रविवार, 18 जून 2017

हमारी दोस्त शबाना

हमारी दोस्त शबाना -
लखनऊ यूनिवर्सिटी से जब मैं मध्यकालीन एवं आधुनिक भारतीय इतिहास में एम. ए. कर रहा था तो हमारे क्लास में शबाना की गिनती सबसे खूबसूरत लड़कियों में हुआ करती थी. शबाना बहुत हंसमुख, ज़िंदादिल और मिलनसार लडकी थी. वो एक शायर की बेटी थी और खुद थोड़ी-बहुत शायरी भी कर लिया करती थी. ज़ाहिर है कि उसके नाम और उसके वालिद के शायर होने की वजह से लोगबाग उसकी तुलना शबाना आज़मी से करते पर हमारी वाली शबाना उस फ़िल्मी शबाना आज़मी से बहुत ज़्यादा खूबसूरत थी. हम आदर्श विद्यार्थी बिना शर्त अपना दिल उस को दे बैठे थे पर उस कमबख्त ने अपने हैण्डसम मंगेतर रियाज़ से हम दो-तीन दोस्तों को मिलवा कर हमारे सपनों को मिटटी में मिलवा दिया था. सबसे अफ़सोस की बात यह थी कि यह कमबख्त रियाज़ हम लोगों का दोस्त भी बन गया था.
रियाज़ भाई की चौक के बाज़ार में आर्टिफ़ीशियल ज्वेलरी की दुकान थी. मैं रियाज़ भाई से शिकायती लहजे में पूछा करता था –
‘रियाज़ भाई, आप तो आर्टिफ़ीशियल ज्वेलरी वाले हैं फिर आपको हमारा असली हीरा चुराने की क्या ज़रुरत थी?’
रियाज़ भाई बड़ी जिंदादिली से कहते थे –
‘इस जनम के लिए तो ये हीरा हमारा हुआ. गोपेश भाई, आप अगले जनम के लिए ज़रूर ट्राई कीजिएगा,’
खैर अब हम अगले जनम तक इंतज़ार करने के अलावा कर भी क्या सकते थे? खून का घूँट पीकर हमने रियाज़ भाई नाम के इस कड़वे सच को स्वीकार किया फिर भी शबाना हमारी प्यारी सी दोस्त बनी रही. शबाना की मंगनी की बात सिर्फ़ हम दो-तीन लड़कों को और उसकी दो-चार कन्या-मित्रों को पता थी. बाकी पुरुष समाज के लिए तो शबाना सबसे ऊंचे पेड़ की सबसे ऊंची फुनगी पर लटका हुआ वो अमृत फल था जिसके लिए हर कोई अपनी-अपनी गुलेल लेकर उसपर निशाना साधने में लगा रहता था.
अपने सहपाठियों को इतिहास पढ़ाने की मेरी आदत शबाना को बहुत सूट करती थी और इसके लिए वो मुझ पर कुछ एक्स्ट्रा मेहरबान रहा करती थी. फ़िल्मी अन्त्याक्षरी के दौरान शबाना हमेशा हमारी टीम में ही हुआ करती थी. हमारी बुज़ुर्ग आपा, शबाना और मेरी तिकड़ी बाकी सारे क्लास को फ़िल्मी अन्त्याक्षरी में हराने का माद्दा रखती थी.
हमारे बुज़ुर्गवार दिलफेंक कन्हैया गुरु जी शबाना के पीछे हाथ धोकर पड़े हुए थे. उनको शबाना की मंगनी और उसके मंगेतर के बारे में कोई जानकारी नहीं थी इसलिए शबाना का दिल जीतने की वो रोज़ाना कोशिश करते थे. कन्हैया गुरु जी को शबाना और मेरी दोस्ती क़तई पसंद नहीं थी पर बेचारे इस दोस्ती को तुड़वाने के लिए खुलेआम कुछ कर भी नहीं सकते थे.
