गणतंत्र दिवस की झांकी में 
चहुँ ओर प्रगति दिखलाते हैं 
अनपढ़ भूखे बेकारों की 
संख्या पर नहीं बताते हैं 
दिनकर जा पहुंचे स्वर्गलोक
भारत से टूटे नाते हैं 
भारत-संतति की क़िस्मत में
धोखे हैं झूठी बातें हैं
निर्धन पर कर का बोझ बढ़े  
धनिकों के लिए सौगाते हैं 
गणतंत्र दिवस का है उत्सव  
अपनी तो काली रातें हैं
(यह कविता महा-कवि दिनकर की अमर रचना - 'श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बच्चे अकुलाते हैं - - - '' से प्रेरित है) 
