शुक्रवार, 3 अगस्त 2018

राष्ट्रकवि पर हाली तथा टैगोर का प्रभाव


आज राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त की जयंती है. राष्ट्रकवि की पिछली एक जयंती पर मैंने 'गुरु और शिष्य'पर मैंने गुरु और शिष्य शीर्षक से एक आलेख लिखा था जिसमें श्री गुप्त पर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के प्रभाव की चर्चा की गयी थी. आज मैं श्री गुप्त के काव्य पर दो अन्य विभूतियों के प्रभाव की चर्चा कर रहा हूँ.  
आचार्य द्विवेदी की प्रेरणा से गुप्तजी ने साकेत के अतिरिक्त अपनी अन्य रचनाओं में भी उपेक्षित नारी पात्रों को नायिका के रूप में प्रतिष्ठित किया. उन्होंने गौतम बुद्ध की पत्नी यशोधरा को- यशोधरामें और चैतन्य महा प्रभु की पत्नी विष्णु प्रिया को- विष्णुप्रियामें नायिका बनाया. गुप्तजी ने गुरुदेव टैगोर की भांति स्त्री और पुरुष को एक-दूसरे के बराबर और एक-दूसरे का पूरक माना. 1892 में प्रकाशित, गुरुदेव की नृत्य नाटिका चित्रांगदाकी नायिका अपने प्रेमी अर्जुन की न तो आराध्या बनना चाहती है,   उसकी दासी. वह तो उसकी सहचरी और सहयोगिनी बनना चाहती है. यह स्वर जिसका है, वह पौराणिक नारी नहीं, सम्पूर्ण रूप से आधुनिका नारी है.-   
आमि चित्रांगदा.
नहिं आमि सामान्य रमणी,
पूजा करि राखिबे माथाय, से-ओ आमि,
नइ. अवहेला करि पुशिया राखिबे,
पिछे से-ओ आमि नहिं, यदि पार्श्वे राखो,
मोरे संकटेर पथे, दुरूह चिन्तार,
यदि अंश दाओ, यदि अनुमति करो,
कठिन व्रतेर तब सहाय हईते,
यदि सुखे दुखे मोरे करो सहचरी,
आमार पाइबे तबे परिचय
(मैं देवी नहीं हूँ, सामान्य नारी भी नहीं हूँ मैं तो चित्रांगदा हूँ. मैं ऐसी नहीं हूँ जिसको तुम पूज्यनीय बनाये रख सको और न ऐसी हूँ जिसकी तुम अवहेलना कर सको. यदि तुम संकट के मार्ग पर मुझे अपना साथी बनाओ, यदि दुरूह चिंता का कुछ भाग मुझे भी वहां करने दो, यदि अपने कठिन व्रत में सहायता पहुँचाने के लिए मुझे अनुमति दो, यदि तुम अपने सुख-दुःख की मुझे सहचरी बनाओ, तभी तुम मेरा पूर्ण परिचय पा सकोगे.)  
साकेतमें लक्ष्मण अपनी प्रियतमा उर्मिला के प्रति प्रेम-प्रदर्शन में आत्म-सम्मान को भुलाकर कहते हैं
धन्य है प्यारी तुम्हारी योग्यता,
मोहनी सी मूर्ति, मंजु-मनोज्ञता.
धन्य जो इस योग्यता के पास हूँ,
किन्तु मैं भी तो, तुम्हारा दास हूँ.
उर्मिला उनकी चाटुकारिता भरे उदगार सुनकर प्रसन्न होने के स्थान पर खिन्न हो जाती है. पति और पत्नी को एक-दूसरे का पूरक मानने वाली उर्मिला को लक्ष्मण के इन वचनों में दासत्व की भावना परिलक्षित होती है. अर्जुन की प्रिया चित्रांगदा की ही भांति उर्मिला भी लक्ष्मण की स्वामिनी नहीं अपितु उनकी मित्र, समकक्ष, सहचरी और सहगामिनी बनना चाहती है
दास कहने का बहाना किस लिए?
क्या मुझे दासी कहाने के लिए?
देव होकर तुम सदा मेरे रहो,
और देवी ही मुझे रक्खो अहो.
यशोधराखंड-काव्य में भी यशोधराको गुप्तजी एक ऐसी साहसी स्त्री के रूप में प्रस्तुत करते हैं जो अपने पति के मार्ग में बाधक नहीं अपितु उनकी सहायक बनना चाहती है. अपनी पत्नी यशोधरा और अपने परिवार के अन्य सदस्यों को बिना बताये हुए, राजकुमार सिद्धार्थ जब गृह-त्याग कर देते हैं तो यशोधरा के मन में अपने पति से सदा के लिए बिछुड़ने से भी बड़ी कसक यह है कि उसके पति ने वैराग्य लेने की अपनी योजना उससे छुपाई. अगर वो उसे अपनी इच्छा और अपना संकल्प बताते तो वह उनके धर्म-मार्ग में बाधक नहीं बनती अपितु उन्हें वह वैसे ही विदा देती जैसे कि एक वीर क्षत्राणी अपने पति को रण-क्षेत्र में जाने के लिए विदा करती है
