रविवार, 18 जुलाई 2021

हैप्पी एंडिंग

बहुत पहले समर सेट मॉम का अमर उपन्यास - दि रेज़र्स एज‘ पढ़ा था. कठोपनिषद के दर्शन से प्रभावित इस उपन्यास में ‘मॉम’ सुख की परंपरागत परिभाषा को नकारते हुए उसकी परिस्थिजन्य व्याख्या करते हैं.
आम तौर पर लोग जिस घटना को दुखद मानते हैं वह किसी और की दृष्टि में सुखद हो सकती है.
अल्मोड़ा में 1988 में हम केंटोनमेंट के नीचे दुगाल खोला में रहने के लिए आ गए थे.
दुगाल खोला में हर तबक़े के लोग थे, कुछ समृद्ध, कुछ हमारे जैसे ठीक-ठाक आर्थिक स्थिति वाले और कुछ गरीब भी. हमारे पडौस में एक पंडित परिवार रहता था.
पंडित जंगलात के दफ़्तर में चपरासी था. पंडित की अच्छी-खासी ऊपरी आमदनी भी थी पर उसकी तनख्वाह और ऊपरी आमदनी का ज़्यादातर हिस्सा उसकी नशाखोरी की भेंट चढ़ जाता था .
उसकी पत्नी यानी पंडिताइन घर सम्हालती थी और स्वेटर बुनकर चार पैसे भी कमा लेती थी..
पंडित का 20 साल का लड़का हाईस्कूल पास था पर फिर पिता श्री ने उसकी पढ़ाई बंद करवा कर उसे एक ट्रक ड्राइवर का क्लीनर बनवा दिया था.
पंडित परिवार में दो बेटियां भी थी, बड़ी वाली कोई पंद्रह सोलह साल की और छोटी वाली छह-सात साल की, दोनों इतनी खूबसूरत कि विश्वास ही नहीं होता था कि वो मरगिल्ले से पंडित और सूरत-कुबूल किन्तु उदास, बुझी-बुझी पंडिताइन की बेटियां हैं.
पंडित की बड़ी बेटी भी नवां पास कराकर घर बैठा दी गयी थी. सिर्फ उसकी छोटी गुड़िया मुहल्ले की सरकारी पाठशाला में पढ़ने जाती थी.
पंडित की बेटियां थोड़ी बड़ी थीं पर उन्होंने अपनी उम्र से कम वाली हमारी बेटियों से जल्दी ही दोस्ती कर ली थी. इस दोस्ती की खास वजह थी, उनका हमारे घर आकर टीवी देखना.
पंडित सुबह को जब अपने दफ़्तर जाता था तो पूरे होशो-हवास में जाता था पर वो जब भी शाम को दफ़्तर से लौटता था तो लड़खड़ाते क़दमों से और उसके मुंह से शराब की गंध हमारे घर तक भी पहुँच जाती थी.
घर लौटकर पंडित रोज़ हंगामा करता था. कभी वो पंडिताइन को कोसता हुआ उसकी पिटाई करता था तो कभी वो अपने बेक़सूर बच्चों के दो-चार हाथ जमा दिया करता था.
रोते हुई पंडिताइन उसे जैसे-तैसे खाना खिलाती थी फिर वो सुबह तक मुर्दे की तरह अपनी खाट पर पड़ जाता था.
मेरा मन करता था कि उस कमबख्त पंडित के रोज़ाना दो-चार जूते-लात जमा दिया करूं पर ऐसा करने का मुझे कभी सु-अवसर मिला नहीं. हाँ, इतना ज़रूर था कि मैंने न उस से कभी बात करना मुनासिब समझा और न ही कभी उसके नमस्कार का जवाब देना.
पंडिताइन अच्छे स्वेटर बुनती थी पर उस से उसे ज़्यादा आमदनी नहीं होती थी और उसका लड़का ट्रक ड्राइवर का क्लीनर बन कर जो सौ-दो सौ रूपये महीने कमा लेता था, वो भी घर-खर्च के लिए पूरे नहीं पड़ते थे.
