शनिवार, 22 सितंबर 2018

सर्व-धर्म समानत्व


राजीव गाँधी के राज में धर्म-विकृति अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गयी थी. सवर्ण हिन्दू निर्लज्ज होकर अपने दलित भाइयों की आहुति दे रहे थे.
शाह बानो प्रकरण में इस्लाम के अंतर्गत स्त्री-अधिकार की समृद्धि परंपरा की धज्जियाँ उड़ाई जा रही थीं.
जैन समुदाय में दुधमुंही बच्चियों को पालने में ही साध्वी बनाकर धर्म का प्रचार-प्रसार किया जा रहा था.
उस समय खालिस्तान आन्दोलन अपने शिखर पर था और धर्म के नाम और स्वतंत्र खालिस्तान के नाम पर अन्य धर्मावलम्बियों का खून बहाया जा रहा था.
और हमारे ईसाई धर्म-प्रचारक डॉलर आदि की थैलियाँ खर्च कर हज़ारों-लाखों की तादाद में धर्म-परिवर्तन करा, मानवता की सेवा करने का दावा कर रहे थे.
आजकल धर्म के नाम पर यौन शोषण के अनेक प्रसंग हमारे सामने आ रहे हैं. कितने आसाराम बापू, कितने राम-रहीम, कितने फ्रांको मुलक्कल, कितने आशु महाराज, धर्म को दीमक की तरह से चाट-चाट कर खोखला कर रहे हैं?
मदरसों, गुरुकुलों, मिशन स्कूलों, में बच्चों-बच्चियों का यौन शोषण ही नहीं, उनकी हत्या तक हो रही हैं. और हम इन सबसे आँख मूंदकर इन ढोंगी धर्मावतारों के साथ बेशर्म होकर कीर्तन कर रहे हैं.
लगभग 30 साल पुरानी इस कविता में मैंने यह प्रश्न उठाने का साहस किया था कि – ‘धर्म-विकृति को ही हम कब तक अपना धर्म मानते रहेंगे?’
आज भी धर्म-विकृति को ही हम धर्म के नाम पर अपना रहे हैं. ऐसे धर्म का परित्याग कर अगर इन्सान नास्तिक हो जाए तो उसमें क्या बुराई होगी?
मेरी दृष्टि में धर्म सबसे पुराना कल्प-वृक्ष है, पहला अलादीन का चिराग है और इतिहास का पहला एटीएम है.. धर्म के नाम पर दोहन, शोषण और अनाचार भी शाश्वत है. मुझसे बहुत पहले कबीर ने तो और भी खुलकर धर्मात्माओं की पोल खोली थी. कबीर ने हिन्दू-मुसलमान के लिए कहा है - 'अरे, इन दोउन, राह न पाई.' पर मैं तो सभी अंधभक्तों के लिए कहता हूँ - अरे, इन कोउन, राह न पाई !'

जहां धर्म में दीन दलित की, निर्मम आहुति दी जाती है,
लेने में अवतार, प्रभू की छाती, कांप-कांप जाती है.
जिस मज़हब में घर की ज़ीनत, शौहर की ठोकर खाती है,
वहां कुफ्र की देख हुकूमत, आंख अचानक भर आती है.
जहां पालने में ही बाला, साध्वी बनकर कुम्हलाती है,
वहां अहिंसा का उच्चारण करने में, लज्जा आती है.
जिन गुरुओं की बानी केवल, मिलकर रहना सिखलाती है,
वहां देश के टुकड़े करके, बच्चों की बलि दी जाती है.
बेबस मासूमों की ख़ातिर, लटक गया था जो सलीब पर,
उसका धर्म प्रचार हो रहा, आज ग़रीबों को ख़रीद कर.
यह धर्मों का देश, धर्म की जीत हुई है, दानवता पर,
पर विकृत हो बोझ बना है धर्म, आज खुद मानवता पर


20 टिप्‍पणियां:

  1. यह धर्मों का देश, धर्म की जीत हुई है, दानवता पर,
    पर विकृत हो बोझ बना है धर्म, आज खुद मानवता पर बहुत बेहतरीन लिखा आपने आदरणीय

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  2. धन्यवाद अनुराधा जी. जो भी बुद्धि-विवेक का उपयोग कर धर्म के ठेकेदारों की करतूतें देखेगा , वो इनके अधिकार में सिसक-सिसक कर, घुट-घुट कर, देवालयों, इबादतगाहों, गिरजों में क़ैद धर्म को आज़ाद करने की वैसे ही कोशिश करेगा, जैसी कि मैंने की है.

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  3. जिसका गया धरम
    उसके फूटे करम
    जिसने किया हर हर
    उसके लिये सब घर घर
    हर हर घर घर का जमाना
    धरम बिना इजहार का पाजामा :)

    जय हो आपकी ।

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  4. वाह ! क्या काव्यात्मक टिप्पणी है ! अब चुनाव के दिन नज़दीक हैं. धर्म के ठेकेदारों और धर्मावतारों को देश तबाह करने के नए अवसर मिलेंगे और हम-तुम बिल्लियाँ, न्यायाधीश बने बन्दर मामा के बन्दर-बाँट की बदौलत फिर से अपनी-अपनी रोटियां खोने वाले हैं.

