हिंदी
दिवस, हिंदी पखवाड़ा आदि का नाटक हम 1960 के दशक से देखते और सहते आ रहे हैं. भारतेंदु
हरिश्चंद्र की पंक्ति -
'निज भाषा उन्नति अहै , सब उन्नति को मूल'
को सुन-सुन
कर तो हमे घर के पालतू तोते भी उसे गुनगुनाने में निष्णात हो गए हैं.
हिंदी
को भारत के माथे की बिंदी बताने की रस्म आज हिंदी भाषी क्षेत्र का बच्चा-बच्चा
निभा रहा है.
अल्लामा
इक़बाल के क़ौमी तराने की पंक्ति-
'हिंदी हैं, हम वतन हैं, हिन्दोस्तां हमारा'
का
अर्थ समझे बिना आज के दिन हिंदी भक्त उसे दोहराते आए हैं.
यहाँ
यह बता दूं कि इस पंक्ति में 'हिंदी'
का अर्थ है -
हिंद
का निवासी यानी कि हिन्दुस्तानी
यहाँ
हिंदी भाषा से इसका कोई लेना देना नहीं है.
भारतेन्दुकालीन
हिंदी नवजागरण में हिंदी के सर्वतोमुखी विकास का सार्थक प्रयास प्रारंभ प्रारंभ
हुआ.
हिंदी
को हिंदी की स्थानीय बोलियों और हिंदी साहित्य की प्रचलित भाषा – ब्रज भाषा से
कहीं ऊपर – शिक्षा राजकाज न्यायपालिका और व्यापार की भाषा बनाने के सार्थक प्रयास
प्रारंभ हुए.
फूट
डाल कर शासन करने की नीति अपनाने वाले अंग्रेज़ शासकों ने इसे इसे हिंदी-उर्दू और
हिन्दू-मुसलमान का आपसी झगड़ा बना दिया.
हिंदी-उर्दू
भाषाओँ के झगडे को देवनागरी लिपि और उर्दू-फ़ारसी लिपि का विवाद भी बना दिया गया.
कबीर
के शब्दों में कहें तो –
अरे
इन दोउन राह न पाई !
भाषा
और लिपि के इस विवाद ने भारत में अंग्रेज़ी भाषा के और रोमन लिपि के आधिपत्य को और
भी स्थायी बना दिया.
बहुत
कम हिंदी समर्थक यह मानते हैं कि मानक हिंदी,
उर्दू की ऋणी है.
भारतेंदु
के युग में जिस खड़ी बोली का विकास किया गया, द्विवेदी युग में जिसका परिष्कार
किया गया, उसका पहला पन्ना तो अमीर ख़ुसरो सात सौ साल पहले लिख चुके थे.
उन्नीसवीं
शताब्दी में उर्दू, हिंदी से बहुत आगे थी और हिंदी का हर प्रतिष्ठित विद्वान उन
दिनों उर्दू भाषा तथा उर्दू अदब का जानकार हुआ करता था.
स्वतंत्रता
के बाद हिंदी का ही क्या, सभी भारतीय भाषाओँ का जिस तरह विकास होना चाहिए था, वह नहीं हुआ.
हमारी
न तो कोई राष्ट्रभाषा बनी और न कोई राष्ट्र-लिपि बनी तथा व्यावहारिक दृष्टि से अंग्रेज़ी ही आक़ाओं की
ज़ुबान बनी रही.
1960 के दशक के हिंदी आन्दोलन को मुख्य
रूप से संभाला अवसरवादी नेताओं ने, जिन्होंने कि अपने बच्चों को
अंग्रेज़ी तालीम के लिए विलायत भेजने से कभी परहेज़ नहीं किया.
हिंदी
का विरोध करने वालों ने भी अपनी-अपनी भाषाओँ के विकास के स्थान पर निजी स्वार्थ और
हिंदी विरोध के नाम पर सत्ता हथियाने को ही वरीयता दी.
आज़ादी
के 74 साल बाद भी
हिंदी विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में प्रामाणिक मौलिक ग्रन्थ उपलब्ध कराने में अक्षम है.
आज भी
हिंदी भाषी क्षेत्रों में न्यायालयों की भाषा आमतौर पर अंग्रेज़ी ही है.
लोकसभा
राज्यसभा ही क्या सभी जन-प्रतिनिधि सभाओं में होने वाली कार्रवाई में अंग्रेज़ी
बोलने वालों का ही दबदबा रहता है.
हिंदी
की इस दुर्दशा के लिए हम हिंदीभाषी ही मुख्यतः ज़िम्मेदार हैं. आमतौर पर हम हिंदी
भाषी केवल एक भाषा जानते हैं लेकिन अन्य भाषाभाषियों से यह अपेक्षा करते हैं कि वो
हिंदी सीखें.
मेरी
दृष्टि में हिंदी का विकास करने के लिए हमको किसी भी भाषा से कुछ भी अच्छा लेने से
परहेज़ नहीं करना चाहिए.
सिर्फ़
हिंदी जानने वाले हिंदी का समुचित विकास नहीं कर सकते.
भाषा
को धर्म से जोड़ने की ग़लती भी हिंदी का नुक्सान कर रही है.
प्रसाद-पन्त
की जैसी शुद्ध-प्रांजल संस्कृत निष्ठ हिंदी को अपना कर हम हिंदी का भला नहीं कर
सकते.