अपनी नशाखोरी में पंडित जितने पैसे बहा देता था, उसका अगर वो आधा भी घर-गृहस्थी पर खर्च कर देता तो उसके पूरे परिवार को एक-एक पैसे का मुहताज होकर दूसरों के सामने ज़लील नहीं होना पड़ता.
पंडिताइन बिना तकल्लुफ मेरी पत्नी के पुराने कपड़े मांगकर ले जाती थी.
मुहल्ले के स्थानीय लोगों से उसे कुछ भी मांगने में शर्म आती थी.
हमारी बेटियां तो पंडित की छोटी बेटी से भी काफ़ी छोटी थीं पर उनके पुराने कपड़ों, जूतों वगैरा पर भी पंडित की गुड़िया का ही हक होता था.
एक बार हमारे यहाँ काम करने वाली शांति की इजा तीन महीने के लिए नॉएडा चली गईं.
पंडिताइन को जब यह खबर मिली तो वो रमा से मिलने चली आई. आने के थोड़ी देर बाद उसने अपना संकोच ताक पर रख कर रमा से कहा –
‘गीतू की मम्मी ! शांति की इजा तो बहुत दिन के लिए बाहर चली गयी है, उसकी जगह तुम मुझसे काम करा लो. जितने पैसे तुम उसको देतीं थीं, उतने मुझे दे देना.’
रमा ने पंडिताइन से पूछा –
‘पंडिताइन, शांति की इजा तो हमारे यहाँ झाड़ू-बर्तन का काम करती हैं. तुम क्या हमारे यहाँ ऐसा काम कर लोगी?’
पंडिताइन ने अपनी सिसकी दबाते हुए जवाब दिया –
‘गीतू की मम्मी, अपने बच्चों को भूखा मरते हुए देखने से तो झाड़ू-बर्तन वाला काम करना अच्छा है. बस, तुम से कोई पूछे तो ये कह देना कि पंडितानी हमारे यहाँ खाना बनाने का काम करती है.’
नशाखोरी के चक्कर में पंडित पर उधार का पहाड़ खड़ा हो गया था और इसकी वजह से उसकी नशाखोरी में भी विघ्न पड़ने लगा था. पर पंडित के ये दुर्दिन जल्द ही ख़त्म हो गए. उस पर अपनी ऐयाशी के लिए सारे अल्मोड़ा में बदनाम एक ठेकेदार मेहरबान हो गया था.
ठेकेदार अब रोज़ शाम को शराब और नमकीन की पुड़िया लेकर पंडित के घर पहुँचने लगा था.
रोज़ शाम को इन दारू बाज़ों की महफ़िल सजती थी. लेकिन पंडित पर उस ठेकेदार की मेहरबानी की असली वजह पंडित की बड़ी बेटी थी.
पंडित से उम्र में करीब पांच साल बड़ा वह ठेकेदार, उसका सारा क़र्ज़ चुकाने को तैयार था और उसे ता-उम्र शराब पिलाने को भी तैयार था, बस उसे अपनी बड़ी बेटी का हाथ ठेकेदार के हाथ में सौंपना था.
सबसे दुःख की बात यह थी कि पंडित को इस प्रस्ताव से कोई ऐतराज़ नहीं था. लेकिन इस बेमेल और बेहूदे प्रस्ताव का पंडिताइन ने अनोखे ढंग से स्वागत किया. उसने ठेकेदार की खोपड़ी पर अपनी पतीली फोड़ डाली और उसे धक्के मारकर अपने घर से निकाल दिया.
