सोमवार, 29 मई 2017

चाचा नेहरु के तीन भक्त

चाचा नेहरु के तीन भक्त -
बच्चों में नेहरु चाचा की लोकप्रियता बेमिसाल थी. हम सभी भाई-बहन भी उनके मुरीद थे. पर हमने अपने प्रिय चाचा को या तो तस्वीरों में देखा था या डॉक्यूमेंट्री फिल्मों में, उनको रूबरू देखने का हमको कभी मौक़ा नहीं मिला था.
जनवरी, 1959 की बात है, मैं तब आठ साल का था. हम उन दिनों लखनऊ में रहते थे और जाड़े के मौसम में हर रविवार को प्रातः 10 बजे कैपिटल सिनेमा में दिखाई जाने वाली डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म्स देखने जाया करते थे. एक बार की बात है कि हमारे बड़े भाई साहब घर पर ही थे पर बाक़ी हम तीन भाई जोश से लबरेज़ होकर डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म देखने के लिए कैपिटल सिनेमा पहुँच गए. ये शिक्षाप्रद डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म्स ही हमारे मनोरंजन का साधन थीं और मज़े की बात यह थी कि इन्हें देखने के लिए खुद पिताजी हमको प्रोत्साहित करते थे. हमको इन्हें देखने के लिए अपना पॉकेटमनी खर्च करने की भी ज़रुरत नहीं होती थी क्यूंकि इसके लिए पिताजी ही हमारे फिनान्सर हुआ करते थे.
खैर हम कैपिटल सिनेमा पहुंचे (यह विधान सभा के सामने स्थित है), वहां आठ-आठ आने में बालकनी की तीन टिकटें लीं पर डॉक्यूमेंट्री शुरू होने में तो अभी पंद्रह मिनट का समय बाक़ी था.
हम बाहर सड़क पर आ गए तो देखा कि सड़क के दोनों तरफ़ बड़ी भीड़ है और हाथ में तिरंगे लिए सैकड़ों बच्चे क़तार में खड़े हुए हैं. हमने इसका सबब पूछा तो पता चला कि आधे घंटे बाद नेहरु जी का काफ़िला वहां से गुजरने वाला है. यह सुनकर मेरी खुशी का तो कोई ठिकाना नहीं रहा.
खुली जीप में खड़े हुए चाचा नेहरु हमको देखने को मिलेंगे? मुझे तो अपनी खुशकिस्मती पर विश्वास ही नहीं हो रहा था.
पर हाय, हम तो डॉक्यूमेंट्री देखने के लिए पूरे डेेड़ रूपये खर्च कर चुके थे. हमारे श्रीश भाई साहब दौड़ कर टिकट काउंटर पर गए और वहां उन्होंने बुकिंग क्लर्क से टिकट लौटा कर उनके पैसे वापस करने की बात की पर उसने टिकट वापस लेने से साफ़ इनकार कर दिया.
जैसे कि फ़िल्म मुगले आज़म में बादशाह अकबर ने महारानी जोधा से पूछा था - 'सुहाग चाहिए या औलाद?'
कुछ वैसा ही सवाल हमारे सामने था - ' डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म देखने का मौक़ा छोड़कर और अपने डेड़ रूपये बर्बाद करके हमको चाचा नेहरु को देखना है, या चाचा नेहरु को देखने का मौक़ा छोड़कर डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म देखकर अपने डेड़ रूपये वसूल करने हैं?'
अंत में चाचा नेहरु के आगे डेड़ रूपयों की जीत हुई, हमने दुखी मन से पूरे एक घंटे तक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म देखी.
हम सिनेमा हॉल से बाहर निकले तो पता चला कि नेहरु जी 45 मिनट पहले वहां से जा चुके थे.
इसके बाद हमको फिर कभी अपने चाचा नेहरु से मिलने का मौक़ा नहीं मिला.
अपने चाचा नेहरु के हम तीन भक्तों को उनसे न मिल पाने का बहुत मलाल रहा पर उनसे हमको एक बड़ी शिक़ायत भी थी -
'नेहरु चाचा ! क्या आप उस रास्ते से गुजरने का समय आधा घंटा पहले का या डेड़ घंटे बाद का नहीं रख सकते थे?'

बुधवार, 17 मई 2017

वो कौन थी -



वो कौन थी? -
‘वो कौन थी’ अपने ज़माने की बड़ी कामयाब फ़िल्म थी पर ‘वो कौन थी?’ जुमला मेरे जी का जन्जाल रहा है और इसने मुझे मेरे बचपन से लेकर जवानी के दिनों तक बहुत-बहुत परेशान किया है.
अपने बचपन के तीन साल मैंने इटावा में बिताए थे. हमारे घर के ही पास एक साहब रहते थे. उनकी बेटी का नाम बेबी था. मुझसे एक साल छोटी. बेबी मुझे पहली मुलाक़ात में ही बहुत अच्छी लगी थी और बेबी को भी मैं बहुत अच्छा लगा था पर हमारे घर में लड़के और लड़की के बीच दोस्ती की कोई कल्पना ही नहीं कर सकता था, भले ही उनके अपने दूध के दांत भी न टूटे हों.
मैं तो संकोचवश न तो बेबी के यहाँ जा सकता था और न ही उसको अपने घर बुला सकता था और अगर प्ले ग्राउंड में भी कभी उस से मिल लूं तो भाई लोगों की या माँ की ‘ही, ही, खी, खी’ या कृत्रिम खांसी की ‘खों-खों’ सारा मज़ा किरकिरा कर देती थी. बेबी इस मामले में बड़ी बोल्ड थी. उसे दुनिया की कोई परवाह नहीं थी, वो धड़ल्ले से मुझसे मिलने मेरे घर आती थी पर उसके जाते ही मेरा जैसा मज़ाक़ उड़ाया जाता था, उसे शब्दों में व्यक्त कर पाना आज भी बड़ा मुश्किल होगा. इस अनवरत उपहास का अंजाम यही हुआ कि बेबी और मेरी दोस्ती पक्की होने से पहले ही टूट गयी.