सखि, वे मुझसे कहकर जाते,
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?
स्वयं सुसज्जित करके क्षण में,
प्रियतम को प्राणों के पण में,
हमीं भेज देती हैं रण में,
क्षात्र धर्म के नाते,
सखि, वे मुझसे कहकर जाते.’              
बहुत कम लोग यह जानते होंगे कि गुप्तजी ने उर्दू-साहित्य से भी काव्य-सृजन की प्रेरणा ली थी. उन्होंने दत्तात्रेय कैफ़ी की उर्दू रचनाओं से प्रेरणा लेने की बात स्वीकार की है परन्तु इस क्षेत्र में हम अल्ताफ़ हुसेन हाली को तो एक प्रकार से उनका गुरु कह सकते हैं. उर्दू के पहले प्रगतिशील शायर हाली ने जहाँ एक ओर कौमी इत्तिहाद (सांप्रदायिक सद्भाव) को महत्त्व दिया वहीं दूसरी ओर उन्होंने भारत के आर्थिक उत्थान के लिए भारतीय उद्योग और वाणिज्य को आधुनिक तकनीक पर विकसित करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया था. 1874 में प्रकाशित अपनी नज़्म हुब्बे वतनमें उन्होंने भारतीय मुसलमानों और हिन्दुओं को इस बात के लिए फटकार लगाई कि वे अब भी मिथ्या अभिमान और जातीय गौरव की शान बघारने से बाज़ नहीं आ रहे हैं और इस बात को अनदेखा कर रहे हैं कि वो गुलामी और गरीबी में अपनी ज़िल्लत के दिन गुजार रहे हैं-
 इज्ज़तो-कौम चाहते हो अगर, जाके फैलाओ उनमें इल्मो-हुनर,
जात का फख्र और नसल का गुरूर, उठ गए जहां से ये दस्तूर.
अब न सैयद का इफ्तखार (गौरव) सही, अब न बिरहमन का शूद्र पर तरजीह (वरीयता),
हुई तर्की (परित्याग) तमाम खानों की, कट गयी जड़ से खानदानों की.     
कौम की इज्ज़त अब हुनर से है, इल्म से या कि सीमो-ज़र (सोना-चांदी) से है,
एक दिन में वो दौर आयेगा, बे-हुनर भीख तक न पायेगा.  
हाली ने अपने महाकाव्य मुसद्दसे हालीमें इस्लाम के गौरव शाली इतिहास का गुणगान करते हुए वर्तमान काल में भारतीय मुसलमानों की दुर्दशा का चित्रण किया था और उन्हें अपना वर्त्तमान व अपना भविष्य संवारने के लिए कर्मठता, अध्यवसाय, सहिष्णुता, प्रगतिशीलता और व्यावहारिकता अपनाने का सन्देश दिया था. काला कांकर के राजा रामपाल सिंह और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने गुप्तजी को प्रेरित किया कि वो हाली का अनुकरण कर आर्यों व हिन्दुओं के पुनरुत्थान हेतु कोई काव्य-रचना करें. गुप्तजी ने 1911 में भारत भारतीकी रचना की. गुप्तजी के इस खंड काव्य पर भारतेंदु हरिश्चंद्र के काव्य नाटक भारत दुर्दशाका भी प्रभाव पड़ा है किन्तु उन्होंने भारत भारतीकी भूमिका में हाली के मुसद्दसे हालीका प्रभाव अवश्य स्वीकार किया है.
आर्यों के गौरव शाली अतीत का गुणगान करना अब व्यर्थ था, अब तो अपना वर्तमान और भविष्य सुधारने के लिए अनथक प्रयास करने की आवश्यकता थी. भारत भारतीके वर्तमान खंडमें भारतीयों की चारित्रिक दुर्बलता पर खिन्नता प्रकट करते हुए गुप्तजी कहते हैं -  
मन में नहीं बल है हमारे, तेज में चेष्टा नहीं,
उद्योग में साहस नहीं, अपमान में न घृणा कहीं.
दासत्व में न यहाँ अरुचि है, प्रेम में प्रियता नहीं,
