बचपन में कविताएँ याद करना मेरे लिए किसी सर-दर्द से कम नहीं था. शुद्ध, प्रांजल भाषा, दुरूह शब्द-चयन और अगम्य-भाव हम जैसे साहित्य के पैदल सैनिकों के लिए बहुत भारी पड़ जाते थे. रटंत विद्या में सदैव बैक-बेंचर होने के कारण मेरे लिए कविताओं को कंठस्थ करना टेढ़ी खीर था. खैर इंटरमीडिएट तक तो इस रटंत-अभ्यास में - ‘रो-रो कर, सिसक-सिसक कर, मेरी हिट रही कहानी, पर बी. ए. आते-आते, मुझे याद आ गयी नानी.’
कबीर, सूर, मीरा, तुलसी, केशव, बिहारी आदि भक्तिकालीन तथा रीतिकालीन कवियों की रचनाएँ तो गेय होती थीं, उनकी एक निश्चित लय होती थी और उस लय पर उसको आसानी से कंठस्थ किया जा सकता था पर हाय, आधुनिक कवियों की विपाशा नदी (बिपासा बसु नहीं) की भांति निर्बन्ध कविताओं को कैसे याद किया जाय?
एक बार मैं कामायनी का प्रथम सर्ग पढ़ रहा था. कंठस्थ करने की दृष्टि से पहला ही छंद जानलेवा था –
‘हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह,
एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह.
नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन.’
मैं कभी ‘हिमगिरि’ पर अटकता तो कभी ‘उत्तुंग’ पर. आधे घंटे तक मैं नाकाम क़वायद करता रहा पर तभी नेपथ्य से किशोर कुमार की मखमली आवाज़ में एक नग्मा गूँज उठा-
‘क़श्ती का खामोश सफ़र है, शाम भी है, तन्हाई भी,
दूर किनारे पर बजती है, लहरों की शहनाई भी.’
बस, मेरी समस्या का तुरंत समाधान हो गया. मैंने इसी धुन पर यह छंद कंठस्थ कर लिया.
हम सबने अपने बचपन में यह प्यारी सी कविता अवश्य पढ़ी होगी –
‘नन्हीं नन्हीं जल कि बूँदें, जब लेकर आता बादल,
बेला की नव पंखुड़ियों में, मोती बिखराता बादल.
कुछ झुक-झुक कर, कुछ हंस-हंस कर, कुछ सिहर-सिहर, कुछ मचल-मचल,
चम्पे की कलियाँ खिल उठतीं, जल से सुरभित हो-हो कर.’
मेरी बेटियों को यह कविता अच्छी तो लगती थी पर उनके लिए इसे याद करना बड़ा कठिन था. उनके पिताश्री ने उन्हें फ़िल्म ‘रेलवे प्लेटफ़ॉर्म’ के प्रसिद्द गीत का कैसेट सुना दिया –
‘बस्ती-बस्ती, पर्वत-पर्वत, गाता जाए बंजारा, लेकर दिल का इकतारा.’
बेटियों को यह कविता तो इस गाने की धुन पर याद हो गई पर उनके पापा ने और इस गाने ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. जब भी वो पढ़ाई-लिखाई को ताक पर रखकर टीवी देखने में मगन हो जाती थीं तो उनके पापा श्री - ‘बस्ती-बस्ती, पर्वत-पर्वत’ की धुन पर - ‘नन्हीं-नन्हीं, जल की बूंदे’ गाना शुरू कर देते थे और वो बेचारियाँ टीवी छोड़कर किताबों का दामन थाम लेती थीं.
हरवंश राय बच्चन जी की इस कालजयी रचना से तो हर साहित्य प्रेमी परिचित होगा –
‘इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उदित होकर नभ में, कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरालहरा यह शाखाएँ, कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ, हँसकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से, संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले, मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का, उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!’
आज से पचास साल पहले हमारे श्रीश भाई साहब, इस कविता को गाकर सुनाते थे तो समां बाँध देते थे. पर उनके काव्य-पाठ को सुनकर मैं बेचैन सा हो जाता था. ए. सी. पी. प्रद्युम्न की तरह से मेरे दिल से आवाज़ निकलती थी –
‘कुछ तो गड़बड़ है.’ कुछ दिनों बाद मैंने गड़बड़ का रहस्य जान लिया. राजकपूर की महान फ़िल्म ‘आवारा’ के अमर संगीत से कौन वाकिफ़ नहीं है? क्या उसका यह गीत आपको याद है?
