रविवार, 1 दिसंबर 2024

कभी शेर तो कभी भीगी बिल्ली

 

नवम्बर, 1980 में मैंने कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा कांसटीच्युयेंट कॉलेज के इतिहास विभाग में प्रवक्ता के पद पर कार्यभार सम्हाला था. अपने अकडू स्वभाव के कारण मैंने हेड ऑफ़ दि इंस्टीट्यूशन (एचओआई) के घर जा कर उनको सजदा करने की ज़रुरत ही नहीं समझी थी.

कॉलेज ज्वाइन करने के सात दिन बाद ही एचओआई महोदय का चपरासी मेरे पास उनका बुलावा ले कर आ गया.

जब मैं हुज़ूरेवाला के दौलतखाने पर पहुंचा तो वहां वो मेरी तरह के ही चार नव-नियुक्त प्रवक्ताओं के समक्ष आत्मश्लाघा पुराण बांच रहे थे.

मुझे भी आत्मश्लाघा-पुराण बांचने की उस पीड़ा को उन चार निरीह प्राणियों के साथ सहन करना पड़ा.

खैर, पुराण बांचने का कार्यक्रम समाप्त हुआ और उन चारों शिकारों ने हुज़ूरेवाला को फ़र्शी सलाम कर के उन से विदा ली.

अब दरबार में बचा अकेला मैं !

हुज़ूरेवाला ने मुझे घूरते हुए मुझसे पूछा –

 

क्यों जनाब ! आपके पांवों में क्या मेहंदी लगी हुई थी कि आप कहीं आने जाने क़ाबिल नहीं रह गए थे?’

 

मैंने विनयपूर्वक उत्तर दिया –

 

सर, आपने जैसे ही अपना क़ासिद भेजा, मैं दौड़ा-दौड़ा चला आया हूँ. फिर भला मेरे पांवों में मेहंदी कैसे लगी हो सकती थी?’

 

हुज़ूरेवाला ने मेरी यह दलील सुन कर भी मुझे माफ़ नहीं किया.

अगले आधे घंटे तक मुझे समझाया गया कि एचओआई ही हम बेबस

मुदर्रिसों का माई-बाप होता है और अपने वर्तमान को सुरक्षित रखने तथा अपने भविष्य को उज्जवल बनाने के लिए उसकी सेवा-सुश्रूसा-मुसाहिबी करना हमारे जैसों के लिए सांस लेने के जितना ही ज़रूरी होता है.

 

आदरणीय के धमकी भरे इस प्रवचन के बीच ही हमारे कॉलेज की चपरासी यूनियन के अध्यक्ष का आगमन हुआ.  

आदरणीय ने चपरासी-नेता का गर्मजोशी से स्वागत किया, उसे प्यार से सोफ़े पर बिठाया, उसके लिए तुरंत चाय मंगवाई (मुझ बेचारे को उन्होंने पानी तक के लिए नहीं पूछा था) लेकिन उस नेता ने उन्हें निकम्मा, वादा-खिलाफू और कॉलेज-कलंक के तीन ख़िताब एक साथ दे डाले.    

मेरे सामने शेर बन कर गरजने वाले आदरणीय अब उस चपरासी-नेता के सामने भीगी बिल्ली बने म्याऊँ-म्याऊँ करते हुए अपनी सफ़ाई देने की नाकाम कोशिश में लगे हुए थे.

आदरणीय की यह दुर्दशा देख कर उनसे विदा लेते समय मेरा खौफ़-एचओआई पूरी तरह से ख़त्म हो गया था.

मेरे खुराफ़ाती दिमाग ने कबीर के एक दोहे को उलट कर तुरंत एक नया दोहा कहने के लिए मजबूर कर दिया - 

दुर्बल ही को सताइए, बिना सींग की गाय,

अगर प्रबल हो सामने, तुरतहिं सीस नवाय.’     

 

हमारे आदरणीय इन चपरासी नेताओं से दस गुना ज़्यादा खौफ़ छात्र नेताओं से खाते थे.

