सतयुगी ऋषियों की कामना –
न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम् ।
कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम् ॥
(हे प्रभु! मुझे राज्य की कामना नही, स्वर्ग-सुख की चाहना नहीं तथा मुक्ति की भी इच्छा नहीं . मेरी एकमात्र इच्छा यही है कि दुख से संतप्त प्राणियों का कष्ट समाप्त होेजाए.)
कबीर जैसे संतों-फ़कीरों की कामना –
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।
(सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े)
आज के संतों, बाबाओं और नेताओं की कामना -
दाता इतना दीजिए, सम्बन्धी गश खायं,
मित्र, पड़ौसी, रोज़ ही भीख मांग कर खायं.
खून-पसीना एक कर, दमड़ी भी ना पायं,
जल-भुन कर हमसे सभी, तड़प-तड़प मर जायं.
बहुत ही सुंदर कटाक्ष, गोपेश भाई। आजकल ऐसा ही हो रहा है।
जवाब देंहटाएंज्योति, संत, महात्मा और नेता बनने के लिए आस-पास के लोगों की कुर्बानियां तो देनी ही पड़ती हैं.
हटाएंसटीक, सार्थक तथा समसामयिक ।
जवाब देंहटाएंउदार आकलन के लिए धन्यवाद जिज्ञासा !
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