हमारी दोस्त शबाना -
लखनऊ यूनिवर्सिटी से जब मैं मध्यकालीन एवं आधुनिक भारतीय इतिहास में एम. ए. कर रहा था तो हमारे क्लास में शबाना की गिनती सबसे खूबसूरत लड़कियों में हुआ करती थी. शबाना बहुत हंसमुख, ज़िंदादिल और मिलनसार लडकी थी. वो एक शायर की बेटी थी और खुद थोड़ी-बहुत शायरी भी कर लिया करती थी. ज़ाहिर है कि उसके नाम और उसके वालिद के शायर होने की वजह से लोगबाग उसकी तुलना शबाना आज़मी से करते पर हमारी वाली शबाना उस फ़िल्मी शबाना आज़मी से बहुत ज़्यादा खूबसूरत थी. हम आदर्श विद्यार्थी बिना शर्त अपना दिल उस को दे बैठे थे पर उस कमबख्त ने अपने हैण्डसम मंगेतर रियाज़ से हम दो-तीन दोस्तों को मिलवा कर हमारे सपनों को मिटटी में मिलवा दिया था. सबसे अफ़सोस की बात यह थी कि यह कमबख्त रियाज़ हम लोगों का दोस्त भी बन गया था.
रियाज़ भाई की चौक के बाज़ार में आर्टिफ़ीशियल ज्वेलरी की दुकान थी. मैं रियाज़ भाई से शिकायती लहजे में पूछा करता था –
‘रियाज़ भाई, आप तो आर्टिफ़ीशियल ज्वेलरी वाले हैं फिर आपको हमारा असली हीरा चुराने की क्या ज़रुरत थी?’
रियाज़ भाई बड़ी जिंदादिली से कहते थे –
‘इस जनम के लिए तो ये हीरा हमारा हुआ. गोपेश भाई, आप अगले जनम के लिए ज़रूर ट्राई कीजिएगा,’
खैर अब हम अगले जनम तक इंतज़ार करने के अलावा कर भी क्या सकते थे? खून का घूँट पीकर हमने रियाज़ भाई नाम के इस कड़वे सच को स्वीकार किया फिर भी शबाना हमारी प्यारी सी दोस्त बनी रही. शबाना की मंगनी की बात सिर्फ़ हम दो-तीन लड़कों को और उसकी दो-चार कन्या-मित्रों को पता थी. बाकी पुरुष समाज के लिए तो शबाना सबसे ऊंचे पेड़ की सबसे ऊंची फुनगी पर लटका हुआ वो अमृत फल था जिसके लिए हर कोई अपनी-अपनी गुलेल लेकर उसपर निशाना साधने में लगा रहता था.
अपने सहपाठियों को इतिहास पढ़ाने की मेरी आदत शबाना को बहुत सूट करती थी और इसके लिए वो मुझ पर कुछ एक्स्ट्रा मेहरबान रहा करती थी. फ़िल्मी अन्त्याक्षरी के दौरान शबाना हमेशा हमारी टीम में ही हुआ करती थी. हमारी बुज़ुर्ग आपा, शबाना और मेरी तिकड़ी बाकी सारे क्लास को फ़िल्मी अन्त्याक्षरी में हराने का माद्दा रखती थी.
हमारे बुज़ुर्गवार दिलफेंक कन्हैया गुरु जी शबाना के पीछे हाथ धोकर पड़े हुए थे. उनको शबाना की मंगनी और उसके मंगेतर के बारे में कोई जानकारी नहीं थी इसलिए शबाना का दिल जीतने की वो रोज़ाना कोशिश करते थे. कन्हैया गुरु जी को शबाना और मेरी दोस्ती क़तई पसंद नहीं थी पर बेचारे इस दोस्ती को तुड़वाने के लिए खुलेआम कुछ कर भी नहीं सकते थे.
