सोमवार, 25 सितंबर 2017

शानदार भाषण

शानदार भाषण -
124 साल पहले शिकागो में आयोजित विश्व धर्म-सम्मलेन में एक अनजान भारतीय सन्यासी, स्वामी विवेकानंद ने अपने भाषण से सारी दुनिया पर भारतीय आध्यात्म की समृद्धि की गहरी छाप छोड़ी थी. दुनिया के तमाम गोरे, काले, पीले, उनके और भारतीय आध्यात्म के मुरीद हो गए थे. इस भाषण ने हम गुलाम भारतीयों के आहत अभिमान पर मरहम का काम किया था. इस भाषण ने हम भारतीयों में आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास का संचार किया था पर इस ऐतिहासिक भाषण से हमारे देश को एक बहुत बड़ा नुकसान भी हुआ है और वह यह है कि इस के बाद से हमारे देश में भाषण फोड़ना और अपनी लफ्फाज़ी से जनता को गुमराह करना एक व्यवसाय बन गया है.
आज अच्छे वक्ता की बड़ी क़द्र है. फ़िल्मों में अच्छे संवाद हों तो मज़ा आ जाता है. फ़िल्म मुगले आज़म के लम्बे-लम्बे भाषण हम आज भी याद करते हैं, भले ही उनकी क्लिष्ट उर्दू हमारे क़तई पल्ले न पड़ती हो.
फिर ज़माना आया फ़िल्म ‘शोले’ का, उसके वन लाइनर डायलौग्स का. - ‘तुम्हारा नाम क्या है बसंती?’, ‘तेरा क्या होगा कालिया?’, ‘ये हाथ हमको दे दे ठाकुर’, ‘बसंती इन कुत्तों के सामने मत नाचना.’
कोई भी वित्तमंत्री जब बजट पेश करते हैं तो उसमें दो-चार शेर ज़रूर पढ़े जाते हैं अगर इनकम टैक्स की दर बढ़ाई जाती है तो मिर्ज़ा ग़ालिब का शेर पढ़ा जाता है. अगर सेल्स टैक्स बढ़ाया जाता है तो जिगर मुरादाबादी का. और अगर घाटे को कम करने में नाकामी स्वीकार की जाती है तो बशीर बद्र का यह शेर पढ़ दिया जाता है –
‘कुछ तो मजबूरियां रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता.’
नेहरु जी के चहेते कृष्णा मेनन थे, बहुत अच्छा भाषण फोड़ते थे. यू एन ओ में पाकिस्तान के खिलाफ़ इतने अच्छे और ओजस्वी भाषण देते थे कि क्या कहा जाय. एक बार तो वो भाषण देते-देते बेहोश भी हो गए थे. बाद में कृष्णा मेनन हमारे रक्षा मंत्री बना दिए गए पर जब चीन ने 1962 में हमको पटकनी दी तो हमारे रक्षा मंत्री जी की भाषण कला हमारे किसी काम नहीं आई.
आजकल फिर भाषण कला के महत्त्व को पुनर्स्थापित किया जा रहा है. हमारे प्रधान मंत्री देश- विदेश में जहाँ भी भाषण देते हैं तो उनकी जय-जयकार होती है. उनके भाषण की प्रशंसा में कसीदे पढ़े जाते हैं और साथ में यह भी जोड़ दिया जाता है कि पित्ज़ा मम्मी को तो हिंदी बोलना भी नहीं आता और पप्पू तो हमेशा बचकानी बात करता है.
अभी यू. एन. में हमारी युवा अधिकारी ईनम गंभीर ने पाकिस्तान को टेररिस्तान कह दिया. वाह ! क्या खूब कहा ! पाकिस्तान तो पानी पानी हो गया. पर इस से क्या पाकिस्तान से आने वाले आतंकवादियों की संख्या घट जाएगी? क्या अमेरिका तथा अन्य पाश्चात्य देश आतंकवाद के गढ़ पाकिस्तान को आर्थिक सहायता देना बंद कर देंगे?
और अगर ऐसा नहीं होगा तो ईनम गंभीर के भाषण को हम इतनी गंभीरता से क्यों ले रहे हैं?
इस से तो अच्छा है कि हम पी वी सिन्धु की जीत पर खुशियाँ मनाएं, कुलदीप यादव की हैट ट्रिक या हार्दिक पांड्या के छक्कों का जश्न मनाएं, या थिएटर में जाकर फ़िल्म ‘न्यूटन’ देख आएं.
आइए अब असली मुद्दे पर आएं.
