आज के बच्चे 16 एम० एम० के स्क्रीन के बारे में कुछ भी नहीं जानते होंगे लेकिन हमारे छात्र जीवन में इसका महत्व किसी मन्दिर के प्रसाद से या किसी भंडारे में खाए गए भोज से कम नहीं हुआ करता था.
हम बच्चों के फ़िल्म देखने के महा-विरोधी हमारे पिताजी हमारी सैकड़ों खुशामदों और माँ की अनगिनत सिफ़ारिशों के बावजूद हमको साल में दो-तीन से ज़्यादा फ़िल्में दिखाने को कभी राज़ी नहीं होते थे.
‘चलती का नाम गाड़ी’फ़िल्म का तो नाम सुन कर ही पिताजी का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया था.
इस फ़िल्म को बच्चों को दिखाए जाने से साफ़ इंकार करते हुए हमारे न्यायाधीश पिताजी ने माँ से कहा था –
‘बच्चों को चालू-बदमाश बनाने के लिए ये फ़िल्म दिखाने की क्या ज़रुरत है?
मैं उनको सीधे-सीधे पॉकेटमारी की ट्रेनिंग दिलवा देता हूँ. आए दिन मेरे कोर्ट में पॉकेटमार तो पकड़ कर लाए ही जाते हैं.’
भला हो 16 एम० एम० स्क्रीन पर मुफ़्त दिखाई जाने वाली सरकारी प्रचार वाली फ़िल्मों का जिनके विषय में पिताजी की राय इतनी ख़तरनाक नहीं होती थी.
सन साठ-सत्तर के दशकों में मद्य-निषेध, परिवार नियोजन, सांप्रदायिक एकता और देशभक्ति का सन्देश देने वाली फ़िल्में सरकार की तरफ़ से 16 एम० एम० के स्क्रीन पर मुफ़्त दिखाई जाती थीं.
ऐसे फ़िल्म शोज़ में हर दो रील के बाद एक छोटा सा ब्रेक हुआ करता था.
हिलती हुई और धुंधली तस्वीर की या फिर डांवाडोल साउंड की कोई शिकायत नहीं कर सकता था.
कभी-कभी फ़िल्म का अंत देखे बिना ही हमको – ‘लौट के बुद्धू घर को आए’वाली कहावत को चरितार्थ करना पड़ता था.
राष्ट्रीय एकता का सन्देश देने वाली ख्वाजा अहमद अब्बास की फ़िल्म – ‘चार दिल चार राहें’और व्ही शांताराम की फ़िल्म – ‘तीन बत्ती चार रास्ता’ हमको कोई ख़ास पसंद नहीं आई थीं लेकिन – ‘मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है’ के उसूल पर अमल करते हुए हमने इन दोनों फ़िल्मों को आदि से अंत तक श्रद्धापूर्वक देखा था.
व्ही शांताराम की फ़िल्मों को 16 एम० एम० के पर्दे पर दिखाने मुफ़्त में दिखाने का सरकारी चलन हमको बहुत पसंद था.
सांप्रदायिक सौहार्द्र का सन्देश देने वाली उनकी फ़िल्म – ‘पड़ौसी’, बेमेल विवाह की त्रासदी पर बनी उनकी फ़िल्म – ‘दुनिया न माने’और क़ैदियों के पुनर्वास पर बनाई गयी उनकी अमर फ़िल्म – ‘दो आँखें बारह हाथ’, ये सब हमने गवर्नमेंट इंटर कॉलेज बाराबंकी के हॉल में देखी थीं.
परिवार नियोजन पर देवानंद की फ़िल्म – ‘एक के बाद एक’और जीतेंद्र की फ़िल्म – ‘परिवार’, ये दोनों फ़िल्में अच्छी खासी बोरिंग थीं लेकिन इन दोनों फ़िल्मों को 16 एम० एम० के रुपहले पर्दे पर हमने दो-दो बार देखा था.