हो अंत में आशा कहाँ? कर्तव्य में क्रियता नहीं.’ 
जैसे हाली ने मुसलमानों को कर्मठता का सन्देश दिया है वैसे ही गुप्तजी हिन्दुओं को कर्मठता का सन्देश देते हुए और उन्हें सचेत करते हुए कहते हैं कि यदि वह अपने आलस्य और दासत्व की भाव का परित्याग नहीं करेंगे तो हिन्दू जाति इतिहास में शाश्वत रूप से निंदा और उपहास का पात्र बन जाएगी -
ऐसा करो जिसमें तुम्हारे देश का उद्धार हो,
जर्जर तुम्हारी जाति काबेड़ा विपद से पार हो।
ऐसा न हो जो अन्त मेंचर्चा करें ऐसी सभी,
थी एक हिन्दू नाम की भीनिन्द्य जाति यहाँ कभी।।
हाली की दो नज्मों - मुनाजात-ए-बेवाऔर चुप की दादमें स्त्रियों के त्याग, उनकी ममता, उनमें करुणा का भाव, उनकी सहन शक्ति, उनकी कर्मठता, बुद्धिमत्ता आदि की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी है. हाली के उपन्यास- मजालिस-उन-निसांमें स्त्री-शिक्षा की पुरज़ोर वकालत की गयी है. अपनी नज़्म- ‘‘चुप की दादमें हाली स्त्रियों के गुणों का बखान करते हुए कहते हैं
ऐ माँओ! बहनों! बेटियों! दुनिया की जीनत (शोभा) तुम से है,
मुल्कों की बस्ती हो तुम्हीं, कौमों की इज्ज़त तुम से है.
नेकी की तुम तस्वीर हो, इफ्फत (पवित्रता) की तुम तदबीर (व्यवस्था) हो,
हो दीन की तुम पासबाँ (संरक्षक) , ईमां की सलावत  (उच्चारण) तुम से है
फितरत तुम्हारी है हया (लज्जा), तीनत (प्रकृति) में है मेहरो-वफ़ा (प्रेम और प्रतिज्ञा पालन),
घुट्टी में है सब्रो-रज़ा (धैर्य और आशा), इंसान की इबारत (हस्तलिपि) तुम से है..’ 
हाली की ही भांति गुप्तजी भी स्त्री-शिक्षा के प्रसार-प्रचार को न केवल स्त्रियों के उत्थान के लिए अपितु देश व समाज के कल्याण के लिए भी आवश्यक मानते हैं. हाली की ही तरह गुप्तजी भी भारतीय नारी के सदगुणों के प्रशंसक हैं. उनको शिक्षित भारतीय नारी की क्षमता पर अटूट विश्वास है -
क्या कर नहीं सकतीं भला यदि शिक्षिता हों नारियाँ,
रण,  रंग,  राज्य,  सुधर्म-रक्षा,  कर चुकीं सुकुमारियाँ।
लक्ष्मी,  अहल्या,  बायजाबाई,  भवानी,  पद्मिनी,
ऐसी अनेकों देवियां हैं, आज जा सकती गिनीं।
सोचो नरों से नारियां, किस बात में हैं कम हुईं,
मध्यस्थ वे शास्त्रार्थ में हैं, भारती के सम हुईं।।
स्त्री की पुरुष पर श्रेष्ठता गुप्तजी के इन शब्दों में भी व्यक्त होती है -
एक नहीं, दो-दो मात्राएँ, नर से भारी नारी.
गुप्तजी प्रत्येक गुणवान व्यक्ति से उत्तम विद्या सीखने के लिए सदैव तत्पर रहते थे. भारतेंदु हरिश्चंद्र, अल्ताफ़ हुसेन हाली, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और रबीन्द्रनाथ टैगोर को हम उनके गुरु जन में सम्मिलित कर सकते हैं. इन आदर्श गुरु जन के वह आदर्श शिष्य थे. देशोद्धार, स्वदेश प्रेम, नारी-उत्थान, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्वदेशी, राष्ट्र-भाषा हिंदी का का देश-व्यापी प्रचार तथा उसका सर्वतोमुखी विकास, हिन्दू-पुनरुत्थान, किसानों और दलितों के उत्थान हेतु प्रयास तथा उनके प्रति मानवीय दृष्टिकोण रखना आदि उन्होंने अपने अग्रजों से सीखा और फिर उन्होंने आजीवन सोद्देश्य साहित्य का सृजन किया. अपने अग्रजों की इस समृद्ध परंपरा को उन्होंने सफलतापूर्वक आगे बढ़ाते हुए आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अमूल्य विरासत छोडी है.