ये त्रासदी पूर्ण कथा एंटी रोमियो स्क्वैड जैसे हमारे उस परिवार की है जिसकी कि कम से कम पिछली पांच पीढियां शिक्षित थीं और शहरों में ही रहती आई थीं. इस सन्दर्भ में कस्बई और ग्रामीण माहौल के तो दकियानूसी दृष्टिकोण की भयावहता की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता.
इन्टरमीजियेट तक लड़कों के ही स्कूल-कॉलेज में पढ़ने के कारण लड़कियों से दोस्ती होने की बात तो छोड़िए, उनसे बात करना तक हमको नसीब नहीं होता था पर जब झाँसी के बुन्देलखण्ड कॉलेज में मैंने बी. ए. में प्रवेश लिया तो उसमें लड़कियों की भरमार थी. अपने क्लास के ख़ास लड़कों में तो अपनी गिनती हो ही जाती थी, लड़कियां दोस्ती करने के लिए सिग्नल्स भी देती थीं पर अपना एरियल या एंटीना ऐसे सिग्नल्स जानबूझ कर पकड़ता ही नहीं था.
झाँसी में हमारा बंगला बुन्देलखण्ड कॉलेज के सामने ही था. एक बार तीन लड़कियां क्लास नोट्स लेने के बहाने माँ, पिताजी की मौजूदगी में ही मेरे घर आ धमकीं. मैंने उन्हें नोट्स देकर विदा किया. माँ घर के अन्दर से ही इस भेंट का नज़ारा देख रही थीं. उन्होंने ‘ये कौन-कौन हैं?’ ‘कैसी बेशरम हैं जो सीधे तेरे घर पहुँच गईं?’ जैसे सवाल पूछ-पूछकर मेरा जीना दूभर कर दिया. मैं इतना दुखी हो गया कि उन लड़कियों से पीछा छुड़ाने के लिए मैंने कॉलेज जाते ही उनको जमकर लताड़ लगाई और आइन्दा फिर ऐसी कोई हरक़त न करने की उन्हें वार्निंग भी दे दी. वो लड़कियां न तो फिर मेरे घर आईं और न ही फिर कॉलेज में उन्होंने मुझसे बात की बल्कि बाद में वो मुझे जब भी देखती थीं तो ऐसा मुंह बना लेती थीं जैसे उन्होंने करेले या नीम का एक-एक लीटर जूस पी लिया हो. 
   मैंने लखनऊ यूनिवर्सिटी में जब एम. ए. में एडमिशन लिया तो तब तक लड़कियों से दोस्ती करने के बारे में मेरी विचारधारा काफ़ी बदल चुकी थी पर उसका सबसे बड़ा कारण यह था कि अब मैं घर की बंदिशों, ‘ही, ही, खी, खी’ और खों-खों’ से दूर, हॉस्टल में रहकर पढ़ रहा था.
लड़कियों से हमारी बात-चीत भी हुई और फिर थोड़ी-बहुत दोस्ती भी हो गयी पर शुरू-शुरू में इसमें बड़ी दिक्कत भी आई. मैंने अपने परम मित्र अविनाश को अपनी दिक्कत बताते हुए उस से उसका निदान पूछा –
‘लड़कियों से बात करने में और अंग्रेज़ी बोलने में, दोनों में ही, हमारे दिल की धडकनें तेज़ क्यूँ हो जाती हैं? ऐसे मौकों पर हमारे कान गर्म और लाल क्यूँ हो जाते हैं?’
इसके जवाब में अविनाश ने कहा –
‘ऐसी सिचुएशंस में मेरी भी ऐसी ही हालत होती है, बल्कि उनमें मैं तो हकलाने भी लगता हूँ.’      
धीरे-धीरे लड़कियों से बात करने में दिल की धडकनें तेज़ होना बंद हो गईं और कान लाल होने या गर्म होने भी बंद हो गए. क्लास के बाद एकाद घंटा तो हमलोग रोज़ मस्ती करते ही थे. गपशप, फ़िल्मी अन्त्याक्षरी, पिकनिक और डच सिस्टम के अंतर्गत फ़िल्म देखने के सामूहिक कार्यक्रम भी अब आम हो गए थे. फिर कुछ लड़कियां हमारी  दोस्त भी बनीं पर यहाँ भी हमारे ऊपर नज़र रखने वाले, भगवान जी ने तैनात कर ही दिए थे. हमारे चाचा जी लखनऊ यूनिवर्सिटी में पढ़ाते थे और हमारी चाची उत्तर प्रदेश शासन में अधिकारी थीं. जब मैं चाची को अकेला या लड़कों के साथ घूमता हुआ दिखाई देता था तो उनकी कार सर्र से मुझे अन-देखा करती हुई निकल जाती थी पर बदकिस्मती से एक बार मैं उन्हें एक लड़की के साथ जाता हुआ दिख गया तो चाची फ़ौरन कार रोक कर मुझसे पूछने लगीं –
‘गोपेश ! तुम लोगों को मैं कहाँ ड्रॉप कर दूं?’
मेरे मना करने पर चाची ने हमको तो ड्रॉप तो कहीं नहीं किया पर इस किस्से को भी उन्होंने ड्रॉप नहीं किया. जैसे ही मेरी उन से अगली मुलाक़ात हुई तो उनके सवाल का रिकॉर्ड चालू हो गया –
‘वो कौन थी?’ ‘क्या चक्कर चल रहा है?’ ‘कबसे है तुम दोनों की दोस्ती? वगैरा, वगैरा.  