छात्र नेतागण मंच से चिल्ला-चिल्ला कर उन पर मनगढ़ंत आरोप लगाते समय एक से एक हिंसक अपशब्दों का प्रयोग करते थे.

हमारे आदरणीय छात्रों की गालियां और तोहमतें ऐसा रस ले कर सुनते थे,

जैसे सेंचुरी लगाते हुए सुनील गावस्कर के करिश्माई खेल की कमेंट्री हो रही हो.         

 

हमारी चौथी मुलाक़ात में आदरणीय को पता चला कि मैं उनके अल्मा मैटर लखनऊ विश्वविद्यालय में पांच साल पढ़ा चुका हूँ. इस ख़बर से उनके दिल में मेरी इज्ज़त आने-दो आने बढ़ गयी थी.

लेकिन फिर कमाल हो गया.

हमारी अगली मुलाक़ात में आदरणीय को यह भी पता चला कि मेरे बड़े भाई साहब श्री कमल कान्त जैसवाल आई०ए०एस० में सेलेक्ट होने से पहले दो साल लखनऊ यूनिवर्सिटी के जियोलॉजी डिपार्टमेंट में लेक्चरर रह चुके थे.

अपने छात्र-जीवन में आदरणीय के लखनऊ यूनिवर्सिटी के जियोलॉजी डिपार्टमेंट में कई मित्र थे. हमारे कमल भाई साहब से भी उनकी थोड़ी-बहुत जान-पहचान थी लेकिन भाई साहब के आई०ए०एस० में सेलेक्ट होने के बाद हमारे आदरणीय उन्हें अपना अभिन्न मित्र मानने लगे थे.

मेरे इस नए परिचय के बाद आदरणीय की दृष्टि में मेरा स्टेटस काफ़ी ख़ास हो गया था. उन्होंने मुझ से कहा –

 

तुम अगर हमारे अज़ीज़ दोस्त के० के० जैसवाल के छोटे भाई हो तो आज से हमारे भी छोटे भाई हो.

 

मैंने कहा –

 

मेरा बड़ा भाई बनने से पहले आप यह जान लीजिए कि कमल भाई साहब न तो आपकी तरह मुझे धौंसियाते हैं और न ही वो मुझ पर अपने ओहदे का कोई रौब गांठते हैं.

 

आदरणीय ने ही ही ही करते हुए कहा –

 

अपनी किस्मत में अगर एक गुस्ताख़ छोटा भाई लिखा है तो हमको वो भी कुबूल है.

 

अब इस गुस्ताख़ छोटे भाई ने अपने ऊपर थोपे गए बड़े भाई की भीगी बिल्ली जैसी डरपोक हरक़तों की उनके मुंह पर ही आलोचना कर के और एक से एक भर्त्सनापूर्ण सवाल दाग-दाग कर, उनका जीना हराम कर दिया.

मसलन –

 

1.    उस गुंडे स्टूडेंट लीडर की गालियाँ खा कर भी आपने उसको चाय क्यों पिलाई?

 

2.    एस० पी०, डी० एस० पी० की तो छोड़िए. आप तो सब-इंस्पेक्टर तक को सर कहते हैं. क्या आपका ओहदा हेड कांस्टेबल के बराबर का है?

 

  

3.    नक़ल करते हुए स्टूडेंट्स को देख कर भी आप उन्हें अनदेखा क्यों करते हैं?’

 

4.    रोज़ाना गालियाँ खा-खा कर भी आप एचओआई की पोस्ट से रिज़ाइन करने की क्यों नहीं सोचते?’   

 

आदरणीय के पास मेरे ऐसे सभी सवालों का हमेशा एक ही जवाब होता था –

 

इसको चाणक्य-नीति कहते हैं नादान बालक !

 

कॉलेज में जिस किसी की तोला-माशा-रत्ती भर भी न्यूसेन्स वैल्यू होती थी, उसके सामने नतमस्तक होने में हमारे आदरणीय ज़रा भी तक़ल्लुफ़ नहीं करते थे.  

