गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

अकबर इलाहाबादी

अकबर इलाहाबादी –
अकबर इलाहाबादी मेरे सबसे प्रिय शायर हैं. अपनी व्यंग्य रचनाओं की प्रेरणा मुझे उनसे ही मिलती है. ये बात और है कि उनकी शायरी के सामने मेरी रचनाएँ किसी दुध-मुहें बच्चे की तोतली कोशिशें लगती हैं. अकबर इलाहाबादी के अशआर ऐसे होते थे कि जिस शख्स को लेकर वो तंज़ (व्यंग्य) कसते थे वो भी उन्हें पढ़कर या सुनकर वाह-वाह कर उठता था और उनका मुरीद बन जाता था.
मेट्रिक पास, अट्ठारह साल का नौजवान अकबर हुसेन रिज़वी (बाद में अकबर इलाहाबादी) अर्ज़ी-नवीस की नौकरी की तलाश में अपनी अर्ज़ी लेकर कलक्टर साहब के पास उनके किसी दोस्त का सिफ़ारिशी ख़त लेकर गया. कलक्टर साहब ने उसकी अर्ज़ी और अपने दोस्त का ख़त लेकर अपने कोट की जेब में रखकर उसे एक हफ़्ते बाद मिलने के लिए कहा. एक हफ़्ते बाद जब अकबर हुसेन ने पहुंचकर कलक्टर साहब को सलाम किया तो वो उसे देखकर बोले –
‘तुम्हारी अर्ज़ी मैंने कोट की जेब में तो रक्खी थी पर वो कहीं गुम हो गयी. ऐसा करो, तुम मुझे दूसरी अर्ज़ी लिखकर दे दो.’
अगले दिन अकबर हुसेन अख़बार के पन्ने की साइज़ की अर्ज़ी लिखकर कलक्टर साहब के पास पहुंचा. कलक्टर साहब ने हैरानी और नाराज़ी के स्वर में पूछा – ‘ये क्या है?’
अकबर हुसेन ने बड़े अदब से जवाब दिया – ‘हुज़ूर, ये अर्ज़ी-नवीस की नौकरी के लिए मेरी अर्ज़ी है. आपकी जेब में यह गुम न हो जाय इसलिए इसको इतने बड़े कागज़ पर लिखकर लाया हूँ.’
कलक्टर साहब अकबर हुसेन के जवाब से इतने खुश हुए कि उन्होंने उसे फ़ौरन अर्ज़ी-नवीस की नौकरी दे दी. बाद में इस नौजवान ने नौकरी करते हुए अपनी तालीम  जारी रक्खी और तरक्की के बाद तरक्की करते हुए वह सेशन जज के ओहदे तक पहुंचा.
इस बार मैं अकबर इलाहाबादी के राजनीतिक व्यंग्य से सम्बंधित अशआर का उल्लेख करूँगा साथ में उनकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी दूंगा.
1882 में लार्ड रिपन के शासन काल में पहली बार जनता द्वारा चुने हुए भारतीय सदस्यों को नगर-पालिकाओं और जिला-परिषदों के स्तर पर शासन सँभालने की ज़िम्मेदारी दी गयी लेकिन उनके ज़िम्मे में मुख्य काम यही था कि वो सड़कों, गलियों और नालियों की सफ़ाई की देखरेख करें. अकबर इलाहाबादी ने नगर-पालिकाओं और जिला-परिषदों के इन निर्वाचित सदस्यों के विषय में कहा –