अपने क्लास ख़त्म होने के बाद जब हम स्टूडेंट्स मस्ती करने के मूड में होते थे तो कन्हैया गुरु जी अपने सींग कटाकर हम बछड़ों की जमात में शामिल होने की हर कोशिश करते थे. हमको भी उनका लिहाज़ करके उन्हें अपने कार्यक्रमों में शामिल करना पड़ता था.
शबाना के सहारे हम कन्हैया गुरु जी का भरपूर शोषण किया करते थे. मैं शबाना से कहता –
‘शबाना, आज हम भूखों को समोसे और चाय की ट्रीट दे दे, तुझे बड़ा पुण्य मिलेगा.’
शबाना इस से साफ़ इंकार कर देती तो मैं कन्हैया गुरु जी का शोषण करने में उसकी मदद लेने की गुहार करता. मेरी इस दरख्वास्त को शबाना को मानना ही पड़ता. बाक़ी गुरु जी को चूना कैसे लगाना है, यह शबाना को सिखाने की किसी को ज़रुरत नहीं होती थी. साढ़े तीन बजे के बाद कन्हैया गुरु जी तितलियों की प्रतीक्षा में स्टाफ़ रूम में अकेले बैठे रहते थे.
शबाना, तीन चार सूरत कुबूल लड़कियां और हम दो-तीन मुस्टंडे उनके दरबार में पहुँच गए. शबाना कन्हैया गुरु जी से मेरी शिकायत करते हुए कहने लगी-
‘सर ये गोपेश कहता है कि आप के नोट्स बेसिकली के. के. दत्ता और आर. सी. मजूमदार की बुक्स पर बेस्ड होते हैं जब कि मेरा कहना है कि आप अपने नोट्स के लिए कम से कम दर्जन भर किताबें कंसल्ट करते हैं.’
‘कन्हैया गुरु जी ताना मारकर बोले –
‘हमारे गोपेश भाई तो तुम्हारे क्लास के सबसे ब्राइट स्टूडेंट हैं. वो मेरे नोट्स के बारे में सही ही कहते होंगे. वैसे शबाना, इस बार तुम करीब-करीब सही हो. सोशल, कल्चरल हिस्ट्री के नोट्स के लिए मैंने कुल 15 बुक्स कंसल्ट की हैं. अच्छा ये बताओ चाय पियोगी?’
शबाना चहककर बोली – ‘हाँ सर ज़रुर ! पर समोसों के साथ.’
अब गोपेश भाई को ज़िम्मेदारी दी गयी कि वो डिपार्टमेंट के चपरासी सह्बू जी से चाय समोसे मंगवाएं पर उत्साही गोपेश भाई अगर गुरु जी की तरफ़ से चाय-समोसे के साथ एक-एक गुलाब जामुन का आर्डर भी दे आए तो इस में किसको ऐतराज़ हो सकता था?
हम लोग जब एम. ए. फाइनल में थे तब कन्हैया गुरु जी के सामने एक बार शबाना ने कह दिया कि हम कुछ लड़के-लड़कियां पिकनिक और पिक्चर का प्रोग्राम भी बनाते रहते हैं. गुरु जी ने कुढ़ कर पूछा –
ये गोपेश और खान तो तुम्हारी पार्टी में ज़रूर होते होंगे?
शबाना ने हाँ में सर हिलाया तो गुरु जी बड़े आज़िज़ होकर बोले –
‘कभी हमको भी तुम लोग अपनी पिकनिक में शामिल कर लो.’
हम गुरु जी को कैसे मना करते? अगले ही रविवार पिकनिक का प्रोग्राम बना लिया गया. हमारी तो लाइफ़ बन गयी थी. उस सस्ते ज़माने में गुरु जी पूरे 50 रुपयों का कॉन्ट्रिब्यूशन दे रहे थे यानी कि हम विद्यार्थियों से पांच गुना.
हमारी पिकनिक बड़ी विविधता पूर्ण थी. हमको गुलाब सिनेमा में मुगले आज़म देखनी थी, फिर लड़कियों के घरों से आए माल को हम लड़कों के लाए अमरूदों, संतरों, मूंगफलियों और मिठाइयों के साथ शहीद स्मारक पर हज़म करना था और अंत में गोमती में बोटिंग करनी थी. फ़िल्म के टिकट्स और बोटिंग का खर्चा तो गुरु जी के योगदान से ही पूरा हो रहा था.
