मंगलवार, 18 मई 2021

हरी मिर्च

 (यह कहानी मेरे अप्रकाशित बाल-कथा संग्रह – ‘कलियों की मुस्कान’ से ली गयी है.

1990 के दशक की यह कहानी मेरी 10-12 साल की बेटी गीतिका की ज़ुबानी कही गयी है.)
हरी मिर्च -
क्या आपने तीन फ़ीट ऊँची हरी मिर्च देखी है?
एक और सवाल का जवाब दीजिए।
क्या ऐसी कोई मिर्च होती है जिसे आप खा तो नहीं सकते पर जिसका चरपरापन आप जिन्दगी भर भुला नहीं सकते?
ज़ाहिर है कि मेरे दोनों सवालों का जवाब आप ‘ना’ में देंगे और साथ ही मेरे ऐसे अटपटे सवालों को सुनकर आप मुझे बुद्धू या कोई पागल समझेंगे। पर मैं एक ऐसी हरी मिर्च से आपको मिलवा सकती हूँ जिसका कि क़द कुल तीन फ़ीट है और जो हम सबकी कल्पना से भी ज़्यादा चरपरी है। आप उसे खा नहीं सकते पर वो आपका भेजा चाट सकती है, कभी-कभी उसे खा भी सकती है।
ये हरी मिर्च चलती-फिरती भी है, हंसती-बोलती भी है। इस जादुई, आउट ऑफ़ दि वर्ड मिर्च को हम आलोक के नाम से जानते हैं।
आलोक महाशय हमारे लखनऊ वाले माथुर अंकिल के सुपुत्र हैं जिन्होंने अभी कुछ दिन पहले अपना छठा जन्मदिन मनाया था। इस बर्थ-डे पर उन्होंने केक काटकर खुद खाया था, और उसके पीसेज़ अपने कुछ खास दोस्तों को खिलाए थे पर अपने अनचाहे मेहमानों को उन्होंने सिर्फ़ उस केक पर लगी हुई मोमबत्तियों के टुकड़े खिला दिए थे।
आलोक को देखकर कोई भी मेरी बातों पर यकीन नहीं करेगा।
सुन्दर, सलोना, गोलमटोल चेहरे वाला, चमकदार बटन जैसी आँखों वाला आलोक हर किसी को अपना फ़ैन बना लेता है। उसकी लुभावनी मुस्कान, भोली-भाली हंसी, मीठी-मीठी बातें और गज़ब का कान्फि़डेन्स नए-नए दोस्त बनाने में उसके बहुत काम आते हैं।
कभी-कभी तो पहली मुलाकात के बाद दस मिनट के अन्दर ही वो मिलने वाले को अपना दोस्त बना लेता है। पर इस नए बने दोस्त को कुछ देर बाद ही यह पता चल जाता है कि उसका पाला किसी इनोसेन्ट और क्यूट बच्चे से नहीं बल्कि शैतान के नाना से पड़ा है।
हमारी घरेलू बिजली में दो सौ बीस वोल्ट का करेन्ट होता है जो कि काफ़ी खतरनाक होता है पर हमारे आलोक महाशय अपने मित्रों को चार सौ चालीस वोल्ट का झटका देने की काबिलियत रखते हैं।
कहा जाता है कि - ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात’ पर हमारे आलोकजी के चीकने पात की जगह नुकीले दांत ज़रूर निकले। पिछले पाँच साल से आलोक अपने नुकीले दांतों का ज़बर्दस्त इस्तेमाल कर रहे हैं। जैसे पोस्ट ऑफिस से कोई भी डाक बिना मोहर लगाए बाहर नहीं जा सकती वैसे ही आलोक के घर से कोई भी मेहमान अपने बदन पर उनके दांतों के गहरे-गहरे निशान लिए बगैर नहीं जा सकता।
मुझे और रागिनी को तो वो अपनी सबसे फ़ेवरिट दीदी कहते हैं पर हम दोनों के शरीर पर उनके दांतों की ग्रोथ का पूरा इतिहास अंकित है। तीन-चार साल पहले तक लोगबाग खुशकिस्मत हुआ करते थे क्योंकि उन्हें आलोकजी के सिर्फ़ दो-चार दांतों का प्रसाद मिलता था पर अब तो उनके दो दर्जन दांत हैं और उनमें अपने शिकारों पर दांत गड़ाने के लिए पहले से ताकत भी ज़्यादा आ गई है। सुनते हैं कि बड़े होने पर पूरे बत्तीस दांत आते हैं। अब अगर आलोक के भी पूरे बत्तीस दांत आ गए तो आगे चलकर हमारा क्या होगा?
आलोकजी की धमा-चौकड़ी और उनके बारे में पड़ौसियों की रोज़ाना आने वाली शिकायतों से परेशान होकर माथुर अंकिल ने उन्हें तीन साल से भी कम उम्र में स्कूल में डाल दिया। अपनी क्लास टीचर का दिल तो उन्होंने फ़ौरन ही जीत लिया। उनकी मिस ने उन्हें अपनी मनपसन्द चेयर पर बैठ जाने को कहा तो वो उन्हीं की चेयर पर विराजमान हो गए। बेचारी मिस ने जब तक उन्हें ढेर सारी टाफियों की रिश्वत नहीं दी तब तक उन्होंने अपनी कुर्सी नहीं बदली।