‘मेम्बर अली मुराद हैं, या सुख निधान हैं,
लेकिन मुआयने को, यही नाबदान (नाली के ढक्कन) हैं.’
1885 में बड़ी धूम-धाम से इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना हुई. समाज के प्रतिष्ठित बैरिस्टर, वकील, शिक्षक, उद्योगपति, जागीरदार, ज़मींदार, पत्रकार आदि इसमें देशभक्ति और त्याग के नाम पर शामिल हुए पर उनका मुख्य उद्देश्य था कि वो आला अफसरों की निगाह में आ जायं और समाज में उनका रुतबा बढ़ जाय –
‘कौम के गम में डिनर खाते हैं, हुक्काम के साथ,
रंज लीडर को बहुत हैं, मगर, आराम के साथ.’
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अवधारणा का विकास पश्चिम में ही हुआ था लेकिन अंग्रेजों ने भारत में सरकार की किसी भी नीति की आलोचना करने पर कठोर प्रतिबन्ध लगा रक्खा था. अकबर इलाहाबादी ने ब्रिटिश शासन में भारतीयों को मिली हुई आज़ादी के विषय में कहा है –
‘क्या गनीमत नहीं, ये आज़ादी,
सांस लेते हैं, बात करते हैं.’     
1919 में हुए जलियांवाला बाग़ हत्याकांड का समाचार छापना, उसके विरोध में भाषण देना या जन-सभा का आयोजन करना पूरी तरह निषिद्ध कर दिया गया. अकबर इलाहाबादी का इस सन्दर्भ में प्रसिद्द शेर है-
‘हम आह भी भरते हैं, तो हो जाते हैं बदनाम,
वो क़त्ल भी करते हैं तो, चर्चा नहीं होता.’ 

अकबर इलाहाबादी के व्यंग्यपूर्ण अशआर पर आगे और भी लिखा जायगा. फिलहाल इतना ही.         