कन्हैया गुरु जी ने शबाना को उसके घर से गुलाब सिनेमा तक पिकअप करने का ऑफर किया पर उस दुष्टा ने उसे नम्रता के साथ ठुकरा दिया. हम लोग टिकट लेकर सिनेमा हॉल पहुंचे तो गुरु जी ने दो कार्नर सीट्स पर क़ब्ज़ा करके शबाना को बुलाकर कहा –
‘शबाना तुम हमारे पास बैठो. तुम तो खुद उर्दू की शायरा हो. हमारी उर्दू कमज़ोर है तुम हमको उर्दू के कठिन शब्दों के अर्थ बताती रहना.’
शबाना जब तक गुरु जी की आज्ञा का पालन करती तब तक मैंने कहा –
‘सर, हमारी आपा से ज़्यादा उर्दू का जानकार तो कोई नहीं है. आपा की सोहबत में तो आप खुद मुगले आज़म जैसे भारी-भरकम उर्दू के डायलाग बोलने लगेंगे.’
हमारी बुज़ुर्गवार निरूपा रॉय नुमा आपा, कन्हैया गुरु जी को उर्दू सिखाने के लिए उनकी बगल में बिठा दी गईं पर क्या मजाल कि पूरे साढ़े तीन घंटों में गुरु जी को फ़िल्म का एक भी शब्द, एक भी डायलॉग कठिन लगा हो.
जले-भुने गुरु जी फ़िल्म देखकर निकले तो वो मुझे लगातार घूर रहे थे. मैंने शहीद स्मारक के पार्क में उनकी जमकर खातिर की. उन्हें नमक लगाकर अमरुद खिलाया, उन्हें छील-छील कर मूंगफली खिलाईं पर वो तो मुझसे खफ़ा ही रहे आए.
बोटिंग करते समय एक और हादसा हो गया. कन्हैया गुरु जी इस बार स्मार्ट बनकर खुद ही शबाना के पास बैठ गए पर इस बार हमारा मल्लाह खलनायक बन गया. उसने गुरु जी से कहा –
‘मास्साब, नाव का बैलेंस ख़राब हो रहा है. आप नाव के एक किनारे पर बैठ जाइए और दूसरे किनारे पर ये भैया जी (मेरी और इशारा कर के) बैठ जाएंगे.’
फ़रवरी की खूबसूरत शाम और आसमान में उगता हुआ पूरनमासी का चाँद ! मुझे तो पन्त जी की कविता ‘नौका विहार’ याद आ रही थी पर हमारे गुरु जी को सहगल का नग्मा –‘जब दिल ही टूट गया, हम जीकर क्या करेंगे –‘ याद आ रहा होगा.
बोटिंग भी ख़त्म हुई. अब सब पंछियों को लौटकर अपने-अपने घोंसले जाना था. इस बार गुरु जी ने फिर बेशर्म होकर शबाना से कहा –
‘शबाना तुम रिक्शे पर नहीं जाओगी. अब तो मैं ही तुम्हें अपने स्कूटर से तुम्हारे घर ड्राप करूंगा.’
शबाना ने शरमाते हुए जवाब दिया –
‘थैंक यू सर ! पर मुझे तो कोई अपनी मोटर साइकिल पर लेने आ गया है.’
कन्हैया गुरु जी ने अपनी आँखों से अंगारे बरसाते हुए उस मोटर साइकिल सवार को घूरा तो मैंने उन्हें उसका परिचय देते हुए कहा –
‘सर, ये रियाज़ भाई हैं, शबाना के मंगेतर.’
अचरज से कन्हैया गुरु जी का मुंह इतना खुल गया था कि उसमें रियाज़ भाई अपनी मोटर साइकिल समेत समा सकते थे.
गुरु जी ने आह भरते हुए शबाना से पूछा –
ये तुम्हारे मंगेतर हैं? तुमने तो अपनी मंगनी के बारे में हमको कभी बताया नहीं?’
