बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविन्द दियो बताय -
बाराबंकी में मैंने क्लास टेंथ से लेकर क्लास ट्वेल्थ तक की पढ़ाई की थी. इंटर में हमको श्री सनत्कुमार मिश्रा हिंदी पढ़ाते थे. मैंने अपनी ज़िंदगी में मिश्रा मास्साब सा खुश मिजाज़, ज़िन्दा दिल और दूसरों की मदद के लिए हमेशा तैयार इंसान कोई और नहीं देखा. मिश्रा मास्साब में कबीर का सा फक्कड़पन था और ‘संतोषम् परं सुखं’ का सिद्धांत उनके जीवन का मूल-मंत्र था.
मिश्रा मास्साब का जन्म एक किसान परिवार में हुआ था लेकिन उनके पिताजी शिक्षित थे और स्थानीय प्राइमरी स्कूल में अध्यापक थे. मिश्रा मास्साब ने बचपन से पैसे की किल्लत तो देखी थी लेकिन उन्हें खाने-पीने की कभी कोई कमी नहीं रही थी. उनके अपने शब्दों में –
‘हमारे बाबूजी की दशा, ‘गोदान’ के होरी से बहुत अच्छी थी और मेरे अपने हालात उसके बेटे गोबर से, कहीं बेहतर थे.’
‘हमारे बाबूजी की दशा, ‘गोदान’ के होरी से बहुत अच्छी थी और मेरे अपने हालात उसके बेटे गोबर से, कहीं बेहतर थे.’
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से बी. ए., एम. ए. और एल. टी. करते समय संतू आधा दर्जन लड़कों के साथ एक दर्बे में रहता था जहाँ कि बारी-बारी से सब लोग खाना बनाते थे और बर्तन मांजते थे. इसके अलावा चूल्हे की लकड़ियाँ खरीदनी न पड़ें, इसलिए आस-पास के बागों में चोरी-चोरी लकड़हारे की भूमिका निभाना उसके कामों में शामिल था.
बाबूजी को अपनी दो बेटियों की शादी निबटानी थी इसलिए उनके पास अपने संतू को यूनिवर्सिटी में पढ़ाने के लिए पैसे थोड़े कम पड़ते थे. अपने लिए बाकी ज़रूरी पैसों का जुगाड़ उनका लाड़ला ट्यूशन कर के पूरा कर लेता था.
अपने बाबूजी पर बिना ज़्यादा बोझ डाले संतू ने न सिर्फ़ हर बार अच्छे अंक लाकर अपनी पढ़ाई पूरी कर ली बल्कि पढ़ाई करने के तीन महीने बाद ही वह एल. टी. ग्रेड में गवर्नमेंट इंटर कॉलेज में अध्यापक भी हो गया.
गरीब संतू से एल. टी. ग्रेड का अध्यापक बनने तक की संघर्ष-पूर्ण यात्रा करने के बाद हमारे मिश्रा मास्साब ने कभी बड़े-बड़े ख़्वाब नहीं देखे. वो अपनी स्थिति से संतुष्ट थे. मोटे दहेज के लालच में उनके बाबूजी ने उनकी शादी एक बड़े घर की बिगडैल और कम पढी-लिखी अकेली संतान से करनी चाही थी लेकिन यहाँ बेटे ने बाग़ी होकर गरीब घर की एक सुन्दर और सुशिक्षित कन्या से बिना दहेज़ लिए शादी कर ली.
बाराबंकी जैसे छोटे शहर में सन साठ के दशक के हिसाब से हमारे मिश्रा मास्साब बहुत प्रगतिशील थे. शादी के बाद और एक बेटा हो जाने के बाद भी उन्होंने अपनी पत्नी यानी कि हमारी मिश्रा भाभी की पढ़ाई जारी रक्खी. अपने पारिवारिक दायित्व को देखते हुए उन्होंने अपने परिवार को एक ही बच्चे तक सीमित कर दिया था. हर शाम मिश्रा मास्साब अपने चार साल के बेटे अतुल को अपनी साइकिल पर घुमाते थे और मिश्रा भाभी उनके साथ अपनी अलग साइकिल पर चला करती थीं.
मिश्रा मास्साब को हिंदी साहित्य से बहुत प्यार था. पढ़ाते समय वो साहित्य में इतना डूब जाते थे कि उन्हें हर बार अपना पीरियड बहुत छोटा लगता था. मुझे तो रोज़ उनके क्लास का इंतज़ार रहता था.