रविवार, 13 दिसंबर 2015

उपवास

उपवास –
मेरे परम मित्र, मेरे हॉस्टल के साथी, अविनाश माथुर इतने शर्मीले थे कि अगर वो लड़की होते तो यक़ीनन उनका नाम शर्मिला माथुर होता. हमारे मित्र संकोची तो इतने थे कि बैडमिंटन खेलते समय शटलकॉक को रैकेट से मारने तक में संकोच करते थे. लखनऊ में पढ़ते हुए उनकी पर्सनैलिटी में लखनवी तकल्लुफ थोक के भाव और जुड़ गया था. घर वालों को और ख़ास दोस्तों को छोड़कर वो कभी भी किसी से ‘एक्सक्यूज़ मी’ कहे बगैर अपनी बात तक शुरू नहीं करते थे. उनकी ‘पहले आप’ वाली लखनवी अदा उन्हें हर पार्टी में फिसड्डी बनाकर उन्हें सिर्फ सलाद और पापड़ खाकर पेट भरने का नाटक करने के लिए मजबूर कर देती थी. अगर वो और मैं एक साथ किसी पार्टी में जाते थे तो अपनी प्लेट की ही तरह उनकी प्लेट भी पकवानों से सजा कर लाना मेरी ज़िम्मेदारी होती थी.
वैसे अविनाश और मैं चैंपियन चटोरे थे. छात्र जीवन में लखनऊ का कोई भी मशहूर चाट का ठेला हमने  छोड़ा नहीं था. फिल्म देखने के बाद चाट खाना और मेस के भोजन का त्याग हमारा साप्ताहिक कार्यक्रम था. हमारा फेवरिट, लालबाग का शर्मा चाट हाउस वाला तो हमें देखते ही हमारे लिए आलू की टिक्कियाँ और गोलगप्पों की प्लेटें तैयार करवाने लगता था. खैर, फिर हम बड़े हो गए, अपने पैरों पर खड़े हो गए, लेकिन अविनाश का शर्मीलापन, हमारा पेटूपना और हमारा याराना पहले की ही तरह बरकरार रहा.
अविनाश के पापा सिविल सर्जन के पद से रिटायर होने के बाद कुछ वर्षों तक लखनऊ में ही रहे थे. माथुर अंकल, आंटी से मेरी गहरी दोस्ती हो गयी थी. आये-दिन कभी मैं उनके यहाँ कोई स्पेशल पकवान लेकर पहुँच जाता था तो कभी उनके बनाये स्वादिष्ट व्यंजनों का आनंद लेता था. अविनाश की छोटी बहन दीपा जो कि लखनऊ विश्विद्यालय में मेरी छात्रा रही थी, वो भी मुझे भांति-भांति के पकवान खिलाकर अपनी गुरु-दाक्षिणा की किश्तें चुकाया करती थी.
कुछ ही समय पहले दीपा की शादी कानपुर के एक प्रतिष्ठित परिवार में हो गयी. दीपा के पति मुकेश से तो दो-तीन मुलाकातों में ही मेरी दोस्ती भी हो गयी थी. एक बार मुझे और अविनाश को अलग-अलग कामों से एक साथ दिल्ली जाना था. माथुर आंटी ने हमको दीपा के लिए कुछ उपहार दिए जो कि हमको दिल्ली से लौटते हुए उसके पास कानपुर पहुँचाने थे. हम दोनों शाम को दिल्ली से कानपुर पहुंचकर सीधे दीपा की ससुराल चले गए. दीपा और उसकी ससुराल वालों ने हमारी खातिर का भव्य प्रबंध किया था. सुबह से हम लोगों ने कुछ खास खाया भी नहीं था, ऊपर से दीपा और उसकी सासू माँ का आग्रह करके खिलाने का प्यार भरा अंदाज़. मैं तो निसंकोच पकवानों पर टूट पड़ा पर तकल्लुफ़ के बेताज बादशाह जनाब अविनाश माथुर ने मीठे और चटपटे पकवानों से सजी एक दर्जन प्लेटों में से किसी को हाथ भी नहीं लगाया. दीपा की सासू माँ ने इसका कारण पूछा तो हमारे मित्र ने उन्हें बताया कि उनका हर सोमवार शिवजी का उपवास रहता है. यह समाचार दीपा के लिए और मेरे लिए भी एकदम नया था लेकिन अब और क्या किया जा सकता था? शिव-भक्त अविनाशजी की भक्ति के सामने हम सब नत-मस्तक हो गए पर मेरे समझ में यह नहीं आ रहा था कि सुबह 9 बजे ब्रेड पकोड़ा खाने के बाद हमारे मित्र दिन में कौन सा उपवास कर रहे थे.