एक किस्सा और ! यह किस्सा तब का है जब मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी में लेक्चरर हो गया था और माँ, पिताजी के साथ ही रहता था. एक बार मैं, माँ और पिताजी किसी की शादी का गिफ्ट खरीदने के लिए हजरतगंज के एक एम्पोरियम में गए. वहां की सेल्स मैनेजर मेरी पूर्व छात्रा निकली. उसने हमारी जमकर खातिर की, माँ, पिताजी से खूब हंस-हंस कर बातें की और माँ से तो मेरी कुछ ज़्यादा ही तारीफ़ कर दी.
माँ तो उसकी खातिरदारी, उसकी खूबसूरती और उसकी शाइस्तगी की कायल हो गयी थीं. घर पहुँचने से पहले कार में ही माँ के सवालात शुरू हो गए –
‘बब्बा ! ये लड़की तो बड़ी उर्दू-फ़ारसी झाड़ रही थी, मुसलमान है क्या?’
मैंने जवाब दिया – ‘हाँ ये मुसलमान है. पर आप ये सब क्यूँ पूछ रही हैं?’
माँ ने अपनी आँखें गोल-गोल कर के कहा – ‘है तो बड़ी खूबसूरत ! हम सब से बातें भी इतने प्यार और सलीके से कर रही थी. मुझे तो ऐसी ही बहू चाहिए.’
पिताजी ने हँसते हुए माँ से सवाल पूछा –‘घर में तुम लहसुन, प्याज तो आने नहीं देती हो, अब उसके हाथ की क्या बिरयानी खाओगी?’
माँ ने जवाब दिया – ‘बिरयानी न सही, पर उसके हाथ की बनी सेवैयाँ तो खा ही सकती हूँ.’
मैं बेचारा माँ-पिताजी के बीच में फंसा कब तक उन्हें – ‘ऐसा कुछ नहीं है, ऐसा कुछ नहीं है’ कहकर सफ़ाई देता? माँ मेरी शादी की योजना बनाती रहीं और मैं चुपचाप अपना सर धुनता रहा.
खैर मेरी अपनी दर्द भरी दास्तान का अंतिम अध्याय सुखद रहा. बिना किसी चक्कर के, बिना किसी बाधा के, मेरी तो अरेंज्ड मैरिज हो गयी पर व्यक्तिगत स्तर पर मैंने लड़के-लड़की की दोस्ती को हमेशा एक स्वाभाविक घटना मानकर स्वीकार किया है और उसकी हमेशा हिमायत भी की है.
यह बात मेरे क़तई समझ में नहीं आती कि जहाँ भी लड़का अगर लड़की से बात करता हुआ या उसके साथ घूमता दिख जाए तो हमारे चेहरे पर अविश्वास से भरी एक कुटिल मुस्कान क्यूँ आ जाती है.
सवाल यह भी उठता है कि लड़का लड़की क्या सूरज और चन्द्रमा हैं जिनकी कि आपसी दूरी भले ही लाखों मील हो पर अगर उन पर एक दूसरे की छाया भी पड़ जाएगी तो ग्रहण लग जाएगा.
हमारे विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में लड़के अपने भाषणों में लड़कियों के लिए हमेशा ‘बहनों’ का संबोधन क्यूँ प्रयुक्त करते हैं? क्या लड़के और लड़कियों, दोनों के लिए, केवल ‘मित्रों’,‘दोस्तों’ या ‘साथियों’ का संबोधन काफ़ी नहीं है?
कुछ सवाल और –
क्या लड़के और लड़की के बीच कोई चक्कर चलना ज़रूरी होता है या फिर उनके बीच भाई और बहन का अटूट सम्बन्ध होना ज़रूरी होता है?
और अगर उनके बीच कोई चक्कर चल भी रहा है तो दूसरों को उसमें इतनी दिलचस्पी या उस पर इतनी आपत्ति क्यूँ होती है?
लड़के-लड़की या स्त्री-पुरुष के बीच दोस्ती या बेतक़ल्लुफ़ी के सम्बन्ध क्यूँ नहीं हो सकते?
अपनी बात कहूं तो मैं तो अपनी अधिकतर महिला सह-कर्मियों को और अपने हम-उम्र दोस्तों की पत्नियों को उनके नाम से पुकारता था और उनको अपना दोस्त ही मानता था. मेरा तजुर्बा तो यही कहता है कि उनको इस पर कोई ऐतराज़ नहीं होता था.
अल्मोड़ा में 31 साल बिताने के बाद मैं वहां की तारीफ़ में यह कह सकता हूँ कि वहां लड़के और लड़की की दोस्ती को काफ़ी सहज रूप से लिया जाता है पर हम सभी शहरों, कस्बों या गाँवों के लिए ऐसी बात नहीं कह सकते.
मैंने खुद या मेरी पत्नी ने अपनी बेटियों को किसी लड़के के साथ देख कर संदेह भरे लहजे में यह सवाल कभी नहीं पूछा – ‘वो कौन था?’
आज माहौल बदलता जा रहा है. लड़के-लड़की की दोस्ती आज कोई हौवा नहीं है. प्रेम-विवाह को भी अब बहुत से लोग सहर्ष स्वीकार करने लगे हैं पर अभी भी इस क्षेत्र में, हमारी मानसिकता में, सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है.  
मेरे समझ में नहीं आता कि हम प्रकृति के प्रवाह को रोकना क्यूँ चाहते हैं और परस्पर एक नैसर्गिक आकर्षण को नकारना क्यूँ चाहते हैं? 
मेरे कुछ और सवाल हैं –
लड़के अगर लड़कियों में दिलचस्पी नहीं लेंगे तो क्या विवेकानंद बनकर आध्यत्मिक चर्चा में लेंगे?