अपने क्लास ख़त्म होने के बाद जब हम स्टूडेंट्स मस्ती करने के मूड में होते थे तो कन्हैया गुरु जी अपने सींग कटाकर हम बछड़ों की जमात में शामिल होने की हर कोशिश करते थे. हमको भी उनका लिहाज़ करके उन्हें अपने कार्यक्रमों में शामिल करना पड़ता था.
शबाना के सहारे हम कन्हैया गुरु जी का भरपूर शोषण किया करते थे. मैं शबाना से कहता –
‘शबाना, आज हम भूखों को समोसे और चाय की ट्रीट दे दे, तुझे बड़ा पुण्य मिलेगा.’
शबाना इस से साफ़ इंकार कर देती तो मैं कन्हैया गुरु जी का शोषण करने में उसकी मदद लेने की गुहार करता. मेरी इस दरख्वास्त को शबाना को मानना ही पड़ता. बाक़ी गुरु जी को चूना कैसे लगाना है, यह शबाना को सिखाने की किसी को ज़रुरत नहीं होती थी. साढ़े तीन बजे के बाद कन्हैया गुरु जी तितलियों की प्रतीक्षा में स्टाफ़ रूम में अकेले बैठे रहते थे.
शबाना, तीन चार सूरत कुबूल लड़कियां और हम दो-तीन मुस्टंडे उनके दरबार में पहुँच गए. शबाना कन्हैया गुरु जी से मेरी शिकायत करते हुए कहने लगी-
‘सर ये गोपेश कहता है कि आप के नोट्स बेसिकली के. के. दत्ता और आर. सी. मजूमदार की बुक्स पर बेस्ड होते हैं जब कि मेरा कहना है कि आप अपने नोट्स के लिए कम से कम दर्जन भर किताबें कंसल्ट करते हैं.’
‘कन्हैया गुरु जी ताना मारकर बोले –
‘हमारे गोपेश भाई तो तुम्हारे क्लास के सबसे ब्राइट स्टूडेंट हैं. वो मेरे नोट्स के बारे में सही ही कहते होंगे. वैसे शबाना, इस बार तुम करीब-करीब सही हो. सोशल, कल्चरल हिस्ट्री के नोट्स के लिए मैंने कुल 15 बुक्स कंसल्ट की हैं. अच्छा ये बताओ चाय पियोगी?’
शबाना चहककर बोली – ‘हाँ सर ज़रुर ! पर समोसों के साथ.’
अब गोपेश भाई को ज़िम्मेदारी दी गयी कि वो डिपार्टमेंट के चपरासी सह्बू जी से चाय समोसे मंगवाएं पर उत्साही गोपेश भाई अगर गुरु जी की तरफ़ से चाय-समोसे के साथ एक-एक गुलाब जामुन का आर्डर भी दे आए तो इस में किसको ऐतराज़ हो सकता था?
हम लोग जब एम. ए. फाइनल में थे तब कन्हैया गुरु जी के सामने एक बार शबाना ने कह दिया कि हम कुछ लड़के-लड़कियां पिकनिक और पिक्चर का प्रोग्राम भी बनाते रहते हैं. गुरु जी ने कुढ़ कर पूछा –
ये गोपेश और खान तो तुम्हारी पार्टी में ज़रूर होते होंगे?
शबाना ने हाँ में सर हिलाया तो गुरु जी बड़े आज़िज़ होकर बोले –
‘कभी हमको भी तुम लोग अपनी पिकनिक में शामिल कर लो.’
हम गुरु जी को कैसे मना करते? अगले ही रविवार पिकनिक का प्रोग्राम बना लिया गया. हमारी तो लाइफ़ बन गयी थी. उस सस्ते ज़माने में गुरु जी पूरे 50 रुपयों का कॉन्ट्रिब्यूशन दे रहे थे यानी कि हम विद्यार्थियों से पांच गुना.
हमारी पिकनिक बड़ी विविधता पूर्ण थी. हमको गुलाब सिनेमा में मुगले आज़म देखनी थी, फिर लड़कियों के घरों से आए माल को हम लड़कों के लाए अमरूदों, संतरों, मूंगफलियों और मिठाइयों के साथ शहीद स्मारक पर हज़म करना था और अंत में गोमती में बोटिंग करनी थी. फ़िल्म के टिकट्स और बोटिंग का खर्चा तो गुरु जी के योगदान से ही पूरा हो रहा था.