 

दुर्बल को सताने वाली और प्रबल के सामने दुम हिलाने वाली अपनी चाणक्य-नीति का पालन करते हुए भी आदरणीय मात्र तीन साल में एचओआई के पद से हटा दिए गए और उन से उनका बंगला-ए-ख़ास भी छीन कर उन्हें एक घुचकुल्ली सा फ्लैट उपलब्ध करा दिया गया.

मैंने इसे मुगलिया इतिहास के शहज़ादों की तर्ज़ पर उनका तख़्त से तख्ते तक का सफ़र (तख़्त यानी कि सिंहासन से ले कर फांसी के तख्ते तक का सफ़र) कहा.

आदरणीय के इस डिमोशन के वक़्त उनके हमदर्दों में केवल उनकी श्रीमती जी थीं और पूरे कॉलेज में सिर्फ़ एक मैं था जिनके कि कंधे पर वो बारी-बारी से अपना सर रख कर धाड़ मार-मार कर रो सकते थे.

 

मुझे उम्मीद थी कि अब आदरणीय अपनी कुर्सी छिनने के डर से आज़ाद

होने के बाद निर्भीक शेर बन जाएंगे फिर वो सब दबंगों-हेकड़ीबाज़ों पर दहाड़ेंगे और दुर्बलों के सहायक बन कर उभरेंगे.

लेकिन हुआ इसका उल्टा.

इस डिमोशन के बाद भी हमारे आदरणीय कुलपति की चाकरी करने से और अफ़सरान की खुशामद करने से बाज़ नहीं आए.

वो अब भी किसी लठैत, किसी मुस्टंडे, के सामने भीगी बिल्ली बन जाते थे और किसी बकरी जैसे निरीह प्राणी पर शेर बन कर टूट पड़ते थे.              

 

रविवार, 24 नवंबर 2024

शुभ विवाह में एक नई रस्म

 डॉक्टर श्रीकृष्ण त्यागी का क्लीनिक मेरठ का सबसे मशहूर क्लीनिक माना जाता था.

