शनिवार, 10 मार्च 2018

अनिवार्य उपस्थिति



अनिवार्य उपस्थिति -
जेएनयू में अनिवार्य उपस्थिति को लेकर विश्विद्यालय प्रशासन और छात्रसंघ में ख़ूब तनातनी चल रही है. एक तरफ़ प्रशासन की ओर से विद्यार्थियों के लिए कक्षा में न्यूनतम उपस्थिति की अनिवार्यता की बात हो रही है तो दूसरी ओर अधिकांश विद्यार्थी कक्षा में उपस्थिति की न्यूनतम अनिवार्यता को अपने अधिकारों का हनन और अपनी स्वतंत्रता पर आघात मानते हुए इसे तानाशाह का फ़रमान बता रहे हैं.
जेएनयू को साम्यवादी विचारधारा का गढ़ माना जाता है और वहां आए दिन वर्तमान सरकार के खिलाफ़ आन्दोलन होते रहते हैं. इसलिए विद्यार्थियों की न्यूनतम अनिवार्य उपस्थिति के प्रावधान को छात्र विरोधी और दमनकारी निर्णय कहा जा रहा है.     
मैंने 1975 से लेकर 2011 तक - 5 साल लखनऊ विश्वविद्यालय में और फिर 31 साल कुमाऊँ विश्विद्यालय में, भारतीय इतिहास पढ़ाया है. एक अवकाश-प्राप्त अध्यापक होने के नाते इस विषय में अपने विचार व्यक्त करने का कुछ हक तो मुझको भी है.
अन्य विषयों के अध्यापक अपने-अपने विभाग की अंदरूनी बात जानते होंगे. मैं अपनी बात इतिहास विभाग के विद्यार्थियों और अध्यापकों तक सीमित रक्खूँगा.
इतिहास विषय, हमारे छात्र-नेताओं का प्रिय विषय होता है क्योंकि इस में बड़े आराम से बिना क्लास अटेंड किए, 15-20 दिन की मेहनत से, ( वो भी बिना नक़ल किए हुए) बी.. से लेकर एम. ए. की कोई भी परीक्षा उत्तीर्ण की जा सकती है.  पुराने ज़माने में जब कि विद्यार्थी कक्षा से अनुपस्थित होना अपना अधिकार नहीं समझते थे, तब भी कोई किसी छात्र-नेता मेरे क्लास में उपस्थित रहा हो, ऐसा मुझे तो याद नहीं पड़ता.  हाँ, छात्र संघ के चुनाव प्रचार के दौरान या आए-दिन होने वाले किसी जायज़ या नाजायज़ आन्दोलन के दौरान क्लास बंद कराने के लिए उनका मेरे या मेरे सह-कर्मियों के क्लास में आना एक आम बात हुआ करती थी.
अपने अध्यापन काल की शुरुआत में छात्र-नेताओं को छोड़ कर मैंने अपने क्लास में विद्यार्थियों की भरपूर संख्या देखी थी. विद्यार्थियों से प्यार और सम्मान भी मुझे पर्याप्त मिला लेकिन फिर न जाने क्या हुआ कि विद्यार्थियों को क्लास में उपस्थित रहना एक फ़िज़ूल का काम लगने लगा. मेरे या किसी और अध्यापक के क्लास में जाने के बजाय वो परिसर में गप्पबाज़ी करने या मेल-जोल बढ़ाने में दिलचस्पी लेने लगे.
अवकाश प्राप्ति से कुछ समय पहले हमारे कुलपति महोदय हमारे विभाग में आए थे. इधर उधर की बातचीत के बाद उन्होंने मुझसे पूछा -
और प्रोफ़ेसर जैसवाल, आपके यहाँ बच्चों की पढ़ाई कैसे चल रही है? अब तो इम्तहान आने वाले हैं. आपका कोर्स पूरा हो गया?
मैंने विनम्रता से जवाब दिया –
सर, सेशन के शुरू में विद्यार्थियों को सिलेबस लिखा दिया था फिर उसके बाद उन में से अधिकतर गायब हो गए और अब इम्तहान में इम्पोर्टेन्ट क्वेश्चंस पूछने के लिए फिर से आने लगे हैं. हाँ, जो इक्का-दुक्का विद्यार्थी मेरे क्लास में नियमित आते थे उनका कोर्स पूरा हो गया है.
कुलपति महोदय ने मुस्कुरा कर मुझसे कहा –
जैसवाल साहब, नीतिज्ञ कह गए हैं कि अप्रिय सत्य कभी नहीं बोलना चाहिए.’
       
