रविवार, 14 नवंबर 2021

पॉकेटमनी

 (बाल-दिवस पर मेरी एक कहानी प्रस्तुत है.

1990 के दशक के मध्य में लिखी गयी यह कहानी मैंने अपनी बड़ी बेटी गीतिका के मुख से कहलवाई है.
कहानी तो मेरी लिखी हुई है लेकिन इसमें अनुभव एक 12 साल की बच्ची के ही हैं.)
पॉकेटमनी -
पॉकेटमनी का हमने नाम तो बहुत सुना था पर सात साल की उम्र पार करने पर भी हमने उसे छू कर कभी नहीं देखा था.
हाँ ! बुआजी- ताऊजी लोगों के घर कभी हमारा जाना होता था तो वहाँ दीदियाँ और भैया लोग अपने पॉकेटमनी से हम दोनों बहनों को छोटी-मोटी ट्रीट ज़रूर दिया करते थे.
ऋचा दीदी तो कभी प्रज्ञा दीदी अपने छोटे-छोटे पर्सों में से नोट निकालतीं और फूँक मारते ही आइसक्रीम कोन्स हमारे हाथ में होते. कभी तनु भैया हमारे पोइट्री रिसाइटल से ख़ुश होकर हमको रुपये का एक पत्ता देकर हमसे कहते –
हमारे जयंत भैया और तनु भैया तो हमारे बड़े होने से पहले ही कमाऊ हो गए थे और जब-तब इनाम-इकराम से हमको मालामाल करते रहते थे.
हम अच्छे बच्चे बनकर भैयाओं और दीदियों की सेवा में लगे रहते थे.। दीदियों में से अगर कोई भी पानी माँगता तो हम दोनों ही बहनें एक साथ गिलास लेकर हाजि़र हो जाती थीं.
भैया लोगों से भी ट्रीट लेने के लालच में हम लोग उनकी फ़रमाइशें पूरी करने में जुटे रहते थे.
सुना था कि भैया और दीदी लोग अपनी पसन्द के कपड़े भी अपनी पॉकेटमनी से ही खरीदते थे.
पॉकेटमनी की ताकत हमको पता चल चुकी थी पर हमारे मम्मी-पापा को यह ख़बर ही नहीं थी कि उनकी बच्चियाँ बड़ी हो चुकी हैं और उनके हाथ अब उनकी जेब या पर्स तक पहुँचने लायक हो चुके हैं.
यूँ तो मम्मी-पापा हमारे लिए खूब सामान लाते थे.
बाज़ार में भी अक्सर हमारी फ़रमाइशों को पूरा किया जाता था पर उन्हें पूरी किए जाते समय हर बार हमको उपदेश की भारी डोज़ भी हज़म करनी पड़ती थी.
मम्मी कहती थीं –
‘ मिठाई खाने की वजह से फ़ंला-फ़ंला लड़की के दाँतों में कैविटी हो गई. आइसक्रीम खाने से फ़लां-फ़ंला लड़के के टान्सिल्स बढ़ गए.’
ऐसी बातें तो हम बर्दाश्त कर भी लेते पर गोलगप्पे जैसी भोली और मासूम चीज़ को जब भला-बुरा कहा जाता तो हम आपे से बाहर हो जाते थे.
मम्मी-पापा के साथ बाज़ार में घूमते समय हम दोनों बहनों की नज़र दुकानों के शो-केसेज़ पर रहती थी.
विण्डो शॉपिंग में हम माहिर थे. क्या मजाल कि किसी भी दुकान का कोई भी माल हमारी पारखी नज़़रों से छूट जाए.
हमारी शराफ़त थी कि हम सौ-दो सौ आइटम्स में से सिर्फ़ दस-बारह की ही फ़रमाइश करते थे पर फ़ौरन ही पापा के पैट डायलाग्स हमको सुनाई देते थे –
‘ ये तो घर पर पहले से ही मौजूद है. ये तो टोटली अनहाइजिनिक है, वगैरा, वगैरा.’
उधर मम्मी रागिनी के रिमाइन्डर्स से उक्ता कर फ़रमाइशी आइटम की बुराइयाँ बताना शुरू कर देतीं और साथ में उनका मैनर्स, डिसिप्लिन, बजट और बचत पर ज़ोरदार लेक्चर भी शुरू हो जाता.
मम्मी इकॉनामिक्स की स्टूडैन्ट तो कभी नहीं रही हैं पर बजट पर लम्बा भाषण देना उन्हें बहुत अच्छा लगता है.
ऐसा लेक्चर देते समय अगर मम्मी के सर पर पगड़ी और चेहरे पर दाढ़ी-मूँछ लगा दी जाए तो वो बिल्कुल डॉक्टर मनमोहन सिंह लगेंगी (तत्कालीन वित्तमंत्री).