ठेकेदार का अपने घर से ऐसा निष्कासन पंडित को बर्दाश्त नहीं हुआ. उसने घर में सबके साथ मार-पीट की और अपनी नज़रों में सबसे बड़ी गुनहगार पंडिताइन पर तो वह डंडा लेकर पिल पड़ा पर इस बार उसका अपना बेटा अपनी माँ को बचाने के लिए चट्टान सा खड़ा हो गया. बेटे के एक धक्के से पंडित मुंह के बल औंधा होकर गिर पड़ा.
इस हादसे के बाद पंडित अपने ही घर में भीगी बिल्ली बन गया. अपनी पत्नी का चंडी का रूप और बेटे का संकट-मोचक का अवतार देखकर उसके होश ठिकाने आ गए थे.
पंडित अब पूरे परिवार के लिए बोझ बनता जा रहा था. रोज़ाना उधार के लिए तकाज़ा करने वाले अब उसके घर भी पहुँचने लगे थे और वो कुछ न कुछ पंडिताइन या उसके लड़के से वसूल कर ही उसका घर छोड़ते थे.
इधर ला-इलाज बीमारी ने पंडित का दामन थाम लिया था. घर में खाट तोड़ते हुए पंडित के ऊपर सबसे बड़ा ज़ुल्म यह ढाया जा रहा था कि उसे उसकी आनंददायिनी शराब से ज़बर्दस्ती दूर रक्खा जा रहा था.
हमारे लिए सबसे अच्छी बात यह हुई कि अब पड़ौस से आने वाला गाली-गलौज और मारपीट का शोर बिलकुल बंद हो गया था.
खैर लम्बे, महंगे इलाज और परिवार-जन की अथक सेवा के बाद पंडित कुछ ठीक हुआ और फिर अपने दफ़्तर जाने लायक भी हो गया.
चलो. अंत भला तो सब भला. देर आयद दुरुस्त आयद. पंडित को अक्ल आ गयी इस से अच्छा और क्या हो सकता था.
लेकिन पंडित के फिर से दफ़्तर जाने के एक हफ्ते बाद ही रमा ने बड़ी सुबह मुझे झकझोरते हुए जगाया और फिर वो घबराए हुए स्वर में बोली –
‘सुनिए जी, वो पड़ौस वाला पंडित रात अस्पताल में मर गया. अभी-अभी उसकी डेड बॉडी घर लाई गयी है.’
मुझे सहसा रमा की बात पर विश्वास नहीं हुआ. मैं भागकर पंडित के घर पहुंचा. वहां कीचड़ से सना पंडित का शव भू-शयन कर रहा था.
मातम पुर्सी करने वालों का हुजूम उमड़ता जा रहा था. लोग दिखावे के आंसू भी बहा रहे थे पर मैं देख रहा था कि पंडिताइन, उसके लड़के और उसकी बेटियों की आँखों में एक भी आंसू नहीं था.
पंडित का मदिरा प्रेम उसे फिर से कच्ची शराब की भट्टी पर ले गया था. भट्टी पर चार पेग लगाते ही वो वहीं लुढ़क गया था. बेहोशी की हालत में लोगबाग उठाकर उसे अस्पताल ले गए जहाँ दो घंटे बाद उसने दम तोड़ दिया.
खैर अब अंतिम यात्रा के लिए शव को नहला-धुला कर उसको नए कपड़े पहनाए जा रहे थे. बड़ा ग़मगीन माहौल था. पर मुझ दुष्ट को जिसने कि हमेशा ही मरहूम पंडित को गन्दा-संदा देखा था, आज उसे साफ़-सुथरा देखकर मन ही मन एक क़व्वाली की लाइन याद आ रही थी –
‘आज ही हमने बदले हैं कपड़े, आज ही हम नहाए हुए हैं.’
ज़िन्दगी फिर से अपने ढर्रे पर चल निकली थी. पंडिताइन घर की मुखिया का रोल अब बखूबी निभा रही थी.
पंडित की मृत्यु के करीब तीन महीने बाद एक इतवार को पंडिताइन, उसका लड़का और उसकी बड़ी लड़की हमारे घर आए.