लड़कियां अगर लड़कों में रूचि नहीं लेंगी तो क्या केवल त्याग-तपस्या में और गृह-कार्य में मग्न रहेंगी?
संस्कृति और संस्कारों के ठेकेदारों और ठेकेदारनियों से मेरा करबद्ध निवेदन है –
‘दाल-भात में मूसरचंद की भूमिका निभाना छोड़िए और बच्चे-बच्चियों, किशोर-किशोरियों को, युवक-युवतियों को आपस में मिलने दीजिए, उनके अपने विवेक पर कुछ भरोसा रखिए और उन्हें अपनी ज़िन्दगी को पूरी तरह से तो नहीं, पर कम से कम थोड़ा-बहुत, अपने ढंग से जीने दीजिए.’
मुझे उम्मीद है कि इस पोस्ट को पढ़ने वाले हमेशा अविश्वास और शिकायत भरे स्वर में अपनी बेटी या छोटी बहन को किसी लड़के के साथ देख कर यह नहीं पूछेंगे–
‘वो कौन था?’
या
किसी लड़के को किसी लड़की के साथ देख कर. उसे काट खाने वाली नज़रों से घूरते हुए उस से ये कोई नहीं पूछेगा –
‘वो कौन थी?’

शनिवार, 13 मई 2017

बड़े भैया



बड़े भैया –
हम चार भाई हैं जिनमें कि मैं सबसे छोटा हूँ पर जब मेरी उम्र करीब 24 साल की रही होगी तो हमारे परिवार में एक और भाई आ गया. पर हैरत की बात यह थी कि यह भाई मुझसे छोटा नहीं, बल्कि मेरे बड़े भाई साहब और मेरी स्वर्गीया बहन जी से भी बड़ा था. आप सबको ज़्यादा हैरान होने की ज़रुरत नहीं है. हमारे ये बड़े भैया और कोई नहीं, बल्कि स्टार ऑफ़ दि मिलेनियम, अमिताभ बच्चन हैं.
माँ हरवंश राय बच्चन की बहुत बड़ी प्रशंसिका थीं और जयदेव के संगीत निर्देशन में उनकी तथा मन्ना डे की आवाज़ में ‘मधुशाला’ का पाठ सुनकर तो इसमें पहले से भी ज़्यादा इज़ाफ़ा हो गया था. योग्य पिता के योग्य बेटे से उनका प्रथम परिचय फ़िल्मी पत्रिकाओं के माध्यम से हुआ था.  माँ को अमिताभ बच्चन ‘आनंद’ के ज़माने से ही अच्छे लगने लगे थे पर उन्होंने उन्हें अपने बड़े बेटे का दर्जा दिया फ़िल्म ‘दीवार’ के बाद.
अमिताभ बच्चन को देख कर माँ कहती थीं – ‘बेटा हो तो ऐसा हो.’
कैसा बेटा? ऐसा बेटा जो ‘दीवार’ के बड़े बेटे विजय की तरह माँ के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर घर चलाता हो या ऐसा सपूत जो कि ज़रुरत पड़ने पर ‘अमर अकबर एंथनी’ के एंथनी की तरह अपनी माँ को अपना खून देता हो.   
माँ की नज़रों में हमारे अपने बड़े भाई साहब एक आदर्श बेटे के मापदंड के बहुत करीब थे (मैं तो माँ का घोषित ऊधमी बेटा था) पर उन्हें अपदस्थ कर कब अमिताभ बच्चन, माँ के आदर्श बेटे बन गए, यह खुद उन्हें ही पता नहीं चला.
हीरोइनों में अमिताभ बच्चन के साथ माँ को सिर्फ़ जया बच्चन ही पसंद आती थी. फ़िल्म मर्द में अमिताभ बच्चन पर कोड़े पड़वाने वाली अमृता सिंह उन्हें क़तई पसंद नहीं थी. रेखा को तो वो ‘घर उजाड़ू’ कहती थीं. ‘सिलसिला’ में अमिताभ-जया की घर-गृहस्थी उजाड़ने और संजीव कुमार से बेवफ़ाई करने के लिए उन्होंने रेखा को कभी माफ़ नहीं किया.    
सिल्वर स्क्रीन पर अमिताभ बच्चन और निरूपा रॉय, माँ और बेटे के रोल में हमारी माँ को बहुत अच्छे लगते थे पर फ़िल्म ‘दीवार’ में उन्हें विजय की माँ से बड़ी शिक़ायत थी. उसको छोटे बेटे की जगह बड़े बेटे का साथ देना चाहिए था और धीरे-धीरे समझा-बुझाकर उसे सही रास्ते पर ले आना चाहिए था. पिताजी इस बात के लिए माँ की बहुत खिंचाई करते थे. वो माँ से कहते थे –
‘तुम प्रोड्यूसर, डायरेक्टर और स्क्रिप्ट राइटर्स को इसके बारे में चिट्ठी तो लिखो, हो सकता है कि वो तुम्हारी बात मानकर स्टोरी में ज़रूरी तब्दीलियाँ कर दें.’
दुःख की बात यह थी कि माँ के सुझाव उनके दिल में ही रह गए, ज़रूरी पते पर पहुंचे ही नहीं.
तेजी बच्चन जी की आधुनिकता माँ को क़तई पसंद नहीं थी पर चूंकि उन्होंने अमिताभ जैसा लाल भारत को दिया था, इसके लिए हमारी माँ उनके सात खून तक माफ़ करने को तैयार थीं. वैसे माँ अपने लाड़ले अमिताभ को हरवंश राय बच्चन जी का बेटा ज़्यादा और तेजी बच्चन जी का बेटा कम मानती थीं.  