मेरे साहित्य प्रेम से मिश्रा मास्साब बहुत प्रभावित रहते थे. उनके घर जाकर मैं अक्सर मिश्र भाभी के हाथों की मठरियां और लड्डू खाते हुए उन से प्रेमचंद की कहानियों और वृन्दावनलाल वर्मा के ऐतिहासिक उपन्यासों की चर्चा करता था. नरोत्तम दास के ‘सुदामा चरित’ की तो संतू भैया ऐसी व्याख्या करते थे कि मेरी आँखों से बरबस आंसू गिरने लगते थे.
मेरे साहित्य प्रेम से मिश्रा मास्साब बहुत प्रभावित रहते थे. उनके घर जाकर मैं अक्सर मिश्र भाभी के हाथों की मठरियां और लड्डू खाते हुए उन से प्रेमचंद की कहानियों और वृन्दावनलाल वर्मा के ऐतिहासिक उपन्यासों की चर्चा करता था. नरोत्तम दास के ‘सुदामा चरित’ की तो संतू भैया ऐसी व्याख्या करते थे कि मेरी आँखों से बरबस आंसू गिरने लगते थे.
एक तरफ़ संतू भैया का बेटा अतुल हमारी गाय के दूध से बने पेड़ों का दीवाना था और मिश्रा भाभी को हमारी कोठी के जामुन और बेल बहुत पसंद थे तो दूसरी तरफ़ मेरी माँ संतू भैया के गाँव के घर में बने गुड़ और सत्तू की मुरीद थीं. मेरे अलावा संतू भैया के घर में किसी भी विद्यार्थी को इस प्रकार के आदान-प्रदान की अनुमति नहीं थी.
संतू भैया का घर गरीब विद्यार्थियों के लिए हमेशा खुला रहता था. दिन में कम से कम वो दो घंटे विद्या-दान करते थे. हिंदी और संस्कृत के अलावा वो उन्हें थोड़ी बहुत इंग्लिश भी पढ़ा देते थे. विद्या-दान के बाद उनके चेहरे पर जो तृप्ति और संतोष का भाव आता था, वह देखते ही बनता था.
सोलहवें साल में नादानियाँ सर पर चढ़ कर बोलती हैं. हाई स्कूल में प्रथम श्रेणी प्राप्त कर के मैं ख़ुद को परम ज्ञानी समझने लगा था. अफ़सर के बेटे होने का गुरूर तो पहले से ही था. अब इंटर में पिताजी की पुरानी साइकिल, नई एच. एम. टी. घड़ी और स्टील फ्रेम का धूप का चश्मा पाकर तो मैं आसमान में उड़ने लगा था. मिश्रा नास्साब ने जो कि अब अपने घर में मेरे संतू भैया बन गए थे, मुझे कई बार चेताया था लेकिन मुझ पर तो हीरो बनने का ऐसा खुमार चढ़ा था कि मैंने उनकी इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया.
मिश्रा मास्साब अनिवार्य संस्कृत के क्लास में श्लोक पढ़ा रहे थे –
मिश्रा मास्साब अनिवार्य संस्कृत के क्लास में श्लोक पढ़ा रहे थे –
‘रूप, यौवन सम्पन्ना, विशाल कुल संभवः,
विद्या-हीने न शोभन्ते, निर्गन्धा किंशुका इव.’
विद्या-हीने न शोभन्ते, निर्गन्धा किंशुका इव.’
मास्साब ने विस्तार से इस श्लोक की व्याख्या की लेकिन मैं क्लास में पीछे की बेंच पर बैठा धूप का चश्मा लगा कर अपनी घड़ी देखने में व्यस्त था. मास्साब ने मुझसे इस श्लोक की व्याख्या करने को कहा तो मैंने उन्हीं से अनुरोध कर दिया कि वो दुबारा इसकी व्याख्या कर दें.
मास्साब ने इस श्लोक की ऐतिहासिक व्याख्या कर दी –
मास्साब ने इस श्लोक की ऐतिहासिक व्याख्या कर दी –
‘कवि कहता है कि गोपेश रूपवान है, युवा है, साइकिल, घड़ी और धूप के चश्मे से सज्जित है, संपन्न है और ऊंचे कुल का है किन्तु हीरो बनने के चक्कर में वह विद्या-हीन हो गया है और पलाश के निर्गंध फूल के समान शोभाहीन हो गया है.’
पूरा क्लास इस व्याख्या को सुनकर मुझ पर हंस रहा था और मैं मन ही मन प्रार्थना कर रहा था कि धरती माता फट जाएं ताकि मैं उसी क्षण उन में समा जाऊं.