हो सकता है कि जेएनयू के छात्र-नेता अपनी कक्षाओं में उपस्थित रहते हों और ये भी हो सकता है कि वो अपनी पढ़ाई भी बहुत मेहनत के साथ करते हों किन्तु आम विश्वविद्यालयों में छात्र-नेता और कक्षा में उनकी उपस्थिति का ३६ का आंकड़ा होता है फिर इन छात्र-नेताओं को और उन्हीं से बने छात्र संघों को आम विद्यार्थी का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार क्यों हो?
जेएनयू जैसे किसी भी विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों से जो फ़ीस ली जाती है वह उन पर खर्च की जाने वाली धन-राशि का दसवां हिस्सा भी नहीं होती है. तो फिर इतना सरकारी पैसा उन विद्यार्थियों पर क्यों बहाया जाय जिन्हें कि कक्षा में आने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती?
मुझे इस बात पर भी घोर आपत्ति है कि अनेक अध्यापक शिक्षणेत्तर कार्य में व्यस्त रहते हैं. प्रॉक्टर, असिस्टेंट प्रॉक्टर, डीन स्टूडेंट वेलफ़ेयर, असिस्टेंट डीन स्टूडेंट वेलफ़ेयर, परीक्षा नियंत्रक और प्रवेश समिति से सम्बद्ध अध्यापकगण आम तौर पर क्लास में पढ़ाना पसंद नहीं करते और ऐसा न करने पर अगर कोई उन्हें टोके तो वो अपनी व्यस्तता का हवाला दे देते हैं.            
 मेरा एक मासूम सा सवाल है – जिस काम को एक क्लर्क, एक सिपाही या एक दरोगा, बखूबी कर सकता है उस काम को 1 लाख से से लेकर 2.25 लाख रूपये पाने वाला अध्यापक अपने प्रमुख दायित्व को छोड़ कर क्यों करे? इन कामों के लिए कम वेतन पर अलग से स्टाफ़ रक्खा जा सकता है.
मुझे तो इन्विजिलेशन का चौकीदारी वाला और प्रश्नपत्र व उत्तर पुस्तिकाएं वितरित करने, फिर उत्तर पुस्तिकाएँ एकत्र करने वाला काम भी ऊंची तनख्वाह पाने वाले अध्यापकों से कराना कुछ वैसा ही लगता है जैसे कि एक सिगरेट बुझाने के लिए फ़ायर ब्रिगेड को बुलाया जाए.  
मेरा तो यह कहना है कि जैसे कि विद्यार्थियों के लिए न्यूनतम कक्षा उपस्थिति की अनिवार्यता हो वैसे ही अध्यापकों के लिए भी न्यूनतम कक्षाएं पढ़ाने की अनिवार्यता होनी चाहिए और उन्हें शिक्षणेत्तर कार्य से यथा संभव मुक्त रखना चाहिए.
कोई भी हक़, कोई भी अधिकार, बिना फ़र्ज़, बिना कर्तव्य के, बेमानी है. हमको उन विद्यार्थियों की विश्वविद्यालयों में क्या आवश्यकता है जो कि अपनी कक्षाओं में उतने ही उपस्थित होते हों जितना कि राज्यसभा में रेखा या सचिन रहते हैं?

