बड़े से बड़े आलिमों के और फ़ाज़िलों के खानदान में भी आमतौर पर एक न एक अक्ल से पैदल हो ही जाता है. यूँ तो हमारा खानदान, जैन-जैसवाल बिरादरी के सबसे पढ़े-लिखे खानदानों में गिना जाता था लेकिन उस में भी एक अक्ल के प्यादे हुए थे.
हमारे पर-दादा जिला अलीगढ़ की तहसील, हाथरस के सबसे बड़े प्लीडर थे. पर-दादा की प्रैक्टिस ज़ोरों में चलती थी और उनकी हवेली उन दिनों हाथरस की सबसे भव्य रिहायशी इमारतों में गिनी जाती थी. हमारे पर-दादा सुबह से लेकर रात तक व्यस्त रहते थे. दिन तो उनका अदालत में गुज़र जाता था और बाक़ी वक़्त उनका अपनी बैठक में अपने मुंशी के साथ मुकद्दमों की तैयारी करने में गुज़रता था.
घर में क्या हो रहा है और क्या-क्या करना है, इसका सारा सर-दर्द हमारी पर-दादी उठाया करती थीं. किस लड़के की, किस लड़की से, कब शादी करनी है, किस लड़की के लिए कहाँ वर ढूढ़ना है, क्या दान-दहेज़ देना है, इसकी पर-दादा जी को कोई फ़िक्र करने की ज़रुरत नहीं होती थी. घर में उनकी भूमिका तो बस, आज के किसी एटीएम की तरह हुआ करती थी.
पर-दादा जी के बेटों में एक को छोड़कर बाक़ी सब बेटे ज़हीन थे लेकिन उनमें से एक महज़ भैंस हांकने की अक्ल रखते थे. हर क्लास में फ़ेल होना उनकी आदत में शुमार हुआ करता था. पर-दादा जी आमतौर पर इस होनहार बेटे की शैक्षणिक उपलब्धियों से अनभिज्ञ रहते थे लेकिन जब भी उन्हें उसके रिज़ल्ट में लाल स्याही से लिखे हुए गोलों की जितनी संख्या दिखाई देती थी वो अपने होनहार सपूत की तशरीफ़ पर उसी अनुपात में बेंत से शाबाशी ज़रूर देते थे.
पुराने ज़माने में पढ़े-लिखे घरों में भी बाल-विवाह का प्रचलन था. घर की औरतों को इस से कोई मतलब नहीं होता था कि लड़के-लड़कियां पढ़ाई में ध्यान दे रहे हैं या नहीं. उनको तो बस, उनकी शादी करने की जल्दी हुआ करती थी. हमारी पर-दादी दो बेटों की शादी करा चुकी थीं. अब उनके बुद्धू बेटे की शादी होने की बारी थी. पर-दादी को इस से कोई सरोकार नहीं था कि उनके लला सातवीं जमात में ही अटके हुए हैं. उन्होंने तो अच्छी लड़की देखी तो ठलुआ बैठे अपने चौदह साल के सपूत की भी शादी करवा दी. सुन्दर सी दुल्हन पाकर उनके सपूत का ध्यान पढ़ाई से पहले से भी ज़्यादा हट गया और फिर उन्होंने कक्षा सात में ही स्थायी रूप से जमे रहने का फ़ैसला कर लिया.
पानी सर के ऊपर से गुज़र चुका था. पर-दादा जी को लगा कि अब उन्हें अपने मझले सपूत की पढ़ाई का बीड़ा ख़ुद उठाना होगा. उन्होंने हुक्म सुना दिया कि वो जब तक बैठक में रहकर अपना काम करेंगे, तब तक उनके साहबज़ादे उन्हीं के सामने बैठ कर पढ़ाई करेंगे.
पर-दादा जी अपने बेटे की पाठ्य-पुस्तकों को देख-देख कर उसे काम देते रहते थे और फिर वक़्त मिलने पर उसका काम चेक भी कर लिया करते थे. पर-दादा जी के इस सपूत को गणित विषय सबसे कठिन लगा करता था. उसे जोड़ करना और घटाना तो आता था लेकिन गुणा-भाग कर पाना उसके बस में नहीं था और पहाड़े याद करना तो उसे पहाड़ पर चढ़ने से भी ज़्यादा मुश्किल लगा करता था. दो दिन पहले इस होनहार विद्यार्थी को सत्रह का पहाड़ा याद करने का काम दिया गया था लेकिन वह –
‘सत्रा इकम सत्रा, सत्रा दुनी चौंतीस, सत्रा तीया इक्यावन’ के बाद हर बार - ‘सत्रा चौके’ में अटक जाता था.
सत्रा चौके कुछ भी हो जाता था लेकिन कभी अड़सठ नहीं होता था. सत्रह का पूरा पहाड़ा सुने बिना बालक को खाना भी नसीब नहीं होने वाला था. इधर होनहार बालक – 'सत्रा चौके बासठ' तक पहुंचा ही था कि घर के अन्दर कांसे का थाल बजने लगा. कुछ ही देर बाद घर की बड़ी नौकरानी बैठक में आई और पर-दादा जी को बधाई देकर कहने लगी –
‘बाबूजी,, मिठाई खबाओ, इनाम देओ. तुम्हाए हियाँ पोता भयो ऐ.’
(बाबू जी मिठाई खिलाओ, इनाम दो, तुम्हारे घर पोता हुआ है.)
(बाबू जी मिठाई खिलाओ, इनाम दो, तुम्हारे घर पोता हुआ है.)