डॉक्टर त्यागी की योजना थी कि वो अपने क्लीनिक को मल्टी-स्पेशलिटी हॉस्पिटल के रूप में विकसित करें.
डॉक्टर त्यागी अपनी इकलौती संतान, अपनी बिटिया आभा को अपनी तरह से डॉक्टर बना कर उसे अपने भावी मल्टी-स्पेशलिटी हॉस्पिटल का सर्वेसर्वा बनाना चाहते थे लेकिन उसने डॉक्टर वाला सफ़ेद कोट पहनने के बजाय वकील वाला काला कोट पहनने का फ़ैसला कर लिया था.
अपनी बेटी के वक़ील बनने पर निराश डॉक्टर त्यागी ने अब यह तय किया कि वो अपनी बिटिया के लिए एक ऐसा डॉक्टर वर खोजेंगे जो कि उनके क्लीनिक को एक बड़े अस्पताल में तब्दील करवाने में उनका भरपूर साथ दे और आगे चल कर फिर उनका त्तराधिकारी भी बन सके.
बेचारे डॉक्टर त्यागी ने अपनी कन्या के लिए सुयोग्य वर तलाश करने में चार साल लगा दिए पर कभी ख़ुद डॉक्टर साहब को लड़का नहीं जमता था तो कभी आभा को और अगर उन दोनों को लड़का पसंद आ जाता था तो उस लड़के को या तो नकचढ़ी आभा एक आँख नहीं भाती थी या फिर उसका ओवर डोमिनेटिंग बाप बर्दाश्त नहीं हो पाता था.
एक बार दिल्ली में आयोजित एक सेमिनार में डॉक्टर त्यागी की भेंट एक सुदर्शन नवयुवक डॉक्टर मधुकर पांडे से हुई.
डॉक्टर मधुकर पांडे दिल्ली के एम्स में हाल ही में नियुक्त हुआ था.
यह नौजवान कानपुर मेडिकल कॉलेज का टॉपर था और अपनी कम्युनिटी का मोस्ट एलिजिबिल बैचलर डॉक्टर माना जा सकता था.
पहली मुलाक़ात के दो घंटे अंदर ही डॉक्टर त्यागी के पास डॉक्टर मधुकर पांडे की पूरी जन्मकुंडली आ चुकी थी.
तीन दिन की सेमिनार के दौरान स्मार्ट डॉक्टर श्रीकृष्ण त्यागी ने डॉक्टर मधुकर पांडे से आभा की न सिर्फ़ मुलाक़ात करवा दी बल्कि उनका एक एक्सक्लूसिवली प्राइवेट कैंडल लाइट डिनर भी करवा दिया.
मधुकर पांडे इटावा निवासी सुदामा पांडे मास्साब का बेटा था.
पांडे मास्साब के पास मधुकर को डाक्टरी पढ़ाने के लिए पैसा नहीं था.
हमारे गुदड़ी के लाल मधुकर पांडे ने अपने स्कॉलरशिप्स से और ट्यूशन कर-कर के अपनी इस महंगी पढ़ाई का जुगाड़ किया था.
इधर बेचारे पांडे मास्साब को अपनी एकमात्र बेटी की शादी एक इंजिनियर से करने में और अपने समधी जी की डिमांड पूरी करने में न सिर्फ़ अपना सारा प्रोविडेंड फ़ण्ड खर्च करना पड़ा था बल्कि अपना जर्जर पुश्तैनी मकान तक गिरवी रखना पड़ा था.
डॉक्टर त्यागी और डॉक्टर पांडे के प्रथम मिलन के तीन दिन बाद ही डॉक्टर श्रीकृष्ण त्यागी कुल 51 तोहफ़ों के साथ सुदामा पांडे मास्साब के गिरवी पड़े मकान की खंडहरनुमा बैठक में एक डगमगाती पौने चार टांग की कुर्सी पर बहुत संभलकर बैठे हुए थे.
हमने पढ़ा है कि द्वापर युग में गरीब सुदामा पांडे अपनी कुटिया से निकल कर भगवान श्री कृष्ण के यहाँ उनके द्वारिका स्थित महल में पहुंचे थे पर कलयुग की इस स्टोरी में थोड़ा चेंज आ गया था.
इस बार श्री कृष्ण स्वयं सुदामा पांडे की कुटिया में याचक बन कर अपनी बेटी के लिए उन से उनका पुत्र मांगने आए थे.
पांडे मास्साब को मधुकर नाम की लाटरी खुलने की उम्मीद तो थी पर यह नहीं पता था कि यह लाटरी इतनी बम्पर होगी और वो ख़ुद चल कर उनकी कुटिया में आएगी.
पांडे मास्साब ने, उनकी श्रीमती जी ने और मधुकर ने तुरंत डॉक्टर त्यागी का शादी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया.
एडवोकेट आभा त्यागी हमारे डॉक्टर मधुकर की तुलना में कुछ ज़्यादा तंदुरुस्त थी और उस से उम्र में साल-दो साल बड़ी थी तो क्या हुआ?