दीपा ने अपने भैया के हिस्से के पकवान भी मुझे ही खिलाने का निश्चय कर लिया और मैंने अपने दोस्त की भी ज़िम्मेदारी ओढ़कर पकवानों की प्लेटों के साथ पूरा-पूरा इंसाफ़ किया. मुकेश कहीं बाहर गए थे, उनसे बिना मिले ही हम रिक्शा करके लखनऊ की ट्रेन पकड़ने के लिए चल दिए.
रास्ते में मैंने अविनाश से कहा – ‘क्या यार, तुझे आज ही उपवास रखना था. क्या-क्या मिठाइयाँ थीं, चाट तो बस कमाल की थी और फिर खिलाया भी तो कितने प्यार और इसरार से. रसखान ने अगर आज ये पकवान खाए होते तो वो कहते –
‘आठहु सिद्धि, नवौ निधि के सुख, इन पकवान के ऊपर वारों.’
इस पर अविनाश बाबू ने दाद देते हुए कहा – ‘शटअप.’
मैंने हैरान होकर पूछा – ‘दाद देने का ये क्या तरीका हुआ बन्धु?’
बन्धु ने अपना पेट पकड़ कर और अपने दांत पीसते हुए कहा – ‘यहाँ भूख के मारे आंते कुलबुला रही हैं और तू पकवानों की बात करके मुझे जला रहा है?’
मैंने कहा – ‘अब उपवास रक्खा है तो सब्र भी कर बेटा, वरना पाप लगेगा’
मित्र ने अपना सर धुनते हुए आर्तनाद किया – ‘किस गधे ने उपवास रक्खा है?’
मैंने पूछा – ‘अगर इस गधे ने उपवास नहीं रक्खा है तो फिर इसने वहां कुछ खाया क्यूँ नहीं?’
दुखियारे मित्र ने एक आह भरकर मुझ पर ताना मारा – ‘तो क्या छोटी बहन की ससुराल में तेरी तरह बेतकुल्लिफ़ी से पकवानों पर टूट पड़ता?’
मैंने उत्तर दिया – ‘सयानों ने कहा है – जिसने की शरम, उसके फूटे करम.’
मित्र ने व्याकुल होकर मेरा हाथ पकड़ कर कहा – ‘यार कुछ खिलवा दे नहीं तो लखनऊ पहुँचने तक तो मैं भूखा मर जाऊंगा.’
मैंने उन्हें दिलासा देते हुए कहा – ‘कानपुर रेलवे स्टेशन के भोजनालय में तुम्हारे इंजिन में ईधन डलवा देते हैं.’
रेलवे स्टेशन पर भोजनालय में लम्बी कतार लगी हुई थी. निराश होकर हम प्लेटफार्म पर खड़े एक पूड़ी-सब्ज़ी के ठेले पर पहुंचे. महा भूखे भाई अविनाश बाबू ने दनादन पूड़ी-सब्ज़ी पर हाथ मारना शुरू ही किया था कि पीछे से एक मीठी सी आवाज़ आयी – ‘भैया !’
हमने पीछे मुड़कर देखा तो दीपा और मुकेश खड़े थे. मुकेश हमारे जाने के कुछ समय बाद ही अपने घर पहुँच गए थे और हम दोनों से भेंट करने के लिए दीपा को अपने साथ लेकर स्टेशन के लिए चल पड़े थे. दीपा के चेहरे पर हैरानी थी और अपने भैया की हरक़त को देख कर शर्मिंदगी भी, पर ये दिलचस्प  नज़ारा देखकर मुकेश शरारत भरी मुस्कान बिखेर रहे थे. अपने साले साहब के मुंह में पूड़ी और हाथ में सब्ज़ी-पूड़ी का दौना देखकर उन्होंने कहा –
‘भाई साहब, दीपा बता रही थी कि आज आपका उपवास था. आपको अगर तेल की पूड़ियों से ही अपना उपवास तोड़ना था तो हम उन्हें घर पर ही बनवा देते.’
बेचारे भाई साहब मन ही मन धरती फटने और उसमें समाने की प्रार्थना कर रहे थे पर प्रकटतः उन्होंने कहा –
‘ये गोपेश मुझे ज़बरदस्ती खिलाने ले आया है. कह रहा है कि सफ़र के दौरान उपवास न करने की छूट होती है.’
मैंने अपने शिव-भक्त मित्र का उपवास तुड़वाने का पाप तुरंत स्वीकार भी कर लिया पर तब तक रायता फैल चुका था. मुकेश थे कि बस, पेट पकड़ कर हँसे ही चले जा रहे थे और दीपा बेचारी थी कि बस, शर्म से ज़मीन में गड़ी ही चली जा रही थी. खैर, इस दुखद अध्याय का सुखद अंत हुआ. हमको ट्रेन में रवाना करते हुए मुकेश ने अपनी कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए एक बड़ा सा पैकेट अविनाश के हाथ में देते हुए कहा –