मैंने शिकायती लहजे में कहा –
‘सर ये शबाना और रियाज़ भाई दोनों बड़े दुष्ट हैं. इन्होने सबसे अपनी मंगनी की बात छिपाई है. अब तो जून में इनकी शादी है.’
गुरु जी ने आहत स्वर में मुझसे पूछा –
‘तुम लोग शबाना के इंगेजमेंट के बारे में कबसे जानते हो?’
मैंने जवाब दिया – ‘सर, यही कोई डेड़ साल से.’
गुरु जी ने अपना स्कूटर स्टार्ट किया और हमारा अभिवादन अस्वीकार करते हुए अपने स्कूटर को हवाई जहाज की स्पीड से दौड़ाते हुए, वो सर्र से निकल गए.
मैंने शबाना को उसके गुनाहे-अज़ीम के लिए कभी माफ़ नहीं किया. उसे रियाज़ भाई को बुलाने की क्या ज़रुरत थी? वो हमारे फाइनल एक्ज़ाम्स तक अपनी मंगनी की बात कन्हैया गुरु जी से छुपा सकती थी. इस से हम तब तक गुरु जी का निर्बाध शोषण कर सकते थे.
जिसका डर था, बेदर्दी वही बात हो गयी. कन्हैया गुरु जी के चेहरे पर फिर हमने हंसी देखी ही नहीं और फिर उन्होंने शबाना की तरफ भी कभी पलट कर नहीं देखा लेकिन सबसे दुखदायी बात यह थी कि शबाना और रियाज़ भाई की गुस्ताखियों में, उनकी साज़िशों में, मुझ भोले-भाले निर्दोष को भी बराबर का हिस्सेदार मान लिया गया था.

गुरुवार, 1 जून 2017

अमर प्रेम



अमर प्रेम –
अमर प्रेम की यह अनूठी दास्तान मेरी स्वर्गीया दादी श्रीमती सावित्री देवी और मेरे बाबा स्वर्गीय लाडली प्रसाद जैसवाल की है.
इस अनूठी प्रेम-गाथा की पृष्ठभूमि जानना भी आवश्यक है.
हमारे पर-दादा जी हाथरस के प्रतिष्ठित प्लीडर (लोअर कोर्ट्स का वकील) थे. हमारे पर-दादा जी बड़े पुख्ता रंग के थे और पर-दादी भी इस मामले में उनसे पीछे नहीं थीं. हमारे बाबा सहित, पर-दादा और पर-दादी की सभी संतानें उन्हीं के जैसी पक्के रंग की हुईं थीं. बेचारी पर-दादी उबटन और साबुन का लाख प्रयोग करती रहीं पर उनके बच्चे पूर्ववत जामुन जैसे ही रहे आए.
हमारी पर-दादी थीं बहुत होशियार. अपनी अगली से अगली पीढ़ी का रूप-रंग सुधारने के लिए वो अपनी तीनों बहुएं ऐसी लाईं कि उन्हें अगर अँधेरे में भी खड़ा कर दो तो उजाला हो जाए.
हाई स्कूल में पढ़ रहे पंद्रह वर्षीय चिरंजीव लाडली प्रसाद की शादी कक्षा दो पास और बारह वर्षीय आयुष्मती सावित्री देवी से संपन्न हुई.
हमारे बाबा को सुन्दर बहुएं लाने का अपनी माँ का फ़ैसला पसंद आया था पर उन्हें अपनी दादी से यह शिक़ायत थी कि सुन्दर बहुएं लाने की बात उनके दिमाग में क्यूँ नहीं आई थी.
गोरी-चिट्टी हमारी अम्मा जितनी सुन्दर थीं, उस से ज़्यादा रौबीली थीं. हम लोग जब दुर्गा खोटे को फिल्मों में देखते थे तो उनकी तुलना अपनी अम्मा से करने लगते थे. और अपने बाबा की मनोहारी छवि का हम क्यों बखान करें? उन्हें कहाँ कोई सौन्दर्य-प्रतियोगिता जीतनी थी?
