शनिवार, 19 जनवरी 2019

बीते हुए दिन

हमारे दोस्त गिरीश पांडे अमेरिका में बैठे-बैठे पता नहीं कहाँ से हम बुजुर्गों के पुराने दिन, पुरानी यादें खोज-खोज कर ले आते हैं.
उनकी इस कविता ने मेरी मीठी यादों को फिर से ताज़ा कर दिया है -
ठण्डी की धूप से
अटे सने से दिन,
ठिठुरते परिंदों से दिन,
कनटोपे और
मफलर से दिन,
अम्माँ की गोद में शॉल में
घुसड़े पुसड़े से दिन,
तिल अलसी के लड्डू से दिन,
गाजर के हलुए वाले
बादामी से दिन,
अँगीठी के इर्द गिर्द,
गिलासों में चाय सुड़कते से दिन,
नुक्कड़ पे सुलगते
कूड़े के ढेर से दिन...
दूर कहीं रँभाती गैय्या से दिन.

इस कविता ने मुझे आज से 55-56 साल पीछे ढकेल दिया है. मुझे भी गिरीश जी जैसे ही कुछ दिन याद आ रहे हैं -

भुनी मूंगफली छील-छील कर, खाने के दिन
पेड़ से पत्थर मारकर, हरी इमली लूट लाने के दिन
बाजरे की मीठी टिक्की के हिस्से को लेकर, भाइयों से लड़ जाने के दिन
ऊनी कपड़ों के नीचे, पुरानी शर्ट और फटी बनियान, चलाने के दिन
सुलगते कोयले और उपले की आंच से, जिस्म गर्माने के दिन
बिना बीड़ी-सिगरेट पिए, मुंह से धुआं उड़ाने के दिन
लिहाफ़ के अन्दर कोई ख़तरनाक तस्वीरों वाली मैगज़ीन, छुपाने के दिन
सिर्फ़ इतवार को मंदिर जाने से पहले, नहाने के दिन !
कोई लौटा दे मेरे, बीते हुए दिन, कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन !

28 टिप्‍पणियां:

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    1. हाय ! इतिहास पढ़ाते-पढ़ाते, आज हम ख़ुद इतिहास हो गए !

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  2. बहुत बेशकीमती यादें ...., इनके गलियारों से गुजरना सदा ही भला सा लगता है ।

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    1. धन्यवाद मीना जी. इन यादों की गलियों से गुज़ारना भला सा तो लगता है पर माँ की कान-मलाई और मास्साब के हाथों संटियों की पिटाई की याद आज भी कंपा देती है.

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    2. मेरा बेटा अक्सर कहता है लड़कियां डांट खा कर ही बच जाती हैं । इस मामले में हम लोग फायदे में रहे 😊

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    3. तो क्या मैं भगवान से प्र्रार्थना करूं -
      'अगले जनम, मोहे बिटिया ही कीजो !

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  3. बहुत सुन्दर भावों में सजोंया आदरणीय आप ने रचना को ,
    कुछ लम्हों को याद कर मन गुदगुदा उठता है बहुत ही सुन्दर रचना रची है |
    सादर

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    1. धन्यवाद अनीता जी !
      अब तो पुरानी यादें ही बची हैं खुश होने के लिए!

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  4. लौटा तो देंगे लेकिन फिर आप बिना बीड़ी पिये धुँआ उड़ाना शुरु कर दोगे। क्या फायदा?

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    1. सुशील बाबू,
      तुम्हारा तो सारा समय पहाड़ में बीता है जहाँ कि साल में कई महीने, बिना सिगरेट-बीड़ी के मुंह से धुआं उड़ाया जा सकता है.

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  5. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 20 जनवरी 2019 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. मेरी कविता को 'पांच लिंकों का आनंद' में सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद यशोदा जी. कल का इंतज़ार रहेगा.

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  6. बेहद नाजुक अहसास को पिरोया है आपने इस कविता में...

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    1. धन्यवाद संजय भास्कर जी.
      बचपन कभी भुलाए नहीं भूलता. भले ही वह पचपन बरस पुराना भी क्यों न हो.

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  7. अतीत के जंगल में घुमड़ता मन कभी-कभी
    बचपन की बातों को याद कर फिर बच्चा
    बन जाता है। फिर थोड़ी सी मिठास जिंदगी
    में घुल जाती है।लगता है कुछ तो है हमारे
    पास । बेहतरीन रचना

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    1. धन्यवाद अभिलाषा जी, बचपन की शरारतों और अपने बड़े भाइयों से रोज़ाना की मुठभेड़ याद करता हूँ तो मुझे लगता है कि आज के बच्चों को तो नोबल शांति पुरस्कार मिल जाना चाहिए. लेकिन वो साहसी मुठभेड़, वो दुस्साहसी कारनामे, वो ज़ालिम पिटाइयां, वो छोटी-छोटी उपलब्धियां, आज याद आती हैं तो चेहरे पर अनायास ही एक मुस्कान आ जाती है.