कन्हैया गुरु जी ने शबाना को उसके घर से गुलाब सिनेमा तक पिकअप करने का ऑफर किया पर उस दुष्टा ने उसे नम्रता के साथ ठुकरा दिया. हम लोग टिकट लेकर सिनेमा हॉल पहुंचे तो गुरु जी ने दो कार्नर सीट्स पर क़ब्ज़ा करके शबाना को बुलाकर कहा –
‘शबाना तुम हमारे पास बैठो. तुम तो खुद उर्दू की शायरा हो. हमारी उर्दू कमज़ोर है तुम हमको उर्दू के कठिन शब्दों के अर्थ बताती रहना.’
शबाना जब तक गुरु जी की आज्ञा का पालन करती तब तक मैंने कहा –
‘सर, हमारी आपा से ज़्यादा उर्दू का जानकार तो कोई नहीं है. आपा की सोहबत में तो आप खुद मुगले आज़म जैसे भारी-भरकम उर्दू के डायलाग बोलने लगेंगे.’
हमारी बुज़ुर्गवार निरूपा रॉय नुमा आपा, कन्हैया गुरु जी को उर्दू सिखाने के लिए उनकी बगल में बिठा दी गईं पर क्या मजाल कि पूरे साढ़े तीन घंटों में गुरु जी को फ़िल्म का एक भी शब्द, एक भी डायलॉग कठिन लगा हो.
जले-भुने गुरु जी फ़िल्म देखकर निकले तो वो मुझे लगातार घूर रहे थे. मैंने शहीद स्मारक के पार्क में उनकी जमकर खातिर की. उन्हें नमक लगाकर अमरुद खिलाया, उन्हें छील-छील कर मूंगफली खिलाईं पर वो तो मुझसे खफ़ा ही रहे आए.
बोटिंग करते समय एक और हादसा हो गया. कन्हैया गुरु जी इस बार स्मार्ट बनकर खुद ही शबाना के पास बैठ गए पर इस बार हमारा मल्लाह खलनायक बन गया. उसने गुरु जी से कहा –
‘मास्साब, नाव का बैलेंस ख़राब हो रहा है. आप नाव के एक किनारे पर बैठ जाइए और दूसरे किनारे पर ये भैया जी (मेरी और इशारा कर के) बैठ जाएंगे.’
फ़रवरी की खूबसूरत शाम और आसमान में उगता हुआ पूरनमासी का चाँद ! मुझे तो पन्त जी की कविता ‘नौका विहार’ याद आ रही थी पर हमारे गुरु जी को सहगल का नग्मा –‘जब दिल ही टूट गया, हम जीकर क्या करेंगे –‘ याद आ रहा होगा.
बोटिंग भी ख़त्म हुई. अब सब पंछियों को लौटकर अपने-अपने घोंसले जाना था. इस बार गुरु जी ने फिर बेशर्म होकर शबाना से कहा –
‘शबाना तुम रिक्शे पर नहीं जाओगी. अब तो मैं ही तुम्हें अपने स्कूटर से तुम्हारे घर ड्राप करूंगा.’
शबाना ने शरमाते हुए जवाब दिया –
‘थैंक यू सर ! पर मुझे तो कोई अपनी मोटर साइकिल पर लेने आ गया है.’
कन्हैया गुरु जी ने अपनी आँखों से अंगारे बरसाते हुए उस मोटर साइकिल सवार को घूरा तो मैंने उन्हें उसका परिचय देते हुए कहा –
‘सर, ये रियाज़ भाई हैं, शबाना के मंगेतर.’
अचरज से कन्हैया गुरु जी का मुंह इतना खुल गया था कि उसमें रियाज़ भाई अपनी मोटर साइकिल समेत समा सकते थे.