14 टिप्‍पणियां:

  1. राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त की जयंती पर उन्हें नमन। सुन्दर आलेख।

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    1. धन्यवाद सुशील बाबू. अगर राष्ट्रकवि जैसे विद्यार्थी मिल जाएं तो किसी भी गुरु का जीवन धन्य हो जाए.

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  2. बहुत सुंदर!!
    राष्ट्रीय कवि की जयंती पर इतनी गहरी अन्वेषणा युक्त आलेख उनके लिये महकते प्रसून हैं नमन राष्ट्रीय कवि को और उनकी विनय शीलता को गुण ग्राहता को जिसने उन्हें भारतीय पटल पर अमर कर दिया राष्ट्रीय कवि की उपाधि कोई साधारण पद नही सच गुरु गुड़ चेला शक्कर ।
    नमन।

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    1. धन्यवाद कुसुम जी. गुरु-शिष्य - राष्ट्रकवि और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी पर मैं एक आलेख पहले लिख चुका था. मैंने इस में आलेख गुप्तजी के अघोषित गुरुजन की चर्चा की है. वाक़ई राष्ट्रकवि अपने गुरुजन से जो कच्चा सोना ग्रहण करते थे, उसे कुंदन बनाकर प्रस्तुत करते थे.

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  3. राष्ट्र कवि को सच्ची पुष्पांजलि समर्पित करती आपकी क़लम
    से निसृत एक बेहद परिपक्व,सारगर्भित और सुंदर लेख।
    आत्मीयता से लिखे शब्दों में भाव भी सतत प्रवाहित होते है यही आपके लेखनी की खासियत है सर जो हम पाठकों की उत्सुकता जगाता है।
    सादर
    आभार आपका।

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    1. धन्यवाद श्वेता जी. आप लोगों का प्रोत्साहन मेरी कलम को चलते रहने की प्रेरणा देता है. राष्ट्रकवि की रचनाओं से हम आज भी बहुत कुछ सीख सकते हैं और सबसे बड़ी बात उनसे हम यह सीख सकते हैं कि किसी से भी शिक्षा ग्रहण करने में कभी संकोच नहीं करना चाहिए.

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  4. राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्तजी को भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित करता प्रभावपूर्ण लेख । गुप्त जी को शत शत नमन 🙏

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    1. धन्यवाद मीना जी. पता नहीं क्यों, मैं तो अभी भी उस सौ साल पुराने माहौल में जीना चाहता हूँ.कैसे-कैसे महान लोग थे तब !

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  5. धन्यवाद शिवम् मिश्रा जी. मेरे लिए यह हर्ष का विषय है कि 'ब्लॉग बुलेटिन' के माध्यम से राष्ट्रकवि की गुण-ग्राह्यता की गाथा सुधी पाठकों तक पहुंचेगी.

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  6. Very nice post...
    Mere new blog ki new post par aapka swagat hai.

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  7. भीड़भाड़ से दूर नीरव प्रहर में आपकी रचनाएं गज़ब का सकून देती हैं. बहुत कुछ जानने सीखने को मिलता है. रोशनाई बदस्तूर बहती रहे!! आभार!!!

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    1. धन्यवाद विश्व मोहन जी. आप जैसे कलम के धनी कद्रदान हों तो कम्प्यूटर के 'की बोर्ड' पर मेरी उँगलियाँ यूँ ही थिरकती रहेंगी.

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