‘भाई साहब, ट्रेन में पूड़ी-सब्ज़ी वाले का ठेला नहीं मिलेगा. इस पैकेट में थोड़ी कचौड़ियाँ और लड्डू हैं, अगर उपवास तोड़ने की आपको फिर ज़रुरत पड़े तो इन्हीं से तोड़ियेगा.’   

गुरुवार, 10 दिसंबर 2015

प्यारी छोटी बहना

प्यारी छोटी बहना -   
हमारे अल्मोड़ा परिसर रूपी रंगमंच पर एक बहुमुखी प्रतिभा की धनी कलाकार का पदार्पण हुआ. बुद्धिमत्ता, प्रत्युत्तपन्नमति और वाक्पटुता में उनका कोई सानी नहीं था. उनकी जिह्वा में एक ऐसी आटोमेटिक मशीन फ़िट थी जो पलक झपकते ही ‘श’ को ‘स’ और ‘स’ को ‘श’ में परिवर्तित कर देती थी. मसलन मैं ‘जैसवाल सर’ के स्थान पर ‘जैशवाल शर’ हो जाता था और ‘किशमिश’ हो जाती थी ‘किसमिस’.
उनके विद्यार्थी उनसे पढ़ते हुए हमेशा त्राहि-त्राहि ही करते रहते थे और जब भी उनका क्लास ख़त्म होता था तो तालियाँ बजाकर अपने हर्षोल्लास का प्रदर्शन करते थे. हमारी मोहतरमा फिर - ‘हाथ-पैर तुड़वा दूँगी’, ‘गोली से उड़ा दूँगी’ आदि आशीर्वचनों से उन्हें कृतार्थ करती थीं.  
परीक्षा के दौरान उनके अनुरोध पर अक्सर मेरी इनविजिलेशन ड्यूटी उनके साथ लग जाया करती थी. परीक्षा प्रारम्भ होने के पंद्रह-बीस मिनट बाद, कॉपी, पेपर्स वितरित होने तथा कापियों पर हस्ताक्षर हो जाने के बाद उनका परीक्षा-भवन में ‘शौरी शर, शौरी शर’ कहते हुए आगमन होता था फिर 5 मिनट तक सुस्ताने के बाद वो बड़े प्यार से चाय की फरमाइश कर देती थीं. मेरा मूड अगर अच्छा हुआ तो वो चाय के साथ बिस्किट्स मंगवाने का भी अनुरोध कर डालती थीं पर मैं सैद्धांतिक रूप से उन्हें कोरी चाय पिलाने में ही विश्वास करता था. इनविजिलेशन ड्यूटी के दौरान मैं ज्यादा वाद-संवाद को अप्रूव नहीं करता था पर अपनी सहयोगी को अपने खानदान के किस्से सुनाने से रोक भी नहीं पाता था.
एक प्रतिष्ठित (उनके शब्दों में धाकड़) एवं विशाल संयुक्त परिवार की इस लाड़ो को अपने 18 सगे और चचेरे भाइयों का बेपनाह प्यार मिलता था. मेरे लाख रोकने-टोकने के बावजूद अपने भाइयों के दिलेरी और बहादुरी के किस्से सुना-सुना कर वो परीक्षार्थियों का अक्सर ध्यान बटा देती थीं. एक बार भाई-गाथा के दौरान उन्होंने मुझे बताया कि उनके सभी 18 भाइयों पर दफ़ा 307 या दफ़ा 302 के मुकद्दमे चल रहे लगी हैं और वो गाहे-बगाहे सरकारी हवेली की शोभा भी बढ़ाते रहते हैं. मैंने उनसे पूछा –
‘माते ! ये दफ़ा 307 और 302 का किस्सा तू मुझे डराकर चाय के साथ बिस्किट्स भी मंगवाने के लिए सुना रही है या वाक़ई तेरे भाई इतने खतरनाक हैं?’
माते ने मुझे आश्वस्त करते हुए कहा – ‘नहीं शर, मैं आपको डराऊँगी क्यों? मैं तो आपकी बहुत इज्जत करती हूँ, आपको अपना बड़ा भाई मानती हूँ.’
मैंने हाथ जोड़कर उनसे पूछा – ‘कौन सा वाला भाई? दफ़ा 307 वाला या दफ़ा 302 वाला?’
बात तो आयी-गयी हो गयी पर अपनी इस गले पड़ी छोटी बहना की किसी फरमाइश को ठुकराने की मेरी फिर कभी हिम्मत नहीं हुई.
हमारी प्यारी बहना अक्सर बिना बुलाये हमारे विभाग में टी-ब्रेक पर पहुंचकर हमारी मेहमान बन जाती थीं. चाय की चुस्कियों के साथ किस्से-कहानियों का दौर भी चलता रहता था, जिसमें अक्सर मेरा ही टेप ऑन रहा करता था. मेरा सौभाग्य था कि हमारी ज़बरदस्ती की मेहमान, हमारी बहना, मेरी किस्सागोई की बड़ी भारी प्रशंसक थीं. कभी अशोक का, तो कभी अकबर का किस्सा, तो कभी गांधीजी का, अक्सर उनकी फरमाइश पर मेरा किस्सागोई कार्यक्रम प्रारम्भ हो जाता था.
एक बार गांधीजी की डांडी-यात्रा, उस पर गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर के गीत ‘तोमि एकला चलो रे’ का विस्तृत ज़िक्र हुआ. भाव-विभोर होकर बहना ने मुझसे पूछा –
‘शर, आप तो तब बहुत छोटे होंगे. फिर भी आपको शब याद है?’
2005 में, यानी तब से 75 साल पहले डांडी-यात्रा के समय मैं बहुत छोटा था, यह सुनकर मेरे आग लग गयी. मैंने आग उगलते हुए कहा –
‘मूर्ख ! क्यों तू हमेशा अक्ल के पीछे लट्ठ लेकर पड़ी रहती है? 75 साल पहले मैं अगर बच्चा था तो अब क़रीब 80 साल का तो हो ही गया. कुमाऊँ यूनिवर्सिटी क्या मुझे तेरे दफ़ा 307 और दफ़ा 302 वाले भाइयों के डर से अभी तक नौकरी पर रक्खे है?’
बहना ने हाथ जोड़कर ‘शौरी शर, शौरी शर’ कहा फिर मेरी किस्सागोई की तारीफ़ करते हुए बोलीं –
‘आप जैशे किश्शा शुना रहे थे वैसा तो कोई तभी शुना शकता है जब कि वो वहां खुद मौजूद हो.’
मैंने अपना गुस्सा दबाते हुए उनसे सवाल किया –
पिछले हफ़्ते मैंने अकबर का किस्सा सुनाया था, तो क्या मैं अकबर के ज़माने का हो गया?’
बहना ने तुरंत जवाब दिया – ‘शर, मैं इतनी बेवकूफ थोड़ी हूँ. अकबर तो बहुत पहले हुआ था. चलिए गुश्शा थूकिये और चाय पिलाकर मुझे माफ़ कर दीजिये.’
मैंने बहना की गुस्ताखी माफ़ कर दी पर इसके बदले में पहली बार उन्हें सभा में मौजूद सभी लोगों को अपनी जेब से उम्दा किस्म का जलपान कराना पड़ा.

