रविवार, 25 मार्च 2018

नीति-कथा



गुरु जी -'बच्चों तुमको एक प्राचीन नीति-कथा सुनाता हूँ. 
एक राजा के दरबार में तीन चोर पेश किये गए. उन तीनों ने राजा के कोषागार में चोरी की थी पर वहां से भागते समय पकडे गए थे. 
पहला चोर राजा का अपना ही बेटा, अर्थात राजकुमार था. 
दूसरा चोर राजा के मंत्री का बेटा था. 
तीसरा चोर एक पेशेवर चोर था.

अब देखो राजा का न्याय !

राजा ने अपने बेटे अर्थात राजकुमार को देखकर चोर पकड़ने वालों से कहा -
'तुम लोगों को ग़लतफ़हमी हो गयी है. मेरा बेटा चोरी कर ही नहीं सकता. मैं इसे बाइज़्ज़त बरी करता हूँ.
दूसरे चोर अर्थात मंत्री के पुत्र को राजा ने केवल चेतावनी देकर छोड़ दिया. 
तीसरा चोर जो कि एक पेशेवर चोर था, उसको राजा ने 100 कोड़े लगवाए  तब जाकर उसे छोड़ा गया. 

अगले दिन निर्दोष घोषित किए  गए राजकुमार ने आत्मग्लानि के कारण आत्महत्या कर ली. 
चेतावनी देकर मुक्त किए  मंत्री-पुत्र लज्जित होकर खुद देश छोड़कर चला गया. 
तीसरा चोर अगले दिन ही फिर चोरी करते हुए पकड़ा गया. 
तो बच्चों ! राजा ने एक ही अपराध के लिए इन अपराधियों के साथ अलग-अलग व्यवहार किया क्योंकि वह जानता था कि इनके संस्कार, इनके चरित्र एक-दूसरे से भिन्न हैं.
अब बताओ, कैसा लगा तुम्हें राजा का न्याय?

एक सयाना  बालक - 
'गुरूजी, आपने जो कथा सुनाई है उसका अंत अभी हुआ ही नहीं है. वह कथा अभी भी जारी है.
वैसे हर राजा अपने चोर बेटे को निर्दोष घोषित करता है, अपने ख़ास लोगों के बच्चों के घपलों की भी अनदेखी करता है और गरीब पर ही उसका डंडा चलता है लेकिन राजा के न्याय का परिणाम आपकी कथा से कुछ भिन्न हुआ था. 

निर्दोष घोषित किए गए राजकुमार ने आत्महत्या नहीं की थी बल्कि वह साधु हो गया था और अब उसका अपना उद्योग है जिसका कि सालाना टर्न ओवर एक लाख करोड़ का है. बड़ी-बड़ी बहुदेशीय विदेशी कंपनियां तक उसकी कंपनी के सामने पानी भरती हैं. 

चेतावनी देकर मुक्त किए  जाने वाले मंत्री-पुत्र ने देश ज़रूर छोड़ा था पर अब वह विदेश से ही हवाला व्यापार कर रहा है. 50 एम. पी. तो उसकी मुट्ठी में रहते हैं. 

और रहा तीसरा चोर जिसको कि  राजा ने 100 कोड़े लगवाए थे, उसने पुराने राजा का तख्ता पलटवा दिया था. अब वही पेशेवर चोर तो हमारा राजा है. 
मज़े की बात यह है कि  ख़ुद राजकुमार ने राजा अर्थात अपने पिता का तख्ता पलटने में अपने पुराने साथी, उस पेशेवर चोर का साथ दिया था.
ये तीन पुराने चोर आज भी मिलकर चोरी कर रहे हैं और मिलकर देश लूट रहे हैं.’       
      