मुफ़्त में दिखाई जाने वाली देशभक्तिपूर्ण फ़िल्मों को देखने के लिए हमने गांधीजी की डांडी-मार्च की पद-यात्रा के रिकॉर्ड को बार-बार तोड़ा था क्योंकि हाई स्कूल तक हमको साइकिल चलाना नहीं आता था.
दिलीपकुमार-कामिनी कौशल की फ़िल्म – ‘शहीद’, अशोक कुमार- नलिनी जयवंत की फ़िल्म – ‘समाधि’और मनोज कुमार की फ़िल्में ‘शहीद’,तथा ‘उपकार’ देख कर हमारे खून में देशभक्ति की भावना का संचार होने लगा था.
1970 के दशक में 16 एम० एम० के पर्दे पर हमको मुफ़्त में शानदार फ़िल्में दिखाने का सबसे बड़ा काम मद्य-निषेध विभाग ने किया था.
दिलीपकुमार की दो फ़िल्में – ‘दाग’और ‘देवदास’हमने मद्य-निषेध विभाग के सौजन्य से ही देखी थीं.
हमको मालूम है कि शायरे-आज़म मिर्ज़ा ग़ालिब बड़े पियक्कड़ थे लेकिन हमारे यह समझ में नहीं आया कि शराबनोशी के खिलाफ़ एक भी बात न कहने वाली फ़िल्म – ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’मद्य-निषेध विभाग द्वारा जगह-जगह पर क्यों दिखाई गयी.
मद्य-निषेध विभाग की कृपा से ही हमने फ़िल्म – ‘साहिब बीबी और गुलाम’ देखी थी जिसके लिए हम आज भी उसके कृतज्ञ हैं.
लखनऊ महोत्सव में हमने सत्यजित रे की दो फ़िल्में – ‘पाथेर पांचाली’और – ‘चारुलता’ 16 एम० एम० के पर्दे पर देखी थीं.
बिना हिंदी या इंग्लिश सब-टाइटल्स वाली इन बांग्ला फ़िल्मों के संवाद तो हमारी समझ में नहीं आए लेकिन इन दोनों फ़िल्मों को देख कर हमको आनंद बहुत आया.
16 एम० एम० स्क्रीन पर हमने दर्जनों डाक्यूमेंट्री भी देखीं थीं और नील आर्मस्ट्रांग की चन्द्रमा पर पहली पद-यात्रा भी देखी थी.
जिस ज़माने में हमको स्टूडेंट क्लास में फ़िल्म देखने के लिए पूरे 1.75 (अगर आइडेंटिटी कार्ड दिखा दो तो सिर्फ़ 1.50) खर्च करने पड़ते थे और जब लखनऊ में टेलीविज़न एक सपना हुआ करता था तब ये मुफ़्त में दिखाई जाने वाली फ़िल्में हमारे लिए किसी बम्पर लाटरी से कम नहीं हुआ करती थीं.
इमानदारी से कहा जाए तो हम में देशभक्ति की और सांप्रदायिक सौहार्द्र की भावना का विकास मुफ़्त में देखी हुई फ़िल्मों के सौजन्य से ही हुआ है.
बुढ़ापे तक मदिरा को कभी हाथ तक न लगाने की हमारी अटूट क़सम का पूरा श्रेय मद्य-निषेध विभाग द्वारा दिखाई गयी फ़िल्मों को जाता है.
हमारी दो ही संतान हैं.
हमको यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि अपने परिवार को सीमित रखने की प्रेरणा हमको फ़िल्म – ‘एक के बाद एक’ और फ़िल्म – ‘परिवार’को देख कर ही मिली थी.
इस कथा का सार यह है कि हम में जितने भी अच्छे गुणों-विचारों का विकास हुआ है, उन में अधिकाँश 16 एम० एम० के पर्दे पर दिखाई गयी फ़िल्मों को देखने के कारण ही हो सका है और वर्त्तमान में हमारी अपेक्षाकृत ठीक-ठाक आर्थिक स्थिति के पीछे भी 16 एम० एम० स्क्रीन पर मुफ़्त में दिखाई गयी, हमारी जेब से हमारे 1.75 या 1.50 बचाती हुई, इन फ़िल्मों का बहुत बड़ा योगदान है.