23 सितम्बर 2017 को हमारी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने यू. एन. ओ. की जनरल असेंबली के 72 वें अधिवेशन में शानदार भाषण दिया. प्रधानमंत्री ने उनके भाषण की भूरि भूरि प्रशंसा की पर कांग्रेसी नेता इस से जल मरे.
इस भाषण में सुषमा जी ने 2030 तक की महत्वकांक्षी भारतीय योजनायें प्रस्तुत कर दीं.
अब जलवायु परिवर्तन, निरस्त्रीकरण, ‘सेव दि गर्ल’, ‘एजुकेट दि गर्ल’, वाली बातें तो दुनिया भर के पल्ले पड़ी होंगी पर जन-धन योजना, उज्जवला योजना, स्किल इंडिया, डिजिटल इंडिया, क्लीन इंडिया, स्टैंड अप इंडिया वगैरा से दुनिया को क्या लेना देना? क्या सुषमाजी का इरादा 2019 के चुनाव में दुनिया भर के कूटनीतिज्ञों के वोट लेने का भी है?
सुषमा जी ने भारत और पाकिस्तान की तुलना करते हुए बताया –
‘हमने विद्वान, इंजीनियर और डॉक्टर उत्पन्न किए जब कि पाकिस्तान ने आतंकवादी पैदा किए हैं.'
अब इस पर ताली बजाना तो बनता है. अब ऐसी बात पहली बार तो कही नहीं गयी है और ऐसी बातों से पाकिस्तान अपनी हरक़तों से बाज़ भी नहीं आएगा, हमको तो किसी चमत्कार की कोई सम्भावना भी नज़र नहीं आती. क्या इस से पाकिस्तान पर दबाव पड़ेगा कि वह आतंकवाद को पनाह न दे, या कश्मीर भारत को सौंप दे, और ऐसा कुछ नहीं होने वाला तो हम इस नूरा कुश्ती को इतना ज़्यादा महत्त्व क्यों दे रहे हैं?
सुषमा जी को बधाई ! वो अंतर्राष्टीय मंच पर भारत का पक्ष रखने में सफल रहीं पर इस भाषण में उनका मुख्य उद्देश्य तो मोदी जी को 2019 का चुनाव जिताना लग रहा है.
भाषण तो मैं भी अच्छे फोड़ लेता हूँ, शेरो-शायरी करना भी थोड़ा-बहुत आता है, मकबूल शायरों के कुछ फड़कते हुए अशआर भी सुना सकता हूँ. पर मेरे भाषणों में इतनी ताक़त भी नहीं कि उसके बल पर मेरी अदना सी कार एक किलोमीटर भी चल सके. मोदी जी और सुषमा जी तो अपने भाषणों के बल पर पूरे हिंदुस्तान को ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया को चलाना चाहते हैं.
मेरी समस्त देशवासियों से करबद्ध प्रार्थना है कि वो किसी भाषण को इतना महत्त्व न दें कि अपने सारे काम भुलाकर सिर्फ़ जश्न मनाने में लग जाएं. फैज़ अहमद फैज़ की तर्ज़ पर मैं कहूँगा –
‘और भी गम हैं ज़माने में, तेरे भाषण के सिवा,
काम कुछ और भी हैं, ताली बजाने के सिवा.

4 टिप्‍पणियां:

  1. आप की लेखनी के कायल हम भी हैं आप कहाँ किसी से कम है। इतना लिखने का जिगरा भी तो होना चाहिये कितनो में होता है। बहुत सुन्दर।

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    1. धन्यवाद सुशील बाबू. लिखने का जिगरा तो है पर गालियाँ देने वाले बहुत होते जा रहे हैं.मेरी एक कविता की पंक्ति थी - 'मगर लब खोलने की आज मैं हिम्मत नहीं करता.' लगता है कि कुछ ऐसा ही होने वाला है.

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 101वीं जयंती : पंडित दीनदयाल उपाध्याय और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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    1. हर्षवर्धन जी, ब्लॉग बुलेटिन में मेरी रचना शामिल करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद. मैं निश्चित रूप से समग्र ब्लॉग बुलेटिन का अध्ययन करूँगा.

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