पॉकेटमनी के सपने देखते-देखते मैं पापा की शर्ट की पॉकेट तक और रागिनी उनकी पैन्ट की पॉकेट तक पहुँच गईं पर वो हमारे हाथ नहीं आया.
जन्मदिन हम बच्चों के लिए हज़ार ख़ुशियाँ लेकर आता है.
इस दिन हमको वीआईपी ट्रीटमेंट मिलता है, मम्मी-पापा हमारे लिए अलादीन का मिनी चिराग हो जाते हैं और हमारी बड़ी नहीं तो कम से कम छोटी-मोटी ख़्वाहिशें ज़रूर पूरी करते हैं.
मेरे दसवें जन्मदिन पर मम्मी मेरे और अपने दोस्तों को बुलाकर पार्टी देना चाहती थीं पर मैंने इसके बदले में बच्चों के लिए पॉकेटमनी ग्रान्ट किए जाने की डिमाण्ड कर डाली.
रागिनी ने भी मेरे सुर से अपना सुर मिला लिया. चार महीने बाद उसका भी तो आठवाँ जन्मदिन आना था.
आश्चर्य कि मम्मी ने उस दिन बड़े धैर्य के साथ हम बहनों की डिमाण्ड सुनी.
पापा भी उस दिन बहुत अच्छे मूड में थे.
हुर्रे ! उन्होंने हमारी बरसों से चली आ रही पॉकेटमनी दिए जाने की डिमाण्ड को स्वीकार कर लिया.
पापा चाहते थे कि महीने में पचास-पचास रुपये देकर हम दोनों बहनों को निहाल कर दिया जाए.
पॉकेटमनी में दस-दस रुपयों के एनुअल इन्क्रीमेंट का सुझाव भी रखा गया पर सरप्राइज़िन्गली इस बार मम्मी थोड़ी उदार हुईं और उन्होंने सत्तर-सत्तर रुपये के पॉकेटमनी का ऑफर दे डाला. इधर हमारी डिमाण्ड दो-दो सौ रुपयों से नीचे नहीं आ रही थी उधर पापा मम्मी की दरियादिली के लिए उन्हें डाँट पिला रहे थे.
बहस के दौरान पापा ने शेव करते हुए रेज़र से अपना चार बूँद ख़ून बहा दिया और मम्मी ने गैस पर रखे दूध को उफ़न जाने दिया पर हम थे कि हैण्डसम पॉकेटमनी की डिमाण्ड पर अड़े हुए थे.
आखि़रकार दोनों पक्षों के बीच सौदेबाज़ी शुरू हुई.
काफ़ी हो-हल्ले और हाय-हाय के बाद मामला सौ- सौ रुपये महीने पर तय हुआ.
मम्मी ने दो शानदार पर्स हमको पॉकेटमनी रखने के लिए भेंट किए.
जब मम्मी ने हमारे लिए बर्थ-डे बोनस और एक्ज़ाम्स में अच्छे मार्क्स लाने पर एक्स्ट्रा इन्सेटिव का ऐलान किया तो हमको एहसास हुआ कि ऊपर से बड़ी सख़्त दिखने वाली हमारी घरेलू डॉक्टर मनमोहन सिंह का दिल नारियल की तरह से ऊपर से कड़ा और अन्दर से नरम है.
अपने पर्सों में दस-दस रुपयों के दस-दस नोट देखकर हम फूले नहीं समा रहे थे.
मैं अगर राष्ट्रपति होती तो उसी वक़्त मम्मी-पापा दोनों को ही भारत रत्न की उपाधि से सम्म्मानित कर देती पर फि़लहाल तो उनके गले लग कर और थैंक्यू कह कर हमने काम चला लिया.
अब हम बड़े हो गए थे, अपनी मर्ज़ी के ख़ुद मालिक थे.
‘ पापा प्लीज़ ये दिला दीजिए ! और मम्मी हमको ये लेना है या वो लेना है ’ के दिन बीत गए थे.
अब हम बहनों के पास अपने-अपने अलादीन के चिराग थे जिनमें हर महीने तेल के बदले में सौ-सौ रुपये डाल दिए जाते थे.
हमने पॉकेटमनी को लेकर सुनहरे सपने देखने शुरू कर दिए.
अपनी बर्थ-डे को सेलीब्रेट करने के लिए मैं रागिनी को लेकर फ़ौरन मार्केट
के लिए निकल पड़ी. पर पहली शॉपिंग ही हमको भारी पड़ गई.
दस-दस रुपयों की मिनी चाकलेट्स खरीदकर हमारा तो दिल खट्टा हो गया. आखि़र इन जले दूध की दाँत खराब करने वाली तीस-तीस ग्राम की चाकलेट्स पर हम एक बच्चे अपना तीन दिन का पॉकेटमनी क्यों ख़र्च करें?