अगर
हमारी भाषा में उर्दू, पंजाबी, तेलगु, मराठी आदि भारतीय भाषाओँ के ही क्या, अंग्रेज़ी के शब्द भी आ जाएं तो क्या हानि है?
ऐसा
करने से हमारी भाषा समृद्ध ही होगी,
दरिद्र नहीं !
तकनीकी
और वैज्ञानिक शब्दावली में हमको विदेशी भाषाओँ के प्रचलित शब्दों का प्रयोग करने
में कोई संकोच नहीं करना चाहिए.
‘ऑक्सीजन’- को – ‘ओशोजन’और - ‘नाइट्रोजन’को – ‘नत्रजन’कह कर हम हिंदी की सेवा नहीं कर रहे हैं, बल्कि उसे दुरूह बना कर उसे हानि ही पहुंचा रहे हैं.
आज
हमने देवनागरी लिपि में नुक्ते का प्रयोग कम कर के उसे उर्दू से बहुत दूर कर दिया
है.
हम
हिंदी भाषा को और देवनागरी लिपि को अधिक समर्थ बनाने का, उन्हें अधिक लचीली बनाने का प्रयास करें, न कि उन्हें एक सीमित दायरे में बाधें.
हिंदी
को गंगा की तरह होना चाहिए जो कि सभी नदियों का जल ख़ुद में मिलाने में कभी संकोच
नहीं करती है.
अध्यापन
में सारी उम्र बिताने के बाद मैं तो इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि फ़िलहाल भारत में
तरक्की करने के लिए नई पीढ़ी को अंग्रेज़ी तो सीखनी ही पड़ेगी और अगर हो सके तो कोई
अन्य भाषा जैसे चीनी या जापानी भी कोई सीख ले तो उसे आगे बढ़ने से फिर कोई नहीं रोक
सकता.
हिंदी
की विशेषता गिनाते समय हमको यह नहीं भूलना चाहिए कि सिर्फ़ हिंदी का ज्ञान हमको सफल
नेता तो बना सकता है लेकिन अन्य क्षेत्रों में हमारा पिछड़ना तय है.
हमारे
जैसे हिन्दीभाषी बुद्धिजीवी भी आमतौर पर कोई अन्य भारतीय भाषा नहीं जानते.
क्या
यह हमारे लिए शर्म की बात नहीं है
तामिल, बांग्ला जैसी महान भाषाओँ के अमर ग्रंथों को हम उनके मूल
रूप में तो पढ़ ही नहीं सकते.
यह
सही है कि हिंदी का विकास हो रहा है किन्तु वह बाज़ार की आवश्यकताओं के कारण हो रहा
है हमारे प्रयासों के कारण नहीं !
हिंदी
के विकास में मुम्बैया फ़िल्मों का योगदान भी नकारा नहीं जा सकता. लेकिन इस पर हम
हिन्दीभाषी कैसे गर्व कर सकते हैं?
हमने
हिंदी को सक्षम बनाने के लिए अपनी तरफ़ से कुछ भी नहीं किया है.
मुझे
हिंदी बोलने में शर्म नहीं आती लेकिन मुझे हम हिंदी भाषियों की काहिली पर, हमारी हठवादिता पर बहुत शर्म आती है.
हिंदी
दिवस को, हिंदी पखवाड़े को, हम हिंदी युग तो तभी बना पाएंगे जब
हम इमानदारी से उसके विकास के लिए प्रयास करेंगे.
और जब
तक हम ऐसा नहीं करेंगे तब तक एक दूसरे को हिंदी दिवस की, हिंदी पखवाड़े की, बधाई देकर अपना मन बहला लेंगे और
हिंदी की सेवा करने का ख़ुद को श्रेय देकर अपनी पीठ थपथपा लेंगे.
हिंदी-दिवस
पर एक बार फिर मेरी पुरानी रचना –
1. कितनी
नक़ल करेंगे, कितना
उधार लेंगे,
सूरत
बिगाड़ माँ की, जीवन
सुधार लेंगे.
पश्चिम
की बोलियों का, दामन
वो थाम लेंगे,
हिंदी
दिवस पे ही बस, हिंदी
का नाम लेंगे.
2. जिसे
स्कूल, दफ्तर
से, अदालत
से, निकाला
था,
उसी
हिंदी को अब, घर
से और दिल से भी, निकाला है.
तरक्क़ी
की खुली राहें, मिली
अब कामयाबी भी,
बड़ी
मेहनत से खुद को, सांचा-ए-इंग्लिश
में ढाला है.
3. सूर
की राधा दुखी, तुलसी
की सीता रो रही है,
शोर
डिस्को का मचा है, किन्तु
मीरा सो रही है.
सभ्यता
पश्चिम की, विष
के बीज कैसे बो रही है,
आज
अपने देश में, हिन्दी
प्रतिष्ठा खो रही है.
4. आज
मां अपने ही बेटों में, अपरिचित
हो रही है,
बोझ
इस अपमान का, किस
शाप से वह ढो रही है.
सिर्फ़
इंग्लिश के सहारे, भाग्य
बनता है यहां,
देश
तो आज़ाद है, फिर
क्यूं ग़ुलामी हो रही है.
5. 'निराला को कभी जो एक
कुटिया तक न दे पाई,
वही
बे-बेबस, भिखारन, बे-सहारा, है
मेरी हिंदी !'
किसी
वृद्धाश्रम में, ख़ुद
उसे, अब
दिन बिताने हैं,
किसी
के भाग्य को अब क्या संवारेगी, मेरी हिंदी !