फ़िल्म ‘कुली’ की शूटिंग के दौरान अमिताभ बच्चन को भीषण चोट लगी तो सबसे ज़्यादा नुक्सान पिताजी को हुआ. माँ जब तक टीवी न्यूज़ में और अख़बार में, अमिताभ बच्चन के स्वास्थ्य-लाभ का समाचार नहीं जान लेती थीं, पिताजी को चाय नसीब नहीं होती थी.
फिल्मों से कोसों दूर रहने वाले मेरे पिताजी को माँ मजबूर कर देती थीं कि वो उन्हें अमिताभ बच्चन की फिल्में सिनेमा हॉल में दिखाएं. जब मैं छुट्टियों में अल्मोड़ा से लखनऊ पहुँचता था तो पिताजी अपनी ये ज़िम्मेदारी चुपके से मेरे नाम ट्रांसफ़र कर देते थे.
पिताजी के स्वर्गवास के बाद माँ ने सिनेमा हॉल जाकर फिल्में देखना बिलकुल छोड़ दिया. माँ के लिए टीवी ही मनोरंजन का सबसे बड़ा साधन बन गया. 1994 में दूरदर्शन ने साल भर तक हर रविवार अमिताभ बच्चन की फिल्में प्रसारित की थीं. उन दिनों माँ करीब चार महीने हमारे साथ अल्मोड़ा में रही थीं. माँ फ़िल्म शुरू होने से पहले ही खाना खा लेती थीं. हमारे लिए उनके निर्देश थे कि अमिताभ बच्चन की फ़िल्म चलने के दौरान न तो हमारे दोस्त घर आएं और ही हमारी बेटियों की सहेलियां.
अमिताभ बच्चन की फ़िल्म देखने के दौरान माँ के श्री मुख से – ‘धन्य हो.’ के उदगार औसतन दर्जन भर बार तो निकलते ही थे. मेरी दुष्ट बेटियों ने तो अमिताभ बच्चन का नाम ही ‘धन्य ताउजी’ रख दिया था.
जिन फिल्मों में अमिताभ बच्चन को मरते हुए दिखाया जाता था, उन के निर्माता, निर्देशक और कहानीकार माँ की हिट लिस्ट में आ जाते थे. पैसे के लालच में अमिताभ बच्चन को ऐसी हत्यारी फिल्मों में काम करने देने की छूट देने के लिए वो हरिवंश राय बच्चन, तेजी बच्चन और यहाँ तक कि जया बच्चन तक को माफ़ नहीं करती थीं.
अमिताभ युग से पहले माँ को दिलीप कुमार सबसे अच्छे लगते थे पर फ़िल्म ‘शक्ति’ में अमिताभ बच्चन को गोली मारकर उन्होंने माँ की दृष्टि में एक खलनायक की पदवी प्राप्त कर ली थी.
अमिताभ बच्चन के स्वर में बच्चन जी की कविताओं का पाठ सुनना और देखना हम सबके लिए वाक़ई एक दिव्य अनुभव होता है पर माँ के लिए तो यह ‘आठहु सिद्धि, नवो निधि के सुख’ से बढ़कर होता था.   
'कौन बनेगा करोड़पति' की सफलता में मेरी माँ का बहुत बड़ा योगदान था. अगर माँ जैसे प्रशंसक न होते तो क्या अमिताभ बच्चन का पुनरुत्थान संभव था? शाम आठ बजे से ही माँ का रिकॉर्ड चालू हो जाता था -'नौ बज गए क्या?' 
उन दिनों हमारे यहाँ इन्वर्टर नहीं था. बिजली जाते ही टीवी भी गुल हो जाता था. अगर 'कौन बनेगा करोड़पति' के दौरान बिजली चली जाती थी तो बिजली विभाग वालों के साथ हमसे भी खफ़ा हो जाती थीं और हमसे अगले दिन तक बात भी नहीं करती थीं.     
बड़े दुःख की बात है कि माँ अपने दिल में अमिताभ बच्चन को देखने की हसरत लिए हुए ही इस दुनिया से चली गईं पर यह तय है कि जाते-जाते भी वो अपने लाड़ले दत्तक पुत्र को स्पेशल आशीर्वाद देकर ही गयी होंगी.
हमारी माँ जैसी माएं तो अमिताभ बच्चन की लाखों होंगी पर हमारे तो एक ही माँ थी और वो भी अमिताभ बच्चन ने हमसे क़रीब-क़रीब छीन ही ली थी.
हे सदी के महानायक ! हे स्टार ऑफ़ दि मिलेनियम ! हम अपनी माँ की चोरी के लिए तुम्हें कभी माफ़ नहीं करते पर उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए हम तुम्हें माफ़ करते हैं और भगवान से तुम्हारे दीर्घायु होने की कामना भी करते हैं.

रविवार, 7 मई 2017

ये स्पेशल भाभीजियां

ये स्पेशल भाभीजियां –
ये किस्सा मेरी अपनी तीन भाभीजियों का नहीं हैं क्योंकि वो सभी सामान्य किस्म की भाभीजियों की केटेगरी में आती हैं. मैं तो इस में सिर्फ़ अविस्मरणीय, हैरतअंगेज़ और स्पेशल किस्म की चार भाभीजियों का ज़िक्र करने जा रहा हूँ.
पहला क़िस्सा मेरे लखनऊ प्रवास का है, स्वीट 25 वाला. उन दिनों मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी में लेक्चरर था. लखनऊ यूनिवर्सिटी में लेक्चरर होते ही मैंने साल भर के अन्दर रेगुलर एक्सरसाइज़, टेनिस और संयमित आहार से अपनी दस-बारह साल पुरानी गोलमटोल गोलगप्पे वाली छवि उतार फेंकी थी. लोगों की दृष्टि में और खुद अपनी दृष्टि में मैं अच्छा-खासा स्मार्ट हो गया था. कुछ मेरे फ़ीचर्स, कुछ मेरे घुंघराले बाल, और कुछ मेरी आँखें, लोगों को संजीव कुमार की याद दिला देती थीं और मैं विनम्रतापूर्वक उनके कॉम्प्लीमेंट्स को स्वीकार भी कर लेता था.