मेरे मित्र दीपेन्द्र चौधरी अंकित ने विद्यार्थी और अध्यापक दोनों के लिए शिक्षा में गुणवत्ता की बात कही है. क्लास में लेक्चर देने के स्थान पर विद्यार्थियों को नोट्स लिखाने वाले अध्यापकों और केवल मेड इज़ी से तैयार किए गए उत्तर देने से परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले विद्यार्थियों के लिए उनकी बात घातक होगी किन्तु मैं सच्चे ह्रदय से उनकी इस बात का समर्थन करता हूँ.
विश्वविद्यालय में पढना और उस में पढ़ाना लूडो या सांप-सीढ़ी के खेल जैसा सरल नहीं होना चाहिए और दोनों में गुणवत्ता को महत्त्व दिया जाना चाहिए. 
विद्यार्थी और अध्यापक दोनों को ही पहले अपने-अपने कर्तव्य, इमानदारी से निभाने चाहिए तभी उनको अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने की बात सोचनी चाहिए.     

12 टिप्‍पणियां:

  1. अत्यंत सारगर्भित लेख । महाविद्यालयों में कक्षाओं में छात्रों की अनुपस्थिति एक गंभीर विषय है। हमारे यहाँ तो छात्र कहेंगे कि प्राध्यापक कुछ पढ़ाते ही नहीं या जो पढ़ाते हैं वह पल्ले ही नहीं पड़ता तो कक्षा में बैठकर क्या करें ?
    उधर प्राध्यापक कहते हैं कि छात्र ही कक्षाओं में आते नहीं, तो क्या पढ़ाएँ ? मेरे स्कूल के छात्र छात्राएँ कालेज में पहुँचने के बाद जब मिलने आते हैं तब बताते हैं कि कॉलेज में लेक्चर्स ही नहीं होते। अतिरिक्त कोचिंग लगाकर पढ़ते हैं विद्यार्थी। कुछ प्राध्यापक तो खुद कहते हैं छात्रों से, कि जाओ मजे करो। यही तो उम्र है एंजॉय करने की। हालात काफी खराब हैं । छात्र अपने अन्य अधिकारों को लेकर सजग हैं तो ठीक से ना पढ़ाने वाले प्राध्यापकों के खिलाफ भी आवाज उठा सकते हैं ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मीना जी, बहुत व्यथित होकर यह लेख मैंने लिखा है. आज शैक्षिक प्रणाली में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है किन्तु अब तो जो कुछ अच्छा बचा है, उसे भी ख़त्म करने की कोशिश हो रही है. शिक्षण-संस्थाओं में कुत्सित राजनीति अपना घर बना चुकी है. छात्र हों या प्राध्यापक, अगर कामचोरी-हरामखोरी करते हैं तो उन पर कार्रवाही तो होनी ही चाहिए.

      हटाएं
  2. आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' १२ मार्च २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/

    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।

    निमंत्रण

    विशेष : 'सोमवार' १२ मार्च २०१८ को 'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने सोमवारीय साप्ताहिक अंक में आदरणीया साधना वैद और आदरणीया डा. शुभा आर. फड़के जी से आपका परिचय करवाने जा रहा है।

    अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/

    जवाब देंहटाएं
  3. आप का अनुभव बहुत कुछ कहता है.अध्यापकों का शिक्षणेत्तर कार्य में व्यस्त रहना उनकी मजबूरी है और शिक्षा व्यवस्था की खामी.छात्र समुदाय का कार्य है शिक्षा प्राप्त करना राजनीति विषय पढ़ना तो समझ में आता है मगर शिक्षण संस्थानों में करना शिक्षा की गुणवत्ता पर तो प्रश्न चिन्ह तो लगाता ही है .

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. श्री लाल शुक्ल ने 'राग दरबारी' की रचना कर गाँव की रूमानी और भोली ज़िन्दगी का तिलिस्म तोडा था. दो विश्वविद्यालयों में कुल 36 साल अध्यापन कर विद्या-मंदिरों के पवित्र, सात्विक और ज्ञान की निर्मल धारा बहने का मेरा सपना भी भंग हो गया. विद्या-मंदिरों की कुत्सित राजनीति के कारन न तो आरुणि जैसे शिष्य रहे और न ही ऋषि धौम्य जैसे गुरु.