इनसे अच्छी तो मम्मी की बनाई घरेलू बर्फ़ी होती है.
आइसक्रीम कोन्स खरीदने में तो हमारे बीस रुपये और खर्च हो गए. हमने फ़ौरन ही अपनी आगे की शॉपिंग रोक दी.
चालीस रुपये फूँक कर भी हमारा न तो पेट भरा था और न ही हमारा मन.
एक घण्टे में ही हम दोनों वापस घर आ गए.
मम्मी-पापा ने हमको इतने जल्दी घर वापस आते देखकर कुछ कहा तो नहीं पर दोनों एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराने ज़रूर लगे.
हमारा मन तो फ़्यूज़ बल्ब जैसा हो गया था.
हम अगर कवि होते तो इस मौके पर कोई दर्द भरा गीत ज़रूर लिख डालते.
सन्तों ने कहा है -
‘ जब आवै सन्तोस धन, सब धन धूरि समान’
हमने भी अपने-अपने मन को मार कर इस संतोष धन को अपना लिया. हम अपने मन को कुछ इस तरह समझाया करते थे –
‘ गाँधीजी चाकलेट नहीं खाते थे फिर भी राष्ट्रपिता बन गए.
लताजी आइसक्रीम नहीं खातीं फिर भी स्वर-कोकिला कहलाती हैं.
पोटैटो चिप्स खाने से बच्चे मोटे हो जाते हैं.
नैपोलियन को गोलगप्पों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी फिर भी वो इतना बड़ा एम्परर बन गया.
घर के बने सादे और पौष्टिक भोजन के सामने चाकलेट, वैफ़र्स, आइसक्रीम, पिज़्ज़ा, मिठाई, चाट, पकौड़े सब तुच्छ हैं.’
हमको तो अब बाज़ार में नाहक घूमना भी बेवकूफ़ी लगने लगी थी –
‘ विण्डो शॉपिंग करना कहाँ की अक्लमन्दी है?
इससे तो अच्छा है कि हम मदर नेचर की ब्यूटी का आनन्द लें.
अल्मोड़ा कैन्टुनमेन्ट की ठन्डी और एकान्त सड़क पर घूमने का सुख लूटें, साथ में अपनी सेहत भी बनाएँ और छुट्टियों में पापा के साथ डोली डांडा के मन्दिर तक का लाँग वाक करके धर्म-लाभ करें.
अल्मोड़ा से बाहर जाने पर कोई हिस्टारिकल प्लेस देखें या किसी चिल्ड्रेन्स पार्क में घूमें.’
हम दोनों बहनों को मिले इस नए ज्ञान से मम्मी-पापा इम्प्रैस्ड होने के बजाय कभी-कभी तो ही ही करके हँस देते थे तो कभी हमारी भावनाओं को चोट न पहुँचाने का ख़याल करके सिर्फ़ मुस्कुरा देते थे.
हमने कन्जूसी अपनाते हुए अपनी जमा-पूँजी में अच्छी-ख़ासी बढ़ोत्तरी कर ली थी पर मम्मी के आने वाले बर्थ-डे ने हमारी रातों की नींद उड़ा दी थी.
मम्मी के बर्थ-डे के आठ दिन बाद ही पापा का बर्थ-डे भी आता है. पॉकेटमनी पाने वाले ज़िम्मेदार बच्चों को अपने मम्मी-पापा के बर्थ-डे पर अच्छे-अच्छे तोहफ़े तो देने ही चाहिए थे.
रागिनी ने मुझसे पूछा –
‘ दीदी ! मम्मी के मेकअप बॉक्स और पापा के लिए पार्कर का पैन सैट कैसा रहेगा?’
मैंने जवाब दिया –
‘ इसमें तो कमसे कम तीन-चार सौ रुपये का ख़र्चा जाएगा.
बी प्रैक्टिकल रागू !
मम्मी-पापा के लिए हमारा प्यार क्या गिफ़्ट्स की कीमतों से नापा जाएगा?
मम्मी को एक अच्छी सी लिपिस्टिक और पापा को एक अच्छा सा बाल पेन देकर भी अपना प्यार जताया जा सकता है.’
मम्मी अपनी लिपिस्टिक पाकर और पापा अपना बाल पेन का सैट पाकर हमसे बहुत ख़ुश हुए और उन्होंने रिटर्न गिफ़्ट्स में हमको एक-एक वीडियो गेम देकर हमारी बड़ी पुरानी हसरत पूरी कर दी.
पर मम्मी-पापा के लिए हम बच्चों के जन्मदिनों पर प्रैक्टिकल होने की कोई ज़रूरत नहीं थी.
