अब के बारिश में तो ये, कार-ए-ज़ियाँ होना ही था,
अपनी कच्ची बस्तियों को, बे-निशाँ होना ही था,
किस के बस में था हवा की, वहशतों को रोकना,
बर्ग-ए-गुल को, ख़ाक, शोले को, धुआँ, होना ही था.
मोहसिन नक़वी
(कार-ए-ज़ियाँ – अनिष्ट, बर्ग-ए-गुल - फूल का पत्ता)
हुइ है वही, जो राम रचि राखा -
अब के बारिश भी सड़क को, नहर तो होना ही था,
हेलिकॉप्टर से निरीक्षण, बाढ़ का, होना ही था.
डूब कर कुछ तो मरे, कुछ घर के नीचे दब गए,
रक्म-ए-राहत को उड़न-छू, आदतन, होना ही था.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (01-10-2019) को "तपे पीड़ा के पाँव" (चर्चा अंक- 3475) पर भी होगी। --
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
'चर्चा अंक - 3475' में मेरी व्यंग्य-रचना को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'.
जवाब देंहटाएंहैलीकॉप्टर में बैठने का ही जुगाड़ करवा लेते। इतना भी नहीं कर सकते :)
जवाब देंहटाएंअब तो जाड़े आने वाले हैं, हेलिकॉप्टर में बैठेंगे तो उड़ते समय उसके पंखे से ठण्ड लगेगी और पंखा बंद करवा दिया तो कहीं और उड़ चलेंगे.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कटाक्ष।
जवाब देंहटाएंवो हेलिकॉप्टर वाले का जवाब नहीं।
पधारे- click here 👉👉👉 शून्य पार
रोहितास घोरेला जी, हमारे-आपके पास बढ़िया गुलेल होती तो हम-आप खोखला निरीक्षण करने वाले हेलिकॉप्टर के साथ क्या करते?
हटाएंसमय मिलने पर 'शून्य पार' का अवलोकन करूंगा.
वही करते जो मंजूर ए हमे होता 😉😆
हटाएंमोहसिन नकवी जी ई रचना के बहाने आपने आदतन बड़ा सटीक व्यंग लिख दिया आदरनीय गोपेश जी | धरती पर दुर्दशा के शिकार लोगों का दर्द ये हेलिकॉप्टर बाले नेता जी कैसे जान पाते होंगे , आज तक ये बात मेरी समझ में नहीं आ पायी | उससे भी बढ़कर ये अचरज , चैनल वाले उनके इस पराक्रम को ऐसे दिखाते हैं मानों किसी वीर योद्धा ने कोई लडाई जीत ली हो |
जवाब देंहटाएंरेणु जी,
हटाएंक्या नेता, क्या अफ़सर, क्या शिक्षा-शास्त्री और क्या साहित्यकार ! नव्वे प्रतिशत से भी अधिक दिखावे, प्रपंच और पाखण्ड में लिप्त रहते हैं और मीडिया वाले तो इन सबसे भी गए-बीते हैं.
सौ मोहसिन नक़वी और हज़ार गोपेश मोहन जैसवाल अपनी कलम से अपनी भड़ास ज़रूर निकाल सकते हैं पर समाज रूपी दूध में पड़ी इन विषाक्त मक्खियों को कभी नहीं निकाल सकते.