बुधवार, 21 मार्च 2018

मुर्दे

तेरे मुर्दे 
मेरे मुर्दे 
गड़े हुए या उखड़े मुर्दे 
देसी या परदेसी मुर्दे 
लोकसभा में उछले मुर्दे 
राज्यसभा में मचले मुर्दे
राजनीति के मोहरे मुर्दे
वोट बैंक के चेहरे मुर्दे
झूठे दावे
झूठे वादे
धोखे में
उन्तालिस मुर्दे
अपनी सदगति को ये तरसें
बेबस औ लावारिस मुर्दे
रहम करो इन पर थोड़ा सा
इन्हें बक्श दो अब थोड़ा सा
कफ़न ओढ़कर सो जाने दो.
इन्हें दुबारा मर जाने दो.

मंगलवार, 20 मार्च 2018

ऐतिहासिक गाथा


गुरु जी - 'बच्चों ! आज मैं तुम्हें एक ज़ालिम सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की कहानी सुनाता हूँ.

अलाउद्दीन सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी का भतीजा था और उसका दामाद भी था. सुल्तान अपने इस भतीजे को बहुत प्यार करता था. सुल्तान ने अलाउद्दीन की बहादुरी से खुश होकर उसे अपनी सल्तनत में सबसे ऊंचा ओहदा दे दिया था. लेकिन अलाउद्दीन ने मौक़ा पाकर अपने चाचा की हत्या करवा दी और खुद सुल्तान बन बैठा.

सुल्तान अलाउद्दीन का सबसे बहादुर सिपहसालार ज़फ़र खान था. लोग कहते थे कि अगर ज़फ़र ख़ान जैसा बहादुर का साथ न होता तो अलाउद्दीन खिलजी सुल्तान ही नहीं बन पाता।

अलाउद्दीन के सबसे बड़े दुश्मन मंगोल तो ज़फ़र ख़ान के नाम तक से कांपते थे. लेकिन अलाउद्दीन को ज़फ़र ख़ान की कामयाबी से जलन होने लगी थी और अपने लिए ख़तरे का एहसास भी. अलाउद्दीन ने एक जंग के दौरान ज़फ़र ख़ान को चारों तरफ़ से दुश्मनों से घिरा देखा पर उसने उसकी मदद के लिए अपनी कोई फ़ौजी टुकड़ी नहीं भेजी। बेचारा ज़फ़र ख़ान बहादुरी से लड़ता हुआ मैदान में ही मारा गया.

तो बच्चों ! कैसी लगी तुम्हे इस ज़ालिम सुल्तान अलाउद्दीन की कहानी?'

एक होनहार बालक -

'गुरु जी ! इस कहानी में तो गलतियां ही गलतियां हैं. अलाउद्दीन खिलजी ने सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी को मरवाया थोड़ी था. उसने तो उसे मार्ग-दर्शक बना दिया था. और रही ज़फ़र ख़ान की बात तो उसको भी उसने मैदान में मरने के लिए नहीं छोड़ा था बल्कि एक उप-चुनाव में उसके हारने का पक्का इंतज़ाम भर कर दिया था.'