उन दिनों हमारे श्रीश भाई साहब आगरा में केन्द्रीय हिंदी संस्थान में पढ़ाते थे और मैं आए दिन आगरा के चक्कर लगाया करता था. भाई साहब और भाभी के मित्रगण मेरे भी दोस्त बन गए थे. इन में एक भाभी जी अक्सर मुझसे कहती थीं –
‘गोपेश भाई, आप तो फ़िल्म स्टार लगते हैं.’
अब गोपेश भाई विनम्रता से – ‘हें, हें’ करते हुए इस कॉम्प्लीमेंट को स्वीकार कर लेते थे. एक दिन श्रीश भाई साहब ने उन भाभी जी से पूछ ही लिया –
‘ज़रा बताइए तो हमारा गोपेश आपको किस फ़िल्म स्टार जैसा लगता है?’
भाभी जी बोलीं – अरे क्या नाम है उसका? ज़ुबान पर नहीं आ रहा है. हाँ, उसका पापा भी फ़िल्म स्टार है.’
अब यह सुनकर तो मेरा दिल बैठ गया क्यूंकि मेरे हमशक्ल संजीव कुमार के पापा तो फ़िल्म लाइन में थे नहीं. मेरे दिल में हलचल हो रही थी. पता नहीं भाभी जी अब किस हीरो को मेरा हमशक्ल बताने वाली हैं.
भाभी जी एक दम से चहक कर बोलीं – ‘हाँ याद आ गया. अपने गोपेश भाई हूबहू कॉमेडियन आगा के बेटे जलाल आगा जैसे लगते हैं.’
पाठक नोट करें. ‘दिल के अरमां, आंसुओं में बह गए’ नग्मा फ़िल्म ‘निक़ाह’ में आने से पहले मेरे दिल से आह की शक्ल में निकला था.
आतिथ्य सत्कार में अल्मोड़ा प्रसिद्द हमारी एक भाभी जी पापड़ पर शायद मुक्का मार कर उसके पचास टुकड़े कर के आधी-आधी चाय की प्यालियों के साथ अतिथियों का सत्कार करती थीं. इतिहास में पहली बार क्रीम बिस्किट को बीच में से चीरकर एक बिस्किट के दो बिस्किट बनाने का हुनर मैंने उन्हीं के यहाँ देखा था. हमारी छोटी बिटिया रागिनी उन दिनों चार साल की रही होगी. कंजूस आंटी के यहाँ बीच में से चीरे हुए क्रीम बिस्किट्स पाकर वह बड़ी प्रसन्न हुई. उसने बिस्किट खाए तो नहीं पर उन में लगी क्रीम चाट-चाट कर बिस्किट्स प्लेट में वापस रख दिए. यह नज़ारा देखकर भाभी जी का दिल बैठा जा रहा था हम लोग रागिनी को इस गुनाहे-अज़ीम के लिए डांट ही रहे थे कि भाभी जी ने आह भरते हुए कहा –
‘भाई साहब जो नुक्सान होना था, वो तो हो ही गया, अब आप लोग कुछ और खाने से पहले रागिनी के झूठे बिस्किट्स खाकर उन्हें ख़त्म कीजिए.’
हमारी एक भाभी जी पूरे अल्मोड़ा में अपनी बेतकल्लुफ़ी के लिए प्रसिद्द थीं. हमारे यहाँ जब कभी आती थीं तो चाय पीते समय मेरी श्रीमती जी से कहती थीं – भाभी जी ये चाय का तक़ल्लुफ़ आपने बेकार किया. आप तो हमको दो-दो चपाती के साथ दाल-सब्ज़ी खिला दीजिए. अब पहाड़ पर इतना चल कर फिर घर लौट कर खाना बनाने की ताक़त किस में बच पाती है?’
सपरिवार चाय, नाश्ते के बाद भोजन कर के जब भाभी जी हमारे घर से निकलतीं तो हम सब से यह वादा लेकर जातीं कि हम अगले रविवार को सपरिवार उनके यहाँ लंच पर पहुंचेंगे.
उन दिनों न तो हमारे यहाँ फोन था और न ही हमारे मित्रगणों के यहाँ. पहले से निश्चित कार्यक्रम के अनुसार ही हम लोग एक दूसरे के यहाँ पहुँच जाते थे. पूर्व-निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार जब हम भाभी जी के यहाँ लंचियाने पहुँचे तो मकान के दरवाज़े एक बड़ा सा ताला हमारा स्वागत कर रहा था. हम भूखे और गुस्से से भरे एक रेस्तरां में पहुंचे. पेट की आग तो शांत हुई पर दिल में जो आग लगी थी वो तो भाभी जी और उन के पतिदेव की मरम्मत कर के ही शांत हो सकती थी. पर इस कहानी का क्लाईमेक्स अभी बाक़ी है. इस दुर्घटना के एक सप्ताह बाद हमको अपराधी दंपत्ति बाज़ार में मिल गया. मेरे तानों और उलाहनों की बरसात शुरू होने से पहले ही भाभी जी ने हमको अपने घर से गायब होने का एक ठोस बहाना दिया. हमको मजबूरन उनको माफ़ करना पड़ा. पर भाभी जी ने हाथ जोड़ कर कहा –
‘आप लोगों ने ज़ुबानी तो हमको माफ़ कर दिया पर दिल से नहीं किया. हम अगले रविवार को खुद माफ़ी मांगने आपके घर आएँगे. और हाँ, भाभी जी, आप चाय-वाय का तक़ल्लुफ़ मत कीजिएगा, सीधे ही सादा सा खाना हमको खिला दीजिएगा.’
