शनिवार, 5 जून 2021

शौक़-ए-मुदर्रिसी

 बादशाह शाहजहाँ की आँखों के सामने ही उसका राज-पाट चला गया, उसके तीन बेटे मौत के घाट उतार दिए गए और उसे आगरे के किले के मुसम्मन बुर्ज में ताज़िंदगी एक क़ैदी की हैसियत से दिन गुज़ारने के लिए मजबूर कर दिया गया.

अकेला बूढ़ा, बेबस, लाचार, गमगीन और मायूस क़ैदी करे तो क्या करे?
शाहजहाँ ने एक क़ासिद (सन्देश वाहक) के ज़रिए अपने बेटे बादशाह औरंगज़ेब को संदेसा भिजवाया कि ख़ाली वक़्त गुज़ारने के लिए उसके पास कुछ बच्चे भेज दिए जाएं जिनको कि पढ़ा कर वह अपना वक़्त गुज़ार सके और अपना मन बहला सके.
बादशाह औरंगज़ेब ने शाहजहाँ की यह गुज़ारिश ठुकराते हुए क़ासिद से कहा –
‘अब्बा हुज़ूर अब बादशाह तो नहीं रहे पर अब वो उस्ताद बन कर अपने शागिर्दों पर अपना हुक्म चला कर अपनी बादशाहत का शौक़ पूरा करना चाहते हैं.’
औरंगज़ेब की तरह मेरी नज़र में भी शौक़-ए-मुदर्रिसी और शौक़-ए-बादशाहत में कोई ख़ास फ़र्क नहीं है.
घर का पांचवां और सबसे छोटा बच्चा होने की वजह से मुझे घर में तो कभी ज़्यादा बोलने नहीं दिया गया.
भाई-बहन की छत्र-छाया से मुक्त होने के बाद झांसी के बुंदेलखंड कॉलेज से बी. ए. करते समय मुझे अचानक ज्ञान प्राप्त हुआ कि मैं पढ़ाई के मामले में अच्छा-ख़ासा हूँ और बोल भी ठीक-ठाक लेता हूँ.
लखनऊ यूनिवर्सिटी में एम. ए. करते समय डेरोज़ियो का अवतार बन कर अपने साथियों का बाक़ायदा क्लास लेने में मुझे मज़ा आने लगा.
(कलकत्ता के हिन्दू कॉलेज के नौजवान अध्यापक डेरोज़ियो का मुदर्रिसी का जूनून इतना ज़्यादा था कि वो कॉलेज में क्लास रूम्स बंद हो जाने के बाद कॉलेज के वरांडे में क्लास लेने लगता था और कॉलेज का फाटक बंद हो जाने पर इच्छुक छात्रों को अपने घर पर बुला कर पढ़ाने लगता था. 23 साल की अल्पायु में अपने प्राण त्यागने से पहले उस ने बंगाल में जागरूक-प्रगतिशील युवकों की एक बड़ी जमात तैयार कर दी थी.)
एक प्रवक्ता के रूप में लखनऊ यूनिवर्सिटी में अपनी पारी शुरू करते समय मेरा भी सपना था कि मैं अपने विद्यार्थियों के मानस-पटल पर डेरोज़ियो की जैसी छाप छोड़ सकूं.
मेरा यह सपना तो कभी पूरा नहीं हुआ लेकिन मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि मुझे पढ़ाने में हमेशा बहुत आनंद आया.
डायस पर खड़े हो कर, एकाग्र चित्त विद्यार्थियों को पिन-ड्रॉप साइलेंस के माहौल में पढ़ाने के नशे के सामने किसी शराब का नशा क्या होता होगा?
मेरा यह मानना है कि इतिहास के उबाऊ वृतांतों को ऐतिहासिक अंतर्कथाओं से और समकालीन साहित्य में उनकी अभिव्यक्ति के साथ जोड़ने से, उन्हें रोचक बनाया जा सकता है.
क्लास में सिर्फ़ नोट्स के भूखे मूर्ख विद्यार्थियों को छोड़ कर मेरे सभी विद्यार्थी मेरे पढ़ाने की इस शैली को पसंद करते थे.
अल्मोड़ा में क्लास में इतिहास-विषयक मेरी क़िस्सागोई के मुरीद एम. ए. फ़ाइनल के मेरे विद्यार्थी एक बार मुझ से अनुमति लेकर तब मेरे एम. ए. पार्ट वन की क्लास में आ कर बैठ गए जब मैं रज़िया सुल्तान वाला अध्याय पढ़ाने वाला था.
पिछले साल के पढ़ाए गए टॉपिक को दुबारा उनके पढ़ने की ललक का रहस्य तुरंत मेरे दिमाग में कौंध गया. मैंने मुस्कुराते हुए उन जिज्ञासु विद्यार्थियों से कहा–