रोज़ाना स्कूल जाने से पहले आलोक अपने पापा से एक टॉफ़ी और अपनी मम्मी से एक छोटी चाकलेट वसूला करते थे पर स्कूल से लौटते समय उनका लन्च बॉक्स तमाम टॉफ़ी, चाकलेट्स और मिठाइयों से भरा मिलता था। माथुर अंकिल ने समझा कि उनकी टीचर्स उन पर कुछ ज़्यादा ही प्यार बरसा रहीं हैं। माथुर अंकिल उन्हें प्यार में बच्चे को बिगाड़ने से मना करने के लिए एक दिन आलोक के स्कूल पहुंचे तो एक दर्जन बच्चों के पैरेन्ट्स वहां पहले से मौजूद थे। उन सबकी यही शिकायत थी कि कोई शरारती बच्चा अपनी दादागिरी से अपने तमाम साथियों के लन्च बॉक्सेज़ का बढि़या माल झटक कर अपना लन्च बॉक्स भर लेता है। माथुर अंकिल ने चुपचाप वहां से खिसकने में ही अक्लमन्दी समझी। उन्होंने यह जानने की कोशिश नहीं की कि ये शरारती बच्चा कौन है।
माथुर अंकिल की मम्मी यानी हमारी माथुर दादी आलोक को नटखट कन्हैया का दूसरा अवतार मानती हैं। पर कभी-कभी उनको अपने कान्हा की शरारतों की अच्छी खासी कीमत चुकानी पड़ती है। माथुर दादी की कमर में अक्सर दर्द रहता है और अक्सर वो अपनी कमर दबवाने के लिए हम बच्चों की सेवाएं लेती रहती हैं। इन सेवाओं के बदले में हमको फ़ौरन अच्छा-खासा इनाम भी मिल जाता है। एक दिन माथुर दादी ने अपने कान्हाजी से अपनी कमर दबाने की फ़रमाइश कर दी। उनके कान्हाजी ने इस सेवा के बदले आइसक्रीम कोन की फ़रमाइश कर दी। बेचारी दादी को अपनी सेवा कराने के बदले में अपने खिदमतगार को काजू-बादाम वाला आइसक्रीम कोन दिलाने का वादा करना पड़ा। आलोक दादी की कमर दबाने लगे पर तीन-चार मिनट में ही उनके हिसाब से काम पूरा हो गया। उन्होंने दादी से प्यार से पूछा -
‘दादी ! बहुत हो गया। अब बस करूं?’
दादी भी उस्ताद थीं। वो आइसक्रीम कोन के बदले में अभी और सेवा कराना चाहती थीं। अपनी कमर पर उसके हाथ रुकते ही उन्होंने उसे घुड़कते हुए कहा -
‘चुपचाप मेरी कमर दबाता रह । जब तक मैं मना नहीं करूंगी, तू मेरी कमर दबाते रहना। अगर उससे पहले रुका तो तुझे आइसक्रीम नहीं दिलाऊँगी।’
आलोकजी ने दादी से जल्दी ना कराने के लिए एक अनोखा तरीका खोज निकाला। घर के बाहर बजरी पड़ी हुई थी। आलोकजी दादी की नज़रों से छुपकर चुपचाप कुछ महीन कंकडि़यां बीन लाए और उन्हें अपनी हथेलियों में दबाकर दादी की कमर दबाने लगे। हाय हाय करते हुए तुरन्त ही दादी ने आलोक को अपनी कमर दबाने से रोक दिया। अपनी कमर सहलाती हुई दादी आलोक को भला-बुरा कहती रहीं पर उन्हें अपने वादे के मुताबिक आलोक को आइसक्रीम कोन तो दिलाना ही पड़ा।
लखनऊ की मेहमाननवाज़ी के किस्से सारी दुनिया में मषहूर हैं पर आलोकजी अपने मेहमानों की ख़ातिर ज़रा अलग ढंग से करते थे। स्कूल में उन्होंने काउण्टिंग करना क्या सीख लिया, बस मेहमानों की तो शामत आ गई। पेटू मेहमानों की खुराक का हिसाब रखने की जि़म्मेदारी उन्होंने बिना किसी से पूछे सम्भाल ली। धड़ाधड़ रसगुल्ले और समोसे गपागप करने वाले मेहमान के सामने वो अपनी रनिंग कमेन्ट्री कुछ इस तरह शुरू कर देते -
‘अंकिल ! ये आपने चौथा रसगुल्ला खाया। ये आपकी प्लेट में जो समोसा रक्खा है, वो पाँचवां है।’
इसी तरह मोटी आंटियों पर भी वो बहुत मेहरबान रहते थे। जहां ऐसी किसी आंटी ने चिप्स या कोल्ड ड्रिंक उठाने के लिए हाथ बढ़ाया तो वो डॉक्टर बन कर जंक फ़ूड के खि़लाफ़ अपना भाषण शुरू कर देते। कभी-कभी तो वेइंग मशीन उठाकर ले आते और आंटियों को फ्री में अपना वेट लेने के लिए कहने लगते।
एक बार एक उनके घर एक ऐसे सज्जन आए जिनके दांत लगातार पान और तम्बाकू चबाने से बिल्कुल काले पड़ गए थे। आलोकजी मेरे कान में फुसफुसाकर बोले –
‘दीदी देखो आइरन मैन आया है। इसके सारे दांत लोहे के हैं।’
मैंने उसे डांटते हुए कहा –
‘हट! ऐसा नहीं है। इनके दांत असली हैं।’
मेरे रोकते-रोकते आलोकजी अपनी बात को सच सिद्ध करने के लिए अपने हाथों में छुपाकर कुछ ले गए और उन अंकिल के पास जाकर कहने लगे –
अंकिल आप ज़रा हंसिए।’
अंकिल ज़रा हंसे तो उन्होंने अपने हाथ में छुपाया हुआ मैग्नेट निकाल कर उनके दांतों पर लगा दिया। मैगनेट जब अंकिल के दांतों पर चिपका नही तो वो निराश होकर मुझसे कहने लगे –