‘आ जाओ तड़पते हैं अरमां, अब रात गुज़रने वाली है.’
हमारे भाई साहब इसी धुन पर इस पार वाली प्रिये से गुफ्तगू करते थे. इस धुन पर आप भी इस कविता को गाइए और पूरी कविता 15 मिनट में याद कर लीजिए.
आपके मुंह का ज़ायका बदलने के लिए जिगर मुरादाबादी के एक सदाबहार क़लाम के चंद अशआर का ज़िक्र करते हैं -
‘इक लब्ज़े मुहब्बत का, अदना सा फ़साना है,
सिमटे तो दिले आशिक़, फैले तो ज़माना है.
क्या हुस्न ने समझा है, क्या इश्क ने जाना है,
हम खाक़ नशीनों की, ठोकर पे ज़माना है.
ये इश्क़ नहीं आसां, बस इतना समझ लीजे,
इक आग का दरिया है, और डूब के जाना है.
हम इश्क के मारों का, इतना सा फ़साना है,
रोने को नहीं कोई, हंसने को ज़माना है.’
हमारे चंद मेहरबान दोस्त इन अशआर को ऐसे सुनाते हैं जैसे कोई पहलवान अखाड़े में ताल ठोक रहा हो. ऐसे दोस्तों को मैं मशवरा दूंगा कि वो इसे फ़िल्म ‘बैजू बावरा’ के खूबसूरत गीत –
‘बचपन की मुहब्बत को, दिल से न जुदा करना,
जब याद मेरी आए, मिलने की दुआ करना.’
की धुन पर सुनाएँ तो पंछी तक अपना चहचहाना छोड़ कर जिगर साहब का क़लाम सुनने लगेंगे.
अब आखरी गाने पर आता हूँ. चोरों के पास एक मास्टर की होती है जिससे वो हर ताला खोल सकते हैं. मेरे पास भी गाने की शक्ल में एक मास्टर की है. इस गाने की धुन पर आप पचासों कविताएँ याद कर सकते हैं. यह गाना है –
‘दिल लूटने वाले जादूगर, अब मैंने तुझे पहचाना है,
नज़रें तो उठाकर देख इधर, तेरे सामने ये दीवाना है.’
मेरे नुस्खे को महादेवी वर्मा की इस कविता पर आज़माकर देखिए -
'''मैं नीर भरी दु:ख की बदली!
----
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली!’
इसी दिल लूटने वाली जादूगरी धुन पर श्री सोहन लाल द्विवेदी की बापू पर लिखी गयी कालजयी रचना को गुनगुनाकर देखिए -
‘चल पड़े जिधर दो डग मग में
चल पड़े कोटि पग उसी ओर,
पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि
गड़ गये कोटि दृग उसी ओर,
जिसके शिर पर निज धरा हाथ
उसके शिर-रक्षक कोटि हाथ,
जिस पर निज मस्तक झुका दिया,
झुक गये उसी पर कोटि माथ;
हे कोटिचरण, हे कोटिबाहु,
हे कोटिरूप, हे कोटिनाम,
तुम एकमूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि,
हे कोटिमूर्ति, तुमको प्रणाम.’
इस साहित्य चर्चा में वीर रस की किसी कविता का उल्लेख तो अब तक हुआ ही नहीं. क्यों न हम श्री श्याम नारायण पांडे की ‘हल्दीघाटी’ से चेतक की जांबाज़ी का प्रसंग ले लें –
‘रण बीच चौकड़ी धर-धर कर चेतक बन गया निराला था,
राणा प्रताप के घोड़े से, पड़ गया हवा का पाला था.’
ज़ाहिर है कि इस कविता को याद करने के लिए भी हमको ‘दिल लूटने वाले जादूगर’ की धुन की ज़रुरत पड़ेगी.
अंत में एक बार फिर प्रसादजी की कामायनी का उल्लेख हो जाय और भारतीय नारी की महानता को हम नतमस्तक होकर अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करें –
‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो,
विश्वास रजत नाग पग तल में,
पीयूष श्रोत सी बहा करो,
जीवन के सुन्दर समतल में.’