‘बड़ी बहू, बड़े भाग !’ वाली मिसल क्या बड़े-बूढ़ों ने यूँ ही कही थी?
होने वाले समधियों के बीच लेन-देन की ऊपरी बातें तो मधुकर के और उसकी माँ के, सामने ही हो गईं पर इस मामले में कुछ ज़रूरी अंदरूनी बातें होना अभी बाक़ी थीं.
रिश्ता तय करने के लिए सुदामा पांडे मास्साब के समक्ष डॉक्टर श्री कृष्ण त्यागी ने एकांत में अपनी कुल तीन शर्तें रक्खी थीं –
पहली शर्त यह थी कि मधुकर पांडे को एम्स की अपनी प्रतिष्ठित नौकरी छोड़ कर अपने होने वाले ससुर का क्लीनिक जॉइन करना होगा.
दूसरी शर्त थी कि मधुकर को घर-जमाई बन कर रहना होगा.
पहली शर्त का सौदा पांडे जी के गिरवी रखे मकान को छुड़वाने के ऑफ़र में पट गया और दूसरी शर्त का सौदा पांडे जी के इसी मकान के जीर्णोद्धार, और श्रीमती पांडे के लिए चार-पांच भारी-भारी गहनों के बनवाने में तय हो गया.
लेकिन डॉक्टर त्यागी की तीसरी शर्त बड़ी घातक थी.
तीसरी शर्त थी कि मधुकर पांडे अपनी शादी के बाद न तो अपने दरिद्र-लालची माँ-बाप से या अपनी बहन से कोई सम्बन्ध रक्खेगा और न ही उनकी बिटिया आभा अपने सास-ससुर को या अपनी ननद को कभी अपने घर फटकने देगी.
सुदामा पांडे मास्साब को डॉक्टर त्यागी की यह घोर अपमानजनक तीसरी शर्त क़तई मंज़ूर नहीं थी.
उन्होंने आवाज़ दे कर मधुकर को बैठक में बुला लिया और उसे डॉक्टर त्यागी की नाक़ाबिले-बर्दाश्त शर्त के बारे में बता कर उस से कहा कि वह इस रिश्ते की बात को हमेशा के लिए भूल जाए.
अपनी ज़िंदगी में अपने बाप के सामने कभी भी मुंह न खोलने वाले सपूत ने पहली बार अपना मुंह खोल कर उनसे बा-आवाज़े बुलंद कहा –
‘बाबूजी, यह शर्त पापा (यानी डॉक्टर त्यागी) की नहीं है बल्कि ख़ुद आभा की है और मैं इसे हौज़ ख़ास में साढ़े तीन सौ मीटर के प्लाट की एवज़ में मान भी चुका हूँ.
आपको भी इस शर्त को मानने के लिए जितनी भी मोटी रकम चाहिए वो आप मुंह खोल कर पापा से मांग लीजिए.’
अंत में इस विवाद की एंडिंग हैप्पी ही हुई !
इस तीसरी शर्त को मानने के लिए सुदामा पांडे के नाम फिक्स्ड डिपाज़िट की इतनी बड़ी राशि रख दी गयी कि उसके मासिक ब्याज के सामने पांडे जी की सरकारी पेंशन बौनी नज़र आए.
इस प्रसंग के दो महीने बाद के एक शुभ मुहूर्त में वरमाला और फिर सात फेरों के बाद चिरंजीव डॉक्टर मधुकर पांडे अब सदा-सदा के लिए आयुष्मती आभा त्यागी के हुए.
अंत में कन्यादान की वेला आई.
शुभ विवाह संपन्न कराने वाले पंडित जी को मोटी दक्षिणा प्राप्त करने का आख़िरी मौक़ा मिल रहा था.
पंडित जी ने आवाज़ लगाई –
‘कन्यादान के लिए कन्या के माता-पिता आगे आएं !’
तभी शादी के नेगों में साले-सलहज द्वारा बहुत सस्ते में टरका दिए जाने से ख़फ़ा और बेहद सुलगे हुए मधुकर पांडे के फूफाजी ने पंडित जी को टोकते हुए कहा –
‘पंडित जी, इस विवाह में कन्यादान नहीं होगा.
हमारे समधी साहब और समधी साहिबा ने अपने लिए जमाई और हमारी बहूरानी ने अपने लिए वर खरीदा है फिर काहे को उनसे कन्यादान की रस्म करवाई जाए?
आप तो हमारे साले साहब से और हमारी सल्हज साहिबा से पुत्र-विक्रय की रस्म करवाइए.’
क़ायदे से तो अपनी जग-हंसाई पर और जग-थुकाई पर, सुदामा पांडे मास्साब को चुल्लू भर पानी में डूब कर मर जाना चाहिए था लेकिन तीन लोक का राज मिल जाने की ख़ुशी में, अपनी खींसें निपोरते हुए, वो बेशर्मी से, अपने ऊपर ठहाका लगाने वालों का खुल कर साथ दे रहे थे.