गुरु जी ने आह भरते हुए शबाना से पूछा –
ये तुम्हारे मंगेतर हैं? तुमने तो अपनी मंगनी के बारे में हमको कभी बताया नहीं?’
मैंने शिकायती लहजे में कहा –
‘सर ये शबाना और रियाज़ भाई दोनों बड़े दुष्ट हैं. इन्होने सबसे अपनी मंगनी की बात छिपाई है. अब तो जून में इनकी शादी है.’
गुरु जी ने आहत स्वर में मुझसे पूछा –
‘तुम लोग शबाना के इंगेजमेंट के बारे में कबसे जानते हो?’
मैंने जवाब दिया – ‘सर, यही कोई डेड़ साल से.’
गुरु जी ने अपना स्कूटर स्टार्ट किया और हमारा अभिवादन अस्वीकार करते हुए अपने स्कूटर को हवाई जहाज की स्पीड से दौड़ाते हुए, वो सर्र से निकल गए.
मैंने शबाना को उसके गुनाहे-अज़ीम के लिए कभी माफ़ नहीं किया. उसे रियाज़ भाई को बुलाने की क्या ज़रुरत थी? वो हमारे फाइनल एक्ज़ाम्स तक अपनी मंगनी की बात कन्हैया गुरु जी से छुपा सकती थी. इस से हम तब तक गुरु जी का निर्बाध शोषण कर सकते थे.
जिसका डर था, बेदर्दी वही बात हो गयी. कन्हैया गुरु जी के चेहरे पर फिर हमने हंसी देखी ही नहीं और फिर उन्होंने शबाना की तरफ भी कभी पलट कर नहीं देखा लेकिन सबसे दुखदायी बात यह थी कि शबाना और रियाज़ भाई की गुस्ताखियों में, उनकी साज़िशों में, मुझ भोले-भाले निर्दोष को भी बराबर का हिस्सेदार मान लिया गया था.
लखनऊ यूनिवर्सिटी से जब मैं मध्यकालीन एवं आधुनिक भारतीय इतिहास में एम. ए. कर रहा था तो हमारे क्लास में शबाना की गिनती सबसे खूबसूरत लड़कियों में हुआ करती थी. शबाना बहुत हंसमुख, ज़िंदादिल और मिलनसार लडकी थी. वो एक शायर की बेटी थी और खुद थोड़ी-बहुत शायरी भी कर लिया करती थी. ज़ाहिर है कि उसके नाम और उसके वालिद के शायर होने की वजह से लोगबाग उसकी तुलना शबाना आज़मी से करते पर हमारी वाली शबाना उस फ़िल्मी शबाना आज़मी से बहुत ज़्यादा खूबसूरत थी. हम आदर्श विद्यार्थी बिना शर्त अपना दिल उस को दे बैठे थे पर उस कमबख्त ने अपने हैण्डसम मंगेतर रियाज़ से हम दो-तीन दोस्तों को मिलवा कर हमारे सपनों को मिटटी में मिलवा दिया था. सबसे अफ़सोस की बात यह थी कि यह कमबख्त रियाज़ हम लोगों का दोस्त भी बन गया था.
रियाज़ भाई की चौक के बाज़ार में आर्टिफ़ीशियल ज्वेलरी की दुकान थी. मैं रियाज़ भाई से शिकायती लहजे में पूछा करता था –
‘रियाज़ भाई, आप तो आर्टिफ़ीशियल ज्वेलरी वाले हैं फिर आपको हमारा असली हीरा चुराने की क्या ज़रुरत थी?’