किन्तु यदि इन श्रद्धा-सुमनों को अर्पित करने में आपको कोई कठिनाई हो तो जैसवाल साहब द्वारा ईजाद की गयी – ‘दिल लूटने वाले जादूगर’ वाली मास्टर की का उपयोग कीजिए और अपने जीवन में कभी न बुझने वाली साहित्यिक फुलझड़ियाँ रौशन करते रहिए.
कबीर, सूर, मीरा, तुलसी, केशव, बिहारी आदि भक्तिकालीन तथा रीतिकालीन कवियों की रचनाएँ तो गेय होती थीं, उनकी एक निश्चित लय होती थी और उस लय पर उसको आसानी से कंठस्थ किया जा सकता था पर हाय, आधुनिक कवियों की विपाशा नदी (बिपासा बसु नहीं) की भांति निर्बन्ध कविताओं को कैसे याद किया जाय?
एक बार मैं कामायनी का प्रथम सर्ग पढ़ रहा था. कंठस्थ करने की दृष्टि से पहला ही छंद जानलेवा था –
‘हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह,
एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह.
नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन.’
मैं कभी ‘हिमगिरि’ पर अटकता तो कभी ‘उत्तुंग’ पर. आधे घंटे तक मैं नाकाम क़वायद करता रहा पर तभी नेपथ्य से किशोर कुमार की मखमली आवाज़ में एक नग्मा गूँज उठा-
‘क़श्ती का खामोश सफ़र है, शाम भी है, तन्हाई भी,
दूर किनारे पर बजती है, लहरों की शहनाई भी.’
बस, मेरी समस्या का तुरंत समाधान हो गया. मैंने इसी धुन पर यह छंद कंठस्थ कर लिया.
हम सबने अपने बचपन में यह प्यारी सी कविता अवश्य पढ़ी होगी –
‘नन्हीं नन्हीं जल कि बूँदें, जब लेकर आता बादल,
बेला की नव पंखुड़ियों में, मोती बिखराता बादल.
कुछ झुक-झुक कर, कुछ हंस-हंस कर, कुछ सिहर-सिहर, कुछ मचल-मचल,
चम्पे की कलियाँ खिल उठतीं, जल से सुरभित हो-हो कर.’
मेरी बेटियों को यह कविता अच्छी तो लगती थी पर उनके लिए इसे याद करना बड़ा कठिन था. उनके पिताश्री ने उन्हें फ़िल्म ‘रेलवे प्लेटफ़ॉर्म’ के प्रसिद्द गीत का कैसेट सुना दिया –
‘बस्ती-बस्ती, पर्वत-पर्वत, गाता जाए बंजारा, लेकर दिल का इकतारा.’
बेटियों को यह कविता तो इस गाने की धुन पर याद हो गई पर उनके पापा ने और इस गाने ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. जब भी वो पढ़ाई-लिखाई को ताक पर रखकर टीवी देखने में मगन हो जाती थीं तो उनके पापा श्री - ‘बस्ती-बस्ती, पर्वत-पर्वत’ की धुन पर - ‘नन्हीं-नन्हीं, जल की बूंदे’ गाना शुरू कर देते थे और वो बेचारियाँ टीवी छोड़कर किताबों का दामन थाम लेती थीं.
हरवंश राय बच्चन जी की इस कालजयी रचना से तो हर साहित्य प्रेमी परिचित होगा –
‘इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उदित होकर नभ में, कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरालहरा यह शाखाएँ, कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ, हँसकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से, संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले, मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का, उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!’
आज से पचास साल पहले हमारे श्रीश भाई साहब, इस कविता को गाकर सुनाते थे तो समां बाँध देते थे. पर उनके काव्य-पाठ को सुनकर मैं बेचैन सा हो जाता था. ए. सी. पी. प्रद्युम्न की तरह से मेरे दिल से आवाज़ निकलती थी –
‘कुछ तो गड़बड़ है.’ कुछ दिनों बाद मैंने गड़बड़ का रहस्य जान लिया. राजकपूर की महान फ़िल्म ‘आवारा’ के अमर संगीत से कौन वाकिफ़ नहीं है? क्या उसका यह गीत आपको याद है?
‘आ जाओ तड़पते हैं अरमां, अब रात गुज़रने वाली है.’