‘मित्रो, तुम सबको एक निराश करने वाला समाचार दे दूं. मैं रज़िया वाले चैप्टर में रज़िया-याक़ूत प्रेम-प्रसंग का ज़िक्र भी नहीं करने वाला हूँ.
और हाँ, मुग़ल इतिहास के तुम्हारे क्लास में जहाँगीर वाले चैप्टर में सलीम-अनारकली वाला अफ़साना भी गायब रहेगा.’
इतना सुनना था कि बेचारे निराश विद्यार्थी मेरे क्लास से भाग खड़े हुए.
एक रहस्य की बात बताऊँ - विश्वविद्यालय में एक अध्यापक को शौक़-ए-मुदर्रिसी को पूरा करने के लिए मौके बहुत कम ही मिल पाते हैं.
एडमिशन की लम्बी प्रक्रिया, चुनाव, हड़तालें, खेल-कूद प्रतियोगिताएँ, सांस्कृतिक कार्यक्रम, वार्षिक समारोह, कन्वोकेशन, परीक्षा, परिणाम आदि के अलावा वैकेशंस और फिर अल्लम-गल्लम छुट्टियों (प्रिवेलेज लीव, कैज़ुअल लीव, मेडिकल लीव, ड्यूटी लीव, फ़्रेंच लीव, शोक सभाएं, नेताओं की जयंतियां और इनके ऊपर – ‘आज पढ़ने-पढ़ाने का मूड नहीं है’ वाली घोषणाएं) की कृपा से एक अध्यापक के रूप में अपने 36 साल के कैरियर में मुझे याद नहीं पड़ता कि कभी एक सत्र में 100 से अधिक दिन क्लास हुए हों.
(मेरे जो भी साथी मेरे इस पोल-खोल कार्यक्रम से इत्तिफ़ाक़ नहीं रखते हैं और यह दावा करते हैं कि उन्होंने हर सत्र में 150-200 दिन पढ़ाया है, उन्हें मैं ‘झूठाचार्य’ और ‘फेंकाचार्य’ का ख़िताब देना चाहूँगा.)
इक्कीसवीं सदी आते ही हमारे इतिहास विभाग के विद्यार्थी क्लास से न जाने क्यों गायब होने लगे. उन्हें आपस में गुफ़्तगू करना, सांस्कृतिक कार्यक्रमों को ज़रुरत से ज़्यादा महत्व देना, छात्र-राजनीति को ही अपना कैरियर बनाना और रोमियो-जूलियट की कथा को पुनर्जीवित करना, पढ़ने-लिखने की तुलना में कहीं ज़्यादा अच्छा लगने लगा था.
एम ए. के विद्यार्थियों में क्लास में नोट्स लिखाने के बजाय सिर्फ़ लेक्चर देने वाले जैसवाल साहब का जादू अब फीका पड़ गया था.
क्लास में दीवारों को मैं कब तक पढ़ाता?
कभी उक्ता कर मैं लाइब्रेरी चला जाता तो कभी कविताएँ लिख कर अपना मन बहलाता तो कभी किसी दूसरे विभाग में जा कर श्रद्धालु मित्रों का भेजा चाटता.
आख़िरकार अपनी पढ़ाने की ललक को संतुष्ट करने के लिए मैंने बी. ए. के क्लासेज़ लेने शुरू कर दिए.
भला हो इन छोटे बालक-बालिकाओं का जिन्होंने मेरी कक्षाओं में खासी दिलचस्पी ली.
विभाग में अपने कक्ष में ख़ाली समय में मैं अपने विद्यार्थियों की शंका-समाधान के लिए हमेशा उपलब्ध रहता था लेकिन इस सुविधा का लाभ उठाने वाले मेहरबान विद्यार्थियों की संख्या बहुवचन में कम ही हुआ करती थी.
15 अगस्त को और 2 अक्टूबर को आयोजित समारोहों में और हिंदी विभाग के कार्यक्रमों में भाषण देने के बहाने क्लास लेने का मेरा शौक़ थोड़ा-बहुत ज़रूर पूरा हुआ करता था.
आकाशवाणी अल्मोड़ा में वार्ता, कहानी, कविता और परिचर्चा के बहाने मुझे बोलने का ख़ूब मौक़ा मिला.
एक शख्स जो कि अपने खर्चे पर टिम्बकटू जा कर भी बोलने का मौक़ा न छोड़ना चाहता हो, उसे बोलने के पैसे मिलें तो उसके लिए पृथ्वी पर ही स्वर्ग क्यों नहीं बन जाएगा?
मुझे पता था कि मैं कोई चाणक्य नहीं था जो मुझे चन्द्रगुप्त मौर्य मिल जाता, न ही मैं कोई समर्थ गुरु राम दास था जो किसी वीर शिवा को छत्रपति शिवाजी बना देता. और मैं स्वामी रामकृष्ण परम हंस तो क़तई नहीं था जिनका कि सन्देश लेकर किसी स्वामी विवेकानंद ने भारतीय धर्म-दर्शन की पताका समूची दुनिया में फहरा दी थी.