शादी के बाद हमारे बाबा ने अपनी पढ़ाई जारी रक्खी. उन्होंने बी. एससी. किया और वो रूड़की टॉमसन इंजीनियरिंग कॉलेज से सी. ई. (सिविल इंजीनियरिंग) का डिप्लोमा हासिल करके गोंडा में डिस्ट्रिक्ट इंजीनियर हो गए. हमारी अम्मा भी किसी भी मामले में उनसे पीछे नहीं रहीं. अम्मा ने अपनी पढ़ाई तो जारी नहीं रक्खी पर घर-गृहस्थी सम्हालने के साथ-साथ अगले चौबीस साल तक औसतन हर दो साल के अंतराल पर घर में एक राजकुमार या एक राजकुमारी को उन्होंने जन्म अवश्य दिया.
हमारे बाबा हिंदी, अंग्रेज़ी, उर्दू और फ़ारसी के ज्ञाता थे पर हमारी अम्मा केवल ब्रज भाषा बोलती थीं. मैंने पाठकों की सुविधा के लिए अम्मा के डायलॉग भी खड़ी बोली में कर दिए हैं. 
अम्मा-बाबा का प्यार देखते ही बनता था. बाबा तो अम्मा को पिताजी और बड़े चाचा जी के घर के नाम पर ‘मुन्नू-चुन्नू की जिया’ कहकर पुकारते थे पर हमारी अम्मा, बाबा की पीठ पीछे उन्हें ‘अन्जीनियर साब’ कहती थीं और उनके सामने, अपनी ज़ुबान में मिस्री घोलकर उनको ‘सरकार’ कहकर संबोधित करती थीं.
खुद पक्के रंग के हमारे बाबा को दूसरों के रंग-रूप पर टिप्पणी करने की बहुत आदत थी और हमारी अम्मा बड़े प्यार से उन्हें ऐसा करने से टोकती रहती थीं. मेरे जन्म से पहले के ये किस्से हमारी माँ बड़े चटखारे ले-लेकर डायलॉग सहित हमको सुनाया करती थीं.
एक बार अम्मा ने बाबा से कहा –
‘सरकार ! डिप्टी कलक्टर सक्सेना के घर कथा है. उसने हम सबको बुलाया है.’
बाबा भड़के –
‘वो घमंडी सक्सेना? मैं नहीं जाता उसके यहाँ. वो उल्टा तवा ख़ुद को कामदेव समझता है और मुझे काला कहता है.’
अम्मा बोलीं –
‘ये तो उसकी बदतमीज़ी है. पर सरकार ! वो तुमसे तो गोरा है.  
बाबा गरज कर बोले – ‘तुम्हें तो मेरे सामने सारे कौए भी गोरे लगते हैं.’
अम्मा ने अपने कान पर हाथ रखते हुए कहा –
‘नहीं सरकार ! सारे कौए नहीं ! तुम पहाड़ी कौए से तो गोरे हो.’  
अम्मा की ज़िद के आगे बाबा को हर बार हारना पड़ता था और उस बार भी बेमन से ही सही, पर उन्हें उस घमंडी, उलटे तवे, डिप्टी कलक्टर सक्सेना के घर कथा सुनने जाना ही पड़ा.
एक बार हमारे बाबा बहुत बीमार पड़े. अधिकांश डॉक्टर्स और हकीमों ने तो अपने हाथ खड़े कर दिए थे. गोंडा के एक पंडित जी आयुर्वेदाचार्य भी थे. उन्होंने बाबा का इलाज करने की ठानी पर अम्मा के सामने उन्होंने यह शर्त रख दी कि वो हनुमान जी के दर्शन करने के लिए हर मंगलवार को मंदिर जाएंगी. जैन-धर्म की अनुयायी हमारी अम्मा के लिए ऐसी शर्त मानना मुश्किल हो सकता था पर उन्होंने इस शर्त को सहर्ष स्वीकार कर लिया. बाबा पूर्णतः स्वस्थ हो गए और हमारी अम्मा फिर आजीवन हर मंगलवार को न सिर्फ़ हनुमान-मंदिर जाती रहीं बल्कि हर हनुमान जयंती पर अपने घर में प्याऊ लगवा कर भक्त-जन को बर्फ़ के ठंडे पानी के साथ प्रसाद में बताशे और पेड़े बाँटती रहीं. 