हमारे भाई साहब इसी धुन पर इस पार वाली प्रिये से गुफ्तगू करते थे. इस धुन पर आप भी इस कविता को गाइए और पूरी कविता 15 मिनट में याद कर लीजिए.
आपके मुंह का ज़ायका बदलने के लिए जिगर मुरादाबादी के एक सदाबहार क़लाम के चंद अशआर का ज़िक्र करते हैं -
‘इक लब्ज़े मुहब्बत का, अदना सा फ़साना है,
सिमटे तो दिले आशिक़, फैले तो ज़माना है.
क्या हुस्न ने समझा है, क्या इश्क ने जाना है,
हम खाक़ नशीनों की, ठोकर पे ज़माना है.
ये इश्क़ नहीं आसां, बस इतना समझ लीजे,
इक आग का दरिया है, और डूब के जाना है.
हम इश्क के मारों का, इतना सा फ़साना है,
रोने को नहीं कोई, हंसने को ज़माना है.’
हमारे चंद मेहरबान दोस्त इन अशआर को ऐसे सुनाते हैं जैसे कोई पहलवान अखाड़े में ताल ठोक रहा हो. ऐसे दोस्तों को मैं मशवरा दूंगा कि वो इसे फ़िल्म ‘बैजू बावरा’ के खूबसूरत गीत –
‘बचपन की मुहब्बत को, दिल से न जुदा करना,
जब याद मेरी आए, मिलने की दुआ करना.’
की धुन पर सुनाएँ तो पंछी तक अपना चहचहाना छोड़ कर जिगर साहब का क़लाम सुनने लगेंगे.
अब आखरी गाने पर आता हूँ. चोरों के पास एक मास्टर की होती है जिससे वो हर ताला खोल सकते हैं. मेरे पास भी गाने की शक्ल में एक मास्टर की है. इस गाने की धुन पर आप पचासों कविताएँ याद कर सकते हैं. यह गाना है –
‘दिल लूटने वाले जादूगर, अब मैंने तुझे पहचाना है,
नज़रें तो उठाकर देख इधर, तेरे सामने ये दीवाना है.’
मेरे नुस्खे को महादेवी वर्मा की इस कविता पर आज़माकर देखिए -
'''मैं नीर भरी दु:ख की बदली!
----
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली!’
इसी दिल लूटने वाली जादूगरी धुन पर श्री सोहन लाल द्विवेदी की बापू पर लिखी गयी कालजयी रचना को गुनगुनाकर देखिए -
‘चल पड़े जिधर दो डग मग में
चल पड़े कोटि पग उसी ओर,
पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि
गड़ गये कोटि दृग उसी ओर,
जिसके शिर पर निज धरा हाथ
उसके शिर-रक्षक कोटि हाथ,
जिस पर निज मस्तक झुका दिया,
झुक गये उसी पर कोटि माथ;
हे कोटिचरण, हे कोटिबाहु,
हे कोटिरूप, हे कोटिनाम,
तुम एकमूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि,
हे कोटिमूर्ति, तुमको प्रणाम.’
इस साहित्य चर्चा में वीर रस की किसी कविता का उल्लेख तो अब तक हुआ ही नहीं. क्यों न हम श्री श्याम नारायण पांडे की ‘हल्दीघाटी’ से चेतक की जांबाज़ी का प्रसंग ले लें –
‘रण बीच चौकड़ी धर-धर कर चेतक बन गया निराला था,
राणा प्रताप के घोड़े से, पड़ गया हवा का पाला था.’
ज़ाहिर है कि इस कविता को याद करने के लिए भी हमको ‘दिल लूटने वाले जादूगर’ की धुन की ज़रुरत पड़ेगी.
अंत में एक बार फिर प्रसादजी की कामायनी का उल्लेख हो जाय और भारतीय नारी की महानता को हम नतमस्तक होकर अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करें –
‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो,
विश्वास रजत नाग पग तल में,
पीयूष श्रोत सी बहा करो,
जीवन के सुन्दर समतल में.’
किन्तु यदि इन श्रद्धा-सुमनों को अर्पित करने में आपको कोई कठिनाई हो तो जैसवाल साहब द्वारा ईजाद की गयी – ‘दिल लूटने वाले जादूगर’ वाली मास्टर की का उपयोग कीजिए और अपने जीवन में कभी न बुझने वाली साहित्यिक फुलझड़ियाँ रौशन करते रहिए.