अल्मोड़ा में हमारी एक और भाभी जी थीं, स्मार्ट, मॉडर्न और अच्छी खासी स्नॉब. इंग्लिश मीडियम में पढ़ी-लिखी ये भाभी जी हिंदी मीडियम की पढ़ी महिलाओं को काम वाली बाई से ज़्यादा नहीं समझती थीं और आमतौर पर भाभीजियों के बजाय हम भाई साहबों की कंपनी में ही बैठना पसंद करती थीं. इन भाभी जी वाले भाई साहब काफ़ी ठिगने और बेकार से थे. इस दंपत्ति को अपनी रईसी बघारने का बहुत शौक़ था.
हमारे रईस दोस्त अपने बेटे का बर्थ डे बहुत धूम-धाम से मनाते थे एक बार उनके बेटे के जन्मदिन की पार्टी में हम लोग गए. जाड़ों के दिन थे. मैंने अपनी शादी के दिनों वाला सूट निकाला और उसे पहनकर उस पार्टी में पहुंचा. पचास लोगों के बीच भाभी जी ने हमारा स्वागत किया फिर वो मुस्कुराती हुई बोलीं –
‘भाई साहब आप इस सूट में बहुत जंच रहे हैं पर आपको शायद याद न हो, यही सूट आपने हमारे बेटे की पिछली बर्थ डे पार्टी में भी पहना था.’
लोगबाग भाभी जी की बात सुनकर चुप रहे, उनको पता था कि यह दुष्ट जैसवाल कोई न कोई क्रांतिकारी जवाब ज़रूर देगा. मैंने हाथ जोड़कर भाभी जी को एक सवालनुमा जवाब दिया –
‘भाभी जी, सबके सामने और ख़ासकर मेरी श्रीमती जी के सामने आप मुझमें इतनी दिलचस्पी मत लिया करिए. आप को अब तक याद है कि आप के बेटे की बर्थ डे में मैंने पिछले साल क्या पहना था, पर क्या आपको पता है कि आज आप के पतिदेव ने क्या पहना है?’
मेरे इस भोले से सवालनुमा जवाब का घातक परिणाम निकला. स्मार्ट भाभी जी ने अगले साल से अपने बेटे की बर्थ डे पार्टी में हमको बुलाना छोड़ दिया.
अभी तो और भी भाभीजियों के किस्से सुनाने बाक़ी हैं पर आज बस इतना ही.


बुधवार, 3 मई 2017

हीरो

हीरो –
2001 में एक कॉमेडी फ़िल्म आई थी –‘लव के लिए कुछ भी करेगा’. फ़िल्म तो कोई ख़ास नहीं थी पर उसमें अंडर वर्ड दादा असलम भाई का करैक्टर बहुत मज़ेदार था. इस किरदार को जॉनी लीवर ने बहुत खूबसूरती के साथ निभाया था.
असलम भाई को अपने एक्टिंग टैलेंट पर बहुत भरोसा है पर उन्हें कोई फिल्मों में चांस ही नहीं देता. उनको अक्ल का अँधा और गाँठ का पूरा समझने वाले उनकी कमजोरी का फ़ायदा उठाते हैं और उनको जमकर चूना लगाते हैं. उनको हीरो मटीरियल बताते हुए वो उनके दुबई के चश्मे, उनकी चीन की चड्डी और उनकी ईरानी चाय की तारीफ़ में गाना भी गाते हैं – 'असलम भाई, असलम भाई, दुबई का चश्मा, चीन की चड्डी और ईरानी चाय, असलम भाई !’
इस फ़िल्म के रिलीज़ होने से पैतीस साल पहले कुछ ऐसा ही एक हादसा इस खाकसार के साथ भी हुआ था.
हीरो बनने का मुगालता मुझे भी हुआ था पर मुझे खुद को हीरो के रूप में स्थापित करने वाला मटीरियल कुछ और था.
इस हादसे की शुरुआत एक सुखद घटना से हुई थी –
1966 में हाई स्कूल में मेरी फर्स्ट डिवीज़न आई थी और गवर्नमेंट इन्टर कॉलेज, बाराबंकी में मेरी सेकंड पोजीशन भी आई थी. परिवार वालों ने मुझे पुरस्कारों से लाद दिया था. सबसे पहले हमारे बाबा ने 100/- का इनाम दिया और पिताजी को आदेश दिया कि इन पैसों से मुझे घड़ी लाकर दी जाए. पिताजी ने इन 100/- रुपयों में 17 रूपये और मिलाकर एच. एम. टी. बंगलौर से मेरे लिए ‘जनता रिस्टवाच’ मंगवाई थी. स्टेनलेस स्टील की बॉडी वाली क्या खूबसूरत घड़ी थी वो. हमारे श्रीश भाई साहब ने हमको गोल्डन फ्रेम का एक मेड इन चाइना धूप का चश्मा प्रदान किया. पर मेरे लिए सबसे बड़ा इनाम था पिताजी द्वारा प्रदत्त मेड इन इंग्लैंड ‘हरक्युलिस साइकिल.'
आप पूछेंगे – ‘1966 तक तो भारत में पचासों स्वदेशी साइकिल बनने लगी थीं फिर यह विदेशी साइकिल क्यूँ?’
इसका रहस्य भी जान लीजिए. दरअसल ये साइकिल पिताजी ने 1947 में जुडिशियल मजिस्ट्रेट के पद पर नियुक्त होने के तुरंत बाद खरीदी थी. तब भारत में स्वदेशी साइकिल या तो बनती ही नहीं थीं और बनती भी थीं तो बेकार किस्म की.