रविवार, 17 नवंबर 2024

मेरे चार अटपटे-चटपटे गुरुजन

 मुदर्रिसी में ख़ुद 36 साल गुज़ारने वाले मुझ नाचीज़ के बारे में मेरे पुराने शागिर्द क्या सोचते हैं और क्या कहते हैं, यह तो मुझे नहीं पता लेकिन अपने छात्र-जीवन में मैं ख़ुद और मेरे तमाम साथी, अपने अटपटे-चटपटे उस्तादों के बारे में एक से एक ऊट-पटांग बातें कहा और सोचा करते थे.

इस संस्मरण में मैं कक्षा चार से ले कर कक्षा आठ तक के अपने चार अटपटे-चटपटे गुरुजन को अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित कर रहा हूँ.
1.
इटावा के पुरबिया टोला में स्थित मॉडल स्कूल में कक्षा चार-कक्षा पांच में पढ़ते समय मुझ शहरी बालक को टाट पर और पटरी पर बैठ कर ठेठ गंवारू माहौल को पूरे दो साल तक बर्दाश्त करना पड़ा था.
हमको गणित पढ़ाने वाले तिवारी मास्साब कक्षा में हमको जोड़-गुणा-भाग पढ़ाते समय बीड़ी का कश लगाने में ज़रा भी तक़ल्लुफ़ नहीं करते थे.
धूम्रपान के महा-विरोधी परिवार के एक जागरूक सदस्य की हैसियत से मैंने तिवारी मास्साब को टोकते हुए एक दिन कह दिया –
‘मास्साब ! आप क्लास में बीड़ी क्यों पीते हैं? मेरे पिताजी कहते हैं कि क्लास में बीड़ी पीने वाले को तो जेल में डाल देना चाहिए.’
तिवारी मास्साब ने आगबबूला हो कर मुझ से पूछा –
‘तू बित्ते भर का छोकरा कक्षा में बीड़ी पीने पर अपने पिताजी से कह कर हमको क्या जेल भिजवाएगा? वैसे तेरे पिताजी करते क्या हैं?’
मैंने रौब के साथ जवाब दिया –
‘मेरे पिताजी जुडिशिअल मजिस्ट्रेट हैं.’
यह सुनते ही तिवारी मास्साब की मानो घिग्घी बंध गयी. उन्होंने मुझे प्यार से पुचकारते हुए कहा –
‘बेटा ! हम तो बीड़ी नंबर 207 पीते हैं. इसको पीने से किसी को कोई हानि नहीं होती है. इसको तो क्लास में पीने पर भी कोई पाबंदी नहीं है.’
मैंने बड़ी मासूमियत से एक सवाल दाग दिया –
‘आपकी ये बात क्या मैं पिताजी को बता दूं?’
मास्साब ने अपनी सुलगी हुई बीड़ी को तुरंत फेंकते हुए ऐलान किया –
‘आज से कक्षा में हम बीड़ी नहीं पियेंगे.’
2.
अपने इटावा-प्रवास के आख़िरी साल मैंने गवर्नमेंट इन्टर कॉलेज के क्लास 6 में प्रवेश लिया था.
हमको साइंस पढ़ाने वाले एस० एन० किदवई मास्साब यानी की ‘स० न० क्यू०’ अपनी उल-जलूल वेशभूषा की वजह से और विद्यार्थियों की बिला वजह पिटाई करने की आदत के कारण छात्रों के बीच में – ‘सनकी मास्साब’ के नाम से मशहूर थे.
वैसे हमारे ‘सनकी मास्साब’ का साइंस पढ़ाने में कोई जवाब नहीं था.
कई बार छोटे-छोटे एपरेटस ला कर वो हमको क्लास में साइंस के दिलचस्प एक्सपेरिमेंट्स कर के दिखाते थे.