रागिनी का जन्मदिन पापा के जन्मदिन के दो दिन बाद ही पड़ता है. उसने अपने फ़रमाइशी आइटमों की एक लम्बी लिस्ट पापा को थमा दी.
पॉकेटमनी लेते हुए हमको दो साल बीत गए हैं.
एनुअल इन्क्रीमेंट्स और इन्फ़्लेशन का हिसाब करके हमारा पॉकेटमनी अब एक सौ चालीस रुपया कर दिया गया है.
पर हमारी परचेजि़ंग पावर ज्यों की त्यों है बल्कि कहें तो पहले से थोड़ी कम ही हुई है.
ऊपर से बाज़ार में बच्चों को लुभाने वाले नए-नए हाइटैक गैजेट्स और आ गए हैं जिनकी कि कीमत रुपयों में नहीं बल्कि डालर्स और पोंड में आँकना ज़्यादा आसान पड़ता है.
हर जगह हमारा संतोष धन वाला नुस्खा भी काम नहीं आता है.
आखि़र दिल तो दिल ही है कभी-कभी मँहगी चीज़ों पर भी आ जाता है. अब हमने अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए नए तरीके अपना लिए हैं.
महीने के आखि़री दिनों में मम्मी-पापा को हम अपनी बचत में से ज़बर्दस्ती उधार देते हैं और अगले महीने के शुरू में ही उस पर पापा से मूलधन समेत भारी ब्याज वसूल कर लेते हैं.
बड़े-बूढ़े सिर्फ़ आशीर्वाद देने के लिए नहीं होते हैं.
उन्हें हम बच्चों को गिफ़्ट्स वगैरा भी देनी चाहिए, आखि़र हम उनकी इतनी इज़्ज़त जो करते हैं.
अम्मा, बाबा, नानाजी, नानी कम से कम हमारी विदाई पर ऐसे नियमों का पालन ज़रूर करते हैं पर और बड़े इन मामलों में ज़्यादा पर्टीकुलर नहीं हैं.
हम तोहफ़ों के कम्पैरिज़न में नकद-नारायण को ज़्यादा इम्पौर्टेन्स देते हैं पर ये बात हम मम्मी-पापा और अम्मा-बाबा के अलावा किसी से नहीं कह पाते.
पापा की पॉलिसी है कि स्कूल में या उससे बाहर भी हम कोई प्राइज़ जीत कर लाते हैं तो वो अलग से हमको बोनस के रूप में कुछ न कुछ कैश देते हैं पर हमारे प्राइज़ेज़ जीतने की रफ़्तार उतनी नहीं है जितनी कि हमारे मन चलने की.
आजकल हम रेग्युलरली न्यूज़ पेपर पढ़ने लगे हैं और टीवी न्यूज़ भी देखने लगे हैं, ख़ास कर जनवरी और जुलाई के महीनों में हम ज़्यादा अलर्ट हो जाते हैं.
पापा के डी0 ए0 बढ़ने की ख़बर सबसे पहले हमको ही मिलती है.
पापा के एनुअल इन्क्रीमेंट की डेट तो हमको याद ही है.
मम्मी की फ़ैलोशिप का इनस्टॉलमेंट कब आ रहा है, इसकी जानकारी भी हमको रहती है.
सचमुच ! अपने मम्मी-पापा की तरक्की के लिए जितनी हम दुआएँ करते हैं, उतनी शायद ही कोई बच्चा अपने पैरेन्ट्स के लिए करता होगा.
साफ़ बात है कि इन सब बातों का हमारे पॉकेटमनी से और एक्स्ट्रा बोनस से सीधा सम्बन्ध है.
हमारी हरकतों से लोगों को लगता होगा कि हम पॉकेटमनी के मामले में थोड़े लालची हैं पर ऐसा बिलकुल भी नहीं है.
हमको गवर्नमेंट से शिकायत है कि उसने बच्चों के बैंक अकाउंट्स पर गार्जियन्स का पहरा बिठा रखा है और हमारे लिए एटीएम कार्ड्स की फ़ैसिलिटी भी प्रोवाइड नहीं की है.
हमको उम्मीद है कि जल्द ही गवर्नमेंट इन बच्चा-विरोधी कानूनों में बदलाव लाएगी.
हम भगवान से दुआ करते हैं कि मम्मी-पापा की डिक्शनरी में कम से कम हमारे लिए ‘ ना ’ शब्द गायब हो जाए और हमारे पॉकेटमनी का साइज़ वो इतना बड़ा कर दे कि उसे रखने के लिए पॉकेट्स के बजाए सूटकेसेज़ की ज़रूरत पड़े.