बाबूजी ने तुरंत नौकरानी को चांदी का एक रुपया प्रदान किया. फिर नौकरानी से मुख़ातिब होकर उन्होंने उस से कहा –
‘हमारे घर में पोता हो गया और हमको तो यह भी पता नहीं था कि किस बहू के बच्चा होने वाला था. यह तो बताओ कि किस बहू के बेटा हुआ है.’
नौकरानी जब तक जवाब दे तब तक 'सत्रा चौके बासठ' बताने वाला होनहार विद्यार्थी बोल पड़ा –
‘कासगंज बारी बऊ के छोरा भयो ऐ !’
(कासगंज वाली बहू के बेटा हुआ है.)
(कासगंज वाली बहू के बेटा हुआ है.)
उस ज़माने में घरों में बहुओं को उनके नाम से नहीं, बल्कि उनके मैके के स्थान से पुकारा जाता था. मसलन, जिस बहू का मायका कासगंज में था उसे - कासगंज वाली बहू कहा जाता था.
पर-दादा जी ने अपने सपूत से यह सूचना प्राप्त की और – ‘अच्छा !’ कह कर वो किसी मुक़द्द्दमे की फ़ाइल देखने लगे. लेकिन कुछ देर बाद अचानक उन्होंने चौंक कर अपने साहबज़ादे से पूछा –
‘कासगंज वाली बहू तो तेरी वाली हुई. तू बाप बन गया?’
साहबज़ादे ने शरमाते हुए कहा –
‘हाँ बाबूजी. जे हमाओ लल्ला ऐ. तुम बाबा है गए. मोय पांच रुपय्या इनाम के देओ.’
(हाँ बाबूजी, ये हमारा बेटा है. आप बाबा बन गए हैं. मुझे इनाम के पांच रूपये दीजिए.)
(हाँ बाबूजी, ये हमारा बेटा है. आप बाबा बन गए हैं. मुझे इनाम के पांच रूपये दीजिए.)
बेटे की फ़रमाइश सुनकर पहली बार दादा बने हमारे पर-दादा जी का रिएक्शन अप्रत्याशित था –
उन्होंने अपने बेटे के बाएँ गाल पर एक झन्नाटेदार झापड़ रसीद किया फिर उस पर चिल्लाते हुए उस से पूछा –
‘नालायक ! सत्रह के पहाड़े में अभी तू – सत्रा चौके बासठ पर अटका है और पन्द्रह साल की उम्र में ही बाप बन गया ?’
अगला दृश्य - दुःख और सुख का अद्भुत सम्मिश्रण था.
नया-नया बाप बना हमारा नायक बुक्का फाड़कर रो रहा था और घर के अन्दर से औरतें ढोलक बजाते हुए सोहर गा रही थीं.
वाह लाजवाब। उस जमाने में बेटा हुआ और ईनाम भी ना मिला। बड़ी नाइंसाफी की गयी सरदार :)
जवाब देंहटाएंइनाम तो मिला लेकिन मनमाफ़िक नहीं !
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (17-09-2019) को "मोदी का अवतार" (चर्चा अंक- 3461) (चर्चा अंक- 3454) पर भी होगी।--
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
'चर्चा मंच - 3461' में मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूपचंद्र शास्त्री 'मयंक'.
जवाब देंहटाएंआदरणीय जैसवाल जी, प्रणाम . आपकी पोस्ट बहुत ही नायाब ढंग से हकीकतों से रुबरू कराती हैं जिन्हें हम भुलाकर '' अभी बिजी हैं'' के मुलम्मे से ढके रहते हैं हालांकि भूूलते नहीं हैं। बहुत खूब । मैं नियमित पढ़ती हूं '' तिरछी नज़र को '' धन्यवाद
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद अलकनंदा जी. आजकल हम बूढों की बातें कौन सुनता है, कौन पढता है?
हटाएंएक शेर याद आ गया -
वक़्त-ए-पीरी (बुढ़ापे के समय), दोस्तों की, बेरुख़ी का क्या गिला,
बच के चलते हैं सभी, गिरती हुई दीवार से.
आप नियमित रूप से 'तिरछी नज़र' पढ़ती हैं, इसके लिए मैं आपका कृतज्ञ हूँ.
प्रणाम सर , जहां तक बात आपको सुनने की है तो हम आप ही से सीखते हैं और जो नहीं सुनना चाहते वे थातियों से अनभिज्ञ बने रहने को अभिशप्त रहते हैं... बहरहाल 17 का पहाड़ा बहुत अच्छा लगा । धन्यवाद
हटाएंअलकनंदा जी, 'सत्रह का पहाड़ा' जैसी कहनियाँ और भी हैं. समय आने पर आप सबके साथ उन्हें साझा करूंगा.
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जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना 18 सितंबर 2019 के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
'पांच लिंकों का आनंद' के 18 सितम्बर के अंक में मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद पम्मी सिंह 'तृप्ति' जी. मैं इस अंक का अवश्य रसास्वादन करूंगा.
हटाएंनमन सर आम जीवन की घटनाओं को आप कितनी रोचकता से लिखते हैं कि बस मत पुछिए ।
जवाब देंहटाएंमजा आ गया आंखो के सामने करूमामयी हास्य दृश्य साकार हो गया ।
लाजवाब।
'मन की वीणा' जब प्रोत्साहन का राग छेड़े तो मन प्रसन्न तो होगा ही.
हटाएंकुछ लोग मेरी गुस्ताख़ी से नाराज़ भी होते हैं. मैं मानता हूँ कि कभी-कभी मैं ख़ुद पर ब्रेक लगाना भूल ही जाता हूँ. पर क्या करूं? मुझे भगवान ने गुस्ताख़ ही बनाया है.