उसी शाम मैंने मिश्रा भाभी के हाईकोर्ट में अपराधी संतू भैया की शिकायत कर दी. अपनी सफ़ाई में संतू भैया ने गंभीर होकर मुझे उपदेश दिया –
‘गोपेश ! भगवान ने तुम्हें रूप, अच्छा कुल और अफ़सर के बेटे होने का वरदान दिया है पर इसमें तुम्हारी कोई उपलब्द्धि नहीं है फिर उस पर तुम्हें घमंड करने का क्या अधिकार है? तुम बेकार की बातों में मस्त रहोगे तो कुछ भी हासिल नहीं कर पाओगे. और हाँ, अगर तुमने कुछ हासिल कर लिया तो फलदार पेड़ की तरह बनना जो जितना फलता है, उतना ही झुक जाता है.’
संतू भैया का यह उपदेश आज भी मेरा मार्ग-दर्शन करता है. यह बात और है कि मैं फलदार वृक्ष नहीं बन पाया इसलिए ज़्यादा नम्र-विनम्र होने की मुझे कभी ज़रुरत ही नहीं पड़ी.
इंटर करने के बाद मेरा बाराबंकी से नाता टूट गया. लखनऊ यूनिवर्सिटी में लेक्चरर होने के बाद एक दोस्त की शादी में मैं बाराबंकी गया तो मेरा पहला काम संतू भैया, मिश्रा भाभी और अतुल से मिलना था. उस भरत-मिलाप का सुख अनिर्वचनीय था. लेकिन पता नहीं क्यों हम सब एक साथ रो रहे थे.
अपने 36 साल से भी अधिक अध्यापन काल में संतू भैया मेरे मार्ग-दर्शक रहे हैं. पठन-पाठन में सुख को खोजना और विद्यार्थियों के कल्याण के प्रति पूर्ण समर्पण भाव का जो मापदंड उन्होंने स्थापित किया था उस तक पहुँचने का सफल-असफल प्रयास करना मेरे जीवन का ध्येय रहा है.
आम तौर पर लोगों का आदर्श कोई बहुत सफल व्यक्ति होता है, जिसका कि समाज में रुतबा हो, जिसके नाम की तूती बजती हो, जिसके दर्जनों खितमतगार और मुसाहिब हों. लेकिन मेरे आदर्श - मिश्रा मास्साब, मेरे संतू भैया हैं जो आज भी मेरी कल्पना में साइकिल पर चलते हुए, मस्ती के साथ नरोत्तम दास के ‘सुदामा चरित’ का कोई पद गुनगुना रहे हैं.
अपने 36 साल से भी अधिक अध्यापन काल में संतू भैया मेरे मार्ग-दर्शक रहे हैं. पठन-पाठन में सुख को खोजना और विद्यार्थियों के कल्याण के प्रति पूर्ण समर्पण भाव का जो मापदंड उन्होंने स्थापित किया था उस तक पहुँचने का सफल-असफल प्रयास करना मेरे जीवन का ध्येय रहा है.
आम तौर पर लोगों का आदर्श कोई बहुत सफल व्यक्ति होता है, जिसका कि समाज में रुतबा हो, जिसके नाम की तूती बजती हो, जिसके दर्जनों खितमतगार और मुसाहिब हों. लेकिन मेरे आदर्श - मिश्रा मास्साब, मेरे संतू भैया हैं जो आज भी मेरी कल्पना में साइकिल पर चलते हुए, मस्ती के साथ नरोत्तम दास के ‘सुदामा चरित’ का कोई पद गुनगुना रहे हैं.
हमारे कैम्पस में एक से एक संतू भैय्या हैं ना हैं कि नई। आपके संंत संतू भैया को नमन और सारे संत हमारे को सलाम शिक्षक दिवस पर आपको भी प्रणाम। खुश रहें।
जवाब देंहटाएंकैंपस में चिट-फण्ड का जाल फैलाने वाले, बीमा-एजेंट और कांट्रेक्टर तो बहुत थे संतू भैया जैसे लोग बहुत कम थे. हाँ, कैंपस में हमारा दोस्त उलूक भी संतू भैया का सा फक्कड़ और मस्त था.
हटाएंशिक्षक दिवस की आप सबको बधाई !
बहुत सुन्दर संस्मरण ।
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद मीना जी.
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (10-09-2019) को "स्वर-व्यञ्जन ही तो है जीवन" (चर्चा अंक- 3454) पर भी होगी।--
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
'चर्चा अंक - 3454' में मेरे आलेख को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'.
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