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  8. लिहाफ़ के अन्दर कोई ख़तरनाक तस्वीरों वाली मैगज़ीन, छुपाने के दिन
    सिर्फ़ इतवार को मंदिर जाने से पहले, नहाने के दिन !
    कोई लौटा दे मेरे, बीते हुए दिन, कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन !.....
    बड़ी भाग्यशाली है वह पीढ़ी जिसकी यादों की थाती में ' वो दिन ' अपनी ऊष्मा को संजोए संग्रहित है। काश, नई पीढ़ी को भी कम से कम उस ऊष्मा का कुछ अंश नसीब हो पाता। हमे याद है कि पड़ोसी मित्र के खेत से आलू चुराकर उसीके अलाव ( घुरा ) में पकाकर उसी के साथ खाए थे और उसका उसे तनिक भी भान न हुआ। हालाकि बाद में पता चलने पर पिताजी के न्याय के डंडे ने उस आलू का स्वाद और बढ़ा दिया था।

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    1. विश्वमोहन जी, पतंग को पेच मारकर काटना एक कला है. हम भाइयों को तो ढंग से पतंग उड़ाना भी नहीं आता था पर हम लंगड़ मारकर नीचे उड़ रही पतंगों को लूट लेते थे. मजिस्ट्रेट पिता पर शिकायत आती थी तो वो चुपचाप शिकायतकर्ता को मुआवज़ा दे देते थे, हमारी कोई पिटाई भी नहीं होती थी पर दर्द तब होता था जब हमारे 2 रूपये प्रति महीने के पॉकेट मनी में से उतने पैसे काट लिए जाते थे. माँ तो गलतियों पर मुझे धम-धम कूटा करती थीं पर फिर प्रायिश्चित स्वरुप बढ़िया माल खिलाती थीं और पैसे भी देती थीं.
      पांच भाई-बहन में सबसे छोटा होना मुझे बहुत महंगा पड़ता था, बहुत पिटाई होती थी. वो दिन लौटाने की तमन्ना तो मैं करता हूँ पर चाहता हूँ कि इस बार मैं बड़ा होकर उनकी यत्र-तत्र-सर्वत्र पिटाई करूं.

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    1. धन्यवाद जयंती प्रसाद शर्मा जी.
      मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है.

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    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद अनुराधा जी. गिरीश पांडे कोई ऐसा राग छेड़ देते हैं जो दिल को छू जाता है और उस राग पर कुछ मुझे अपने बोल भी सूझ जाते हैं.

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  11. एक खेल है जिसको स्थानीय भाषा में हम लोग बर्फी बोलते थे जिसमे फूटी हुई मटकी की ठीकरी को ठोकर मारकर खेला जाता था. हम वो सारे दिन खेलते थे और घर वाले गुस्सा होते थे क्योंकि इस खेल से नये जूतों का सत्यानास हो जाता था और घर का आंगन भी उबड़ खाबड़ हो जाता था. :)
    दिल में ऐसी ऐसी यादें है कि याद आने पर दिल करता है एक बार फिर से वो दिन आये मेरे...
    ठीक हो न जाएँ 

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    1. 8 से 11 साल की उम्र तक मैं इटावा में रहा था. हम सब बच्चे पैदल स्कूल जाया करते थे. बारिश के दिनों में बीर बहूटी (ख़ूबसूरत मखमली लाल कीड़ा) खोजना हमारे लिए एक बहुत मनोरंजक खेल सा होता था. और रात में तब जुगनू भी हमको बहुत आकर्षित करता था. पिछले पचास साल से बीर बहूटी तो मैंने देखी ही नहीं है और जुगनू भी शायद अब हमसे छुपकर निकलते हैं. राज कपूर होते तो कहते - 'जाने कहाँ गए वो दिन ---'

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    2. इस बीर बहूटी को हमारे यहां बूढ़ी माई के नाम से सम्बोधित करते हैं।
      एक दो तस्वीर ली थी पिछले बरस इसकी सावन में।
      जुगनू तो अब नहीं दिखते।
      कीटनाशक ने इनका भी नाश कर दिया।

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    3. अल्मोड़ा में तो बहुत जुगनू होते थे. ऐसे जुगनू भी जो हरदम रौशनी देते रहते हैं. 1984 में सुबह 4 बजे जगन्नाथ पुरी के समुद्र तट पर भी मैंने ऐसे जुगुनू देखे थे. बीर बहूटी देखे तो अरसा हो गया. अगली बरसात में उन्हें खोजूंगा. हमारे ग्रेटर नॉएडा में अभी बहुत हरियाली है, प्रदूषण का प्रकोप अभी यहाँ कम है.

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