प्रसिद्द आविष्कारों के बारे में बारीकी से बताने में और वैज्ञानिकों के जीवन की दिलचस्प कहानियां सुनाने में उनका कोई जवाब नहीं था.
हमारी बदकिस्मती से हमको साइंस पढ़ाने के लिए कोई नए मास्साब आ गए और ‘सनकी मास्साब’ को हमको संस्कृत पढ़ाने की ज़िम्मेदारी दे दी गयी.
‘सनकी मास्साब’ को संस्कृत का – ‘क’, ‘ख’, ‘ग’ भी नहीं आता था. संस्कृत का एक छोटा सा वाक्य पढ़ते वक़्त वो बेचारे औसतन एक दर्जन बार अटकते-भटकते ही नहीं थे बल्कि कठिन शब्दों को तो गटकते भी थे.
अपनी ज़िंदगी में हमने ‘सनकी मास्साब’ के सौजन्य से ही पहली बार कुंजी के दर्शन किए थे.
संस्कृत गद्य को भी गा-गा कर पढ़ने की कला मैंने उन से ही सीखी थी.
संस्कृत में मेरे महा-पैदल होने की बुनियाद ‘सनकी मास्साब’ ने ही डाली थी.
3.
अगर अटपटे गुरुजन के गुस्ताख़ उपनाम रखने के दंड-स्वरुप कारावास का प्रावधान होता तो शायद ही कोई विद्यार्थी खुली हवा में सांस ले पाता.
रायबरेली के गवर्नमेंट इंटर कॉलेज में क्लास 7 में और क्लास 8 में हमको गणित पढ़ाने वाले महा गोलमटोल टी० पी० श्रीवास्तव (त्रिभुवन प्रसाद श्रीवास्तव) मास्साब अपने हाथ में हमेशा एक संटी लिए रहते थे.
नमस्ते न करने पर वो हर बे-ख़बर और हर बे-अदब विद्यार्थी को – ‘बड़े बदतमीज़ हो.’ कह कर एक संटी ज़रूर लगा दिया करते थे.
अपनी जान बचाने के लिए हम बालकगण उन्हें देखते ही – ‘मास्साब नमस्ते’ का नारा बुलंद कर दिया करते थे.
गणित पढ़ते वक़्त हम भोले-भाले और निरीह विद्यार्थियों को अपनी हर एक गलती पर और अपनी हर एक भूल पर, मास्साब से एक-एक ज़ोरदार संटी का प्रसाद मिलना ज़रूरी होता था.
टी० पी० श्रीवास्तव मास्साब की इस दयालुता के कारण हम कृतज्ञ और श्रद्धालु विद्यार्थी पीठ पीछे उन्हें – ‘तोंदू प्रसाद मास्साब’ कह कर बुलाया करते थे.
‘तोंदू प्रसाद मास्साब’ अपनी विशाल तोंद की वजह से ब्लैक बोर्ड पर कुछ लिखते वक़्त उसका सिर्फ़ आधा ऊपरी हिस्सा इस्तेमाल करते थे क्योंकि ज़्यादा झुकने पर उनकी तोंद आड़े आ जाती थी.
दुष्ट लड़के तो यह दावा भी करते थे कि अगर मास्साब ब्लैक बोर्ड के निचले हिस्से में कुछ लिखते थे वो उनकी तोंद की रगड़ खा कर पूरा का पूरा पुंछ जाता था.
‘तोंदू प्रसाद मास्साब’ की सिर्फ़ आधा ब्लैक बोर्ड इस्तेमाल करने की इस मजबूरी देख कर जब हम आदर्श विद्यार्थी ‘ही. ‘ही’, ‘ही’ किया करते थे तो वो हमारी पीठों पर और हमारी तशरीफ़ों पर, कितनी बार अपनी संटी से शाबाशी दिया करते थे, इसकी गणना कर पाना मेरे लिए आज भी मुश्किल है.
4.