शनिवार, 10 मार्च 2018

अनिवार्य उपस्थिति



अनिवार्य उपस्थिति -
जेएनयू में अनिवार्य उपस्थिति को लेकर विश्विद्यालय प्रशासन और छात्रसंघ में ख़ूब तनातनी चल रही है. एक तरफ़ प्रशासन की ओर से विद्यार्थियों के लिए कक्षा में न्यूनतम उपस्थिति की अनिवार्यता की बात हो रही है तो दूसरी ओर अधिकांश विद्यार्थी कक्षा में उपस्थिति की न्यूनतम अनिवार्यता को अपने अधिकारों का हनन और अपनी स्वतंत्रता पर आघात मानते हुए इसे तानाशाह का फ़रमान बता रहे हैं.
जेएनयू को साम्यवादी विचारधारा का गढ़ माना जाता है और वहां आए दिन वर्तमान सरकार के खिलाफ़ आन्दोलन होते रहते हैं. इसलिए विद्यार्थियों की न्यूनतम अनिवार्य उपस्थिति के प्रावधान को छात्र विरोधी और दमनकारी निर्णय कहा जा रहा है.     
मैंने 1975 से लेकर 2011 तक - 5 साल लखनऊ विश्वविद्यालय में और फिर 31 साल कुमाऊँ विश्विद्यालय में, भारतीय इतिहास पढ़ाया है. एक अवकाश-प्राप्त अध्यापक होने के नाते इस विषय में अपने विचार व्यक्त करने का कुछ हक तो मुझको भी है.
अन्य विषयों के अध्यापक अपने-अपने विभाग की अंदरूनी बात जानते होंगे. मैं अपनी बात इतिहास विभाग के विद्यार्थियों और अध्यापकों तक सीमित रक्खूँगा.
इतिहास विषय, हमारे छात्र-नेताओं का प्रिय विषय होता है क्योंकि इस में बड़े आराम से बिना क्लास अटेंड किए, 15-20 दिन की मेहनत से, ( वो भी बिना नक़ल किए हुए) बी.. से लेकर एम. ए. की कोई भी परीक्षा उत्तीर्ण की जा सकती है.  पुराने ज़माने में जब कि विद्यार्थी कक्षा से अनुपस्थित होना अपना अधिकार नहीं समझते थे, तब भी कोई किसी छात्र-नेता मेरे क्लास में उपस्थित रहा हो, ऐसा मुझे तो याद नहीं पड़ता.  हाँ, छात्र संघ के चुनाव प्रचार के दौरान या आए-दिन होने वाले किसी जायज़ या नाजायज़ आन्दोलन के दौरान क्लास बंद कराने के लिए उनका मेरे या मेरे सह-कर्मियों के क्लास में आना एक आम बात हुआ करती थी.
अपने अध्यापन काल की शुरुआत में छात्र-नेताओं को छोड़ कर मैंने अपने क्लास में विद्यार्थियों की भरपूर संख्या देखी थी. विद्यार्थियों से प्यार और सम्मान भी मुझे पर्याप्त मिला लेकिन फिर न जाने क्या हुआ कि विद्यार्थियों को क्लास में उपस्थित रहना एक फ़िज़ूल का काम लगने लगा. मेरे या किसी और अध्यापक के क्लास में जाने के बजाय वो परिसर में गप्पबाज़ी करने या मेल-जोल बढ़ाने में दिलचस्पी लेने लगे.
अवकाश प्राप्ति से कुछ समय पहले हमारे कुलपति महोदय हमारे विभाग में आए थे. इधर उधर की बातचीत के बाद उन्होंने मुझसे पूछा -
और प्रोफ़ेसर जैसवाल, आपके यहाँ बच्चों की पढ़ाई कैसे चल रही है? अब तो इम्तहान आने वाले हैं. आपका कोर्स पूरा हो गया?
मैंने विनम्रता से जवाब दिया –
सर, सेशन के शुरू में विद्यार्थियों को सिलेबस लिखा दिया था फिर उसके बाद उन में से अधिकतर गायब हो गए और अब इम्तहान में इम्पोर्टेन्ट क्वेश्चंस पूछने के लिए फिर से आने लगे हैं. हाँ, जो इक्का-दुक्का विद्यार्थी मेरे क्लास में नियमित आते थे उनका कोर्स पूरा हो गया है.
कुलपति महोदय ने मुस्कुरा कर मुझसे कहा –
जैसवाल साहब, नीतिज्ञ कह गए हैं कि अप्रिय सत्य कभी नहीं बोलना चाहिए.’
       