‘दीदी आप ठीक कह रही थीं। अंकिल के दांत लोहे के नहीं हैं, ये तो असली हैं।’
माथुर दादी हर मंगलवार को हनुमान चालीसा का पाठ करती हैं। अब चाहे वो किचिन में हों या बेडरूम में, या ड्राइंग रूम में, उनका ये पाठ हर जगह चलता रहता है। सबसे मज़दार सिचुएशन तब होती है जब कि दादी टीवी के सामने बैठकर भी अपना पाठ जारी रखती हैं। टीवी पर प्रोग्राम देखने वालों को इससे डिस्टर्बेन्स हो तो हो, पर उनकी भक्ति में कोई बाधा नहीं पहुंचा सकता। एक दिन वो टीवी के सामने बैठकर हनुमान चालीसा का पाठ पढ़े जा रही थीं और टीवी पर बच्चों की कोई मज़ेदार कार्टून फि़ल्म चल रही थी। आलोक ने दादी से चुप हो जाने के लिए कहा पर दादी ज़ोर-ज़ोर से अपना पाठ पढ़ती रहीं। उनसे अपनी वोल्यूम कम करने की प्रार्थना की गई पर उन्होंने उसे भी ठुकरा दिया। आलोकजी ने दौड़ कर टीवी का रिमोट अपने हाथ में लिया और दादी को चुप करने के लिए उनके के सामने खड़े होकर उन्होंने रिमोट का म्यूट वाला बटन दबा दिया। टीवी रिमोट का म्यूट वाला बटन दबाने पर भी जब दादी की वोल्यूम पर असर नहीं पड़ा तो वो दुखी होकर माथुर अंकिल से बोले –
‘पापा ! टीवी रिमोट का म्यूट वाला बटन खराब हो गया है, दादी तो इससे म्यूट ही नहीं होतीं।’
एक बार पापा और माथुर अंकिल को अपने एक दोस्त के बच्चे की बर्थ-डे पार्टी में जाना था। उनके साथ हम दोनों बहनें और आलोक भी जा रहे थे। पापा और माथुर अंकिल आपस में ये बात कर रहे थे कि अगर सिर्फ़ टी पार्टी हुई तो एक सौ एक रुपये वाला लिफ़ाफ़ा और अगर वहां डिनर होगा तो दो सौ इक्यावन वाला लिफ़ाफ़ा देंगे। इस हिसाब से दोनों तरह के लिफ़ाफ़े बनाकर दोनों दोस्तों ने अपनी-अपनी जेबों में रख लिए। बर्थ-डे पार्टी में हम पहुंचे तो आलोकजी ने देखा कि वहां तो डिनर का इन्तजाम था। उन्होंने पचास लोगों के सामने अपनी फ़ुल वोल्यूम पर अपने पापा से कहा –
‘पापा यहां तो डिनर का इन्तज़ाम है, आप दो सौ इक्यावन वाला लिफ़ाफ़ा निकालिए।’
आलोकजी ने पिछले साल कुंग फ़़ू क्लासेज़ ज्वाइन किए पर उसकी प्रैक्टिस के लिए उन्होंने अपने पापा को सैण्ड बैग की तरह इस्तेमाल किया। माथुर अंकिल ने आलोकजी के प्रहारों से खुद को बचाते-बचाते कुंग फ़ू के अच्छे-खासे दांवपेच सीख लिए हैं पर इस साल उनका पूरा ध्यान क्रिकेट सीखने पर है। अगला सचिन बनने के लिए वो अभी से तैयारी कर रहे हैं। अब इसके लिए उनकी कॉलोनी के मकानों के दो-चार दर्जन शीशे टूट-फूट जाएं तो चिन्ता की क्या बात है? पर माथुर अंकिल उनके क्रिकेट प्रेम से बहुत परेशान हैं। दो-चार दर्जन शीशे टूटने के हादसे तो अभी उनकी टेनिस वाली बौल से हो रहे हैं पर जब वो कॉर्क की बौल से खेलने लगेंगे तो कॉलोनी के तमामघरों के दरवाज़ों और खिड़कियों के शीशों के साथ अंकिलों, आंटियों, दीदियों और भैया लोगों के सर भी टूटा करेंगे।
मेरे पापा ने कॉलोनी वालों को यह सलाह दी है कि वो सब अपने घरों की बाउण्ड्री वाल्स को बहुत ऊँचा करवा लें और जब भी आलोक बैटिंग कर रहे हों तो वो घर से निकलते वक्त हैल्मेट पहन कर निकलें।
आलोकजी से हमारी मुलाकात अब तक सिर्फ़ हमारे विण्टर वैकेशन्स के दौरान होती है। हम अल्मोड़ा में रहते हुए आलोकजी को बहुत मिस करते हैं। अब माथुर अंकिल ने यह तय किया है कि वो इस साल, गर्मियों की छुट्टियां, सपरिवार हमारे साथ अल्मोड़ा में बिताएंगे। हम दोनों बहनें बेसब्री से आलोकजी से मिलने का इन्तज़ार कर रही हैं और उनके साथ धमाचौकड़ी करने का पूरा प्लान बना रही हैं पर हमारे पापा अपने पडौसियों के घरों की बाउण्ड्री वाल्स को ऊँचा करवाने में बिज़ी हैं। आस-पड़ौस के सभी घरों में हैल्मेट्स और फर्स्ट-एड का पूरा इन्तज़ाम भी कर दिया गया है और पापा ने खुद अपने लिए एन्टिसिपेट्री बेल के लिए अभी से एप्लाई भी कर दिया है।