इस प्रकार रिस्ट वाच, धूप का चश्मा और उन्नीस साल पुरानी इम्पोर्टेड साइकिल पाकर गोपेश मोहन जैसवाल हीरो बन गए. गुलज़ार साहब का लिखा फ़िल्म ‘घर’ का एक गाना है – आजकल पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे’. मुझे शक़ है कि गुलज़ार साहब ने 1966 की मेरी मनोदशा को देखकर ही यह गीत लिखा होगा.
वाह, उन्नीस साल पुरानी भी हो तो क्या, साइकिल पर बैठने वाले के पाँव ज़मीन पर कहाँ पड़ते हैं? पेडल मारो और ज़मीन पर पाँव रक्खे बगैर हीरो की तरह जहाँ चाहो वहां पहुँच जाओ. और ‘पैगाम’ में दिलीप कुमार, ‘पेइंग गेस्ट’ में देवानंद, ‘नज़राना’ में राज कपूर और ‘एक ही रास्ता’ में सुनील दत्त भी तो साइकिल चलाते नज़र आते हैं.
घर से कॉलेज और कॉलेज से घर तो साइकिल से जाया ही जाता था, बाज़ार के चक्कर, ऑफिसर्स क्लब के चक्कर, इजाज़त मिलने पर सिनेमा हॉल के चक्कर, सब साइकिल पर ही लगाए जाते थे. साइकिल युग से पहले मीलों पैदल चलने वाले जैसवाल साहब साइकिल पर सवार होते ही गोलमटोल होने में नए कीर्तिमान स्थापित करने लगे पर उनका साइकिल सवारी का नशा उतरा नहीं.
घड़ी अगर तुम्हारे पास है तो उसे दूसरों को दिखाना तुम्हारा फ़र्ज़ बनता है. मैं उन दिनों हाथ में घड़ी बांधकर जब साइकिल चलाता था तो मेरी कोशिश यह रहती थी कि सबको मेरी घड़ी ज़रूर दिखाई देती रहे. क्लास में भी हर पांच मिनट के बाद घड़ी देखना और उसे अपने साथियों को दिखाना मेरी आदत बन गयी थी.
और धूप का चश्मा ! वाह, क्या चीज़ बनाई है भगवान ने ! फ़िल्म ‘वक़्त’ में राजकुमार गौगल्स में कितना स्मार्ट और हैण्डसम लगा था? और मैं क्या इस रंगीन चश्मे में उस से कम हैण्डसम लगता था? मेरा आइना गवाह था कि मैं भी धूप के चश्मे में हीरो लगता था.
हिंदी साहित्य में मेरी अभिरुचि के कारण हिंदी के हमारे गुरु जी मिश्रा सर मुझे बहुत प्यार करते थे पर हिंदी विषय के ही एक अंग, अनिवार्य संस्कृत से मैं उखड़ा-उखड़ा रहता था. अनिवार्य संस्कृत के पीरियड में गुरूजी से छुपाकर मैं क्लास में धूप का चश्मा लगाकर अपनी घड़ी में टाइम देख रहा था. गुरु जी
‘रूप यौवन संपन्नाः, विशाल कुल संभवः,
विद्या हीना न शोभन्ते, निर्गन्धा किंशुका इव.'
श्लोक पढ़ा रहे थे. ये श्लोक मैंने सुना तो था पर मैं इसका अर्थ नहीं जानता था. गुरु जी ने मुझसे इसका अर्थ पूछा तो मैं अपने गौगल्स उतारकर सिर्फ़ इतना बोल पाया – ‘गुरु जी आप ही इसका अर्थ बता दीजिए.’
गुरु जी ने इस श्लोक का बड़ा क्रांतिकारी अर्थ बताया –
‘कवि कहता है कि गोपेश रूपवान है, युवा है, साइकिल, घड़ी और धूप के चश्मे वाला संपन्न व्यक्ति है, विशाल कुल का है किन्तु हीरो बनने के चक्कर में विद्याहीन होता जा रहा है और पलाश के फूल की भांति गंधहीन हो गया है.’
गुरु जी के साथ पूरा क्लास हंस रहा था और मैं था कि शर्म से लाल होकर धरती फटने और फिर उसमें समा जाने की कामना कर रहा था.
धीरे-धीरे मुझ पर से साइकिल और घड़ी का ख़ुमार उतर गया. दस साल बाद साइकिल की जगह स्कूटर आ गया और घड़ी बेचारी भी बेमानी हो गयी पर धूप का चश्मा मेरे जीवन का अविभाज्य अंग बन गया. पिताजी कहा करते थे कि सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक आउटडोर शूटिंग में हमारे हीरो साहब के चौखटे पर धूप का चश्मा होना ज़रुरी है.
आज भी बिना धूप के चश्मे के मैं दिन में बाहर नहीं निकल सकता. लोगबाग इस गलतफ़हमी में रहते हैं कि मैंने हाल ही में अपनी आँखों का ऑपरेशन कराया है.
मैंने हीरो बनने का सपना छोड़ दिया है मैं कोई असलम भाई हूँ क्या, जो हीरो बनने के ऊटपटांग ख़्वाब देखूं? न मेरे बदन पर चीन की चड्डी है, न मेरे हाथों में ईरानी चाय का प्याला है और मेरा चश्मा भी दुबई का नहीं, बल्कि खालिस हिन्दुस्तानी है.
समझ में नहीं आता कि लोगबाग हमेशा हीरो बनने के सपने ही क्यूँ देखते हैं. भई, गांधीजी से सीखो, देखो, लाठी और लंगोटी में सारा जीवन काट दिया और अगर गाँधी जी तक पहुँचने की तुम्हारी हैसियत नहीं है तो जैसवाल साहब के चरणों में जाकर ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ मन्त्र की दीक्षा लो, तुम्हारा जीवन पवित्र और धन्य हो जाएगा. .