगर ज़मीर-ईमान बेचा जाएगा तो सात जनम के लिए और सात पीढ़ियों के लिए, रोटी-कपड़ा-मकान का इंतज़ाम हो जाएगा.
हटाएंव्यंग्य की तीखी धार
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लिखा आपने आदरणीय समसामयिक परिप्रेक्ष्य के घटनाचक्र पर।
प्रशंसा के लिए धन्यवाद अभिलाषा जी.
हटाएंकाश कि मेरी ऐसी बातें कभी झूठी भी साबित हों.
जवाब देंहटाएंसटीक व्यंग्य।
नेता कुर्सी पूजते, जैसे चारों धाम
जनता कैसी पिस, रही,भली करें अब राम।
भली करे अब राम, कि कैसा कलयुग आया।
नैतिकता मझधार, सभी को स्वार्थ सुहाया।।
कुसुम जी, इतनी अच्छी पंक्तियाँ हमारे दूध के धुले नेताओं पर लांछन लगाने में आपने क्यों खर्च कर दीं?
हटाएंप्रायिश्चित स्वरुप नेताओं के गुणगान में - 'नेता चालीसा' लिखिए.
सटीक व्यंग्य।
जवाब देंहटाएंमिले जो भाव ऊंचा फिर तो बिक जाना ज़रूरी है
वाह बहुत खूब 👌
अनुराधा जी, नेताओं को ऊंची बोली का यह स्वर्णिम अवसर छोड़ना नहीं चाहिए.
हटाएंचुनाव के बाद तो कोई इन्हें टका सेर भी नहीं पूछने वाला.