गुरुवार, 10 दिसंबर 2015

प्यारी छोटी बहना

प्यारी छोटी बहना -   
हमारे अल्मोड़ा परिसर रूपी रंगमंच पर एक बहुमुखी प्रतिभा की धनी कलाकार का पदार्पण हुआ. बुद्धिमत्ता, प्रत्युत्तपन्नमति और वाक्पटुता में उनका कोई सानी नहीं था. उनकी जिह्वा में एक ऐसी आटोमेटिक मशीन फ़िट थी जो पलक झपकते ही ‘श’ को ‘स’ और ‘स’ को ‘श’ में परिवर्तित कर देती थी. मसलन मैं ‘जैसवाल सर’ के स्थान पर ‘जैशवाल शर’ हो जाता था और ‘किशमिश’ हो जाती थी ‘किसमिस’.
उनके विद्यार्थी उनसे पढ़ते हुए हमेशा त्राहि-त्राहि ही करते रहते थे और जब भी उनका क्लास ख़त्म होता था तो तालियाँ बजाकर अपने हर्षोल्लास का प्रदर्शन करते थे. हमारी मोहतरमा फिर - ‘हाथ-पैर तुड़वा दूँगी’, ‘गोली से उड़ा दूँगी’ आदि आशीर्वचनों से उन्हें कृतार्थ करती थीं.  
परीक्षा के दौरान उनके अनुरोध पर अक्सर मेरी इनविजिलेशन ड्यूटी उनके साथ लग जाया करती थी. परीक्षा प्रारम्भ होने के पंद्रह-बीस मिनट बाद, कॉपी, पेपर्स वितरित होने तथा कापियों पर हस्ताक्षर हो जाने के बाद उनका परीक्षा-भवन में ‘शौरी शर, शौरी शर’ कहते हुए आगमन होता था फिर 5 मिनट तक सुस्ताने के बाद वो बड़े प्यार से चाय की फरमाइश कर देती थीं. मेरा मूड अगर अच्छा हुआ तो वो चाय के साथ बिस्किट्स मंगवाने का भी अनुरोध कर डालती थीं पर मैं सैद्धांतिक रूप से उन्हें कोरी चाय पिलाने में ही विश्वास करता था. इनविजिलेशन ड्यूटी के दौरान मैं ज्यादा वाद-संवाद को अप्रूव नहीं करता था पर अपनी सहयोगी को अपने खानदान के किस्से सुनाने से रोक भी नहीं पाता था.
एक प्रतिष्ठित (उनके शब्दों में धाकड़) एवं विशाल संयुक्त परिवार की इस लाड़ो को अपने 18 सगे और चचेरे भाइयों का बेपनाह प्यार मिलता था. मेरे लाख रोकने-टोकने के बावजूद अपने भाइयों के दिलेरी और बहादुरी के किस्से सुना-सुना कर वो परीक्षार्थियों का अक्सर ध्यान बटा देती थीं. एक बार भाई-गाथा के दौरान उन्होंने मुझे बताया कि उनके सभी 18 भाइयों पर दफ़ा 307 या दफ़ा 302 के मुकद्दमे चल रहे लगी हैं और वो गाहे-बगाहे सरकारी हवेली की शोभा भी बढ़ाते रहते हैं. मैंने उनसे पूछा –
‘माते ! ये दफ़ा 307 और 302 का किस्सा तू मुझे डराकर चाय के साथ बिस्किट्स भी मंगवाने के लिए सुना रही है या वाक़ई तेरे भाई इतने खतरनाक हैं?’
माते ने मुझे आश्वस्त करते हुए कहा – ‘नहीं शर, मैं आपको डराऊँगी क्यों? मैं तो आपकी बहुत इज्जत करती हूँ, आपको अपना बड़ा भाई मानती हूँ.’
मैंने हाथ जोड़कर उनसे पूछा – ‘कौन सा वाला भाई? दफ़ा 307 वाला या दफ़ा 302 वाला?’
बात तो आयी-गयी हो गयी पर अपनी इस गले पड़ी छोटी बहना की किसी फरमाइश को ठुकराने की मेरी फिर कभी हिम्मत नहीं हुई.
हमारी प्यारी बहना अक्सर बिना बुलाये हमारे विभाग में टी-ब्रेक पर पहुंचकर हमारी मेहमान बन जाती थीं. चाय की चुस्कियों के साथ किस्से-कहानियों का दौर भी चलता रहता था, जिसमें अक्सर मेरा ही टेप ऑन रहा करता था. मेरा सौभाग्य था कि हमारी ज़बरदस्ती की मेहमान, हमारी बहना, मेरी किस्सागोई की बड़ी भारी प्रशंसक थीं. कभी अशोक का, तो कभी अकबर का किस्सा, तो कभी गांधीजी का, अक्सर उनकी फरमाइश पर मेरा किस्सागोई कार्यक्रम प्रारम्भ हो जाता था.
एक बार गांधीजी की डांडी-यात्रा, उस पर गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर के गीत ‘तोमि एकला चलो रे’ का विस्तृत ज़िक्र हुआ. भाव-विभोर होकर बहना ने मुझसे पूछा –
‘शर, आप तो तब बहुत छोटे होंगे. फिर भी आपको शब याद है?’
2005 में, यानी तब से 75 साल पहले डांडी-यात्रा के समय मैं बहुत छोटा था, यह सुनकर मेरे आग लग गयी. मैंने आग उगलते हुए कहा –
‘मूर्ख ! क्यों तू हमेशा अक्ल के पीछे लट्ठ लेकर पड़ी रहती है? 75 साल पहले मैं अगर बच्चा था तो अब क़रीब 80 साल का तो हो ही गया. कुमाऊँ यूनिवर्सिटी क्या मुझे तेरे दफ़ा 307 और दफ़ा 302 वाले भाइयों के डर से अभी तक नौकरी पर रक्खे है?’
बहना ने हाथ जोड़कर ‘शौरी शर, शौरी शर’ कहा फिर मेरी किस्सागोई की तारीफ़ करते हुए बोलीं –
‘आप जैशे किश्शा शुना रहे थे वैसा तो कोई तभी शुना शकता है जब कि वो वहां खुद मौजूद हो.’
मैंने अपना गुस्सा दबाते हुए उनसे सवाल किया –
पिछले हफ़्ते मैंने अकबर का किस्सा सुनाया था, तो क्या मैं अकबर के ज़माने का हो गया?’
बहना ने तुरंत जवाब दिया – ‘शर, मैं इतनी बेवकूफ थोड़ी हूँ. अकबर तो बहुत पहले हुआ था. चलिए गुश्शा थूकिये और चाय पिलाकर मुझे माफ़ कर दीजिये.’
मैंने बहना की गुस्ताखी माफ़ कर दी पर इसके बदले में पहली बार उन्हें सभा में मौजूद सभी लोगों को अपनी जेब से उम्दा किस्म का जलपान कराना पड़ा.

इसके बाद बहना का हमारे विभाग में टी-ब्रेक के दौरान आना काफ़ी कम हो गया और फिर मेरे किस्से के बाद मुझसे कोई सवाल पूछने या उस पर अपनी कोई टिप्पणी देने से पहले वो काल, स्थान, सन्दर्भ आदि का पूरा-पूरा ध्यान रखने लगी थीं.       

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