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  5. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन दुर्गा खोटे और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  6. धन्यवाद हर्षवर्धन जी. 'ब्लॉग बुलेटिन' में मेरी रचना सम्मिलित किया जाना मेरे लिए सदैव हर्ष का विषय होता है. मैं इस अंक का आनंद अवश्य उठाऊँगा.

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  7. आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' २४ सितंबर २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/



    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।



    आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'

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    1. धन्यवाद ध्रुव सिंह जी. 'लोकतंत्र' संवाद मंच से मुझे जो प्यार मिला है, उस से मेरी सृजनात्मक प्रतिभा निखरी है. आप लोग साहित्य की निस्वार्थ-भाव से जो सेवा कर रहे हैं, वह सराहनीय है और अनुकरणीय है.

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  8. आदरणीय बहुत ही लाज़वाब रचना हैं आपकी....धर्म के नाम पर केवल पाखंड होता हैं कभी जीव की बलि के नाम पर बेज़ुबान जीवों मार दिया जाता हैं,कभी मासूम बच्चियों की किसी धर्मादिकरियों के द्वारा उनकी मासूमियत को रौंदा जाता है....किसी भी धर्म में ऐसा तो लिखा ही नहीँ हैं कि सब हत्यारे और कुकर्मी बन जाये

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    1. धन्यवाद शकुंतला जी. धर्म का शुद्ध रूप किसे हज़म होता है? धर्म-विकृति ही बहुमत को रास आती है. भगवान महावीर और गौतम बुद्ध ने मूर्ति-पूजा का विरोध किया, आज उनकी मूर्तियों की भरमार है. योगिराज कृष्ण राधा तथा गोपियों के साथ दिन-रात रास रचाने वाले आशिक़ बनकर रह गए हैं. गांजे-सुल्फे के कश लेने के साथ 'बम भोले'का गर्जन आवश्यक हो गया है. धर्म के ठेकेदारों जैसे कुकर्मी और पाखंडी तो हमको केवल नेताओं में मिल सकते हैं.

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  9. आदरणीय गोपेश जी -- जितना शिक्षा का प्रचार प्रसार उतना ही धर्म -- मजहब के नाम पर निहायत अविवेकपूर्ण रवैया है लोगों का | धर्म को नये सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है आज | आपने अपनी चिंतन परक रचना में जो सन्दर्भ दिए वो कल भी प्रासंगिक थे और दिनों दिन और प्रासंगिक होते जा रहे हैं | धर्म गुरु तो दोषी हैं ही वो माँ बाप भी निर्दोष नहीं जो इन कथित धर्मावलम्बियों के द्वार पर अपनी बेटियों को निश्चिन्त हो छोड़ चले आते हैं | संत के चोले की महिमा को खंडित करते ये बहरूपिये किसी काम के नहीं | दूसरों को काम. क्रोध . मद लोभ लुटेरों से सावधान कराते ये खुद इन्ही तृष्णाओं में आकंठ डूबे हैं | ये मदरसे , मठ , गुरुकुल और सभी धर्म स्थान अपनी विश्वनीयता खो बैठे हैं | यूँ किसी धर्म में किसी के प्रति वैर भाव की कोई सीख नहीं दी जाती पर फिर भी इतिहास साक्षी है कि धर्म और राजनीति के नाम पर जितना लहू बहा उतना किसी और के नाम पर नहीं | कथित धर्मावलम्बियों ने मौलिक धर्म का स्वरूप ही बदल कर रख दिया |
    सो इस भ्रामक धर्म को त्याग अधर्मी होना ज्यादा सही दिखाई पड़ता है क्योकि राजनीति की रोटियां सबसे ज्यादा धर्म की आंच पर ही सिकती हैं | आज समय आ गया है-- परहित सरस धर्म नहीं भाई '' -- का प्रचंड उद्घोष हो !!!!
    आपकी रचना की ये पंक्तियाँ तो बहुत ही संवेदनशील हैं -
    जिन गुरुओं की बानी केवल, मिलकर रहना सिखलाती है,
    वहां देश के टुकड़े करके, बच्चों की बलि दी जाती है.
    बेबस मासूमों की ख़ातिर, लटक गया था जो सलीब पर,
    उसका धर्म प्रचार हो रहा, आज ग़रीबों को ख़रीद कर.
    सचमुच मानवता के लिए जीवन न्योछावर करने वाले मसीहाओं को भी शर्मशार कर रहे हैं ये सफेदपोश |
    आपके ज्वलंत विषयात्मक चिंतन को सादर आभार और नमन |

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    1. धन्यवाद रेनू जी. आसाराम बापू प्रसंग में मैंने यह कहा था कि जो माँ-बाप अपनी बेटियों को बाबाओं के आश्रमों में भेजते हैं वो बहुत हद तक ख़ुद उनके यौन-शोषण के लिए ज़िम्मेदार हैं. इस पर मेरे एक विद्वान मित्र मुझसे बहुत खफ़ा हो गए. आज आपके विचार पढ़कर लगा कि मैं इन अकल के अंधे माता-पिता के विषय में ठीक ही सोचता हूँ.
      धर्म-विकृति की प्रगति यूँ ही अगर होती रही और धर्म-मज़हब के क्षेत्र में ढोंगी, कामुक, भ्रष्ट, सामुदायिक वैमनस्य फैलाने वाले दरिंदों और प्रपंचियों का यदि ऐसा ही प्रभुत्व रहा तो वह दिन दूर नहीं कि जागरूक जन-समुदाय को धर्म-मज़हब से वितृष्णा हो जाएगी.