फिर भी मुझे तालिब-ए-इल्म की हमेशा सख्त ज़रुरत रहा करती थी.
अवकाश-प्राप्ति से दो साल पहले की बात है.
मैं ट्रेन से दिल्ली जा रहा था. मेरे सामने की सीट पर एक अपरिचित नौजवान बैठा था. उस नौजवान ने मुझे बड़ी श्रद्धा से नमस्कार किया. फिर मुझ से पूछा –
‘माफ़ कीजिएगा सर ! क्या आप प्रोफ़ेसर जैसवाल हैं?’
मैंने हामी भरी तो उसने बताया कि वह कुमाऊँ विश्वविद्यालय के नैनीताल परिसर से इतिहास में एम. ए. कर चुका है और मुझे नैनीताल में राष्ट्रीय आन्दोलन पर आयोजित एक सेमिनार में सुन कर वह मेरा प्रशंसक बन चुका है.
धन्यवाद की औपचारिकता के बाद उसने मुझ पर एक सवाल दाग दिया-
‘सर, गांधी जी की डांडी-मार्च को आप कहाँ तक सही मानते हैं?’
मैंने कहा –
‘बालक ! तूने तो मुझे बड़ी मुश्किल में डाल दिया. मेरे तो समझ में ही नहीं आ रहा कि तेरे सवाल का मैं क्या जवाब दूं.’
बालक को मेरी मुश्किल क़तई समझ में नहीं आई. डांडी-मार्च पर तो कोई बच्चा भी बोल सकता था फिर जैसवाल साहब - -- -- ?
मैंने उस बालक को अपनी मुश्किल समझाते हुए कहा –
‘मेरे समझ में ये नहीं आ रहा है कि तेरे सवाल का जवाब मैं काठगोदाम से लाल कुआँ तक दूं या रूद्रपुर तक दूं या फिर दिल्ली तक!’
बालक ने हंसते हुए मेरे चरण गहे और फिर मेरे जवाब को हद से हद, काठगोदाम से रुद्रपुर तक सीमित करने की प्रार्थना भी कर डाली.
मुझे रिटायर हुए दस साल हो चुके हैं. ग्रेटर नॉएडा में मेरा शौक़-ए-मुदर्रिसी कुंठित और उदास है.
यहाँ तो कोई परिंदा भी इतिहास और साहित्य में दिलचस्पी लेने वाला नहीं मिलता.
सुबह-शाम टहलते वक़्त मिलने वाले परिचित सज्जन भी मेरा वाकिंग क्लास अटेंड करने के बजाय मुझे दूर से ही नमस्कार करने में अपनी भलाई समझते हैं.
झक मार कर मैं अपनी श्रीमती जी को ही अपना विद्यार्थी बनाने की सोचता हूँ तो वो अचानक से पी. टी. उषा का अवतार बन जाती हैं. अगर मैं अपनी दोनों बेटियों में से किसी को भी वीडियो चैटिंग के ज़रिए विस्तार से कोई रोचक ऐतिहासिक क़िस्सा सुनाना चाहूं तो वो बच्चों की काल्पनिक पुकार पर मुझ से सॉरी कह कर भाग खड़ी होती हैं.
अंतरात्मा से निकली आवाज़ मुझे निरंतर सम्बोधती रहती है -
अब किराए के भी शागिर्द न तू पाएगा
क्लास लेने को तेरा दिल ये तड़पता क्यों है
सो जा चाणक्य न अब चन्द्रगुप्त आएगा
खोल कर अपनी शिखा व्यर्थ भटकता क्यों है
लेकिन अंतरात्मा की पुकार पर तो नेतागण पार्टियाँ बदलते हैं, उसकी पुकार पर मैं क्यों अपना जीने का अंदाज़ बदलूं?
मुझ चाणक्य को अगर चन्द्रगुप्त भारत में नहीं मिला तो मैं दक्षिणी ध्रुव जाकर किसी पेंगुइन को अपना शिष्य बना लूँगा.
शौक़-ए-मुदर्रिसी मुझे था, आज भी है और आगे भी यही मेरी बैटरी चार्ज करता रहेगा.
भला हो मेरे फ़ेसबुक मित्रों का और मेरे ब्लॉग के अनुगामियों का, जिनका कि मैं आए दिन का क्लास लेता रहता हूँ.
ऐ बदनसीब शाहजहाँ ! तेरे ज़माने में अगर फ़ेसबुक होता और अपने ब्लॉग पर तुझे कुछ भी अल्लम-गल्लम लिखने की आज़ादी होती तो तू शागिर्दों के लिए इतना न तड़पता.
मुदर्रिसी के बहाने तेरा शौक़-ए-बादशाहत तो बिना शागिर्दों के ही पूरा हो जाता.
तो मित्रो ! यानी कि मेरे शागिर्दों ! आज का पाठ अब संपन्न हुआ.
जल्द ही ऐसी ज़बर्दस्ती आयोजित की जाने वाली कक्षा में आप से फिर मिलूंगा.