बाबा अपने बुढ़ापे में ऊंचा सुनने लगे थे. वो अव्वल तो दूसरों की बात सुन नहीं पाते थे और अगर सुनते भी तो उल्टा-सीधा सुनते थे. हमारी अम्मा इस से परेशान होकर कहती थीं –
‘सरकार ! कान में सुनने वाली मशीन लगवा लो. मैं अगर खेत की कहती हूँ तो तुम खलिहान की सुनते हो.’
बाबा जवाब देते –
‘मैं तो रिटायर हो गया हूँ. मुझे न खेत से मतलब है न खलिहान से. और हियरिंग एड के साढ़े तीन सौ रूपये क्या तुम्हारे मामा के यहाँ से आएँगे?’
स्वर्ग में बैठे हुए अम्मा के मामा ने हमारे बाबा की हियरिंग एड के पैसे कभी भेजे नहीं और उनकी हियरिंग एड अम्मा के जीते जी आई भी नहीं.
बाबा को अपने रिटायरमेंट के बाद पैसा खर्च करने में बड़ा दर्द होता था पर अम्मा उनसे अपनी हर फ़रमाइश पूरा कराना जानती थीं. अम्मा की हर फ़रमाइश पेश होने के बाद अम्मा-बाबा में जमकर बहस होती थी फिर बाबा झल्लाकर उन्हें –‘कुपड्डी कहीं की !’ कहकर उनकी फ़रमाइश पूरी करने के लिए अपनी जेब ढीली कर देते थे.
हमारे बड़े भाई साहब को अपनी अम्मा के लिए बाबा का ‘कुपड्डी कहीं की !’ कहना बिलकुल स्वीकार्य नहीं था. उन्होंने बाबा को राज़ी कर लिया कि वो आगे से अम्मा के लिए इस जुमले का इस्तेमाल नहीं करेंगे. अब बाबा, अम्मा से जब बहस में हारने लगते थे तो नाराज़ होकर कहते थे –‘प्रोफ़ेसर कहीं की !’
इस सुखद परिवर्तन पर खुश होने के बजाय अम्मा ने शिकायती लहजे में बड़े भाई साहब से कहा –
‘बेटा ! तूने तो मेरा नुक्सान कर दिया. तेरे बाबा मुझे कुपड्डी कह कर तो पूरी रकम ढीली कर देते थे पर अब प्रोफ़ेसर कहकर तो उसकी आधी ही देते हैं.’ 
हमारे बाबा ज्योतिषी होने का दावा भी करते थे और अक्सर गलत-सलत भविष्यवाणी भी किया करते थे. हम लोग 1956 से 1959 तक लखनऊ में थे और रिसालदार पार्क में रहते थे. बाबा स-परिवार महानगर की अपनी कोठी में रहते थे. एक बार बाबा ने हम सबको बुला भेजा. पता चला कि बाबा का मृत्यु-योग है और वो कल मध्य-रात्रि में स्वर्ग सिधार जाएंगे. पिताजी को कोर्ट से और हम बच्चों को स्कूल-कॉलेज से एक दिन की छुट्टी लेनी पड़ी थी. सब चिंतित थे पर अम्मा शांत होकर सबके खाने-पीने की व्यवस्था करा रही थी. पिताजी ने अम्मा को रोक कर उनके इतना शांत रहने का रहस्य पूछा तो वो बोलीं –
‘लल्लू ! कुछ अनहोनी नहीं होगी. मुझे तो तुम्हारे पिताजी और तुम सब बच्चों के कन्धों पर सवार होकर ही स्वर्ग जाना है. बस, तुम सब अंजीनियर साहब की नौटंकी देखो, भजन-कीर्तन करो, हलुआ पूड़ी खाओ और मौज करो.’