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    2. जी गोपेश जी -- इन माता - पिताओं को भी कटघरे में खड़ा कर प्रश्न पूछना चाहिए कि बेटियां है या फिर कोई कबाड़ जिसे इतनी असावधानी से कहीं भी फेंक दिया जाये ?????????? इन बाबाओं के लिए कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान हो तो ये डरेंगे जरुर क्योकि ऐसे लोगों को अपने मन मर्दन का बड़ा डर रहता है | सादर --

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    3. अंध-विश्वास और विकृत आस्था केवल अपना नहीं समस्त परिवार का नाश कर देती है. ये बाबा, ये दरवेश, ये तांत्रिक, ये ओझा, ये सयाने, सब के सब, चमत्कारों में विश्वास करने वालों को कम और उनके बच्चों को अपना निशाना ज़्यादा बनाते हैं. मैं तो बार-बार कहता हूँ कि इन पाखंडी बाबाओं के साथ, अपने बच्चों का वर्त्तमान और भविष्य बिगाड़ने वाले इन मूर्ख, पथ-भ्रष्ट माँ-बाप को भी उल्टा लटका देना चाहिए.

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    4. जी गोपेश जी -- बिलकुल सच कहा आपने, पर इसके लिए काश आपने कलम पकड़ने की बजाय काला कोट ही पहन लिया होता !!!!!!

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    5. रेनू जी. काला कोट पहनने की लियाक़त तो नहीं है लेकिन मजिस्ट्रेट पिता का खून तो मेरी रगों में है ही.
      वैसे अपने बच्चों को अपनी बेवकूफ़ी की वजह से पाखंडियों की हवस का शिकार हो जाने देने के ज़िम्मेदार लोगों को समाज और क़ानून दोनों के ही द्वारा दण्डित किया जाना चाहिए.

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  10. सचमुच यह धर्म विकृति ही है...आपका यह लेख आँखें खोल वाला देने वाला है ये जन जन तक पहुँचना चाहिए। सही कहा ऐसे धार्मिक होने से तो नास्तिक होना भला है
    एकदम सटीक...चिन्तनीय लेख...

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    1. धन्यवाद सुधा जी. हमारी-आपकी और बहुत से लोगों की ऑंखें तो पहले से खुली हैं किन्तु अधिकांश जन-मानस तो इन धूर्तों के ही चंगुल में फंसा हुआ है.
      14 सितम्बर से 23 सितम्बर तक हम दिगंबर जैन मतावलंबियों के दश-लक्षण पर्व चल रहे थे, रोज़ मंदिर जाना होता था. माइक पर पंडित जी फड़कती फ़िल्मी धुनों पर ऐसे गीत गाते थे कि अहिंसा के सिद्धांत का परित्याग कर उनकी खोपड़ी फोड़ने का मन करता था और उन भक्तों का क्या कहना जो कि उन भजनों पर श्रद्धापूर्वक झूमते थे. ऐसे में कबीर बहुत याद आए हैं.

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  11. एक छोटी-सी कविता में आपने धर्म का नैतिक स्वरुप और वर्तमान में धर्म की दशा और दिशा को बारीकी से समाहित कर दिया है। 30 साल गुज़र जाने पर आज धर्म की स्थिति अपने मूल रूप में वही है जो होना चाहिए किन्तु धर्म को मानने वाले और उसे प्रचारित करने वालों की मंशा संशय के घेरे में है। धारदार विवेचना से कविता का अर्थ स्पष्ट समझ आता है पाठक को। देश की जनता का धर्म भीरु होना पाखंडियों की पौ-बारह किये हुए है। जनता को जाग्रत करना निताँत आवश्यक है लेकिन हमने देखा है तर्कवादी लेखकों (प्रोफ़ेसर कलबुर्गी , नरेंद्र दाभोलकर ,गोविन्द पानसरे ,गौरी लंकेश आदि) का हश्र धर्मान्धता और संकीर्णतावादी सोच के चलते विचलित करने वाला रहा है।

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    1. धन्यवाद रवींद्र सिंह यादव जी. आपने शहीद हुए तर्कवादी लेखकों के नाम गिनाने में जल्दबाज़ी कर दी है. कुछ दिन रुक जाते तो शायद हमारा नाम भी आ जाता. मैं धर्म के नाम पर शोषण करने वालों से ज़्यादा नाराज़ हूँ, धर्म के नाम पर शोषित होने वालों से और उन कायरों से जो धर्मांध दरिंदों को खुलेआम क़त्ले-आम करते देख भी कुछ भी नहीं करते.

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