रियाज़ भाई बड़ी जिंदादिली से कहते थे –
‘इस जनम के लिए तो ये हीरा हमारा हुआ. गोपेश भाई, आप अगले जनम के लिए ज़रूर ट्राई कीजिएगा,’
खैर अब हम अगले जनम तक इंतज़ार करने के अलावा कर भी क्या सकते थे? खून का घूँट पीकर हमने रियाज़ भाई नाम के इस कड़वे सच को स्वीकार किया फिर भी शबाना हमारी प्यारी सी दोस्त बनी रही. शबाना की मंगनी की बात सिर्फ़ हम दो-तीन लड़कों को और उसकी दो-चार कन्या-मित्रों को पता थी. बाकी पुरुष समाज के लिए तो शबाना सबसे ऊंचे पेड़ की सबसे ऊंची फुनगी पर लटका हुआ वो अमृत फल था जिसके लिए हर कोई अपनी-अपनी गुलेल लेकर उसपर निशाना साधने में लगा रहता था.
अपने सहपाठियों को इतिहास पढ़ाने की मेरी आदत शबाना को बहुत सूट करती थी और इसके लिए वो मुझ पर कुछ एक्स्ट्रा मेहरबान रहा करती थी. फ़िल्मी अन्त्याक्षरी के दौरान शबाना हमेशा हमारी टीम में ही हुआ करती थी. हमारी बुज़ुर्ग आपा, शबाना और मेरी तिकड़ी बाकी सारे क्लास को फ़िल्मी अन्त्याक्षरी में हराने का माद्दा रखती थी.
हमारे बुज़ुर्गवार दिलफेंक कन्हैया गुरु जी शबाना के पीछे हाथ धोकर पड़े हुए थे. उनको शबाना की मंगनी और उसके मंगेतर के बारे में कोई जानकारी नहीं थी इसलिए शबाना का दिल जीतने की वो रोज़ाना कोशिश करते थे. कन्हैया गुरु जी को शबाना और मेरी दोस्ती क़तई पसंद नहीं थी पर बेचारे इस दोस्ती को तुड़वाने के लिए खुलेआम कुछ कर भी नहीं सकते थे.
अपने क्लास ख़त्म होने के बाद जब हम स्टूडेंट्स मस्ती करने के मूड में होते थे तो कन्हैया गुरु जी अपने सींग कटाकर हम बछड़ों की जमात में शामिल होने की हर कोशिश करते थे. हमको भी उनका लिहाज़ करके उन्हें अपने कार्यक्रमों में शामिल करना पड़ता था.
शबाना के सहारे हम कन्हैया गुरु जी का भरपूर शोषण किया करते थे. मैं शबाना से कहता –
‘शबाना, आज हम भूखों को समोसे और चाय की ट्रीट दे दे, तुझे बड़ा पुण्य मिलेगा.’
शबाना इस से साफ़ इंकार कर देती तो मैं कन्हैया गुरु जी का शोषण करने में उसकी मदद लेने की गुहार करता. मेरी इस दरख्वास्त को शबाना को मानना ही पड़ता. बाक़ी गुरु जी को चूना कैसे लगाना है, यह शबाना को सिखाने की किसी को ज़रुरत नहीं होती थी. साढ़े तीन बजे के बाद कन्हैया गुरु जी तितलियों की प्रतीक्षा में स्टाफ़ रूम में अकेले बैठे रहते थे.
शबाना, तीन चार सूरत कुबूल लड़कियां और हम दो-तीन मुस्टंडे उनके दरबार में पहुँच गए. शबाना कन्हैया गुरु जी से मेरी शिकायत करते हुए कहने लगी-
‘सर ये गोपेश कहता है कि आप के नोट्स बेसिकली के. के. दत्ता और आर. सी. मजूमदार की बुक्स पर बेस्ड होते हैं जब कि मेरा कहना है कि आप अपने नोट्स के लिए कम से कम दर्जन भर किताबें कंसल्ट करते हैं.’
‘कन्हैया गुरु जी ताना मारकर बोले –
‘हमारे गोपेश भाई तो तुम्हारे क्लास के सबसे ब्राइट स्टूडेंट हैं. वो मेरे नोट्स के बारे में सही ही कहते होंगे. वैसे शबाना, इस बार तुम करीब-करीब सही हो. सोशल, कल्चरल हिस्ट्री के नोट्स के लिए मैंने कुल 15 बुक्स कंसल्ट की हैं. अच्छा ये बताओ चाय पियोगी?’
