शनिवार, 24 नवंबर 2018

रत्नावली का उलाहना और तुलसीदास की मनुहार

सतीश सक्सेना
हम बुलबुल मस्त बहारों की,
हम बात तुम्हारी क्यों मानें
जब से व्याही हूँ साथ तेरे
लगता है मजदूरी कर ली
बर्तन धोये घर साफ़ करें
बुड्ढे बुढिया के पाँव छुएं !
जब से पापा ने शादी की,
फूटी किस्मत, अरमान लुटे !
जब देखो तब बटुआ खाली,
हम बात तुम्हारी क्यों माने !
ना नौकर है ,ना चाकर है,
ना ड्राइवर है ना वाच मैन !
घर बैठे कन्या दान मिला
ऐसे भिखमंगे चिरकुट को,
कालिज पार्टी,तितली,मस्ती,
बातें लगती सपने जैसी !
चौकीदारी इस घर की कर,
हम बात तुम्हारी क्यों मानें
पत्नी , सावित्री सी चहिए,
पति-परमेश्वर की पूजा को !
गंगा स्नान के मौके पर ,
जी करता धक्का देने को !
तुम पैग हाथ लेकर बैठो ,
हम गरम गरम भोजन परसें !
हम आग लगा दें दुनिया में,
हम बात तुम्हारी क्यों माने ?
हम लवली हैं ,तुम भूतनाथ
हम जल-तरंग, तुम फटे ढोल,
हम जब चलते, धरती झूमें
तुम हिलते चलते गोल गोल,
तुम आँखे दिखाओ,लाल हमें,
हम हाथ जोड़ ताबेदारी ?
हम धूल उड़ा दें दुनिया की,
हम बात तुम्हारी क्यों मानें ?
ये शकल कबूतर सी लेकर
पति परमेश्वर बन जाते हैं !
जब बात खर्च की आए तो
मुंह पर बारह बज जाते हैं !
पैसे निकालते दम निकले ,
महफ़िल में बनते शहजादे !
हम बुलबुल मस्त बहारों की,
हम बात तुम्हारी क्यों मानें ?
मेरी तरफ़ से –
तुलसीदास के अवतार पतिदेव का अपनी रत्नावली को उत्तर –
तुम भूल गईं इतनी जल्दी,
क्या-क्या खातिर करवाई थीं,
पिछले ही साल प्रिये तुमको,
दो-दो हिट फ़िल्म दिखाई थीं.
बर्तन झाडू पोंछा करके,
स्त्री की सेहत बनती है.
यह सोच मेड की छुट्टी कर,
फिर तुमसे गाली खाई थीं.
हर माह बड़ा ख़र्चा करके,
मैं तुमको चाट खिलाता हूँ,
पैदल चलने में नखड़े हों,
तो ऑटो में ले जाता हूँ.
साड़ी मैके से लाती हो,
पर फॉल स्वयं दिलवाता हूँ.
भैया गर भेजें राह-खर्च,
तो झट उनसे मिलवाता हूँ.
तुम नहीं मोल समझीं रत्ने,
अब तक अपने इस तुलसी का,
घर त्याग कभी जोगी होऊं,
फिर खर्च चले कैसे घर का?
छोड़ो ताने का गान प्रिये,
तुम दिखला दो मुस्कान प्रिये,
अब रुचिकर-व्यंजन पेश करो,
झगड़े में हो गयी शाम प्रिये.

12 टिप्‍पणियां:

  1. वाह सतीश सक्सेना जी तो लाजवाब लिखते ही हैं आपका भी जवाब नहीं।

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    1. धन्यवाद सुशील बाबू,
      मैंने इस ला-जवाब कविता का जवाब देने की कोशिश की तो है, अब देखना यह है कि यह जवाब कविराज सक्सेना को पसंद आता है या नहीं.

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  2. बहुत ही सुन्दर चित्रण संसारिक जीवन का . ....जबाब नहीं आदरणीय आप का 👌
    सादर

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    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद अनिता जी.
      क़रीब 60 साल पहले कविवर गोपाल प्रसाद व्यास ने पति-पत्नी के बीच इस प्रकार के उलाहनों की काव्यात्मक शुरुआत की थी. हम तो उनके अदने से शागिर्द हैं.

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  3. पति पत्नी के मध्य की छींटाकशी का सजीव चित्रण । लाजवाब वार्तालाप ।

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    1. धन्यवाद मीना जी.
      'या घर ते कबहूँ न गयो पिय,
      टूटो तवा और फूटी कठौती'

      'सुदामा चरित' के सुदामा पांडे की पड़ाइन के ज़माने से यही वार्तालाप चल रहा है और हर पति खुद को सुदामा पांडे की स्थिति में ही पाता है.