इसके बाद बहना का हमारे विभाग में टी-ब्रेक के दौरान आना काफ़ी कम हो गया और फिर मेरे किस्से के बाद मुझसे कोई सवाल पूछने या उस पर अपनी कोई टिप्पणी देने से पहले वो काल, स्थान, सन्दर्भ आदि का पूरा-पूरा ध्यान रखने लगी थीं.       

शनिवार, 5 दिसंबर 2015

शाश्वत प्रश्न

कल मेरी छोटी बेटी रागिनी का जन्मदिन था. रागिनी बहुत खुश है, सफल है और खुशहाल है. मेरी कामना है कि वह यूँ ही सदा खुश रहे. बहुत दिन पहले मैं, उसके साथ, जून की तपती दोपहर में, दिल्ली की एक व्यस्त सड़क पर, अपने गंतव्य स्थान तक जाने के लिए किसी सिटी बस की तलाश में था. इसी बस खोजी अभियान के दौरान उसने मुझसे जो प्रश्न पूछा था, उसका जवाब तो मैं उसे ठीक तरह से नहीं दे पाया पर उसका सवाल मैंने ऊपर वाले परम पिता को पास-ऑन कर दिया था. मेरे उस सवाल का जवाब मुझे आज तक नहीं मिला है -       
शाश्वत प्रश्न
पिघले कोलतार की चिपचिप से उकताई,
गर्म हवा के क्रूर थपेड़ों से मुरझाई,
मृग तृष्णा सी लुप्त सिटी बस की तलाश में,
राजमार्ग पर चलते-चलते।
मेरी नन्ही सी, अबोध, चंचल बाला ने,
धूल उड़ाती, धुआं उगलती,
कारों के शाही गद्दों पर,
पसरे कुछ बच्चों को देखा ।
बिना सींग के, बिना परों के,
बच्चे उसके ही जैसे थे ।
स्थिति का यह अंतर उसके समझ न आया ,
कुछ पल थम कर, सांसे भर कर,
उसने अपना प्रश्न उठाया-
पैदल चलने वाले हम सब,
पापा ! क्या पापी होते हैं ?
कुछ पल उत्तर सूझ न पाया,
पर विवेक ने मार्ग दिखाया ।
उठा लिया उसको गोदी में,
हंसते-हंसते उससे बोला -
होते होंगें,पर तू क्यों चिंता करती है ?
मेरी गुडि़या रानी तू तो,
शिक्षित घोड़े पर सवार है ।
यूँ बहलाने से लगता था मान गई वह,
पापा कितने पानी में हैं, जान गई वह । 
काँधे से लगते ही मेरे,
बिटिया को तो नींद आ गई,
किंतु पसीने से लथपथ मैं,
राजमार्ग पर चलते-चलते।
अपने अंतर्मन में पसरे,
परमपिता से पूछ रहा था-
पैदल चलने वाले हम सब,

पापा ! क्या पापी होते हैं?’