मध्य-रात्रि पर मृत्यु-योग बीत जाने पर भी जब बाबा सलामत रहे आए तो अम्मा ने हम सबको खूब मिठाई खिलाई.
बाबा की अपनी मृत्यु की भविष्यवाणियों को नौटंकी समझने वाली हमारी अम्मा उनके किडनी से स्टोन निकालने के लिए ऑपरेशन कराने की बात से बहुत घबरा जाती थीं. अम्मा को डर रहता था कि बाबा इस मामूली से ऑपरेशन के बाद बच नहीं पाएँगे. जैसे ही बाबा के इस ऑपरेशन की बात होती थी तो अम्मा कहती थीं –
सरकार ! इस ऑपरेशन से तुम बचोगे नहीं. और मुझे तो सुहागन ही मरना है इसलिए चाहे जो हो जाय तुम्हारा ऑपरेशन नहीं होगा.’
अम्मा की ज़िद के आगे बाबा को हर बार अपना ऑपरेशन टालना पड़ता था.
1966 में बाबा भयंकर बीमार पड़े. उन्हें लखनऊ के मेडिकल कॉलेज में भर्ती कराया गया. स्टोंस निकालने के लिए उनकी किडनी के ऑपरेशन की फिर तैयारी होने लगीं. इस बार अम्मा का कोई प्रोटेस्ट उन्हें रोक नहीं पाया. पर अब अम्मा ने बाबा का ऑपरेशन रुकवाने का दूसरा तरीक़ा खोज लिया. बाबा तो अस्पताल में एडमिट थे और यहाँ घर में रहते हुए ही दो दिन की बीमारी में अम्मा की ऐसी हालत हो गयी कि बाबा को अपना ऑपरेशन टाल कर घर वापस आना पड़ा. अगले दिन ही अम्मा चल बसीं और अपने पति व अपने बच्चों के कंधे पर सवार होकर अपनी अंतिम यात्रा करने की उनकी साध पूरी हो गयी.
लाल साड़ी में लिपटी और एक सुहागन के सारे श्रृंगार किए हुए भूमिष्ठ अम्मा के गले में माला डालते समय बाबा ने अपनी आँखों से बहते आंसुओं की कोई परवाह न करते हुए कहा –
‘इसके माँ-बाप ने इसका नाम ‘सावित्री’ ऐसे ही थोड़ी रक्खा था.’
अम्मा के जाने के बाद उनकी ख्वाहिश पूरी करने के लिए बाबा ने हियरिंग एड भी खरीद ली पर चूंकि अब अम्मा नहीं थीं तो वो किसी और की बात सुनने के लिए उसका प्रयोग ही नहीं करना चाहते थे. हियरिंग एड की बेचारी बैटरी बिना इस्तेमाल हुए ही बेकार हो गयी.   
अम्मा की स्मृति में उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए कंजूस समझे जाने वाले बाबा ने जैसवाल जैन समाज के मेधावी छात्र-छात्राओं को वार्षिक पारितोषिक दिए जाने के लिए एक अच्छी ख़ासी रकम भी दान में दे दी.
बाबा ने फिर अपना कोई ऑपरेशन भी नहीं कराया. अम्मा की मृत्यु के दो वर्ष बाद तक वो और जीवित रहे पर वो रोज़ ही अपनी मृत्यु की कामना करते रहे.
मुझे अम्मा-बाबा की ये बे-मेल जोड़ी बहुत प्यारी लगती थी. उन दोनों की नोंक-झोंक, छोटे-मोटे झगड़े, रूठना-मनाना, अम्मा का फ़रमाइशी कार्यक्रम, बाबा का इंकार, फिर उनका अम्मा के सामने आत्मसमर्पण और एक-दूसरे के बिना एक पल भी गुज़ार न सकने की उनकी आदत, ये सब कुछ मुझे दिल को छू लेने वाली कोई रोमांटिक कहानी लगती थी.
अब अगर कोई फ़िल्म निर्माता ‘अमर प्रेम’ शीर्षक की दोबारा फ़िल्म बनाना चाहेगा तो मैं अपने अम्मा-बाबा की कहानी उसके सामने पेश कर दूंगा.