12 टिप्‍पणियां:

  1. बHउत बढ़िया थे आपके आलोकजी।

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    1. ज्योति, पेट में लम्बी दाढ़ी वाले बच्चे मनोरंजन का पिटारा तो होते ही हैं और साथ में खतरे की घंटी भी होते हैं.

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  2. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा मंगलवार (18-05-2021 ) को 'कुदरत का कानून अटल है' (चर्चा अंक 4069) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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  3. 'कुदरत का कानून अटल है' (चर्चा अंक - 40690) में मेरी बालकथा को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी.

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  4. उत्तर
    1. कहानी की प्रशंसा के लिए धन्यवाद गगन शर्मा जी.
      मेरी कहानी आपको थोड़ी अलग सी लगी यह जान कर मुझे थोड़ी अलग सी खुशी हुई.

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  5. बहुत बढ़िया,आनंद दे गई आपकी ये कहानी, रोचक भी ।

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    1. कहानी की प्रशंसा के लिए धन्यवाद जिज्ञासा.
      मुझे बच्चों के लिए पंचतंत्र और हितोपदेश वाली शिक्षाप्रद कहानियाँ पूरी तरह संतुष्ट नहीं कर पातीं.
      बच्चे शैतानी न करें तो क्या धर्म-दर्शन की बातें करें?

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