रायबरेली में अपने पुस्तक कला के मास्साब छोटे नकवी साहब के बारे में मैं अपनी पुस्तक – ‘मुस्कुराइए ज़रा’ के – ‘पुस्तक-कला की कक्षा’ शीर्षक एक संस्मरण में विस्तार से लिख चुका हूँ लेकिन इस वक़्त उनके बारे में फिर से कुछ लिखने के लोभ से मैं ख़ुद को रोक नहीं पा रहा हूँ.
छोटे नकवी मास्साब ही नहीं बल्कि हम विद्यार्थी भी, पुस्तक कला की कक्षा को अपनी खाला का घर समझते थे.
दिन के आख़िरी पीरियड में होने वाली पुस्तक कला की कक्षा में हम विद्यार्थी या तो कागज़ के हवाई जहाज उड़ाते रहते थे या फिर एक-दूसरे पर (कभी-कभी मास्साब पर भी) चौक का निशाना लगाने की प्रैक्टिस करते रहते थे.
क्लास में हमारे छोटे नकवी मास्साब या तो अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे झपकियाँ लिया करते थे या फिर अपने बारहमासी नजले की वजह से नाक से विचित्र-विचित्र आवाज़ें निकाल-निकाल कर उसे बार-बार साफ़ कर, अपने गले में टंगे अंगौछे से पोंछा करते थे.
मास्साब की नाक के इस अनवरत प्रवाह के कारण हम दुष्ट विद्यार्थी उन्हें प्यार से – ‘नकबही मास्साब’ कहा करते थे.
‘नकबही मास्साब’ की कक्षा में अदल-बदल कर लगभग एक दर्जन विद्यार्थी लघुशंका निवारण के लिए जाते थे जो कि फिर घंटा ख़त्म होने तक बाहर कबड्डी खेलते रहते थे और घंटा बजने पर सिर्फ़ अपना-अपना बस्ता उठाने के लिए क्लास में घुसते थे.
मास्साब की बाज़ार में स्टेशनरी की दुकान थी जहाँ पर कि वो हम विद्यार्थियों द्वारा बनाए गए लिफ़ाफ़े, बुक-कवर्स, फ़ाइल-कवर्स, वगैरा, हमारी इजाज़त लिए बिना, बेच दिया करते थे.
मास्साब की इस चोरी और ऊपर से सीनाज़ोरी पर कई बार पीड़ित छात्रों से उनकी कहा-सुनी हो जाया करती थी.
आज की अपनी धृष्टता को मैं यहीं विराम देता हूँ. वैसे मेरे अटपटे-चटपटे गुरुजन अभी भी बाक़ी हैं लेकिन उनको मैं अपने श्रद्धा-सुमन किसी अन्य दिन अर्पित करूंगा.

रविवार, 10 नवंबर 2024

प्रभुजी, तुम चन्दन, हम पानी

 जहाँ भी तुम क़दम रख दो

वहीं पर राजधानी है
न ही इज्ज़त की है चिंता
न ही आँखों में पानी है
इशारों पर हिलाना दुम
ये पेशा खानदानी है
तुम्हारे फेंके टुकड़ों से
क्षुधा अपनी मिटानी है
चरण-रज नित्य श्रद्धा से
हमें मस्तक लगानी है
कहो दिन को अगर तुम रात
तो लोरी सुनानी है
तुम्हारी धमकियाँ-गाली
हमारी बेद-बानी है
तुम्हारे झापडों की मार भी
लगती सुहानी है
क्यों हम कबिरा सा सच बोलें
मुसीबत क्या बुलानी है
तुम्हारे वास्ते है बेच दी हमने अकल अपनी
तुम्हारे नाम पर ये आत्मा गिरवी रखानी है
मुसाहिब हैं हमारा काम हाँ में हाँ मिलाना है
तुम्हारी हर जहालत पर हमें ताली बजानी है
न ओहदा है न रुतबा है भला इसकी शिक़ायत क्यों
हमें जूती उठाने दीं तुम्हारी मेहरबानी है