12 टिप्‍पणियां:

  1. वाह! बहुत बढ़िया संस्मरण, बालसुलभ मन को कितनी बारीकी से पढ़ा आपने, दोनों तो अब आप को पॉकेटमनी देती होंगी । रोचकता और मौलिकता भी है ।लगभग हर बच्चे को ऐसे दृश्य जीवन में आते होंगे । फिर बेटियां ही इतना सोचती हैं, बाल दिवस पर सुंदर संस्मरण । बहुत शुभकामनाएँ 💐💐🙏🙏

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  2. मेरी कहानी की तारीफ़ के लिए शुक्रिया जिज्ञासा.
    बेटियों से पॉकेटमनी तो हमको नहीं मिलता लेकिन हमारी हर मुश्किल को आसान बनाने में उनकी बहुमूल्य भूमिका होती है और उनके बच्चों का साथ तो हमारे लिए अनमोल होता है.

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  3. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (15 -11-2021 ) को 'सन्नाटा बाजार में, समय हुआ विकराल' (चर्चा अंक 4249) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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    1. 'सन्नाटा बाज़ार में समय हुआ विकराल' (चर्चा अंक - 4249) में मेरी बाल-कथा को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद रवींद्र सिंह यादव जी.

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  4. उत्तर
    1. मेरी कहानी की प्रशंसा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद अंकित जी.

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  5. यह प्रस्तुति दोबारा बचपन में ले गई। सुंदर रचना।

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    1. कहानी की प्रशंसा के लिए धन्यवाद मित्र !
      अपने बचपन की ऐसी खट्टी-मीठी यादें हमारे साथ भी साझा कीजिए.

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  6. मेरी बाल-कथा की प्रशंसा के लिए धन्यवाद विकास नैनवाल 'अंजान' जी.

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