शबाना चहककर बोली – ‘हाँ सर ज़रुर ! पर समोसों के साथ.’
अब गोपेश भाई को ज़िम्मेदारी दी गयी कि वो डिपार्टमेंट के चपरासी सह्बू जी से चाय समोसे मंगवाएं पर उत्साही गोपेश भाई अगर गुरु जी की तरफ़ से चाय-समोसे के साथ एक-एक गुलाब जामुन का आर्डर भी दे आए तो इस में किसको ऐतराज़ हो सकता था?
हम लोग जब एम. ए. फाइनल में थे तब कन्हैया गुरु जी के सामने एक बार शबाना ने कह दिया कि हम कुछ लड़के-लड़कियां पिकनिक और पिक्चर का प्रोग्राम भी बनाते रहते हैं. गुरु जी ने कुढ़ कर पूछा –
ये गोपेश और खान तो तुम्हारी पार्टी में ज़रूर होते होंगे?
शबाना ने हाँ में सर हिलाया तो गुरु जी बड़े आज़िज़ होकर बोले –
‘कभी हमको भी तुम लोग अपनी पिकनिक में शामिल कर लो.’
हम गुरु जी को कैसे मना करते? अगले ही रविवार पिकनिक का प्रोग्राम बना लिया गया. हमारी तो लाइफ़ बन गयी थी. उस सस्ते ज़माने में गुरु जी पूरे 50 रुपयों का कॉन्ट्रिब्यूशन दे रहे थे यानी कि हम विद्यार्थियों से पांच गुना.
हमारी पिकनिक बड़ी विविधता पूर्ण थी. हमको गुलाब सिनेमा में मुगले आज़म देखनी थी, फिर लड़कियों के घरों से आए माल को हम लड़कों के लाए अमरूदों, संतरों, मूंगफलियों और मिठाइयों के साथ शहीद स्मारक पर हज़म करना था और अंत में गोमती में बोटिंग करनी थी. फ़िल्म के टिकट्स और बोटिंग का खर्चा तो गुरु जी के योगदान से ही पूरा हो रहा था.
कन्हैया गुरु जी ने शबाना को उसके घर से गुलाब सिनेमा तक पिकअप करने का ऑफर किया पर उस दुष्टा ने उसे नम्रता के साथ ठुकरा दिया. हम लोग टिकट लेकर सिनेमा हॉल पहुंचे तो गुरु जी ने दो कार्नर सीट्स पर क़ब्ज़ा करके शबाना को बुलाकर कहा –
‘शबाना तुम हमारे पास बैठो. तुम तो खुद उर्दू की शायरा हो. हमारी उर्दू कमज़ोर है तुम हमको उर्दू के कठिन शब्दों के अर्थ बताती रहना.’
शबाना जब तक गुरु जी की आज्ञा का पालन करती तब तक मैंने कहा –
‘सर, हमारी आपा से ज़्यादा उर्दू का जानकार तो कोई नहीं है. आपा की सोहबत में तो आप खुद मुगले आज़म जैसे भारी-भरकम उर्दू के डायलाग बोलने लगेंगे.’
हमारी बुज़ुर्गवार निरूपा रॉय नुमा आपा, कन्हैया गुरु जी को उर्दू सिखाने के लिए उनकी बगल में बिठा दी गईं पर क्या मजाल कि पूरे साढ़े तीन घंटों में गुरु जी को फ़िल्म का एक भी शब्द, एक भी डायलॉग कठिन लगा हो.
जले-भुने गुरु जी फ़िल्म देखकर निकले तो वो मुझे लगातार घूर रहे थे. मैंने शहीद स्मारक के पार्क में उनकी जमकर खातिर की. उन्हें नमक लगाकर अमरुद खिलाया, उन्हें छील-छील कर मूंगफली खिलाईं पर वो तो मुझसे खफ़ा ही रहे आए.