10 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लाक को ब्लोग (चिट्ठा) कर लें। लाजवाब लिखा है और आप एक समर्पित शिक्षक के रूप में जाने जाते भी रहे हैं।

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  2. सुधार कर दिया मित्र !
    तुम मित्रों की ज़र्रानवाज़ी का शुक्रिया !
    अध्यापक मैं चाहे कैसा भी रहा हूँ, पर यह सच है कि मुझे पढ़ाने आनंद आता था और आज भी पढ़ाने की चाहत मुझ में क़ायम है.

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  3. 45 मिनट तक लगातार पढ़ाने की आदत जो शिक्षक में होती है ये तो उनकी बातचीत में भी समझ मे आ जाता है। बहुत मिस कर रहे होंगे न आप वो समय!

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    1. ज्योति, पढ़ाने के लिए मुझे 45 मिनट हमेशा कम लगते थे. मैं समय बचाने के लिए क्लास में अटेंडेंस भी नहीं लेता था. अब रिटायर होकर तो मैं रोज़ गाता हूँ - 'जाने कहाँ गए वो दिन --' !

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  4. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (6 -6-21) को "...क्योंकि वन्य जीव श्वेत पत्र जारी नहीं कर सकते"(चर्चा अंक- 4088) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
    --
    कामिनी सिन्हा

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    1. 'क्योंकि वन्य-जीव श्वेत-पत्र जारी नहीं कर सकते' (चर्चा अंक - 4088) में मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद कामिनी जी.

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  5. आपकी अगली कक्षा की प्रतीक्षा रहेगी सर ! आज की पढाई रोचक रही ।

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    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद मीना जी !
      अगली कक्षा इतिहास से ही विशुद्द रूप से सम्बद्ध रहेगी.

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  6. बहुत ही रोचक और बीते दिनों की जानकारी भरी महत्वपूर्ण कक्षा आज भी ज्ञान चक्षु खोलने में सक्षम है,आपकी किस्सागोई की जितनी तारीफ हो कम है,वैसे हम जैसे लोगों के ये प्रिय विषय हैं। आपको विनम्र नमन और सादर शुभकामनाएं ।

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  7. प्रशंसा के लिए धन्यवाद जिज्ञासा.
    मुझे यह जानकर बड़ी खुशी होती है कि आज की युवा-पीढ़ी मेरी किस्सागोई को पसंद करती है.

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