बड़ी बिटिया को प्राइवेट कैंडिडेट के रूप में हाईस्कूल का फॉर्म भरने में मेरी मदद चाहिए थी.
मैं बिटिया की पढाई की फिर से शुरुआत का समाचार सुनकर बहुत खुश हुआ. मैंने बिटिया का फॉर्म भरवाते हुए उस से कहा –
‘बेटा ! तुझे हिंदी, इंग्लिश, संस्कृत और सामाजिक विज्ञान में कुछ भी मदद चाहिए हो तो हम लोगों के पास आ जाना.’
इसके बाद मेरे और रमा के बीच इशारों में कुछ बात हुई. फिर रमा कुछ रूपये लेकर आई और उन्हें पंडिताइन को देते हुए उस से बोली –
‘ये रूपये हमारी तरफ से बिटिया की फ़ीस के लिए हैं.’
पंडिताइन से उसके बेटे ने रूपये ले लिए और फिर उन्हें वह रमा को वापस करते हुए उस से बोला –
आंटी, रूपये नहीं, हमारे लिए आप लोगों का आशीर्वाद ही काफ़ी है. मुझे जंगलात के दफ़्तर में बाबू की जगह चपरासी की पक्की नौकरी मिल गयी है.’
मैंने सुखद आश्चर्य के साथ उस से पूछा –
'तेरी नौकरी लग गयी? अभी तो तेरी मूंछें भी नहीं आई हैं.’
लड़के ने शरमाते हुए जवाब दिया –
‘अंकल मैं तो अब 22 साल का हो गया हूँ.’
मैं मन ही मन पंडित को धन्यवाद दे रहा था. ज़िन्दगी में तो उसने कभी कोई अच्छा काम नहीं किया पर मर कर अपने बेटे को वह अपनी जगह पक्की नौकरी ज़रूर दिला गया, पंडिताइन के लिए फॅमिली पेंशन, ग्रुप इंश्योरेंस और फण्ड के कुछ पैसे भी छोड़ गया.
.
मुझे समर सेट मॉम का उपन्यास - 'दि रेज़र्स एज’ फिर से याद आ गया.
समस्त पंडित परिवार के लिए घर के मुखिया पंडित की मौत हैप्पी एंडिंग ही तो थी –
पंडित खुद नारकीय-कीट की ज़िन्दगी बसर कर रहा था. उसके लिए उसकी मौत से सुखद घटना और क्या हो सकती थी?
पंडिताइन को मारने-पीटने वाला और उसे गाली देने वाला, उसे पैसे-पैसे के लिए मोहताज बनाने वाला अब मौजूद नहीं था. पंडिताइन का वैधव्य उसके लिए नयी खुशियाँ, नई उम्मीदें लेकर आया था.
पंडित के लड़के को तो अपने बाप की जगह कम्पैशनेट ग्राउंड पर जंगलात के दफ़्तर में पक्की नौकरी मिल ही गयी थी.
पंडित की मौत से पंडित की बड़ी लड़की को उस अधेड़ ठेकेदार के हाथों बिकने का अब कोई खतरा नहीं था और सबसे अच्छी बात यह थी कि उसकी रुकी हुई पढ़ाई भी फिर से चालू हो गयी थी.
और पंडित की गुड़िया रानी को पहनने को नई फ्रॉक मिल गयी थी. उसकी इजा अब रोज़ सुबह उसे गिलास भर दूध पिला रही थी.
आमतौर पर कथा के अंत में पंडितजी कहते हैं –
‘जैसे उनके दिन फिरे, भगवान करे सबके दिन फिरें.’
मैं पंडित परिवार की इस हैप्पी एंडिंग के लिए भगवान को आज भी धन्यवाद देता हूँ और सच्चे दिल से प्रार्थना करता हूँ -
‘जैसे दुखी पंडित परिवार के दिन फिरे, भगवान करे उसके जैसे सभी दुखी परिवारों के दिन फिरें !’