      हटाएं
    2. सही कहा आपने जब आदर्शों को सहेज कर कुछ करने का सपना संजोये और व्यवहारिकता के धरातल पर वह खरा ना उतरे तो कष्ट होना लाजमी है.लेखन विधा की विविधता में आपकी कुशलता सराहनीय है .

      हटाएं
    3. धन्यवाद मीनाजी. किसी कवि की यह पंक्ति मुझ पर चरितार्थ होती है -'मेरे सपने टूट गए, जैसा भुना हुआ पापड़.' अध्यापन का आनंद उठा पाने का मुझे अवसर कम ही मिला और यह कसक मेरे दिल में हमेशा रही.

      हटाएं
  4. धन्यवाद ध्रुव सिंह जी. 'लोकतंत्र' संवाद मंच से जुड़कर मुझे सदैव प्रसन्नता का अनुभव होता है. आप लोग मुझ पर अपनी अनुकम्पा यूँ ही बनाए रखिएगा.

    जवाब देंहटाएं
  5. आदरणीय गोपेश जी -- बहुत ही मर्मान्तक लेख लगा आपका | मैं इस विषय में कुछ भी लिखने में समर्थ नहीं हूँ | पर प्रसंगवश ये बात लिखना चाहती हूँ कि मेरी पढाई दसवी के बाद स्वयंपाठी छात्रा के रूप में हुई थी | मुझे कॉलेज या विश्वविध्यालय में पढने का अवसर नहीं मिला | मेरे गाँव के आसपास उन दिनों ऐसी व्यवस्था नहीं थी | यूँ मैंने हिंदी में स्नातकोत्तर किया है पर एक कसक हमेशा रही कि कॉलेज या विश्वविद्यालय में क्यों ना पढ़ सके | हसरत से ताककर उन छात्रो और छात्राओं की किस्मत की सराहना की है जो इनमे शिक्षा प्राप्त परते हैं | आपके लेख के माध्यम से और अन्य घटनाओं से पता चलता है कि आज विद्यार्थियों में शिक्षा के प्रति वो लगाव ही नहीं रहा | शिक्षकों के नैतिक मापदंड ही बदल गये हैं |इस दयनीय स्थिति से लगता है भविष्य बहुत धूमिल हैं |उन लोगों को सोचना चाहिए कि कितने ही लोग इन संस्थानों में पढने की हसरत ही लेकर जीवन बिता देते हैं | और जिन्हें मौक़ा मिलता है वे ऐसे लोगों के पढने के मौके और कम कर देते हैं | आपके लेख के माध्यम से बहुत सी बातें जानी | सादर आभार आपका |

    जवाब देंहटाएं
  6. रेनू जी, स्वाध्याय से आपने जो ज्ञान हासिल किया है, वह पोंगापंथी गुरुजन के घिसे-पिटे लेक्चर्स और बीस-तीस साल पुराने नोट्स से क़तई हासिल नहीं हो सकता था. मैंने पहले 5 वर्ष जब लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़ाया था तो कई विद्यार्थी इतने जागरूक मिले जिनसे मैंने ख़ुद बहुत कुछ सीखा था किन्तु कुमाऊँ विश्विद्यालय में मुझे अच्छे विद्यार्थी कम और नोट्स पर गुज़ारा करने वाले विद्यार्थी ही ज़्यादा मिले. पर मैंने कभी भी उनकी नोट्स दिए जाने की प्रार्थना को स्वीकार नहीं किया. आप ही नहीं, गुरुदेव रबीन्द्र नाथ टैगोर भी कभी कॉलेज, विश्वविद्यालय में नहीं पढ़े.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

      हटाएं
    2. जी आदरनीय गोपेश जी -- आभारी हूँ आपके उत्साहवर्धन करते शब्दों से | मेरा तात्पर्य था कि संस्थागत अध्ययन का अपना महत्व है | वहां और बहुत सी बातों से परिचित होता है इंसान और विद्वानों का सानिध्य भी मिलता है | सादर

      हटाएं