बोटिंग करते समय एक और हादसा हो गया. कन्हैया गुरु जी इस बार स्मार्ट बनकर खुद ही शबाना के पास बैठ गए पर इस बार हमारा मल्लाह खलनायक बन गया. उसने गुरु जी से कहा –
‘मास्साब, नाव का बैलेंस ख़राब हो रहा है. आप नाव के एक किनारे पर बैठ जाइए और दूसरे किनारे पर ये भैया जी (मेरी और इशारा कर के) बैठ जाएंगे.’
फ़रवरी की खूबसूरत शाम और आसमान में उगता हुआ पूरनमासी का चाँद ! मुझे तो पन्त जी की कविता ‘नौका विहार’ याद आ रही थी पर हमारे गुरु जी को सहगल का नग्मा –‘जब दिल ही टूट गया, हम जीकर क्या करेंगे –‘ याद आ रहा होगा.
बोटिंग भी ख़त्म हुई. अब सब पंछियों को लौटकर अपने-अपने घोंसले जाना था. इस बार गुरु जी ने फिर बेशर्म होकर शबाना से कहा –
‘शबाना तुम रिक्शे पर नहीं जाओगी. अब तो मैं ही तुम्हें अपने स्कूटर से तुम्हारे घर ड्राप करूंगा.’
शबाना ने शरमाते हुए जवाब दिया –
‘थैंक यू सर ! पर मुझे तो कोई अपनी मोटर साइकिल पर लेने आ गया है.’
कन्हैया गुरु जी ने अपनी आँखों से अंगारे बरसाते हुए उस मोटर साइकिल सवार को घूरा तो मैंने उन्हें उसका परिचय देते हुए कहा –
‘सर, ये रियाज़ भाई हैं, शबाना के मंगेतर.’
अचरज से कन्हैया गुरु जी का मुंह इतना खुल गया था कि उसमें रियाज़ भाई अपनी मोटर साइकिल समेत समा सकते थे.
गुरु जी ने आह भरते हुए शबाना से पूछा –
ये तुम्हारे मंगेतर हैं? तुमने तो अपनी मंगनी के बारे में हमको कभी बताया नहीं?’
मैंने शिकायती लहजे में कहा –
‘सर ये शबाना और रियाज़ भाई दोनों बड़े दुष्ट हैं. इन्होने सबसे अपनी मंगनी की बात छिपाई है. अब तो जून में इनकी शादी है.’
गुरु जी ने आहत स्वर में मुझसे पूछा –
‘तुम लोग शबाना के इंगेजमेंट के बारे में कबसे जानते हो?’
मैंने जवाब दिया – ‘सर, यही कोई डेड़ साल से.’
गुरु जी ने अपना स्कूटर स्टार्ट किया और हमारा अभिवादन अस्वीकार करते हुए अपने स्कूटर को हवाई जहाज की स्पीड से दौड़ाते हुए, वो सर्र से निकल गए.
मैंने शबाना को उसके गुनाहे-अज़ीम के लिए कभी माफ़ नहीं किया. उसे रियाज़ भाई को बुलाने की क्या ज़रुरत थी? वो हमारे फाइनल एक्ज़ाम्स तक अपनी मंगनी की बात कन्हैया गुरु जी से छुपा सकती थी. इस से हम तब तक गुरु जी का निर्बाध शोषण कर सकते थे.
जिसका डर था, बेदर्दी वही बात हो गयी. कन्हैया गुरु जी के चेहरे पर फिर हमने हंसी देखी ही नहीं और फिर उन्होंने शबाना की तरफ भी कभी पलट कर नहीं देखा लेकिन सबसे दुखदायी बात यह थी कि शबाना और रियाज़ भाई की गुस्ताखियों में, उनकी साज़िशों में, मुझ भोले-भाले निर्दोष को भी बराबर का हिस्सेदार मान लिया गया था.
बहुत बढ़िया अन्दाज है लिखने का।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुशील बाबू. मुझे लिखने के लिए प्रोत्साहित करने वालों में तुम्हारा नाम हमेशा आगे रहा है.
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