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  4. आदरणीय गोपेश जी --- एक सेर तो दूजा सवा सेर [ अब ये तय करना मुश्किल है कि कौन सेर है तो कौन सवा सेर ] | कविराज सतीश जी की हरी मिर्च से तीखे , तल्ख़ भावों से भरी रचना -तो आपकी मक्खन से मुलायम भावों से भरी शहद सी रचना | जीवन में तीखा ना हो तो ये मक्खनबाजी कब भाती है ? एक परम्परागत पति की विवशता और बेचारगी[ जो कभी नहीं होती बस प्रचार किया जाता है ] को बहुत ही मधुरता से शब्दों में पिरो दिया और जो कहना था वो भी कहे बिना नहीं रहे !!! महँगी साड़ी का मोल भूल उसके फाल और मायके के किराये का ताना भी दे दिया वो भी कितनी चतुराई से अर्थात बात की बात और लात की लात ! वाह ! कविवर नमन इस वाक् चातुर्य को !!!!!इस प्रेमाभिव्यक्ति में भी पुरुषवादी सोच नहीं छोडी !!पर इस बात में दो राय नहीं की बहुत ही लाजवाब लिखा आप दोनों ने | इस कमाल की जुगलबन्दी के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनायें |

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    1. रेनू जी,
      प्रशंसा के लिए धन्यवाद !
      किसी अच्छी रचना में कोई सवाल उठाया जाए और उसका जवाब किसी दूसरी रचना से न दिया जाए तो मज़ा नहीं आता.
      मुझे खुशी है कि सतीश सक्सेना जी सहित पति की ओर से दिए गए इस जवाब को आप सबने पसंद किया.

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  5. सतीश सर की यह रचना उनके ब्लॉग पर पढ़ चुकी थी। आपने जवाब भी लाजवाब लिखा है।
    आप दोनों नौजवान, ऊर्जावान कवियों को मेरा नमन ! (सतीश सर को आदरणीय कहलवाने से भी चिढ़ है। उनके पोस्ट पढ़कर हमने बहुत कुछ सीखा है। आप दोनों में ही एक विशेष समानता लगती है, वो है - सहजता और साफगोई, कृत्रिमता का ना होना)

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    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद मीना जी.
      सतीश सर तो हैं ही नौजवान लेकिन गोपेश सर ने 'नौजवान' शब्द का विशेषण तब सुना जब इसे सुनकर रोमांचित होने के लिए सर पर बाल ही नहीं बचे हैं.
      आप लोगों का प्यार और उत्साहवर्धन ऐसे ही मिलता रहे तो ऐसी शरारतें सूझती रहेंगी.

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  6. वाह बहुत सुन्दर सतीश सर की कविता में एक मारवाड़ी गीत की झलक मिली "भलां घरा परणाई म्हारा बाबुल टाबर रोवे रोटी ने...
    बर्तन कोने कोनी रे बिछौना पानी रो कोने माटो भला घरा."
    और उस पर आपका जवाब बहुत खूब सर आखिर बात तो संवार नई ही है।
    दोनों व्यंग रचनाऐं अतुलनीय है ।
    रत्नावली के प्रहार ने ढेले को रत्न बना कर काव्य सागर को बेसकीमती रत्न दिया और आज की रत्नावली के उल्हाने
    पतियों को आदरणीय हरिवंशराय बच्चन जी की अमर कृति के उद्गम पर पहुंचा रही है ।
    सादर।

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    1. इतनी गहरी विश्लेषणात्मक टिप्पणी के लिए धन्यवाद कुसुम जी.अपने जवाब के लिए मुझे किशोर कुमार और लीना चंद्रावरकर के मध्य चौपाटी बीच पर हुआ संवाद याद आ गया था. किशोर कुमार ने लीना से पूछा था - 'एक-एक पत्ता भेलपूरी और हो जाए?'
      लीना ने हैरानी से पूछा - 'एक-एक और का क्या मतलब? अभी तो हमने कुछ भी नहीं खाया है.'
      किशोर कुमार ने याद दिलाया - 'पिछले साल हम दोनों ने एक-एक पत्ता भेलपूरी खाया था न?'
      बस, हमारे कंजूस तुलसीदास भी अपनी असंतुष्ट रत्नावली को पिछले साल दिखाई गयी दो फ़िल्मों की याद दिलाते हैं.

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