20 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सार्थक संस्मरण, कभी कभी ऐसी अति किसी परिवार को पतन की ओर तथा किसी परिवार को उत्थान की ओर अग्रसर कर जाती है, आपके इस संस्मरण से ये प्रेरणा भी मिलती है, कि पंडिताइन का संघर्ष,मेहनत और और बच्चों के लिए किया गया त्याग आखिर उसके जीवन में अच्छा दिन ले आया,ऐसी कथाएं बड़ी प्रेरक होती हैं,आपको मेरा सादर नमन 🙏💐

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    1. धन्यवाद जिज्ञासा. हमारे-तुम्हारे आसपास इतना कुछ अच्छा-बुरा घटता है कि कुछ सार्थक और प्रेरणादायक लिखने के लिए हमको अपनी कल्पना का सहारा लेने की ज़रुरत ही नहीं होती.

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  2. सारे शराबियों का कत्लेआम कर डालोगे मतलब। ऐसे एक नहीं कई किस्से है। हमारे कैम्पस में भी कई विधवाएं आज चैन से खा रही हैं। शराबी पण्डित जी फ़िलम बन सकती है। सुन्दर कथा।

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    1. मित्र, मस्ती के लिए पीना एक बात है और अपनी बदकिस्मती लाने तक पीना दूसरी बात है.
      पीने वाले को इतनी तो कभी नहीं पीनी चाहिए कि उसकी सधवा ख़ुद ही विधवा होने की दुआ करने लगे.

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  3. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (19-07-2021 ) को 'हैप्पी एंडिंग' (चर्चा अंक- 4130) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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    1. 'हैप्पी एंडिंग' (चर्चा अंक - 4130) में मेरे संस्मरण को इतने प्यार से सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी.

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  4. अच्छी कहानी। सुखांत!--साधुवाद!

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  5. प्रशंसा के लिए धन्यवाद मर्मज्ञ - नो दि इनर सेल्फ़ !

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  6. भगवान करे सबके दिन फिरे। लेकिन कहते है न कि शुरवात हमसे हो...खैर, बहुत बढ़िया संस्मरण,गोपेश भाई।

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    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद ज्योति !
      मेरे ऐसे संस्मरण पढ़ कर मेरे जितने मित्र ख़ुश होते हैं, उन से कई गुने इस बात से खफ़ा रहते हैं कि मैंने अपनी कलम के सहारे उनकी पोल खोल कर सारी दुनिया तक पहुंचा दी.

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  7. अर्थपूर्ण कथा, प्रभावशाली लेखन व सुन्दर प्रवाह, साधुवाद सह।

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    1. मेरे संस्मरण की प्रशंसा के लिए धन्यवाद शांतनु सान्याल जी.

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  8. वाकई ये तो हैप्पी एंडिंग ही है । बहुत सुबदर संस्मरण

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  9. संस्मरण की तारीफ़ के लिए शुक्रिया संगीता स्वरुप (गीत) जी.
    सभी शराबी पंडितों की पंडिताइनें और उनके बेटे अगर अन्याय का यूँ ही मुक़ाबला करेंगे तो हर शराबी पंडित के घर में उसके जीते जी और उसके मरने के बाद भी, हैप्पी एंडिंग ही होगी.

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  10. उत्तर
    1. प्रशंसा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद संदीप कुमार शर्मा जी.

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  11. जैसे दुखी पंडित परिवार के दिन फिरे, भगवान करे उसके जैसे सभी दुखी परिवारों के दिन फिरें !’
    सही कहा सर ! हृदयस्पर्शी संस्मरण ।

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    1. संस्मरण की तारीफ़ के लिए शुक्रिया मीना जी.
      आमतौर पर ऐसी हैप्पी एंडिंग होती नहीं है. पंडित और पंडित का परिवार भाग्यशाली था कि उसे ऐसी हैप्पी एंडिंग का वरदान मिला.

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