हो सकता है कि जेएनयू के छात्र-नेता अपनी कक्षाओं में उपस्थित रहते हों और ये भी हो सकता है कि वो अपनी पढ़ाई भी बहुत मेहनत के साथ करते हों किन्तु आम विश्वविद्यालयों में छात्र-नेता और कक्षा में उनकी उपस्थिति का ३६ का आंकड़ा होता है फिर इन छात्र-नेताओं को और उन्हीं से बने छात्र संघों को आम विद्यार्थी का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार क्यों हो?
जेएनयू जैसे किसी भी विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों से जो फ़ीस ली जाती है वह उन पर खर्च की जाने वाली धन-राशि का दसवां हिस्सा भी नहीं होती है. तो फिर इतना सरकारी पैसा उन विद्यार्थियों पर क्यों बहाया जाय जिन्हें कि कक्षा में आने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती?
मुझे इस बात पर भी घोर आपत्ति है कि अनेक अध्यापक शिक्षणेत्तर कार्य में व्यस्त रहते हैं. प्रॉक्टर, असिस्टेंट प्रॉक्टर, डीन स्टूडेंट वेलफ़ेयर, असिस्टेंट डीन स्टूडेंट वेलफ़ेयर, परीक्षा नियंत्रक और प्रवेश समिति से सम्बद्ध अध्यापकगण आम तौर पर क्लास में पढ़ाना पसंद नहीं करते और ऐसा न करने पर अगर कोई उन्हें टोके तो वो अपनी व्यस्तता का हवाला दे देते हैं.            
 मेरा एक मासूम सा सवाल है – जिस काम को एक क्लर्क, एक सिपाही या एक दरोगा, बखूबी कर सकता है उस काम को 1 लाख से से लेकर 2.25 लाख रूपये पाने वाला अध्यापक अपने प्रमुख दायित्व को छोड़ कर क्यों करे? इन कामों के लिए कम वेतन पर अलग से स्टाफ़ रक्खा जा सकता है.
मुझे तो इन्विजिलेशन का चौकीदारी वाला और प्रश्नपत्र व उत्तर पुस्तिकाएं वितरित करने, फिर उत्तर पुस्तिकाएँ एकत्र करने वाला काम भी ऊंची तनख्वाह पाने वाले अध्यापकों से कराना कुछ वैसा ही लगता है जैसे कि एक सिगरेट बुझाने के लिए फ़ायर ब्रिगेड को बुलाया जाए.  
मेरा तो यह कहना है कि जैसे कि विद्यार्थियों के लिए न्यूनतम कक्षा उपस्थिति की अनिवार्यता हो वैसे ही अध्यापकों के लिए भी न्यूनतम कक्षाएं पढ़ाने की अनिवार्यता होनी चाहिए और उन्हें शिक्षणेत्तर कार्य से यथा संभव मुक्त रखना चाहिए.
कोई भी हक़, कोई भी अधिकार, बिना फ़र्ज़, बिना कर्तव्य के, बेमानी है. हमको उन विद्यार्थियों की विश्वविद्यालयों में क्या आवश्यकता है जो कि अपनी कक्षाओं में उतने ही उपस्थित होते हों जितना कि राज्यसभा में रेखा या सचिन रहते हैं?

मेरे मित्र दीपेन्द्र चौधरी अंकित ने विद्यार्थी और अध्यापक दोनों के लिए शिक्षा में गुणवत्ता की बात कही है. क्लास में लेक्चर देने के स्थान पर विद्यार्थियों को नोट्स लिखाने वाले अध्यापकों और केवल मेड इज़ी से तैयार किए गए उत्तर देने से परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले विद्यार्थियों के लिए उनकी बात घातक होगी किन्तु मैं सच्चे ह्रदय से उनकी इस बात का समर्थन करता हूँ.
विश्वविद्यालय में पढना और उस में पढ़ाना लूडो या सांप-सीढ़ी के खेल जैसा सरल नहीं होना चाहिए और दोनों में गुणवत्ता को महत्त्व दिया जाना चाहिए. 
विद्यार्थी और अध्यापक दोनों को ही पहले अपने-अपने कर्तव्य, इमानदारी से निभाने चाहिए तभी उनको अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने की बात सोचनी चाहिए.