सोमवार, 17 जनवरी 2022

मत चूको चौहान

 उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है

जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है
वसीम बरेलवी
चुनाव से ठीक पहले –
अगर कुर्सी पे आंच आए बदलना दल ज़रूरी है
बहाना दलितों-पिछड़ों के हितों का भी ज़रूरी है
शरम को छोड़ जा पहुँचो चुनावी मंडियों में तुम
मिले जो भाव ऊंचा फिर तो बिक जाना ज़रूरी है

19 टिप्‍पणियां:

  1. 'दीप तुम कब तक जलोगे?' (चर्चा अंक - 4313) में मेरी व्यंग्य-रचना को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद कामिनी जी.

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  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर मंगलवार 18 जनवरी 2022 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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    1. 'पांच लिंकों का आनंद' में मेरी व्यंग्य-रचना को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी.

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  3. तारीफ के लिए शुक्रिया विकास नैनवाल 'अंजान' जी.

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  4. तारीफ के लिए शुक्रिया विभा जी.

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  5. चुभता व्यंग्य. अपने हिसाब से आदमी अर्थ करता है. जिसकी जैसी प्रवृत्ति.

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    1. तारीफ़ के लिए शुक्रिया नूपुरं जी.
      बिना आत्मा के शरीर वाले इन नेताओं से कुछ भी उम्मीद करना तो भूत से पूत मांगने जैसी मूर्खता है.

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  6. चुनाव में हर दल सजा कर बैठ है मंडी
    इसीलिए नेताओं की दूर होती नहीं गंदगी ।
    ***********************
    टिकट न मिलने पर किसी दल से ,
    बैठ जाता है जा कर अलग
    गर जीत गया कहीं गलती से
    खुद का भाव लगा देता है बढ़ चढ़ कर ।।

    आपकी पोस्ट से उपजे विचार ।
    शानदार लिखा आपने ।

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  7. प्रशंसा के लिए धन्यवाद संगीता स्वरुप (गीत) जी.
    हमारे त्यागी नेताओं के विषय में आपके विचार और मेरे विचार सियासती दुनिया में कभी स्वीकार नहीं किए जाएंगे.
    नेतागण खुद को बेचते हैं या अपना दल बदल लेते हैं, उसमें उनका कुछ भी स्वार्थ नहीं होता. यह सब कुछ तो वो अंतरात्मा की पुकार पर देश-हित में करते हैं.

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  8. सच में! अब रोटी, कपड़ा और मकान की जगह बिकना ही जरूरी है ।

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    1. अमृता तन्मय जी, अगर ज़मीर-ईमान बेचा जाएगा तो सात जनम के लिए और सात पीढ़ियों के लिए, रोटी-कपड़ा-मकान का इंतज़ाम हो जाएगा.

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  9. व्यंग्य की तीखी धार
    बहुत बढ़िया लिखा आपने आदरणीय समसामयिक परिप्रेक्ष्य के घटनाचक्र पर।

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    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद अभिलाषा जी.
      काश कि मेरी ऐसी बातें कभी झूठी भी साबित हों.

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  10. सटीक व्यंग्य।

    नेता कुर्सी पूजते, जैसे चारों धाम
    जनता कैसी पिस, रही,भली करें अब राम।
    भली करे अब राम, कि कैसा कलयुग आया।
    नैतिकता मझधार, सभी को स्वार्थ सुहाया।।

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    1. कुसुम जी, इतनी अच्छी पंक्तियाँ हमारे दूध के धुले नेताओं पर लांछन लगाने में आपने क्यों खर्च कर दीं?
      प्रायिश्चित स्वरुप नेताओं के गुणगान में - 'नेता चालीसा' लिखिए.

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  11. सटीक व्यंग्य।
    मिले जो भाव ऊंचा फिर तो बिक जाना ज़रूरी है
    वाह बहुत खूब 👌

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    1. अनुराधा जी, नेताओं को ऊंची बोली का यह स्वर्णिम अवसर छोड़ना नहीं चाहिए.
      चुनाव के बाद तो कोई इन्हें टका सेर भी नहीं पूछने वाला.

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